इतिहास या विरासत?

Afeias
27 Nov 2017
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Date:27-11-17

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ताजमहल इतिहास है या विरासत? इसका उत्तर बीते युग के उन दो दरवाजों से मिल सकता है, जिनमें से किसी एक से हम जाना चाहेंगे। कई मायनों में इतिहास स्वयं में एक परंपरागत प्रस्तुति है; एक ऐसी प्रस्तुति, जिसमें कुछ विशेष लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संभ्रांतजनों का दबाव होता है। इस पूरी पटकथा में कृषक, श्रमिक, शिल्पी और व्यवसायियों को भी चित्रित करने का प्रावधान होता है। परन्तु यह वर्ग पटकथा की नींव नहीं होता।विरासत इससे बहुत भिन्न होती है। यह साधारण लोगों से जुड़ी होती है; ऐसे लोग, जो कुशल, संसाधनयुक्त, साहसी और खतरे उठाने के लिए तैयार रहते हैं। ये लोग युद्ध और नीतियों से जुड़े हुए नहीं होते। विरासत शांतिपूर्ण वातावरण में आगे बढ़ती है। इसमें ऊथल-पुथल करने वाले राजा और राजकुमार जैसे लोग नहीं होते।

ताजमहल की कथा कुछ कृषकों और चरवाहों की कथा है, जिन्होंने खाने योग्य सामग्री प्राप्त करने के लिए किसी जंगली तत्व को पालतू बना लिया। यह उन सौदागरों और शिल्पकारों की कथा है, जिन्होंने ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए पर्वतों और नीले सागर को जीत लिया। यह उन देहाती इंजीनियरों और धातुकर्मियों की कथा है, जिन्होंने सबसे पहले तांबे को अंकित किया। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में इन सबका योगदान योद्धाओं की विजयों और सम्राटों की वसीयतों से कहीं अधिक है।एक बार फिर से सोचते हैं कि ताजमहल इतिहास है या विरासत? यह सुंदर इसलिए है, क्योंकि एक शक्तिशाली सम्राट ने इसे बनाने का आदेश दिया था या शिल्पकारों के जादू के कारण? इसके निर्माण के लिए भारत के विभिन्न स्थानों के साथ-साथ मध्य एशिया और टर्की से भी कारीगर आए थे। यही कारण है कि इसमें हिन्दू और मुस्लिम कारीगरी मिश्रित हो गई है। इन सबके बीच सिंहासन की कोई भूमिका नहीं थी। मकराने का संगमरमर राजस्थान से आया, जेड और स्फटिक चीन से आए, मणियां पंजाब से आईं और नीलम श्रीलंका से आया।

आगरा के किले के जहांगीरी महल में लाल बलुआ पत्थरों की नक्काशियों में हिन्दू और इस्लामिक कारीगरी के मेल को याद कीजिए। या दक्कन सल्तनत काल (1500-1700) को याद करें, जब एशिया और यूरोप की संस्कृतियों का मेल हुआ और नाना प्रकार के तत्वों की उत्पत्ति हुई। यह मेल समाज के संभ्रांत वर्ग द्वारा संचालित नहीं था। बल्कि यह नीचे तबके से शुरू हुआ, जहाँ कौशल और प्रतिभा सौहार्दपूर्ण मिलन के साक्षी बने। यह युद्धों की देन नहीं थी।इस युग की कलमकारी में हिन्दू, इस्लामिक और यूरोपीय रूपांकन हैं। जबकि दक्कन या आलम का चिन्ह चीनी ड्रेगन है। अगर 17वीं शताब्दी के जयपुरी कालीनों में यूरोपीय चित्र मिलते हैं, तो वहीं उसके किनारों पर टर्की नमूने भी देखे जा सकते हैं। विरासत कहीं भी हो, अपने आप में उस विशालता को समेटे चलती है, जिसे राज्य और इतिहास पृथक कर देते हैं।

हम सब औरंगजेब और दारा शिकोह की शत्रुता के विषय में जानते हैं। लेकिन यह केवल इतिहास है। इन सबके साथ मुगल दरबार में ऐसा काम भी हो रहा था, जिसे विरासत का नाम दिया जा सकता है। दारा शिकोह की पत्नी ने मेरी मैग्डेलीन का ऐसा चित्र बनाया था, जो 16वीं शती के इतालवी चित्रकार टिन्टेरेटो के बनाए चित्र की नकल लगता था। मध्यकालीन भारत में यूरोपीय कला की बहुत अधिक कद्र थी।अकबर के दरबार में न्यू और ओल्ड टेस्टामेंट से लिए गए रुपांकन और चित्र देखे जा सकते थे। अकबर के चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करके इतिहास बनाने से इन सबका कोई लेना-देना नहीं था। न ही अकबर की चित्तौड़ विजय ने विरासत पर कोई प्रभाव डाला। विरासत तो लगातार आगे बढ़ती रही, जिसमें भूत और वर्तमान, निकट एवं दूर के अनेक संयोजन बनते चलते गए।यूरोप भी इस्लामिक कला से अछूता नहीं रहा है। पुनर्जागरण काल में इतालवी वस्त्र-विन्यास पर चीनी कला का भी बहुत प्रभाव था। इस तरह अरबी और इस्लामिक वास्तुकला पर गोथिक वास्तु-शिल्प का बहुत प्रभाव था। डैजिग के सेंट मेरी चर्च में सिल्क के कपड़ों की सजावट, अरबी कला की झलक देती है।

17वीं शताब्दी के चीने बुनकरों ने पर्शिया की सेहना नॉट का ज्ञान प्राप्त करके उसे अपने कालीनों में बहुतायत में प्रयोग किया। भारत से जब बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ, उसके साथ भारतीय सांड, हाथी एवं पेड़ों का चित्रण भी चीनी कपड़ों पर होने लगा।इतिहास मूलतः सूचना प्रदान करता है। जबकि विरासत सौहार्द-स्थापना का कार्य करती है। इतिहास एक व्यक्ति द्वारा चलाए गए अभियानों की सफलता और विफलता की बात करता है; जबकि विरासत समाज के उन कुशाग्र जनों के लघु कार्यों को जोड़ती है, जिनसे हमें बीते समय की समझ मिलती है। ताजमहल के निर्माण में ऐसे ही कुछ अदने किन्तु कुशाग्र जनों का ढोल-नगाड़ों के बिना शांत और विनीत आदान-प्रदान दिखाई देता है।अपने इतिहास में मानवता को प्रतिबिंबित करने के लिए हमें उसे इतिहास की नजर में नहीं, बल्कि विरासत की नजरों से और दस्तावेजों को स्मारक की दृष्टि से देखने का अभ्यास करना होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित।     

 

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