लोकतांत्रिक श्वासे खोता भारत

Afeias
29 Jan 2020
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Date:29-01-20

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भारत की सीमा से लगे देशों के सिविल समाज के सदस्यों के लिए यह अत्यंत मुश्किल घड़ी है, जब वे तर्क, बहुलवाद और यहाँ तक कि मानवता के स्तर पर भी भारतीय सरकार से कोई अपील नहीं कर सकते हैं। अतीत में कभी भी जब भारतीय सरकार ने किसी अपील पर ऐसा रवैया अपनाया था, तो उस तक अपनी बात पहुँचाने के रास्ते हुआ करते थे। आज एक प्रकार का मौन है, जिसने न केवल भारत की आत्मा को कमजोर कर दिया है, बल्कि दक्षिण एशिया में शांति के प्रयासों को भी ध्वस्त कर दिया है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में साहसिकता दिखाई थी। परंतु अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने हिंदुत्व के बैनर तले बहुसंख्यक असहिष्णुता के माध्यम से भारत का चेहरा बदलने का इरादा कर लिया है। इस कदम ने न केवल अल्पसंख्यक समुदाय में भय व्याप्त किया है, बल्कि भारत का आर्थिक पतन किया है, और भारत के अंतराष्ट्रीय प्रभुत्व पर भी प्रभाव डाला है।

एक भूराजनैतिक त्रुटि

दिसंबर माह में नागरिकता संशोधन विधेयक लाने के साथ ही गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने घरेलु तुष्टीकरण के लिए एक ही झटके में ढाका और काबुल के मैत्रीपूर्ण संबंधों से खुद को दूर कर लिया। और इस्लामाबाद से संबंधों की खाई को और गहरा कर दिया।

दक्षिण एशिया के प्रमुख देशों में से कोई भी भेदभाव से मुक्त नहीं है। अतः हमारी सरकार की नियत, निश्चित रूप से पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों की भलाई की नहीं थी, क्योंकि वास्तव में इन्हें अधिनियम के द्वारा अधिक असुरक्षित बना दिया गया है। 1951 के शरणाथियों पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का हिस्सा बनना, और उस आधार पर शरण लेने वाले किसी भी विश्वास या मत के विदेशियों को शरण देने का दृष्टिकोण भारत के लिए उचित होता। धर्म के आधार पर गैर-नागरिकों के बीच भेद करना अनुचित था।

पड़ोसी देशों के मानवाधिकारी और बुद्धिजीवियों के लिए एक अजीब स्थिति बन गई है। सीएए को चुनौती देते हुए वे समावेश को बढ़ावा देने की मांग करें या भारत में मुसलमानों को समान-अवसर दिए जाने की मेजबानी करें। फिर भी, किसी को तो भारत के इस कदम को चुनौती देनी चाहिए, जिसने अलग-अलग संप्रदाय के गैरमुसलमानों की बड़ी संख्या को नजरअंदाज कर दिया, जो सांप्रदायिक संघर्ष से पीड़ित थे। इनमें पाकिस्तान के अहमदिया, शिया और हजारा, बांग्लादेश के अहमदिया और बिहारी मुसलमान शामिल हैं। इसी कड़ी में श्रीलंका के तमिल शरणाथियों और म्यांमार के रोहिंग्या को कैसे भूला जा सकता है ?

वास्तव में, सीएए को अपनाया ही इसलिए गया है, क्योंकि इस विचारधारा के लोग न केवल आधुनिक भारत बल्कि संपूर्ण ‘जम्बूद्वीप‘ को हिन्दुओं की भूमि समझते हैं। इस राजमार्ग पर सरपट दौडने वालों का मानना है कि उत्तर-पश्चिम के आक्रमणकारियों ने हिंदू उपमहाद्वीप को कब्जे में कर लिया था। और अब नागरिकता संशोधन कानून के माध्यम से चलाई जा रही यह बहिष्करण परियोजना एक व्यापक वैचारिक ब्रशस्ट्रोक के साथ हिंदू धर्म की परिवर्तनशील विश्वास प्रणाली को चित्रित करना चाहती है। इसमें अध्यात्म की जगह आस्था लाद दी गई है। हिंदुत्व की इस गाड़ी में कई बाबा और देवता सवार हैं। इस प्रकार से भारत ने अपने सामाजिक ढांचे में परिवर्तन का एक अभियान सा चला दिया है, और इसमें निशाने पर मुसलमान हैं। यह अभियान कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने से शुरू हुआ, और अयोध्या मामले में भी चलता गया, जहाँ प्रमाणों पर लोगों की आस्था भारी सिद्ध हुई। सीएए को लागू करना और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर आदि इसी अभियान का हिस्सा हैं।

राजनीतिक शक्ति की भूख

निःसंदेह भारत 20 करोड़ मुसलमानों का घर है, और वे इसे छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। अगर हम इस अभियान की जड़ को देखें, तो राजनीतिक शक्ति की कभी न खत्म होने वाली भूख के अलावा वहाँ और कुछ नहीं मिलेगा। मोदी और शाह ने जिन्ना की दो राष्ट्र नीति का अक्षरशः पालन किया है, जिसने भारतीय मुसलमानों को भावनात्मक रूप से निचोड़ दिया है।

अतिराष्ट्रवाद की जनवादी धारणा के इस दौर में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक सभ्यता, और आधुनिक गांधीवादी विरासत को तो जलवायु परिवर्तन और परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे मुद्दों पर लोकतांत्रिक अभियान चलाना चाहिए। एक भरोसेमंद समतावादी भारत को अंतरराष्ट्रीय प्रवास पर नेतृत्व करना चाहिए और निगरानी के लिए चेहरे की पहचान-तकनीक, एवं उइगर मुसलमानों के लिए यातना शिविर चला रहे चीन को चुनौती देनी चाहिए। इसके बजाय हमारा प्रशासन कर क्या रहा है ? वह मुस्लिम प्रवासियों को बंगाल की खाड़ी में फेंकने के लिए तैयार खड़ा है। वह स्वयं नजरबंदी शिविरों का निर्माण कर रहा है, और असंतोष को नियंत्रित करने के लिए चेहरे की पहचान और ड्रोन का व्यापक उपयोग करने की तकनीक पाने की दौड़ में लगा है।

बाहर से देखने पर भारत में एक ऐसा शासकीय प्रतिष्ठान दिखाई देता है, जो इतिहास से ज़्यादा पौराणिक कथाओं को महत्व देता और वैज्ञानिक पकड़ को ढीला कर रहा है। इसके विश्वविद्यालय गड्ढे में जा रहे हैं। यह अपने कमजोर न्यायिक तंत्र, राजनीतिकरण में डूबी सेना और सत्ता का खिलौना बनी जांच एजेंसियों के साथ अपनी प्रजातांत्रिक श्वास खोता जा रहा है।

अतः सीएए जैसे कानून को वापस लिया जाना चाहिए, अन्यथा यह उपमहाद्वीप में तबाही ले आएगा।

संघवाद की तलाश

जब राज्य सरकारें अपने वायदों पर खरी नहीं उतरती हैं, तो जनता केंद्र सरकार से उम्मीद रखती है लेकिन जब केंद्र ही गुण्डागर्दी पर उतर आए, तब जनता न्याय की आस में किस ओर देखे ? भारत जैसे विविधतापूर्ण विशाल देश में प्रामाणिक संघवाद और सत्ता का हस्तांतरण करके ही मानवीय गरिमा और सामाजिक न्याय को बनाए रखा जा सकता है। वर्तमान सरकार ने सरकारी शक्ति के केंद्रीकरण और हिंदुत्व एजेंडे को सर्वोपरि रखना श्रेयस्कर समझा है।

यही कारण है कि गैर-भाजपा शासित प्रदेशों में सीएए का इतना विरोध हो रहा है। इन सबके बीच भारत में एक ऐसे प्रशासन की आधारशिला रखने की तैयारी की आशा की जा सकती है, जो लोगों के प्रति अधिक उत्तरदायी हो। यही वह समय है, जब मोदी सरकार की केंद्रशासित सेना को भारत के राज्यों से एक अपकेंद्री विरोध का सामना करना पड़े।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित कनक मणि दीक्षित के लेख पर आधारित। 10 जनवरी, 2020

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