01-02-2023 (Important News Clippings)

Afeias
01 Feb 2023
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Date:01-02-23

We Can’t Do Without Plastic, Make It Safe

ET Editorials

Plastic is all around us. It’s part of our daily lives, often inside us without our knowledge. The ubiquitous nature of plastic has meant the world consumes and discards immense quantities of this wonder material. So much so, plastic pollution is now a global concern. Unlike many other substances, such as fossil fuels, we have come to rely on, plastics cannot be completely phased out. What is needed is betterplastics, bettermanagement of plastic waste, and reduction of unnecessary use of plastic. Plastics need not be the enemy. Global exhibitions such as Plastindia 2023 that starts today in Delhi must provide the platform for the industry to transform, innovate and work together to address the global challenge that our runaway reliance on plastics has created.

The plastics industry employs more than 4 million people and comprises more than 20,000 processing units, 80-90% of which are SMEs. In 2020, India’s plastics market was worth $36. 07 billion. Its revenue is expected to grow at 6. 6% CAGR till 2027, to about $56. 42 billion. It is a major export. In FY2020, plastic exports stood at $7. 05 billion. Experts say demand and consumption are expected to grow at about twice the rate of India’s economy.

Despite its growth prospects, the industry faces labour shortages, more so with cutting-edge expertise. Dissemination of hi-tech among SMEs is another concern. As is the roughly 9. 4 million tonnes of plastic waste generated annually in India, of which about 60% is recycled and the rest is left uncollected, littered or dumped in landfills. The plastics industry needs to find a sustainable pathway. That is what the world as well as India need.


Date:01-02-23

पारंपरिक कौशल को मिले प्रोत्साहन

सुरेश प्रभु और पार्थो कर, ( सुरेश प्रभु पूर्व रेल एवं वाणिज्य मंत्री और ऋषि हुड विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं तथा पार्थो कर अर्थशास्त्री एवं कारीगर आजीविका विशेषज्ञ हैं )

वर्ष 1600-1700 के दौरान वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में भारत की हिस्सेदारी 25 से 30 प्रतिशत के बीच थी। तब भारत एक बड़ी विनिर्माण अर्थव्यवस्था थी, जिसमें कपड़ों, मसालों और नील इत्यादि का उत्पादन शामिल था। ये सब बुनकरों, किसानों और कारीगरों द्वारा उत्पादित किए जाते थे। भारत के शहरों और गांवों में आज भी ऐसे उत्कृष्ट कारीगरों की संख्या बहुत अधिक है, जो पारंपरिक कौशल को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जा रहे हैं। आज जब रोजगार का सृजन हमारे लिए एक चुनौती से कम नहीं है, तब यदि हम विनिर्माण करना चाहते हैं तो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। चूंकि पारंपरिक कौशल से जुड़े उत्पादों का एक बड़ा बाजार है, अतः हमें इनके उत्पादन पर ध्यान देना होगा। यह आने वाले समय में बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। वंशानुगत कौशल के दम पर आजीविका के अधिक अवसरों का सृजन किया जा सकता है, जबकि इसमें बहुत कम पूंजीगत व्यय की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार द्वारा कारीगरों को कार्यशील पूंजी, बाजार से जुड़ाव, आधुनिक उत्पाद डिजाइन के साथ कारीगरों की मदद, ब्रांडिंग और उन्हें बड़ी वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनने में मदद करने की पहल की जानी चाहिए। यदि इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाए तो लोगों को गांवों में भी रोजगार मिल सकेगा, जिससे शहरों पर दबाव कम करने में मदद मिलेगी। इस क्षेत्र के उत्थान के लिए एक योजनाबद्ध रणनीति की आवश्यकता है। यदि इन उत्पादों को आकर्षक ढंग से पैक किया जाए और इनकी ब्रांडिंग की जाए, तो इसका प्रभाव अद्भुत होगा।

समस्या आधारभूत ढांचे या कौशल की कमी की नहीं, बल्कि डिजाइन, बाजार से जुड़ाव, ब्रांडिंग, उत्पाद विकास और नकदी प्रवाह आदि से संबंधित है। छोटे ग्रामीण उद्यमियों के लिए आनलाइन प्लेटफार्म तक पहुंचना अव्यावहारिक है। उनके लिए 25 प्रतिशत या अधिक रिटर्न का हिसाब देना लगभग मुश्किल है। इस प्रक्रिया में नकदी प्रवाह असंभव हो जाता है। इन कारीगरों को एक स्थिर खरीदार खोजने की आवश्यकता होगी, जो उन्हें डिजाइन तथा वितरण कार्यक्रम उपलब्ध कराएगा ताकि वे उचित नकदी प्रवाह के साथ गुणवत्ता वाले उत्पादों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित कर सकें। प्रारंभिक स्तर पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत होगी। ग्राहकों में इन उत्पादों के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए, जिससे उनकी इन उत्पादों के प्रति रुचि जाग्रत हो सके। विश्व स्तर पर यह बहुत प्रभावी होगा, क्योंकि कम संसाधनों के साथ बड़े स्तर पर उत्पादन किया जाना सभी के लिए आश्चर्य का विषय होगा। स्थानीय आपूर्ति शृंखला विशेष रूप से गांवों में छोटे स्थानीय वितरकों तथा रिटेलर्स को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

भारत सरकार द्वारा प्रचारित की जा रही डिजिटल बैंकिंग प्रणाली आधारभूत स्तर पर बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक लेन-देन की सुविधा प्रदान करेगी। वन प्वाइंट सेलिंग कांटैक्ट इन कारीगरों को व्यावसायिक रूप से अधिक कुशल बनाने एवं आजीविका के नए अवसर उपलब्ध कराके जीवन को बेहतर बनाने में सहायता प्रदान करेगा। इन कारीगरों को बड़ी आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनने के लिए कम से कम पांच वर्ष तक सहायता की आवश्यकता होगी। इन परियोजनाओं के लिए प्रारंभिक धन आंशिक रूप से कौशल विकास तथा मनरेगा बजट से आवंटित किया जा सकता है। कुछ राज्यों ने इस दिशा में कदम उठाए हैं। जैसे उत्तर प्रदेश सरकार ओडीओपी यानी एक जिला-एक उत्पाद नीति को बढ़ावा दे रही है। राज्य को आपूर्ति शृंखला तथा उत्पाद को डिजाइन करने एवं पैकेजिंग करने के लिए हस्तक्षेप की जरूरत है। इससे लाभ भी बढ़ेगा और कारीगर उत्पाद की गुणवत्ता तथा विनिर्माण पर ध्यान दे सकेंगे। नई सहकारी नीति अलग-अलग संगठनों तथा स्वयं सहायता समूहों के गठन और कार्यशैली में सुधार लाएंगी। महिलाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। वे अपने घरों से ही इसमें भाग ले सकेंगी।

उत्तर प्रदेश में ‘टांडा जामदानी’ जैसे विस्मृत उत्पादों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, जिसका पूरे भारत में बड़ा बाजार है। इन उत्पादों में भारत और विश्व के उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग की जाने वाली अधिकांश वस्तुओं जैसे खाद्य उत्पाद, शिल्प, वस्त्र और सजावटी सामान इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है। उत्पादों को बेहतर बनाने के लिए नई तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है। अधिकांश घरों में कांसे के बर्तनों का प्रयोग अब इसलिए नहीं किया जाता, क्योंकि उन्हें साफ करने में अधिक मेहनत और समय लगता है, परंतु आआइआइटी खड़गपुर ने एक नई तकनीक ईजाद की है, जिससे इन बर्तनों को साफ करना बहुत सरल हो गया है। कोविड काल के पश्चात हम सभी अच्छी तरह जान गए हैं कि कांसा हमारे लिए कितना उपयोगी है! बंगाल ने एक कारपोरेशन बनाकर रिटेल, मार्केटिंग चैनल्स तथा उत्पाद डिजाइन के निर्माण से उत्पादों को बढ़ावा देने की पहल की है। यह एक सफल माडल है, जिसका पूरे भारत में अनुकरण किया जा रहा है। यदि केंद्र तथा राज्य सरकारें एक हाइब्रिड संरचना का निर्माण करें और कारीगर आधारित माडल को बढ़ावा दें तो अगले पांच वर्षों में पांच करोड़ रोजगार सृजित किए जा सकते हैं और वंशानुगत कौशल का दोहन किया जा सकता है। इसके साथ ही हमारी उन परंपराओं और संस्कृति को कायम रखा जा सकता, जो विस्मृत होती जा रही हैं।


Date:01-02-23

वैज्ञानिक चेतना के अवरोधक

अखिलेश आर्येंदु

भारत में हो रहे वैज्ञानिक शोधों और उनके उपयोग पर नजर दौड़ाएं, तो पाते हैं कि अभी विश्व में हमारी स्थिति एशिया में बहुत नीचे है। 2002 से 2007 तक अनुसंधान विकास में वैश्विक निवेश मात्र दो प्रतिशत के आसपास रहा। 2007 से 2015 तक इसमें मात्र एक प्रतिशत के आसपास वृद्धि हुई। वहीं अमेरिका में इस दौरान यानी 2002 से 2015 तक चालीस प्रतिशत से अधिक वैश्विक निवेश हुआ। इससे समझ सकते हैं कि भारत में विज्ञान के क्षेत्र में गैरसरकारी निवेश कितना कम हुआ। सरकारी निवेश की स्थिति तो और खराब है। आंकड़े बताते हैं कि 2010 तक विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधानों के लिए जीडीपी का एक से दो प्रतिशत के बीच खर्च करने का प्रावधान रहा है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि केंद्र की सरकारें विज्ञान के प्रति कितना गंभीर हैं।

हां, केंद्र सरकार ने विज्ञान के क्षेत्र में गहन अनुसंधानों, वैज्ञानिकों और नई उपलब्धियों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक पुरस्कारों और सहयोगों को आगे बढ़ाने का काम बड़े पैमाने पर अवश्य किया है। इनमें ‘पोस्ट डाक्टरल रिसर्च’, व्यक्तिगत अनुसंधान सहायता और छात्रवृत्तियां, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले अनेक प्रोत्साहनों के अलावा महिलाओं के लिए ‘स्कालरशिप फार रिसर्च एंड बेसिक/अप्लायड साइंस’ जैसे प्रोत्साहन सम्मिलित हैं।

केंद्र सरकार भी मानती है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों का लाभ आम आदमी तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचाया जाना चाहिए। गौरतलब है कि बढ़ती आबादी और सामाजिक, शैक्षिक समस्याओं का समाधान आम आदमी तक वैज्ञानिक अनुसंधानों का लाभ पहुंचाए बगैर संभव नहीं है। भारत में विज्ञान शोध की प्रबल और प्राचीन परंपरा होने के बावजूद आजादी के बाद से ही विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले शोधों को कोई खास तवज्जो नहीं दी गई। 2012 के सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि दस लाख निवासियों पर आज भी भारत में महज 137 शोधार्थी हैं, जबकि एशिया के अन्य देशों में औसतन 746 और ओसिनिया में 4,209 शोधार्थी हैं। इससे पता चलता है कि भारत में शोध कार्य और विज्ञान के प्रति लोगों का कैसा दृष्टिकोण रहा है।

आज भारत विश्व के सबसे तेज गति से जनसंख्या वृद्धि करने वाले देशों में पहले स्थान पर पहुंच चुका है। हम जल्दी ही चीन की जनसंख्या को पीछे छोड़ देंगे। मगर विज्ञान के क्षेत्र में चीन के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत चिंताजनक है। चीन में दस लाख जनसंख्या पर शोधार्थियों की संख्या करीब तेरह सौ है। यानी शोध के मामले में चीन हमसे दस गुना आगे है। हम भले प्रगति और विकास का दम भरते न थकते हों, लेकिन हकीकत यह है कि विज्ञान के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं। देश में आबादी के अनुपात में शोधार्थियों की संख्या नहीं बढ़ी है। इस मामले में हम छोटे से देश मैक्सिको से भी बहुत पीछे हैं।

2011 के सर्वेक्षण के मुताबिक विज्ञान के क्षेत्र में डाक्टरेट करने वाली साठ फीसद महिलाएं बेरोगार थीं। तबसे लेकर अब तक पिछले छह वर्षों में देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बदलाव आए हैं। यूपीए सरकार ने विज्ञान का लाभ आम आदमी तक पहुंचाने के लिए अनेक कदम उठाए थे, जिनमें विश्वविद्यालयों द्वारा कराए जा रहे विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधानों में सुधार करके उनका फायदा आम आदमी तक पहुंचाने के लिए योजनाओं में सुधार करना, विज्ञान के क्षेत्र में बजटीय आबंटन को बढ़ाना, निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करना, लैंगिक असमानता को खत्म करना, रामानुज फेलोशिप और रामालिंगस्वामी फेलोशिप के जरिए देश से बाहर गए वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करना, ताकि वे भारत आकर अपना बेहतर योगदान दे सकें। साथ ही व्यक्तिगत अनुंसधान को और अधिक धन आबंटन करना और संभावित अन्य वैज्ञानिक शोधों के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करना, अंतरराष्ट्रीय प्रोत्साहन के तहत मिलने वाले अनुदान और फेलोशिप को गांवों की विज्ञान प्रतिभाओं तक पहुंचाने के लिए कदम उठाना और पोस्ट डाक्टरेट रिसर्च के लिए सहायता पहुंचाने जैसे कदम शामिल थे।

दरअसल, भारत की प्रति व्यक्ति आय के औसत में ही बहुत बड़ी खामी है। एक तरफ पंचानबे प्रतिशत लोगों की बहुत कम आय है, वहीं प्रतिदिन हजारों और लाखों कमाने वाले हैं, उनकी आय को मिलाकर औसत निकालने की गलत परंपरा है। इस तरीके से कभी यह पता नहीं चलता कि वाकई भारत में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय कितनी है। सरकार को इससे व्यक्ति के सामाजिक और शैक्षिक स्थिति की ठीक जानकारी नहीं हो पाती है। ऐसे में विज्ञान के शोध कार्यों का लाभ और उपयोग गांवों के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है। जब तक ईमानदारी से गांवों की हालात, वहां की सामाजिक और शैक्षिक स्थिति का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया जाता, तब तक वैज्ञानिक अनुसंधानों से निकले परिणामों का फायदा नहीं पहुंचाया जा सकता है।

भारतीय समाज आज भी अंधविश्वसों, पाखंडों और तमाम तरह की बुराइयों में फंसा हुआ है। वैज्ञानिक सिद्धांत, तर्क, विचार और कार्य ही उन्हें इनसे छुटकारा दिला सकते हैं। मगर समस्या यह है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सिद्धांत, तर्क, विचार और कार्य आम आदमी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। मसलन, खानेपीने की चीजों को ही लीजिए। तुरंता आहार सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक हैं, यह वैज्ञानिक परीक्षणों से साबित हो चुका है। फिर भी विज्ञापनों के मकड़जाल में फंसी जनता इसका इस्तेमाल करती है। इसी तरह देवी-देवताओं की मान्यता की वजह से समाज के अधिकांश लोग आज भी यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि घटने वाली घटनाओं का कारण देवी-देवताओं का नाराज या खुश होना नहीं होता, बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण होते हैं। गौरतलब है कि अंधविश्वास, पाखंड और बुराइयों की वजह से समाज में ऐसी अनेक समस्याएं पैदा होती रहती हैं, जो विकास के लिए बहुत नुकसानदेह हैं। एक आंकडे के मुताबिक अंधविश्वास, पाखंड, सामाजिक और धार्मिक बुराइयों, गलत प्रथाओं और अंधश्रद्धा के कारण भारत में हर साल पचास करोड़ से अधिक लोग किसी न किसी रूप में प्रभावित होते हैं और लाखों लोग भूत-प्रेत, पिचाश, जादू-टोना और ओझा-तांत्रिकों के मकड़जाल में फंस कर बीमारियों और असमय मौत का शिकार हो जाते हैं।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम वह दिन देखना चाहते, जब भारत में विज्ञान का लाभ आम आदमी तक पहुंचे और लोगों के जीवन स्तर में सुधार आए। उन्होंने इस बाबत अपने तर्इं कोशिशें भी खूब कीं, लेकिन हमारे शासन की कार्यशैली ही ऐसी है कि उनके प्रयासों को पंख नहीं लगने दिया गया।

देश में विज्ञान जागरूकता अभियान और विज्ञान जत्था ने पिछले तीस वर्षों में काफी कुछ सामाजिक और शैक्षिक समस्याओं को विज्ञान के नजरिए से दूर करने की कोशिश की है। इसी तरह अंधश्रद्धा निवारण समिति, महाराष्ट्र और वैज्ञानिक विचार अभियान जैसे संगठनों ने भी वैज्ञानिक शोधों के माध्यम से आम आदमी की सामाजिक और शैक्षिक समस्याओं को हल करने का प्रयास किए हैं। फिर भी लोगों में अभी वैसी जागरूकता नहीं आ पाई है, जिससे लोग अवैज्ञानिकता और अतार्किकता के भंवर जाल से निकल पाएं। आवश्कता इस बात की है कि अवैज्ञानिकता के कारणों को समझते हुए समाज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विचार को आम आदमी तक पहुंचाने के लिए समाज के जागरूक और जिम्मेदार लोगों को आगे आना होगा और उन सामाजिक और शैक्षिक संस्थाओं को भी अपनी भूमिका सार्थक दिशा में निभानी होगी, जिससे लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति जागरूकता बढ़े और लोग अंधविश्वास, पाखंड और बुराइयों से छूट कर बेहतर जीवन बसर कर सकें।


Date:01-02-23

आर्थिक सर्वे के संकेत

संपादकीय

साल 2023-24 के आम बजट के ठीक पहले आए आर्थिक सर्वेक्षण ने देश की अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है, वह राहत पहुंचाने वाली है। खासकर तब, जब विकसित देशों में आर्थिक मंदी के पदचाप सुनाई पड़ रहे हैं और इसे लेकर तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा लोकसभा में आर्थिक सर्वेक्षण पेश किए जाने के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने संवाददाताओं के समक्ष इसके ब्योरे रखते हुए एलान किया कि अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी में हुए नुकसान से कमोबेश उबर चुकी है। निस्संदेह, यह एक सुखद घोषणा है और बाजारों व औद्योगिक इलाकों में लौट रही रौनक इसकी तस्दीक भी करती है। ऐसे में, आर्थिक सर्वे में आने वाले दिनों में खपत बढ़ने और घरेलू मांग की स्थिति के मजबूत होने को लेकर जो उम्मीद जताईर् गई है, वह निराधार नहीं दिख रही। सर्वे के मुताबिक, ‘वर्ल्ड कमोडिटी’ में कीमतें उतार पर हैं और इसका असर हमारी थोक मुद्रास्फीति में गिरावट के रूप में दिखा भी है। जाहिर है, आने वाले दिनों में इससे खुदरा महंगाई में भी कमी आने की आशा है। यह घरेलू मांग में वृद्धि के लिहाज से एक सकारात्मक संकेत है।

आर्थिक सर्वे ने कृषि क्षेत्र को लेकर जो तस्वीर पेश की है, वह भी उत्साह बढ़ाने वाला है। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश में 9.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई है। इस क्षेत्र की मजबूती हमारे लिए कितनी जरूरी है, यह बताने की जरूरत नहीं है। महामारी ने शीशे की तरह साफ कर दिया है कि हमारी विशाल आबादी पिछले तीन वर्षों से हिचकोले खाती वैश्विक आर्थिकी के बीच यदि भर पेट भोजन कर सकी, तो इसमें हमारे कृषि क्षेत्र की भूमिका है। इसलिए देश के किसानों और खेतिहर मजदूरों के कल्याण को लेकर किसी किस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए। सरकार को आने वाले दिनों में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश की आर्थिक मजबूती का लाभ किसानों को भी मिले। चूंकि यह चुनावी साल है, इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि सरकार आगामी बजट में पीएम किसान सम्मान निधि में रकम बढ़ा सकती है। ऐसा करके सरकार वाकई उनको राहत पहुंचाएगी।

हालांकि, रोजगार के मोर्चे पर यह आर्थिक सर्वे जो बातें करता है, उससे कोई बहुत खुशनुमा तस्वीर नहीं उभरती, अलबत्ता गंभीर चुनौतियां झांकती हैं। जनवरी 2023 तक लगभग पौने तीन करोड़ बेरोजगारों का ‘नेशनल करियर सर्विस पोर्टल’ के जरिये अपना पंजीकरण कराना इसकी एक बानगी भर है। इसमें कोई दोराय नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था जब पटरी पर लौट आई है, तो वह रोजगार के अवसर भी जरूर पैदा करेगी, मगर दुर्योग से हाल के वर्षों में आर्थिक असंतुलन जिस तेजी से बढ़ा है, उससे रोजगार विहीन आर्थिक तरक्की को लेकर दुनिया भर के अर्थशा्त्रिरयों और हुकूमतों की पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं। आर्थिक सर्वे के आंकड़ों को देखते हुए वित्त मंत्री से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह अधिकाधिक रोजगार पैदा करने वाले सेक्टरों को अधिक तवज्जो दें। वैसे भी, भारत दुनिया का सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है, तो उसे इस युवा शक्ति का लाभ जल्द मिलना भी चाहिए। यह अच्छी बात है कि वैश्विक रेटिंग एजेंसी मूडीज ने आगामी वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर यह कहा है कि यह जी-20 की सबसे तेज विकास दर वाली अर्थव्यवस्था होगी, तो इसका असर आम भारतीय की जेब पर भी दिखना चाहिए।


Date:01-02-23

लौटती मांग और मजबूती की आहट

आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )

बजट से एक दिन पहले संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया। इसमें दावा किया गया है कि अर्थव्यवस्था पर महामारी का असर करीब-करीब खत्म हो चुका है। सर्वेक्षण के मुताबिक, चालू वित्त वर्ष में देश की अर्थव्यवस्था सात फीसदी बढ़ी है। रिजर्व बैंक का अनुमान था कि इस साल यह बढ़त 6.8 प्रतिशत हो सकती है। जाहिर है, यह उम्मीद से बेहतर स्थिति है। हालांकि यह अनुमान ही है, क्योंकि पूरा हिसाब लगना अभी बाकी है। केंद्र सरकार की भी चिंता यही है कि दुनिया के किसी कोने में कहीं कुछ ऐसा न हो जाए कि बनता हुआ खेल फिर बिगड़ जाए।

सर्वेक्षण के मुताबिक, अगले साल जीडीपी की बढ़ोतरी 6.5 प्रतिशत रह सकती है। कहा यह भी गया है कि यह बढ़त कुछ ऊपर-नीचे, यानी 6 से 6.8 प्रतिशत के बीच कहीं भी रह सकती है। दोनों ही सूरत में यह पिछले तीन साल में देश की तरक्की की सबसे धीमी रफ्तार होगी। मगर इस सरकार के पिछले चार साल का हिसाब जोड़ा जाए, तो जीडीपी में औसत बढ़ोतरी सालाना 3.2 प्रतिशत के हिसाब से हुई है। जो देश कुछ साल पहले 10 प्रतिशत से ऊपर की बढ़त का सपना देख रहा था, उसके लिए यह स्थिति बहुत आशाजनक नहीं है। चिंता की बात यह भी है कि साल 2019-20 में, यानी कोरोना से पूर्व भी वृद्धि दर 3.7 प्रतिशत थी, जो दिखाती है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर ब्रेक लगना कोरोना से पहले ही शुरू हो गया था।

आर्थिक सर्वे के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यानी आईएमएफ का वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक भी आया है, जिसमें कहा गया है कि भारत की जीडीपी ग्रोथ 2022 के 6.8 प्रतिशत से गिरकर 6.1 प्रतिशत हो जाएगी। मगर इस गिरावट के बावजूद भारत की तरक्की की रफ्तार दुनिया में सबसे तेज रहने वाली है। वित्त वर्ष 2023-24 के लिए आईएमएफ ने भी भारत की ग्रोथ का अनुमान 6.8 प्रतिशत रखा है। यहां आर्थिक सर्वेक्षण और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष लगभग एक राय रखते हैं। और यह तब है, जब दुनिया की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार 3.4 प्रतिशत से गिरकर 2.9 फीसदी रह जाने का डर है।

आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारत अब वापस तरक्की की उसी राह पर चलने को तैयार है, जहां वह महामारी से पहले था। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि इस वर्ष भारत की अर्थव्यवस्था में जो मजबूती आई है, उसकी बड़ी वजह निजी खर्च और निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश भी रहा। साल की पहली छमाही में निजी खपत का आंकड़ा 2015 के बाद सबसे ऊंचा रहा है। निजी निवेश बढ़ने से रोजगार बढ़ाने में मदद मिली है, जिसका सुबूत शहरों में बेरोजगारी कम होने और ईपीएफओ में पंजीकृत कामगारों की गिनती बढ़ने में मिलता है। इसके बावजूद सर्वे का कहना है कि निजी क्षेत्र को पूंजीगत निवेश, यानी नए कारखानों या स्थिर संपत्ति में निवेश बढ़ाकर अगली कतार की भूमिका निभानी होगी, ताकि रोजगार बढ़ाने का काम तेज हो सके। जहां तक ऐसी चीजों में सरकार के पैसे लगाने का सवाल है, तो सर्वे का कहना है कि इस वित्त वर्ष के शुरुआती आठ महीनों में सिर्फ केंद्र सरकार का यह खर्च 63.4 प्रतिशत बढ़ा है।

सर्वे का एक महत्वपूर्ण नतीजा यह भी है कि बाजार में मांग लौटती दिख रही है, और घरेलू मांग की मजबूती का ही असर है कि जब तक निर्यात के मोर्चे पर कुछ गिरावट आई, तब तक भारत में इतनी मांग पैदा हो चुकी थी कि अर्थव्यवस्था को उसकी वजह से उतना तगड़ा झटका नहीं लगा। साल 2022-23 की दूसरी छमाही में भारत में निजी खपत का आंकड़ा जीडीपी का 58.4 प्रतिशत था, जो 2013-14 के बाद का सबसे ऊंचा स्तर है। उधर निर्यात भी 2022-23 की दूसरी छमाही में गिरा है, लेकिन उससे पहले करीब डेढ़ साल उसमें जो तेजी आई, वह उद्योग की रफ्तार तेज कर चुकी थी। घरेलू मोर्चे पर मांग लौटने का एक बड़ा उदाहरण हाउसिंग सेक्टर में दिख रहा है। इससे न सिर्फ घरों के बिकने का सिलसिला शुरू होता है, बल्कि बैंकों से कर्ज उठने और नए घरों के बनने से खपत व रोजगार का चक्र चलने का काम भी होता दिखता है।

लंबे इंतजार के बाद महंगाई रिजर्व बैंक की बर्दाश्त की सीमा में है, कंपनियों की बैलेंस शीट मजबूत दिख रही है। मगर सर्वे में चिंता जताई गई है कि अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर संकट खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं, इसलिए विदेश व्यापार के मोर्चे पर चिंता बढ़ सकती है। सर्वे के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने इस बात के संकेत दिए कि विकास तेज करने के लिए क्या किया जा सकता है? उनकी राय है कि प्रशासिनक सुधारों की रफ्तार तेज की जाए, लाइसेंस राज के बचे-खुचे अवशेष भी मिटाए जाएं। भारत को वैश्विक विनिर्माण पावरहाउस बनाने के लिए जरूरी है कि बिजली की आपूर्ति भरोसेमंद, लगातार और किफायती हो। अक्षय ऊर्जा पर जोर बढ़ाया जाए, और रोजगार बढ़ाने के लिए मध्यम, लघु व सूक्ष्म उद्योगों को बढ़ावा देने का काम जारी रखा जाए।

जाहिर है, आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत तरक्की की नई कहानी लिखने को तैयार है, लेकिन इस राह में अड़चनें आ सकती हैं। ये अड़चनें भारत के बाहर से आने का डर ज्यादा है। पिछले तीन साल में ऐसे तीन कांड हो चुके हैं, जिनमें कोरोना, यूक्रेन पर रूस का हमला और उसके बाद पश्चिमी देशों में महंगाई का उफान व उससे निपटने के लिए ब्याज बढ़ाने के फॉर्मूले से पैदा हुआ संकट मुख्य है। सर्वे में चिंता जताई गई है कि डॉलर की कीमतें बढ़ने का सिलसिला चलता रहा, तो भारत का चालू खाते का घाटा भी बढ़ता रहेगा। अगर चीन की अर्थव्यवस्था खुलने की रफ्तार तेज हुई और उसकी वजह से दुनिया के बाजार में कच्चे तेल और दूसरी कमोडिटीज के दाम बढ़ने लगे, तो उसका भी बुरा असर झेलना पड़ सकता है, और दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती की वजह से निर्यात भी दबाव में रह सकता है।

कुल मिलाकर, एक बार फिर दुविधा की स्थिति दिख रही है। दुनिया की तरक्की तेज हो, तब भी उसका कुछ बुरा असर आ सकता है, यानी महंगाई का असर डॉलर पर और भारत के आयात बिल पर दिखेगा। तरक्की धीमी हुई, तो भारत से निर्यात पर दबाव दिखेगा। ऐसे में, संकट से निपटने का सुरक्षित तरीका सिर्फ ‘आत्मनिर्भर भारत’ को बढ़ावा देना ही दिखता है।


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