Trans Pacific Partnership

Afeias
08 Dec 2016
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gspDate: 08-12-16

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वर्तमान में एशिया महाद्वीप एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर चुका है। विश्व की 45 प्रतिशत जनसंख्या एशिया में निवास करती है। विश्व का लगभग आधा कंटेनर यातायात और एक तिहाई कार्गो हिन्द महासागर से होकर गुजरता है। विश्व का लगभग 40 प्रतिशत तटीय तेल उत्पादन हिन्द महासागर के तटों पर होता है। विश्व की लगभग आधी ऊर्जा आपूर्ति इस क्षेत्र से की जाती है।

एक तरह से एशिया समस्त विश्व की धुरी के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। एशिया की बढ़ी हुई शक्ति ने इसके समस्त राष्ट्रों पर भी एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व डाल दिया है। भारत के लिए भी नई चुनौतिया आ खड़ी हुई हैं और इनका सामना करने के लिए अब भारत को भी नए-नए शस्त्रों से  लैस होने की आवश्यकता है।

इसी संदर्भ में ट्रांस प्रशांत (Trans Pacific Partnership) भागीदारी का जिक्र आता है। इस संधि को 12 देशों ने मिलकर तैयार किया था, जिसमें अमेरिका की मुख्य भूमिका थी। इस संधि का उद्देश्य सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना था। चूंकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एशिया के क्षेत्र व्यापार और मित्र राष्ट्रों के प्रति रुचि दिखाई थी, अतः उन्होंने इस संधि को बढ़ावा दिया।

  • अब समय बदल गया है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति ट्रंप अब इस संधि के प्रति उदासीन दिखाई दे रहे हैं। इस संधि से अमेरिका के पीछे हट जाने का अर्थ हैइस संधि का खत्म हो जाना। इस संधि के खत्म हो जाने से भारत पर निम् बहुत से प्रभाव पड़ सकते हैं
  • संधि के खत्म होने से एशियाई क्षेत्र में अमेरिका का प्रभाव कम हो जाएगा। चीन इस बात से बहुत खुश होगा, क्योंकि चीन एशिया के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक है और वह समस्त एशिया पर अपना प्रभुत्व चाहता है। चूंकि चीन इस संधि में शामिल नहीं है, इसलिए स्पष्ट रूप से अमेरिका उसे बड़ी टक्कर देने वाला था। अब चीन के लिए यह चुनौती खत्म हो जाएगी। वन रोड वन बेल्ट (OROB) मेरीटाइमसिल्क रोड, एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (AIIB) और शंघाई कार्पोरेशन आर्गेनाईजेशन (SCO) जैसी कई क्षेत्रीय संधियां करके चीन पहले ही इस क्षेत्र के ‘मुख्य नेता’ के रूप में अपना स्थान बनाने में बहुत हद तक सफल हो चुका है। अब अमेरिका में ट्रंप सरकार की मौजूदा नीतियों से वह राहत की सांस ले रहा है।
  • भारत के लिए चीन का बढ़ता प्रभुत्व घातक हो सकता है। अमेरिका के इस क्षेत्र में व्यापार करने से भारत को चीन पर नियंत्रण रखने के लिए एक महाशक्ति के सहयोग की उम्मीद थी। टीपीपी के अलावा चीन के नेतृत्व में रिजनल कंप्रीहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) का गठन भी किया जा रहा है। टीपीपी के खत्म होने से अब भारत शायद इस मुक्त व्यापार संधि से नाता जोड़ने के बारे में सोचे।
  • इस क्षेत्र के कुछ देश लगातार नियमों का उल्लंघन करते हुए भी अपनी शक्ति का विस्तार करते जा रहे हैं। उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम, दक्षिण चीन सागर में चीन का विस्तार और अनेक तरह के साइबर नियमों के उल्लंघन क्षेत्रीय शांति के लिए घातक हो सकते हैं । इन सबके सामने बहुपक्षीय संस्थाएं भी कुछ नहीं कर पा रही हैं।
  • ऐसी स्थितियों में भारत मूकदर्शक बना नहीं रह सकता। पेरिस समझौता और संयुक्त राष्ट्र के मामलों में सक्रिय होकर भारत भी अपनी भूमिका निभा रहा है।
  • विश्लेषकों के अनुसार टीपीपी का खत्म होना भारत के लिए अच्छा भी हो सकता है। इसमें बौद्धिक संपदा एवं करमुक्त आवागमन से जुड़े कुछ उपबंध भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। और अगर इन आधारों पर भारत इससे अलग रहता, तो अन्य एशियाई देश जापान और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को अपेक्षाकृत मजबूत बना लेते।

इस संधि के माध्यम से भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर हिन्द महासागर से प्रशांत महासागर तक शांति, सुरक्षा, समृद्धि और स्थिरता बनाए रखने का एक बड़ा स्वप्न देखा था, जो टूटता नजर आ रहा है।

बहरहाल, भारत को अपनी भूमिका को अधिक उत्तरदायित्व के साथ निभाते हुए आने वाली चुनौतियों का सामना करना होगा।

विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित लेखों पर आधारित।

 

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