
31-01-2023 (Important News Clippings)
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Let’s Make It Not an e-Waste of Resources
ET Editorials
e-Waste management is more than managing waste. Reducing the amount of electronics that is discarded requires improved design and greater durability, and the right to repair. It will ensure resource-use efficiency and extend product life. The standardisation of chargers is a step in the right direction. A better collection system is required for discarded electronics. Making producers liable for collection and management of e-waste is an option. Involve local authorities, invest in their capacities and make them accountable. Local authorities must step up awareness on proper e-waste disposal. Incentives will ensure consumers do not push e-waste into the informal kabadi circuit. Then, reuse and recovery. Products that can be refurbished and resold should be. This will require frameworks, robust rules and guidelines.
e-Waste is source of metals and minerals such as gold, silver, rare earth minerals, lithium, cobalt and cadmium. Experts estimate that in 2017, proper extraction could have yielded gold worth $0. 7-1 billion. About 90% of e-waste is recycled in the informal sector, making recovery inefficient and unsafe. Dealing with e-waste must include formalising these workers, training, skilling and equipping them and ensuring safe and healthy work environments. Bottom line: tackling e-waste properly creates economic opportunities in a sustainable manner.
Water woes
Opening up the entire Indus Water Treaty could come with its own set of challenges
Editorial
To begin with, the Indus Waters Treaty that decided the distribution of the six tributaries of the Indus or Sindhu between the two nations took nearly a decade to negotiate originally before its signing in 1960. Built in were mechanisms for coordination and dispute resolution that have held the treaty in good stead for at least half a century, and it has often been used as a template between upper riparian and lower riparian states worldwide. That it has endured despite conflict and political rhetoric between India and Pakistan is a testament to its text. In addition, if India and Pakistan have not been able to resolve issues over one case in their Indus Commission talks over 16 years, what guarantees are there that they can renegotiate the whole treaty within any reasonable time-frame? At a time when there is no political dialogue, trade and air or rail connectivity between them, reopening negotiations could open a new flank for India-Pakistan confrontation.
मनोविकार के इलाज पर ध्यान देना होगा
संपादकीय
ओडिशा के एक मंत्री की पुलिसकर्मी द्वारा हत्या चिंताजनक है। खबरों के मुताबिक हमलावर बायपोलर डिसऑर्डर नाम के मनोविकार से जूझ रहा था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में प्रति एक लाख आबादी पर नौ लोग आत्महत्या करते हैं जबकि एशिया में 10.2 लोग। लेकिन भारत में यह आंकड़ा चिंताजनक 12.9 लोगों का है। यहां मरने वाले 15 से 29 वर्ष की आयु के युवाओं में मौत का प्रमुख कारण आत्महत्या है। लांसेट के एक अध्ययन के अनुसार कोरोना के बाद सन् 2020-22 के बीच पूरी दुनिया में डिप्रेशन और एंग्जायटी की घटनाएं क्रमशः 28 और 26% बढ़ीं और ज्यादा संख्या युवाओं की थी, जो भविष्य के प्रति आशंका या आजीविका पर संकट से इस अवस्था तक पहुंचे। मनोचिकित्सक मानते हैं कि सोशल मीडिया से चिपके रहना इसका एक बड़ा कारण है, क्योंकि तब युवा प्रत्यक्ष संबंधों से कट जाता है। समाज में आज भी डिप्रेशन या एंग्जायटी को दाग के रूप में लिया जाता है, लिहाजा मरीज मनोचिकित्सक के पास जाने में संकोच करता है और बीमारी बढ़ती रहती है। समय है जब समाज के प्रबुद्ध लोग आगे आकर अपनी कथा-व्यथा बताकर अन्य लोगों को जागरूक करें। फिल्मी सितारे जैसे दीपिका पादुकोण और करण जौहर ने सफलता के चरम पर रहते हुए डिप्रेशन में होने की अपनी कहानी बताकर एक बड़े वर्ग को जागरूक किया। अन्य तमाम सेलिब्रिटीज भी अपनी आप-बीती बताकर इससे निकलने के लिए सही उपचार लेने की राय देते रहे हैं। भारत में इसको लेकर अभी तक न तो समाज जागरूक हुआ है, ना ही सरकारें इस खतरे को संज्ञान में ले पा रही हैं। इस दिशा में सोचने की जरूरत है।
Date:31-01-23
देश के इकोलॉजिकल स्टोर हिमालय को बचाना जरूरी है
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )
आज दुनिया एक बड़े महत्वपूर्ण मोड़ पर आकर खड़ी है। जहां विकास भी दिखाई देता है और साथ में विनाश भी। दुनिया का ऐसा कोई भी देश नहीं है, जो विकास के पैमाने पर आगे ना बढ़ा हो और साथ में उसने कुछ विनाश ना झेला हो। फिर भी अगर कुछ देश ऐसे बचे हों जिन्होंने शुरुआती दौर से ही अपने को सीमित रखा या उसे अवसर न मिले हों तब भी उसने अन्य देशों के कारण कुछ न कुछ अवश्य झेला होगा। इसको ऐसे देख सकते हैं कि समुद्र तट पर बसे छोटे-मोटे देश, जिनका क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दे में कोई योगदान नहीं, लेकिन इन्हीं दो बड़े कारणों से आने वाले समय में पिघलती बर्फ इनके लिए बड़े संकट खड़े कर देगी। ऐसे छोटे-मोटे करीब 43 देश हैं, जो समुद्र तटों पर बसे होने के कारण जलमग्न हो जाएंगे।
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि सन् 2100 तक 83% ग्लेशियर पिघल सकते हैं। दूसरी तरफ जिस स्तर से वायु प्रदूषण लगातार बढ़ता चला जा रहा है, 2050 तक हम इस दुनिया को गैस चैंबर बनने की तरफ ले जाएंगे। पानी का संकट सबसे ज्यादा होगा, मिट्टी जहरीली हो रही है।
पिछले 10-20 दशकों में हमने जो कुछ भी किया, उससे लाभ तो लिए पर उतना ही अब खोना भी है। या फिर कुछ नए रास्ते तैयार करने की पहल हो, ताकि हम विकास के साथ विनाशी ना बनें। यह सबसे बड़ी चिंता का समय भी है क्योंकि अगर आज यह बहस नहीं हुई तो हम और हमारी वापसी संभव नहीं होगी। एक बात हमें जान लेनी चाहिए कि पृथ्वी में जीवन की समाप्ति कभी नहीं होगी, क्योंकि बदलती परिस्थितियों के चरम में या संसाधनों के अभाव में इंसान भले समाप्त हो जाएं लेकिन प्रकृति कुछ नए तौर-तरीकों के साथ फिर नए जीवन को पनपाएगी। इस ओर हमने लगातार बातचीत जरूर की है, लेकिन हम उन पहुलओं की तरफ कभी आगे नहीं बढ़े जो कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुके हैं। क्या यह संभव है कि हम आने वाले जीवन को इसी तरह से जी सकेंगे। यह प्रश्न आज दुनिया में उभर रहा है और बाढ़, आपदाएं, हवाओं के बदलते रुख, पानी का स्वभाव सब बदल जाना इसके उदाहरण हैं।
अगर विकास चाहिए तो उसकी शैली और प्रक्रिया क्या हो? उस पर हम अपना विज्ञान, सामाजिकी, आर्थिकी के सभी पहलुओं का समावेश करके पारिस्थितिकी के साथ-साथ उसको कैसे बढ़ाएं, इस पर विचार करें। शायद तभी हम प्रकृति की खींची रेखा को पार नहीं करेंगे। नहीं तो हम सर्वनाश की ओर आगे बढ़ जाएंगे।
यह साफ हो चुका है कि वर्तमान तरीके का विकास का मॉडल ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। मतलब अब विकास से पहले विनाश की चिंता कर लेनी होगी। साफ है कि बढ़ती जीडीपी जानलेवा साबित हो सकती है। इसलिए अब बचने के लिए जीईपी (ग्रॉस एनवॉयरमेंट प्रोडक्ट) पर केंद्रित होना होगा। और वो तब ही संभव होगा जब विकास में पारिस्थितिकी को जोड़कर चलें।
कई समस्याओं का समाधान हैं मोटे अनाज
नरेंद्र सिंह तोमर, ( लेखक केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री हैं )
खाद्यान्न के क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता हमारी आहार संबंधी चुनौतियों से निपटने का पहला पड़ाव थी। इसमें कोई संशय नहीं है कि विगत साढ़े आठ वर्षों में हमने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के कुशल नेतृत्व और मार्गदर्शन में भारत सरकार, किसानों एवं कृषि विज्ञानियों के प्रभावी प्रयासों के बल पर अनाज उत्पादन में अधिशेष यानी सरप्लस की स्थिति हासिल की है। आज हमारे अनाज भंडार भरे पड़े हैं। इस बीच हमने अपनी दूसरी आहार संबंधी चुनौती पर भी विजय प्राप्ति की दिशा में कार्य आरंभ कर दिया है। यह दूसरी आहार चुनौती प्रत्येक भारतवासी की थाली में पर्याप्त पोषण से युक्त आहार पहुंचाने से जुड़ी है। पोषण के पर्याय मोटे अनाज (मिलेट्स) के उत्पादन एवं उपभोग को बढ़ावा देना इसी रणनीति का हिस्सा है कि हम प्रत्येक देशवासी को पर्याप्त पोषक आहार उपलब्ध कराने में सक्षम हो सकें। इसी कड़ी में भारत के नेतृत्व में वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष के रूप मनाने की तैयारी की गई है। इसके माध्यम से पोषक अनाज को वैश्विक मंच पर लाने की पहल हुई है। मिलेट्स ही हमारे भविष्य का आहार हैं, जो एक साथ कई समस्याओं का हल हैं। यह भी एक स्तुत्य तथ्य है कि प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर ही संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष घोषित किया है। इसके माध्यम से भारत का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा और पोषण में मिलेट्स के योगदान के बारे में जागरूकता बढ़ाना, मिलेट्स की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार के लिए सभी हितधारकों को प्रेरित करना तथा अनुसंधान एवं विकास के लिए निवेश को प्रोत्साहित करना है।
अभी हमारे देश में अनाज के रूप में गेहूं एवं चावल का अधिकाधिक सेवन किया जाता है और इसीलिए अब तक उनके उत्पादन पर ही फोकस रहा है। वहीं गेहूं एवं चावल की तुलना में मिलेट्स कहीं अधिक पोषक अनाज हैं। वास्तव में मिलेट्स एक ‘स्वदेशी सुपरफूड’ है, जो प्रोटीन, फाइबर, विटामिन और खनिजों से परिपूर्ण होते हैं। वर्ष 2018 में भारत सरकार द्वारा गेहूं और चावल जैसे प्रचलित खाद्यान्नों की तुलना में मिलेट्स को उनकी पोषण संबंधी श्रेष्ठता के कारण ‘पोषक-अनाज’ के रूप में अधिसूचित किया गया था। पोषक-अनाज को बढ़ावा देने और मांग सृजन के लिए 2018 को ‘राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष’ घोषित करते हुए मनाया गया था।
आज आवश्यकता इस बात की है कि मिलेट्स को अपनी थाली का अनिवार्य अंग बनाने की मुहिम को एक जनांदोलन का स्वरूप दिया जाए। भारत सरकार ने इस दिशा में सुनियोजित रणनीति बनाते हुए बाजार, उपभोक्ताओं और किसानों को मिलेट्स के प्रति जागरूक और प्रेरित करने के लिए ठोस कदम उठाने प्रारंभ कर दिए हैं। मिलेट्स न केवल हमारी पोषण एवं स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करते हैं, अपितु जलवायु परिवर्तन का शमन करने एवं आवश्यक अनुकूलन, शुष्क एवं दुर्गम क्षेत्रों, जहां विकास लक्ष्यों को हासिल कठिन है, वहां के लघु एवं सीमांत किसानों के विकास में योगदान करने में भी मदद कर सकते है। भारत मिलेट्स का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक देश है, जो वैश्विक उत्पादन में 18 प्रतिशत का योगदान देता है। अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष मनाने के माध्यम से हमारा उद्देश्य मिलेट्स की घरेलू एवं वैश्विक खपत को बढ़ाना है। इस संबंध में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय दूसरे केंद्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों और अन्य हितधारक संगठनों के सहयोग से मिलेट्स के उत्पादन एवं खपत को बढ़ाने के लिए मिशन मोड पर काम कर रहा है।
खाद्य प्रणालियों का भविष्य छोटे एवं सीमांत किसानों की भागीदारी पर बहुत निर्भर करता है। विशेषकर तब जब उत्पादन में विविधीकरण और खाद्य सुरक्षा का प्रश्न हो। भारत में लगभग 86 प्रतिशत छोटे किसानों के पास पांच एकड़ से भी कम भूमि है, जो कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 47 प्रतिशत है। सरकार ने छोटे किसानों को सशक्त बनाने के लिए कई अनुकरणीय पहल की हैं, जिनमें इनपुट समर्थन, एफपीओ हस्तक्षेप, डिजिटलीकरण और कृषि अवसंरचना कोष सहित बहुत कुछ शामिल हैं। ऐसे में फसल प्रणाली में पोषक अनाज को शामिल करना, किसानों को पौष्टिक भोजन में आत्मनिर्भरता, कम इनपुट के साथ रिटर्न में वृद्धि, बेहतर बाजार समर्थन और जलवायु प्रभाव में सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
सरकार ने मिलेट्स उत्पादन की क्षमता का दोहन करने और उच्च मूल्य वाले घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाजारों में इसके समन्वय के लिए 21 जिलों में ‘एक देश-एक उत्पाद’ और ‘एक जिला-एक उत्पाद’ के रूप में मिलेट्स को नामित किया है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन कार्यक्रम के तहत 14 राज्यों के 212 जिलों में मिलेट्स के लिए एनएफएसएम-पोषक अनाज घटक लागू किया जा रहा है। आज 500 से अधिक स्टार्टअप मिलेट वैल्यू चेन के रूप में काम कर रहे हैं। कर्नाटक, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और असम सहित पूर्वोत्तर के राज्यों ने मिलेट्स को बढ़ावा देने के लिए महती प्रयास किए हैं। कई राज्यों में मिलेट मिशन लांच किया गया है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय तथा अन्य संबद्ध मंत्रालयों के साथ ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, आइआइएमआर, इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फार सेमी-एरिड ट्रापिक्स, राज्य कृषि विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान देश में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग कर रहे हैं।
समय के साथ यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी आहार संबंधी आदतों में बदलाव करें। कार्बोहाइड्रेड से ज्यादा ध्यान प्रोटीन, खनिज तत्वों, विटामिंस और फाइबर पर केंद्रित करने की जरूरत है। बदलती जीवनशैली में स्वस्थ शरीर के लिए आहार में मिलेट्स को जोड़ना आवश्यक एवं अपरिहार्य हो गया है। आइए, भारत सरकार के इस मिशन को जन आंदोलन का स्वरूप दें। हर थाली में पोषक अनाज पहुंचाने की दिशा में कदम उठाने के लिए सक्रियता दिखाएं।
Date:31-01-23
सिंधु जल संधि में संशोधन की चुनौती
पंकज चतुर्वेदी, ( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं )
सिंधु जल बंटवारे को लेकर भारत ने पाकिस्तान को चेतावनी दी है। इसका कारण यह है कि पाकिस्तान किशनगंगा और रातले पनबिजली परियोजनाओं पर तकनीकी आपत्तियों की जांच के लिए तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति के अपने आग्रह से पीछे हटकर मामले को मध्यस्थता अदालत में ले जाने पर अड़ा है। यह कदम संधि के अनुच्छेद नौ में विवादों के निपटारे के लिए बनाए गए तंत्र का उल्लंघन है। इसीलिए भारत ने सितंबर 1960 में हुई सिंधु जल संधि में संशोधन के लिए पाकिस्तान को नोटिस जारी किया है। वास्तव में भारत ने इस संधि को लागू करने में इस्लामाबाद की हठधर्मिता के बाद यह कदम उठाया है। ध्यान रहे कि अगस्त 2021 में संसद की एक स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि इस संधि पर फिर से बातचीत की जाए, ताकि जलवायु परिवर्तन से जल उपलब्धता पर पड़े असर और अन्य चुनौतियों से जुड़े उन मामलों को निपटाया जा सके, जिन्हें समझौते में शामिल नहीं किया गया है।
पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए पाकिस्तान को जाने वाली नदियों का पानी रोकने पर विचार लंबे समय से चल रहा है, लेकिन पानी रोकने का काम कोई बटन दबाने वाला नहीं है। दुनिया की सबसे बड़ी नदी घाटी प्रणालियों में से एक सिंधु नदी की लंबाई करीब 2,880 किमी है। सिंधु नदी का इलाका करीब 11.2 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है। यह इलाका पाकिस्तान (47 प्रतिशत), भारत (39 प्रतिशत), चीन (आठ प्रतिशत) और अफगानिस्तान (छह प्रतिशत) में है। अनुमान है कि तकरीबन 30 करोड़ लोग सिंधु नदी के आसपास रहते हैं। सिंधु नदी तंत्र की छह नदियों में कुल 16.8 करोड एकड़ की जल निधि है। इसमें से भारत अपने हिस्से का करीब 90 प्रतिशत पानी इस्तेमाल कर लेता है। शेष पानी रोकने के लिए अभी कम से कम छह साल लगेंगे। तिब्बत में कैलास पर्वत शृंखला से बोखार-चू नामक ग्लेशियर के पास से अवतरित सिंधु नदी भारत में लेह क्षेत्र से गुजरती है। लद्दाख सीमा को पार करते हुए जम्मू-कश्मीर में गिलगित के पास दार्दिस्तान क्षेत्र में इसका प्रवेश पाकिस्तान में होता है। जिन पांच नदियों रावी, चिनाब, झेलम, ब्यास और सतलुज के कारण पंजाब का नाम पड़ा, वे सभी सिंधु की जल-धारा को समृद्ध करती हैं। सतलुज पर ही भाखडा-नंगल बांध है। भले ही भारत और पाकिस्तान के बीच भौगालिक सीमाएं खिंच चुकी हों, लेकिन यहां की नदियां, मौसम और संस्कृति सहित कई बातें चाह कर भी बंट नहीं पाईं।
सिंधु नदी प्रणाली का कुल जल निकासी क्षेत्र 11,165,000 वर्ग किमी से अधिक है। वार्षिक प्रवाह की दृष्टि से यह विश्व की 21वीं सबसे बड़ी नदी है। यह पाकिस्तान के भरण-पोषण का एकमात्र साधन भी है। अंग्रेजों ने पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र की सिंचाई के लिए विस्तृत नहर प्रणाली का निर्माण किया था। विभाजन ने इस बुनियादी ढांचे का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में छोड़ दिया, लेकिन हेडवर्क बांध भारत में बने रहे, जिससे पाकिस्तान के बड़ी जोत वाले जमींदारों में हमेशा डर का भाव रहा है। सिंधु नदी बेसिन के पानी के बंटवारे के लिए कई वर्षों की गहन बातचीत के बाद विश्व बैंक ने भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि की मध्यस्थता की। कई विदेशी विशेषज्ञों के दखल के साथ दस साल तक बातचीत चलती रही और सितंबर 1960 में कराची में जल बंटवारे को लेकर द्विपक्षीय समझौता हुआ। भारत-पाकिस्तान के बीच इस समझौते की नजीर सारी दुनिया में दी जाती है कि तीन-तीन युद्ध और लगातार तनावग्रस्त संबंध के बावजूद यह संधि कायम रही। इस संधि के अनुसार सतलज, व्यास और रावी नदियों को पूर्वी, जबकि झेलम, चिनाब और सिंधु को पश्चिमी क्षेत्र की नदी कहा गया। पूर्वी नदियों के पानी का पूरा हक भारत के पास है तो पश्चिमी नदियों का पाकिस्तान के पास। बिजली, सिंचाई जैसे कुछ मामलों में भारत पश्चिमी नदियों के जल का भी इस्तेमाल कर सकता है। भारत रावी पर शाहपुर कंडी में बांध बनाना चाहता था, पर यह परियोजना 1995 से रुकी है। भारत ने अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने के प्रयास किए, मगर सामरिक दृष्टि से ऐसी योजनाएं सिरे नहीं चढ़ पाईं। अब शाहपुर कंडी के अलावा सतलुज-व्यास लिंक योजना और कश्मीर में उझा बांध पर भी काम हो रहा है। इससे भारत अपने हिस्से का सारा पानी इस्तेमाल कर सकेगा।
सिंधु जल संधि में विश्व बैंक सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं और उन्हें नजरअंदाज कर पानी रोकना कठिन होगा। हां, पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों में सीधी भागीदारी सिद्ध करने के बाद यह संभव होगा, लेकिन यदि हम पानी रोकते हैं तो उसे सहेजने के लिए बड़े जलाशय, बांध चाहिए और नहरें भी। यदि बिना प्रबंध पानी रोकने का प्रयास किया गया तो जम्मू-कश्मीर, पंजाब आदि में जलभराव हो जाएगा। आजादी के इतने साल बाद भी अपने हिस्से की नदियों का पूरा पानी इस्तेमाल करने के लिए बांध आदि न बना पाने का असल कारण प्रतिरक्षा नीतियां हैं। साझा नदी पर कोई भी विशाल जल-संग्रह दुश्मनी के हालात में पाकिस्तान के लिए ‘जल-बम’ के रूप में काम आ सकता है।
भारत से पाकिस्तान जाने वाली नदियों पर चीन के निवेश से कई बिजली परियोजनाएं हैं। यदि उन पर कोई विपरीत असर पड़ा तो चीन ब्रह्मपुत्र के प्रवाह के माध्यम से हमारे समूचे पूर्वोत्तर राज्यों को संकट में डाल सकता है। अरुणाचल और मणिपुर की कई नदियां चीन की हरकतों के कारण एकाएक बाढ़, प्रदूषण और सूखे को झेल रही हैं। स्पष्ट है कि सिंधु जल संधि को संशोधित करना आसान नहीं।