इतिहास विषय से जुड़ी त्रासदी

Afeias
20 Sep 2018
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Date:20-09-18

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इतिहास का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। भूतकाल में हुई घटनाओं से सबक लेकर हम अपने वर्तमान और भविष्य को संवारते हैं। यही कारण है कि स्कूली ज्ञान में इसे एक महत्वपूर्ण विषय माना गया है। लेकिन आज तक इस विषय को कभी वह अहमियत नहीं दी गई, जो उसे मिलनी चाहिए थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इतिहास हमारे युवा वर्ग के दृष्टिकोण को नए साँचे में ढालने में बड़ी भूमिका निभाता है। परन्तु कुछ ऐसे कारण हैं, जो समाज और शिक्षा के क्षेत्र में इतिहास की महत्ता को स्थापित करने में अवरोध पैदा करते हैं।

  • भारत में इतिहास का पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकें हमेशा से ही राजनीतिक विवाद का विषय रही हैं। इस मामले में भारत ही अकेला देश नहीं है। लगभग हर देश में इतिहास की प्रस्तुति और उसे स्कूली शिक्षा में पढ़ाए जाने को लेकर विवाद होते रहे हैं। उदाहरण के लिए देखें, तो अमेरिका के लिए हिरोशिमा पर बम गिराना, और ब्रिटेन के लिए स्कूली शिक्षा में गाँधी की चर्चा करना हमेशा ही असुविधाजनक रहा है।

स्कूली पाठ्यपुस्तकों में परोसे गए इतिहास को लेकर विवाद होने का मुख्य कारण उसका सामूहिक स्मृतियों और पहचान को धारण करना है। पाठ्य पुस्तकें तो सरकार की आधिकारिक दस्तावे़ज समझी जाती हैं। इन्हें सरकार की शक्ति के साथ जोड़कर देखा जाता है। साथ ही ये बच्चों के मन-मस्तिष्क पर भी छाप छोड़ जाती हैं। स्कूली स्तर पर प्रस्तुत किए गए अतीत के एक निश्चित संस्करण से बच्चों को एक स्वभाव प्राप्त होता है, जिसे भविष्य में राजनीतिक रूप से संगठित किया जा सकता है।

पाठ्य पुस्तकों में प्रस्तुत सामग्री को दोष देने के समय लोग यह भूल जाते हैं कि वास्तव में यह दोष पाठ्यक्रम बनाने वालों का होता है। इस समस्या से निपटने के लिए सन् 2006 में एनसीईआरटी ने इतिहास के पाठ्यक्रम को इतिहासकारों की एक टीम से तैयार करवाया। यह पाठ्यक्रम और सामग्री इतिहास को एक लंबी कहानी के रूप में न कहकर, बच्चों को हमारे पूर्व जीवन के अनेक पक्षों जैसे किसानों का जीवन, महिलाओं, कला आदि की स्थितियों के बारे में खोजबीन करने की उत्सुकता जागृत करता है। ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में अभिलेख या उत्खनन से प्राप्त सामग्री के चित्र प्रकाशित किए गए हैं।

इतिहास के महत्व को स्थापित न कर पाने का दूसरा बड़ा कारण वे शिक्षक होते हैं, जिन्होंने स्वयं कभी इतिहास नहीं पढ़ा या पढ़ा भी तो कभी उसमें रुचि नहीं ली। अतः पाठ्यक्रम में बदलाव के बावजूद यदि शिक्षण का तरीका बिल्कुल नहीं बदलता, तब वह बच्चों के बीच लोकप्रिय कैसे बनाया जा सकेगा? इतिहास पढ़ने और पढ़ाने के बारे में एक आम धारणा है कि यह राजा-महाराजाओं, युद्धों और तारीखों को याद रखने का दूसरा नाम है। भारतीय इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक भारत में विभाजित कर देना, उसकी जटिलता और प्रचुरता को समाप्त कर देता है। परीक्षा में प्रश्न भी ऐसे पूछे जाते हैं, जिनका उत्तर बड़ी आसानी से गाइड बुक की सहायता से दिया जा सके।

अधिकतर राज्यों में इतिहास अभी भी सामूहिक स्मृति और पहचान का ही परिचायक बना हुआ है। इसमें असम जैसी समस्याओं का कोई समाधान नहीं मिलता। सामाजिक विज्ञान के शिक्षक बच्चों के शरीर, विचारों और भावनाओं के निरंतर अनुशासन के माहौल में काम करते हैं। साथ ही लगभग सभी स्कूलों में प्रतिस्पर्धा के माहौल में बच्चों का विकास किया जाता है। इस माहौल में शिक्षकों को हर रोज बच्चों को केवल रटाने का प्रयास करना होता है। इस प्रतिस्पर्धा में विषय की गहराई में जाने वाली बात अक्सर खो जाती है।

  • वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, शिक्षा के बाजार को विज्ञान से जुड़े विषय ही नियंत्रित कर रहे हैं। इसी से जुड़े विषय अच्छे वेतन वाली नौकरी दिलवाते हैं।अतः इस पृष्ठभूमि में सामाजिक विज्ञान और मानवीय कलाओं से जुड़े विषय कहाँ टिक सकते हैं।

माना कि शिक्षा की इस प्रतिस्पर्धातमक संस्कृति में इतिहास की कोई जगह नहीं है। लेकिन फिर भी देश के राजनीतिक चरित्र को गढ़ने में उसकी भूमिका को कभी नकारा नहीं जा सकता। स्कूलों के बच्चों का इतिहास पढ़ने के लिए किसी वयस्क शिक्षक पर निर्भर होना ही स्कूलों में इतिहास के लिए चुनौती खड़ी कर देता है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित कृष्ण कुमार के लेख पर आधारित। 24 अगस्त, 2018

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