इसरो की सफलता से सीख लेने का समय है।

Afeias
08 Mar 2017
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Date:08-03-17

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हमारे देश में ईसरो के अलावा शायद ही कोई ऐसी संस्था है, जो विकास की दृष्टि से आधुनिकतम तकनीकों और उनके कार्यान्वयन में विश्व स्तर पर खरी उतर सके। हाल ही में इसरो ने एक ही रॉकेट से 104 उपग्रहों को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करके वह कारनामा कर दिखाया है, जिसे करने की हिम्मत विश्व के बहुत कम देश कर सकते हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब भारत की अन्य सरकारी संस्थाएं क्षमता की दृष्टि से इतनी कमजोर हैं, तो ऐसे में इसरो में ऐसी क्या खास बात है, जो उसे अन्य संस्थाओं से अलग इतना क्षमतावान बनाती है ?

  • इसरो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करता है। उसे किसी मंत्रालय के अधीन नहीं रखा गया है। हमारे देश की कार्यप्रणाली में मंत्रालय के मंत्री, उनसे नीचे नौकरशाही, हर नौकरशाह के साथ जुड़ा उनका स्टाफ और उसकी लालफीताशाही जिस गति से काम करते हैं, उसमें कोई भी संस्था इसरो जितनी सशक्त नहीं बन सकती। प्रधानमंत्री कार्यालय के कार्य का तरीका भिन्न है।
  • इसरो के पास स्वायत्तता है, जो भारत की दूसरी एजेंसियों  के पास नहीं है। इसलिए इसरो इतना सफल है।
  • प्रतिभा और क्षमता का सही उपयोग तब होता है, जब उसे ऐसी सही भौगोलिक स्थिति मिले, जो उसके लिए उपयुक्त पारिस्थिकीय तंत्र विकसित कर सके। इसरो का मुख्य कार्यालय दिल्ली से दूर बेंगलुरू में है। यह राजधानी में स्थापित अन्य शासकीय संस्थाओं की तरह कदम-कदम पर मौजूद और धीमी गति से काम करने वाली नौकरशाही के प्रभावों से दूर है। यह भारत का वैज्ञानिक केंद्र माने जाने वाले वातावरण में ही स्थापित है। इसके पास प्रतिभाओं को आकर्षित करने और उनके सही उपयोग के लिए एक उपयुक्त पारिस्थितकीय तंत्र है।
  • मानवीय पूंजी ही सही मायने में किसी भी संस्थान की सफलता का कारण होती है। जहाँ अन्य संस्थाओं में सामान्य लोग काम करते हैं, वहीं इसरो में उनके टैक्नोक्रेट से लेकर प्रबंधन तक में विशेषज्ञों की भरमार है।
  • इसके अलावा इसरो निजी क्षेत्र के लोगों से सहयोग लेने और उनके साथ मिलकर काम करने में कभी पीछे नहीं हटता। इसरो को ऊँचाई पर पहुँचाने में लगी बहुत सी सीढियाँ सरकारी तंत्र के बाहर से आई हुई हैं।
  • इसरो के उदाहरण से क्या सबक नहीं सीखा जा सकता ? हमारा परंपरागत नज़रिया तो यही कहता है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। जहाँ तक सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन, बुनियादी ढाँचे की कमी और जन सेवाओं की गुणवत्ताका सवाल है, हम बहुत पीछे हैं। आज इसरो की सफलता इस बात की संभावना दिखाती है कि हमारी सरकार ऐसी अन्य संस्थाओं की स्थापना करने में सक्षम है। कुछ ऐसे संस्थान; जिनका निजी क्षेत्र में भी कोई जोड़ न हो, जहाँ शोध एवं अनुसंधान का शायद तत्काल लाभ न हो, लेकिन वे इसरो की तरह लंबी रेस के घोड़े बन सकें। रक्षा विभाग को दूसरे इसरो के रूप में ढाला जा सकता है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान को एक बिल्कुल नए अवतार में सामने लाया जा सकता है, जो बेंगलुरू या पुणे से बाहर कहीं स्थापित हो, जो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करे और जो समय पड़ने पर निजी क्षेत्र से भी संपर्क साध सके। या फिर कोई केंद्रीय वैक्सीन एजेंसी हो, जो अहमदाबाद या पुणे में स्थापित हो और जो उन बीमारियों पर शोध करे, जिनके समाधान की आवश्यकता है।

यह सच है कि प्रत्येक सरकारी संस्थान को शोध एवं अनुसंधान में नहीं लगाया जा सकता। न ही प्रत्येक संस्थान सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट कर सकता है। संस्थानों के प्रदर्शन में सुधार के लिए उन्हें मंत्रालयों के सुस्त कामकाज से निकालना जरूरी है। ऐसी कुछ एजेंसियों का सृजन भी देश को बहुत बदल सकता है।

हिंदू में प्रकाशित धीरज नैय्यर के लेख पर आधारित।

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