भारत की व्यापारिक सफलता और आर सी ई पी

Afeias
01 Nov 2018
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Date:01-11-18

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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से चलने वाले बहुपक्षीय व्यापार के अस्तित्व पर आज तेजी से संकट मंडरा रहा है। अमेरिका और चीन जैसी विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच छिड़ चुके व्यापार युद्ध का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ रहा है। इन स्थितियों में भारत के पास क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देने का विकल्प बचा रहता है। इस तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत के लिए रिजनल कांप्रिहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप (आर सी ई पी) के सोलह देशों के साथ साझेदारी का बढ़ाना अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

वैश्विक परिदृश्य में भारत द्वारा उठाए गए व्यापारिक कदमों को अक्सर कठोर माना जाता है। लेकिन हर वह अर्थव्यवस्था, जो मोलभाव करने में सक्षम है, ऐसा ही करती है। आयात के एवज में वह निर्यात को भी उतना ही बढ़ना चाहती है। अतः भारत को अपवाद नहीं माना जा सकता। परंपरागत रूप में तो आयात को लागत और निर्यात को लाभ के रूप में देखा जाता है। आर्थिक दृष्टि से वास्तविक लाभ आयात से आता है, जबकि निर्यात उन आयातों को प्राप्त करने की लागत का प्रतिनिधित्व करता है। अतः भारत को पारस्परिक आयात के प्रति आशंकित नहीं होना चाहिए। सीधी-सी बात है कि कोई भी राष्ट्र किसी देश के निर्यात को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक कि वह देश उससे कुछ अधिक मूल्यवान आयात न करे। आर सी ई पी की नीतियाँ बनाने वाले अर्थवेत्ताओं के मन में आयात आधारित आशंका इसलिए भी है, क्योंकि भारत ने इस मामले में चीन से काफी घाटा खाया है।

चीन से आगामी व्यापारिक समझौतों में इस नुकसान का हवाला देते हुए निर्यात को बढ़ाया जा सकता है। परन्तु अन्य देशों के साथ होने वाले समझौतों में इस आशंका को हावी होने देना ठीक नहीं कहा जा सकता। किसी देश को व्यापार के समग्र संतुलन के लिए वस्तु एवं सेवाओं का संज्ञान लेना सही ठहराया जा सकता है, परन्तु द्विपक्षीय व्यापार घाटे को इसमें शामिल नहीं माना जाना चाहिए। किसी भी देश को अपने निर्यात के ऊँचे दाम देने वाले और आयात के लिए कम से कम दाम लेने वाले देश से समझौता करने में पीछे नहीं हटना चाहिए। अगर ऐसा हो जाता है, तो द्विपक्षीय व्यापार विफल होता ही है। उदाहरण के लिए अमेरिका, भारत से आयात पर ऊँचे दाम देता है, परन्तु साथ ही अपने निर्यातों पर भी वैसी ही ऊँची दर रखता है। इस कारण भारत, अमेरिका को निर्यात तो बहुत करता है, परन्तु उस तुलना में आयात करने से बचता है। इसका अर्थ यह है कि भारत, अमेरीका के साथ एक द्विपक्षीय व्यापार अधिशेष चलाता है।

चीन के मामले में स्थिति उल्टी है। बहरहाल, कुल-मिलाकर भारत एक स्वस्थ व्यापार संतुलन बनाए रखता है, और इस प्रकार वह विदेशी मुद्रा के बड़े कर्ज में नहीं डूबता। इन सबके बीच भारत को चाहिए कि वह आर सी ई पी के सदस्य देशों के साथ व्यापाक व्यापार समझौते करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का लाभ प्राप्त करे। भारत के पास इस प्रकार के समझौतें के अनुकूल स्थितियाँ भी हैं। एक बड़ा उपभोक्ता बाजार और सस्ता श्रम दो ऐसी खास बातें हैं, जो भारत को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए आकर्षक निवेश स्थल बनाती हैं। आर सी ई पी की सदस्यता से भारत को दो तरह से लाभ मिल सकता है।

  • इससे भारत में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आर सी ई पी से जुड़े देशों में प्रवेश मिल सकता है।
  • सोलह सदस्य देशों के बीच निवेश सामग्री की निःशुल्क आवाजाही से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच दोगुनी प्रतिस्पर्धा खड़ी हो जाएगी। वर्तमान दौर में, जब उत्पादों को उनके अंतिम रूप में लाने से पहले अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से अनेक बार निकालना अनिवार्यता सी बन गई है। ऐसे समझौतें बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते है। इससे लागत में बहुत ककमी आ सकती है।

इन दो बिन्दुओं के अलावा कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें योग्यता अर्जित करके भारत अपना व्यापार-विस्तार कर सकता है।

  • आर सी ई पी के बाजारों में हम सेवा-निर्यात करते हैं, परन्तु भाषाई एवं सांस्कृतिक भिन्नता के चलते हमारी सीमाएं हैं। इन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
  • सेवाओं की ऐसी स्थिति और श्रमिकों की मुक्त आवाजाही के बीच भारत को अपने विनिर्माण उद्योग का लाभ उठाने में पीछे नहीं हटना चाहिए।

भारत के कृषि संकट को देखते हुए, भारतीय किसानों को भी वेतन आधारित नौकरियों की आवश्यकता है। किसी भी देश के सफल होने के पीछे श्रम आधारित निर्माण उद्योगों का बहुत बड़ा योगदान होता है, क्योंकि ये उद्योग रोजगार देते हैं। आर सी ई पी के माध्यम से भारत के लिए ऐसा कर पाना संभव है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पन्गढ़िया के लेख पर आधारित। 19 सितम्बर, 2018

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