प्रस्तावित राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ा वर्ग आयोग

Afeias
28 Apr 2017
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Date:28-04-17

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हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के स्थान पर राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ा वर्ग आयोग लाने का निर्णय लिया है। अभी इस बारे में खुलकर नहीं कहा जा सकता कि इसका गठन कब तक होगा या फिर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) से इसकी भूमिका कितनी अलग होगी। यह जरुर है कि सरकार ने NCBC से अलग इस संस्था के कार्यों के बारे में कुछ तस्वीरें पेश की हैं, जिन्हे जानकर लगता है कि राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ा वर्ग आयोग (NCSEBC) का स्वरूप थोड़ा सा भिé होगा।

  • सर्वप्रथम राष्ट्रीय, सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ा वर्ग आयोग एनसीबीसी की तरह कानूनी संस्था मात्र न होकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग की तरह ही एक संवैधानिक संस्था होगी। इससे भले ही इसकी कार्यप्रणाली पर कोई खास फर्क न पड़े, परंतु राजनैतिक दृष्टि से इसके परिणाम सार्थक होंगे। इसका निर्णय भी तभी किया जा सकेगा, जब यह पता लगे कि इसे लाने के पीछे सरकार की मंशा क्या है ?
  • अगर इसे लाने में सरकार की सोच पवित्र और सरल है, तो कोई हर्ज नहीं है। इसके लिए सरकार को संविधान के अनुच्छेद 338 और 338 ए में संशोधन करने होंगे। साथ ही उन अनुच्छेदों में भी संशोधन करने होंगे, जिनमें राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में निवास करने वाली जातियों, कबीलों एवं अन्य सामाजिक समूहों की सूची है, जिन्हें अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अंतर्गत रखा जाता है।
  • इस आयोग को लाने में अगर सरकार की सोच के पीछे राजनैतिक दांवपेंच है, तो इससे दो बड़े परिवर्तन होने की संभावना है। (1) अन्य पिछड़े वर्ग की सूची में सुधार का दायित्व सरकार की जगह संसद को दे दिया जाएगा। (2) वर्तमान में राज्यों को पिछड़े वर्ग की सूची बनाने का जो अधिकार है, वह उनसे छिन जाएगा।
  • अधिकतर लोगों का मानना है कि सरकार यही करना चाहती है। इसके पीछे एक बड़ा उद्देश्य छिपा हुआ है। वोट की दृष्टि से अपने फायदे के लिए जाट, मराठा, पाटीदार आदि जातियों का तुष्टीकरण करने वाले राजनैतिक दलों पर इससे लगाम कसी जा सकेगी। पिछड़ी जाति निर्धारित करने का अधिकार संसद के पास चले जाने से समय-समय पर पिछड़ी जाति का दर्जा देने के नाम पर होने वाले उन आंदोलनों पर रोक लग जाएगी, जिनके पीछे विरोधी दलों का हाथ होता है और वे उन आंदोलनों के परिणामों के प्रति आँखें मूंदें रहते हैं।
  • सरकार की ऐसी मंशा को देखते हुए प्रस्तावित आयोग का गठन बहुत ही पवित्र और कल्याणकारी माना जाएगा, क्योंकि इसमें “सामाजिक एवं शैक्षिक पिछडे़ वर्ग” को शामिल किया गया है। साथ ही आरक्षण की 50% की वर्तमान सीमा को भी बरकरार रखा गया है। समाज के पिछड़े वर्गों एवं उप-वर्गों को समान सुविधाएं प्रदान करने की दृष्टि से यह बहुत ही सकारात्मक कदम होगा।
  • दूसरी ओर, अगर कुछ अन्य रिपोर्ट पर गौर करें, तो ऐसा लगता है कि यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी कदम है। इसके माध्यम से सरकार संविधान के अनुच्छेद 366 में संशोधन करके ‘पिछड़ा वर्ग‘ की परिभाषा को बदलना चाहती है। वर्तमान में इस अनुच्छेद के उपभाग 24 और 25 में अनुसूचित जाति ओर जनजाति की एक पुरानी परिभाषा चली आ रही है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि पिछड़े वर्ग की परिभाषा में किसी प्रकार का मौलिक परिवर्तन करना कुछ जल्दबाजी में उठाया गया कदम होगा और यह सरकार के प्रस्तावित सामाजिक एवं शैक्षिक क्षेत्र से कुछ बाहर जाने वाली बात होगी।

इस प्रकार बिना विचारे, प्रयोगात्मक रूप से अपनाए जाने वाले एजेंडे से आरक्षण का विस्तार न केवल कुछ शक्तिशाली जातियों तक भी हो जाएगा, बल्कि उच्च वर्गों में आर्थिक रूप से पिछड़ों तक भी हो जाएगा। इससे शायद आरक्षण की सीमा को 50% से अधिक बढ़ाने की नौबत आ जाए। अगर ऐसा है, तो इससे शासक दल की सवर्ण एवं प्रबल जातियों पर प्रभाव जमाने की दूरदर्शी सोच साफ नजर आती है।

अगर प्रस्तावित आयोग के पीछे सरकार का मंतव्य साफ-सुथरा है, तो वह बढ़ती बेरोजगारी के विशाल सागर में आरक्षण के लघुद्वीप को बचाए रखने का काम करेगा। और अगर सरकार का मंतव्य महत्वकांक्षा से भरा है तो इसका सीधा प्रभाव अनुसूचित जाति और जनजाति पर पड़ेगा।आज तक कल्याणकारी योजना के नाम पर और पिछडेपन की भाषा में लपेटकर सामाजिक समुदायों के लिए चलाए जाने वाला आरक्षण एक धोखा मात्र सिद्ध हुआ है। सामाजिक भेदभाव और असमानता के मुद्दे पर सरकार के इस प्रयास को दोष नहीं दिया जा सकता। पहले भी ऐसे प्रयास किए जाते रहे हैं।

इंडियन एक्सपे्र्रस में प्रकाशित सतीश देशपांडे के लेख पर आधारित।

 

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