राजनैतिक दलों के कोष पर शिकंजा कसने की जरूरत
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विमुद्रीकरण के सुनामी ने जिस प्रकार हमारे सामाजिक-आर्थिक तंत्र को हिलाकर रख दिया है, इसके प्रभाव को समझने में शायद समय लग सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के इस कदम से लोगों के पास नकदी में जमा काला धन बाहर आ जाएगा। लेकिन और भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ सफाई की जरुरत है। ऐसा ही एक क्षेत्र राजनैतिक दलों के कोष का है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चुनावी चंदा के नाम पर बहुत हेराफेरी के साथ काला धन खपाया जाता है और चुनावों में इसका गलत उपयोग होता है।
- राजनैतिक कोष में पारदर्शिता लाने के लिए कानून में कुछ निम्न सुधार करने होंगे–
- चुनाव अभियान में खर्च होने वाली राशि की सीमा बांधने के साथ ही चुनाव आयोग को इस राशि की प्राप्ति की तह तक जाना होगा। दशकों से चुनावी खर्च की सीमा तय करने की कोशिश असफल रही है। राजनैतिक दल गुप्त तरीके से राशि खर्च करते हैं और इसका कोई ब्यौरा नहीं देते। इसके लिए चुनाव आयोग को कड़े कदम उठाने होंगे और राजनैतिक दलों को मिलने वाली धनराशि का पूरा ब्यौरा देने के लिए नियम बनाने होंगे।
- वर्तमान में राजनैतिक दल 20,000 तक की सहयोग राशि किसी से भी ले सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई हिसाब देने की आवश्यकता नहीं होती। अब इस सीमा को घटाकर 1000 या फिर 500 रुपये तक भी लाया जा सकता है। छोटी संख्या में मिली दान राशि सही होगी। ऐसा करने से बेनामी दानकर्ताओं से मिलने वाली अवैध दान श्रृंखला पर रोक लगेगी।
- अन्य देशों की तरह हमारे यहाँ भी एक धनवान और एक लोकप्रिय उम्मीदवार के बीच संतुलन बनाने के लिए सरकारों द्वारा चुनाव-राशि दी जानी चाहिए। इसके लिए दोनों उम्मीदवार वैध तरीके से जितनी भी दान राशि जमा करके हिखाए, सरकार उसका पांच गुना बढ़ाकर अपनी तरफ से उन्हें दे और उम्मीदवार इसी राशि से अपना चुनावी खर्च चलाएं।
- दरअसल, चुनाव केवल धन के बल पर नहीं जीता जाता। अमेरिका में हुए वर्तमान राष्ट्रपति चुनावों में भी अरब पति डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव बजट अपनी विरोधी हिलेरी क्लिंटन से आधा ही था, फिर भी वे जीते।
- उम्मीदवारों और राजनैतिक दलों के खातों के ऑडिट को अनिवार्य करना होगा। कर की छूट भी उतनी ही राशि पर दी जाए, जिसका लेखा-जोखा स्पष्ट हो। ऐसा करने के लिए चुनाव आयोग को खुली छूट देनी होगी। ऑडिट के दौरान गड़बड़ी पाये जाने पर उम्मीदवारों पर जुर्माना लगाए जाने से लेकर उसे अयोग्य करार देने का अधिकार भी चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित बैजयंत ‘जय’ पंडा के लेख पर आधारित।
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