इतिहास बनाम मिथक

Afeias
21 Nov 2019
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Date:21-11-19

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भारत के इतिहास में राजपूतों का उदय 1200 वर्ष पूर्व राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, गंगा के पश्चिमी मैदानों और बुंदेलखण्ड में हुआ था। लगभग 1000 वर्ष पूर्व वे गजनवी से, 800 वर्ष पूर्व गौरी से, 700 वर्ष पूर्व खिलजी से और 600 वर्ष पूर्व बाबर और अकबर से हारे थे। फिर भी हम उनकी पराजयों को याद नहीं रखते। हमें याद है, तो उनकी हिम्मत, उनका गौरव, उनके योद्धाओं का स्वेच्छा से युद्ध की देवी को शीश चढ़ाना, उनकी विधवाओं का शत्रुदल के समक्ष समर्पण करने के बजाय जौहर करना, और उनके स्वामिभक्त अश्वों की गाथाएं।

कवियों द्वारा रची गई किंवदंतियों को आज इनके घटित होने के सदियों बाद भी पाठ्यपुस्तक की सामग्री बनाने को कहा जा रहा है। इसमें इतिहासकारों द्वारा दर्ज की गई राजपूतों की पराजय के तथ्यों की कोई जगह नहीं है। कहा जाता है कि क्या देश की एक नई देशभक्त पीढ़ी तैयार करने के लिए यह जरूरी नहीं है? इतिहासकार असहमत हैं, परन्तु राजनेताओं के सामने वे शक्तिहीन हैं। राजनेताओं को तो एक कथा के साथ लोगों को बांधना है। इसलिए वे सच्चाई की जगह किसी किंवदंती और मिथक में निवेश करना बेहतर समझते हैं।

माप और साक्ष्यों के वैज्ञानिक सिद्धाँतों पर आधारित इतिहास लेखन मात्र 150 वर्ष पुराना है। थोड़े ही समय में यह उनके बीच गंभीर शक्ति बन गया है, जो लोगों के भाषणों को नियंत्रित करना चाहते हैं। पहले तो यह उस पुजारी की तरह था, जो पारगमन, रहस्यमय और मनोगत तक अपनी पहुँच बनाता है। इसके पश्चात् यह उस नृप की तरह था, जो अपनी सेना पर पकड़ बनाए रखना चाहता है। इसके बाद प्रजातांत्रिक शक्ति; तत्पश्चात् एक व्यापारी या उद्यमी और टैक्नोक्रेट, जो आर्थिक शक्ति पर अपना अधिकार चाहता है। और अंत में एक श्रमिक या कृषक रह गया, जिसके पास शासन को बदलने के लिए पर्याप्त जन हैं। अब यह शक्ति वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और उन मानवविज्ञानियों के पास है, जो वस्तुपरक और सत्तापरक मानदण्डों का प्रयोग करके सत्य को प्रस्तुत करते हैं। इसमें मानवीय मस्तिष्क की गढ़ी हुई चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है।

भाषा का इतिहास बताता है कि किस प्रकार समय के साथ अर्थ बदलते रहते हैं। 19वीं शताब्दी में ‘मिथक’ का प्रयोग एकेश्वरवाद के सत्य के विपरीत; बहुदेववाद, मूर्तिपूजा और मूर्तिपूजा के झूठ के उल्लेख के रूप में किया गया। परन्तु आज यह शब्द लोगों के लिए सांस्कृतिक सत्य का प्रतीक बन गया है। 2000 वर्ष पूर्व संस्कृत शब्द ‘न्याय’ का संबंध, महामारी विज्ञान से था। वह आज न्याय के रूप में संदर्भित किया जाता है। ‘इतिहास’ का अर्थ हिन्दी में साहित्य के संदर्भ में माना जाता है। उसे पहले रामायण और महाभारत ही माना जाता था, जहाँ वाल्मिकी और व्यास जैसे लेखक कहानी का हिस्सा हुआ करते थे, और पूरे विश्वास से कह सकते थे कि हाँ, ऐसा हुआ था। या फिर ‘इतिहास’ का अर्थ उन पुराणों के विपरीत समझा जाता था, जिनमें भगवान, राजा और ऋषि-मुनि की कथाओं को स्वयं लेखक ने देखा न हो, परन्तु कहे-सुने के आधार पर लिपिबद्ध किया हो।

जब मिथक इतिहास बन जाते हैं

मिथक उनके लिए इतिहास बन जाता है, जो मिथकों, पौराणिक कथाओं और ग्रंथों की पवित्रता में विश्वास रखते हैं। उनके लिए पृथ्वीराज चैहान का कद बढ़ाने वाला ग्रंथ “पृथ्वीराज रासो”  रामायण जैसा ही ऐतिहासिक है। इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चैहान की ध्वनि-बाण वाली कथा का वर्णन है। मजे की बात यह है कि यह ग्रंथ इस घटना के 400 वर्ष बाद लिखा गया था। हम इस कथा को इसलिए जानते हैं, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कैप्टन जेम्स टाड ने राजपूत राजाओं की कथाओं को एकत्रित करके उन्हें उसी रूप में प्रस्तुत किया, जिस रूप में राजपूत उन्हें दिखाना चाहते थे। 19वीं शताब्दी में भी इस तथ्य की बहुत आलोचना की गई थी। इसी पुस्तक ने राजपूतों के उस रूप को गढ़ा, जिसे आज हम जानते हैं।

जो भी तथ्य आज “पृथ्वीराज रासो” के साथ मेल नहीं खाता, उसे गलत बता दिया जाता है। कोई भी पुस्तक हमें इस बात की जानकारी नहीं देती कि पृथ्वीराज चैहान का सत्य क्या है। न केवल इस्लामिक-फारसी कथाओं, बल्कि अन्य राजपूती और जैन कहानियों में चैहान के बारे में विवादास्पद कथन मिलते हैं।

बुंदेलखण्ड के आल्हा बताते हैं कि राजपूत किस प्रकार आपस में लड़ा करते थे, कैसे जातियों की कट्टरता थी, और वह योग्यता पर हावी थी। इसमें पृथ्वीराज को महिमा मंडित न करते हुए, एक सामान्य पिता और नेता के रूप में वर्णित किया गया है। यह भी बताया गया है कि कैसे राजपूतों की आपसी लड़ाइयों के कारण विदेशी आक्रमण हुए।

दुर्भाग्यवश इस सत्य को बताने वाले इतिहासकारों और कवियों को आज मौन कर दिया जाता है। अब शायद एक राजा ही यह बताएगा कि हमारा इतिहास क्या होना चाहिए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित देवदत्त पटनायक के लेख पर आधारित। 30 अक्टूबर, 2019