
जब हम इतिहास को समझते ही नहीं, तो उसे पढ़ने-पढ़ाने का क्या अर्थ है ?
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पाठ्यक्रम को सुधारना ही है, तो ऐसे सुधारें
यह बात बड़ी ही विडंबनापूर्ण है कि हमारे अपने इतिहास का सबसे बड़ा सबक जाति का उपहास है। हम अपनी जाति-संरचना के अध्यायों में जातिगत क्रूरता, संसाधनों पर एकाधिपत्य जमाने के कुतर्क, शुद्ध और अशुद्ध की मनोवैज्ञानिक जेल को पढ़ते-जानते आए हैं। हम जानते हैं कि कैसे इस पक्षपातपूर्ण संरचना ने अनगिनत मनुष्यों को तोड़ा और देश की प्रगति को धीमा कर दिया। लेकिन हम उदाखादी इन सब अध्यायों पर उंगली उठाने से कतराते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इतिहास को सीखने का पूरा लक्ष्य ही वर्तमान को सुधारना और भविष्य को बेहतर बनाना होता है।
बोझ बना हुआ इतिहास –
दुख की बात है कि भारत में कई अच्छे गंभीर इतिहासकार होते हुए भी इस विषय का मूल बिंदु हमसे दूर हो गया है। आज इतिहास को हम केवल दो तरीकों से देखते हैं। मुगलों की दृष्टि से हम इसे एक जादुई कालीन के रूप में उपयोग करते हैं, जो संगमरमर के स्मारकों में और बाहर बुना जाता है। यह पक्ष हमें उस धर्मनिरपेक्षता की आड़ देता है, जिसका हम दावा करते हैं। या हम इतिहास का एक घड़ी के रूप में उपयोग करते हैं, जिससे सभ्यता और समझदारी के कठिन संघर्ष वाले विचारों को काबू में करके, वर्तमान को हराया जा सके। किसी भी मामले में हमारी असफलता हमारे युवाओं को एक ऐसा बोझ देती है, जो उन्हें नहीं दिया जाना चाहिए। इस तमाशे को क्यों जारी रखा जाए ?
इतिहास समय का एक मनहूस और भव्य चित्रपट है, जो सुंदरता और युद्ध, लोहे और सपनों, सीमाओं और सेनाओें, क्रूरताओं और संतों, किसानों, दार्शनिकों और क्रांतिकारियों से बना है। यह पुराने के लिए अधीर है, और नए की लालसा रखता है। इतिहास राजा-रानियों की कथाओं से कहीं अधिक है। यदि हम मानवता को भविष्य की संभावना देने वाले विषय के रूप में इसको गंभीरता नहीं दे सकते, तो इसके अध्ययन और अध्यापन का अर्थ ही क्या है?
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सृजना दास के लेख पर आधारित। 24 अप्रैल, 2023