कार्पोरेट प्रशासन में सुधार की आवश्यकता

Afeias
28 Jan 2020
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Date:28-01-20

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पिछले दिनों देश के कार्पोरेट क्षेत्र में ऐसी उठा पटक हुई है, जिसने बोर्ड सुधारों की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। कार्पोरेट प्रशासन और बोर्ड का नेतृत्व लगातार गलत कारणों से चर्चा में रहा है। टाटा समूह के बर्खास्त चेयरमैन को नेशनल कंपनी लॉ एपीलेट ट्रिब्यूनल, जिसे आम तौर पर एनक्लेट की तरह जाना जाता है, ने साइरस मिस्त्री को वापस समूह के चेयरमैन की तरह पदस्थ करने का आदेश दिया है। तत्पश्चात् उच्चतम न्यायालय ने एनक्लेट के इस आदेश पर रोक लगा दी है।

टाटा समूह के बहुसंख्यक शेयरधारकों ने मिस्त्री को पद से हटाए जाने का समर्थन किया था। इस विवाद से कार्पोरेट जगत के प्रबंधन और प्रशासन को लेकर अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं।

1) जब अधिकांश शेयरधारकों ने चेयरमैन को पद से हटाए जाने का समर्थन किया है, तब अन्य यानी अल्पमत   में रहे शेयरधारकों की क्या कोई सुनवाई नहीं होगी ?

2) एक चेयरमैन, जिसको उसकी ही कंपनी बर्खास्त करना चाहती है, की क्या प्रभावशीलता है ?

3) जब कंपनी किसी सूचना पर कानूनी विशेषाधिकार प्राप्त करने की कोशिश कर रही है, ऐसी स्थिति में बर्खास्त चेयरमैन अपने काम को अच्छी तरह से करने के लिए शीर्ष स्तर की कंपनी के डेटा के लिए कैसे निजता प्राप्त कर सकता है ?

4) वर्तमान रूप से पदस्थ चेयरमैन का क्या होगा ?

एनक्लेट का आदेश संपूर्ण कार्पोरेट जगत में भ्रम पैदा करने वाला है।

* भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कोटेक समिति की सिफारिश पर 31 मार्च, 2020 तक सभी शीर्ष कार्पोरेशन को अपने चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर की भूमिका को पृथक करने के निर्देश जारी किए हैं। अधिकांश विकसित देशों में यही प्रथा है, और भारत भी इसका अनुसरण करके भारतीय कार्पोरेट जगत के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाना चाहता है। 500 से अधिक भारतीय कंपनियों ने इसके अनुपालन का कड़ा विरोध किया है।

ये दोनों प्रकरण एक ही धागे से जुड़े हुए हैं।

बोर्डरूम मॉडल में बोर्ड के अध्यक्ष का पद सार्वभौमिक रूप से प्रचलित है, परंतु व्यवहारिक रूप से इसमें भिन्नता है। अधिकांश विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बोर्ड का पद किसी ऐसे व्यक्ति के अधिकार में होता है, जो बोर्ड का नेतृत्व करता है, और इसकी स्थिति स्वतंत्र होती है। यह प्रशासन में अपनी भूमिका के प्रति लोगों को आश्वस्त करता है, और मुख्य कार्यकारी के साथ मिलकर निदेशकों को बहाल करने के लिए प्रवक्ता और अंतर-मध्यस्थ के रूप में काम करता है।

भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के व्यापारिक घरानों में बोर्ड चेयरमैन का चेहरा अलग है। यहाँ अधिकतर संस्थापक परिवार का कोई सदस्य ही चेयरमैन होता है, और वह चाहे तो घरेलू खर्चों को भी कंपनी के खर्च में शामिल करवा सकता है। अतः इस देश में यह पद पितृसत्तात्मक परंपरा की तरह चलता चला आ रहा है। यहाँ अल्पसंख्यक हितधारकों को एक किनारे कर दिया जाता है। कंपनी के हित की अनदेखी कर दी जाती है। यहाँ इस बात में भेद करना मुश्किल है कि कोई कदम कंपनी के हित के लिए उठाया जा रहा है, या चेयरमैन के हित के लिए। यही कारण है कि सेबी की सिफारिशों से परहेज किया जा रहा है। इस प्रथा के रहते भारत के कार्पोरेट को प्रगतिशील नहीं बनाया जा सकता।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में प्रकाशित एम मुनीर और राल्फ वार्ड के लेख पर आधारित। 14 जनवरी, 2020

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