कार्पोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी के चार वर्ष

Afeias
26 Jul 2018
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Date:26-07-18

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कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सी एस आर) कानून को बने हुए लगभग चार वर्ष हो रहे हैं। इस दौरान यह कानून चाहे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उतना असरकारी न रहा हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि अधिक धनराशि उपलब्ध हो गई है, और निजी संस्थानों द्वारा वित्त पोषित सामाजिक निवेश के सभी पहलुओं में एक अंतर देखने में आ रहा है। के.पी.एम.जी. (पब्लिक एकांऊटिंग फर्म) प्रतिवर्ष भारत की 100 सर्वोच्च कंपनियों का ऑडिट करती है। इसकी एक रिपोर्ट के अनुसार कंपनी अधिनियम के अप्रैल, 2014 में लागू होने के बाद से सी एस आर के अंतर्गत काफी निधि दी गई है। यह राशि मुख्यतः शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दी गई है।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बहुत सी कंपनियां 2% से भी अधिक धनराशि सामाजिक कार्यों में लगा रही हैं। पूर्व के वर्षों की तुलना में पिछले वर्ष अधिक धन दिया गया है। इसका दायरा अलग-अलग कमज़ोर राज्यों के साथ-साथ पूरे देश में फैला था। कई धनी राज्यों की परियोजनाओं में सीएसआर की धनराशि 32% है, जबकि मणिपुर, त्रिपुरा, दमन और दीव, जैसे कमजोर राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 10 परियोजनाओं से भी कम को सीएसआर का सहयोग मिल पाया है। अधिकांश कंपनियां उन क्षेत्रों में ही धन लगाती हैं, जिनमें उनकी विशेषज्ञता और संचालन-क्षमता होती है। के पी एम जी के अनुसार 71% कंपनियां यही नीति अपनाती हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि अधिकतर कंपनियां अपना सीएसआर प्रयास गैर-लाभकारी संगठनों के माध्यम से करती हैं।

डुईंग गुड इंडेक्स (DGI)

द सेंटर फॉर एशियन फिलैन्थ्रोफी एण्ड सोसायटी (CAPS) ने हाल ही में एक अनोखा सर्वेक्षण किया है, जो ‘डुईंग गुड इंडेक्स‘ के नाम से जाना जाता है। इस सर्वेक्षण में निजी सामाजिक निवेश को सक्षम बनाने और उनमें बाधा डालने वाले तत्वों पर प्रकाश डाला गया है। इससे कई ऐसी दरारों का पता चलता है, जो परोपकार के कामों में रुकावट बनती हैं।

‘डुईंग गुड इंडेक्स‘ के अनुसार लगभग 100 विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जो परोपकार अलाभकारी प्रबंधन और सामाजिक उद्यमिता की शिक्षा दे रहे हैं। दरअसल, ऐसे शिक्षण संस्थाओं की बहुत अधिक आवश्यकता उन कंपनियों को है, जो सीएसआर प्रयासों में जुटी हैं। अनेक गैर-सरकारी संगठनों को भी इनके विद्यार्थियों की जरूरत होती है। इसके बावजूद 72% संस्थाओं के पास स्टाफ की कमी है। दूसरी ओर, 41% संगठनों के पास बोर्ड में बैठने लायक कार्पोरेट अनुभव वाले व्यक्ति की कमी थी। समस्या वहीं आती है, जब आलमकारी संस्थाओं के पास सीएसआर का प्रबंधन करने के लिए कुशल व्यक्ति नहीं होते। अतः सीएसआर कानून ने कंपनियों को प्रबंधन के लिए अपनी रिपोर्ट में 5% प्रशासनिक शुल्क जोड़ने की छूट दे दी है।

अच्छा तो यही होगा कि कंपनियां ही अपने कर्मचारियों को टेक्निकल सहायता देने के लिए प्रोत्साहित करें, और वह भी शुल्करहित। ऐसे कामों में लगे कर्मचारी के समय को कंपनियों के 2% सी.एस.आर. में ही जोड़ा जाए। आर्थिक और तकनीकी संसाधनों के मेल से कंपनी द्वारा दिया गया दान वाकई सफल सिद्ध होगा। भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ सी.एस.आर. जैसा शुभ-कार्य किया जा रहा है। समय-समय पर मिलने वाले प्रयोगों से सीखकर इसे और भी प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में रतन एन टाटा और रूथ ए शेपिरो के लेख पर आधारित। 19 जुलाई 2018

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