29-10-2022 (Important News Clippings)

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29 Oct 2022
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Date:29-10-22

Partly Equal

Good call by BCCI. Women’s cricket needs more

TOI Editorials

BCCI’s decision to implement pay parity in match fees for India’s women cricketers is both fair and congruent with economic logic. It’s timed well, too – women’s cricket is witnessing a boost in popularity after a string of creditable performances in recent years. That even Bollywood is trying to cash in with biopics on players such as Mithali Raj and Jhulan Goswami is perhaps the best proof.

True, men cricketers still earn higher annual retainer fees and a far greater share of media revenue. But market imperatives can’t be completely ignored. After all, sports in the electronic and digital media age is driven by consumer demand and revenue streams. And if the men’s game is more popular or operates on different parameters than the women’s version, returns get automatically skewed in favour of the former. But tennis boldly instituted equal pay in the Grand Slams despite men and women players spending vastly different game times on court.

The point is inadequate financial incentives discourage girls and women from taking up sports in the first place, pushing them into stereotypical gendered roles in society. Sport is a tool for empowering girls and women. There can be no dispute that pay parity ought to be the ultimate goal. Players, administrators and organisers need to work together to get there, like American women’s soccer did earlier this year. BCCI’s move is a step in the right direction. More needs to be done – an IPL-like tournament for women will help immensely.


Date:29-10-22

Well Bowled, BCCI, Pay Parity Is a Start

Step to reshape consumer preferences

ET Editorials

India’s cricket board has joined its counterpart in New Zealand to chip away at gender bias in sport by equalising international match fees for male and female players. This is a landmark decision for popularising cricket among women, although men will continue to earn far more because of a super dense calendar of matches at various levels in all formats of the game. The other half of the earnings disparity will, of course, persist till advertising budgets do not stretch to support a bigger itinerary for women’s cricket. Board of Control for Cricket in India (BCCI) has set the ball rolling on reshaping consumer preferences by equalising playing fees. It also takes a shot at addressing the discrimination in opportunity that worsens at the lower levels of the pyramid. Despite these handicaps, Indian women have put up a remarkable performance in cricket at the international level.

The board joins administrators of other sports in the country, such as hockey, table tennis and badminton, apart from the Olympics disciplines that have narrowed gender disparity. The job is easier in other sports where audiences are smaller. Left to themselves, market forces tend to exacerbate the bias in earnings, and stronger affirmative action is called for in cricket, which draws an overwhelming share of sports advertising in the country. Grand Slam tennis is broadening the global audience for skill in the women’s game as opposed to endurance for men. Viewership of cricket in Indiaplayed by men and women could evolve on similar lines.

The decision by the richest cricket governing body in the world will carry weight among international administrators of the game, but it is unlikely to become the norm among playing nations that are dealing with varying degrees of interest. Cricket has undergone several transformations to keep the spectator glued to the TV/phone screen. There is a compelling argument among less affluent cricket boards to conserve the purse for segments of the game that draw the most interest, all of which happen to involve men.


Date:29-10-22

खेलप्रेमी महिला क्रिकेट को भी बराबरी से बढ़ावा दें

संपादकीय

कई वर्षों से विश्व-पटल पर भारतीय महिलाएं क्रिकेट में अपना दबदबा बना रही हैं। इनमें से कुछ दनिया की बेहतरीन बैटर और बॉलर मानी जाती हैं। एक पुरुष-प्रधान समाज में लड़कियों का खेल में आगे आना समाज की बेहतर तार्किक सोच का परिणाम है। ऐसे में क्रिकेट की नियामक संस्था बीसीसीआई का महिला और पुरुष क्रिकेट मैच की फी बराबर करना महिलाओं को समानता देने में एक बड़ा कदम है। अभी तक महिलाओं के मैच होते तो थे लेकिन उनके रहने, खाने और ट्रेनिंग की व्यवस्था में पुरुष खिलाड़ियों के मुकाबले काफी अंतर देखने को मिलता था। खेल संस्थाएं उन्हें समान स्तर पर रखेंगी तो नई प्रतिभाएं भी आगे आएंगी। लेकिन असली समानता तब मिलेगी जब क्रिकेट-प्रेमी भी महिला क्रिकेट को उसी इबादत वाले ‘उन्माद’ से देखें, जिससे वे पुरुष क्रिकेट को देखते हैं। पुरुष क्रिकेट मैच के दौरान देश की सड़कों पर सन्नाटा हो जाता है लेकिन अधिकांश खेलप्रेमियों को यह भी नहीं पता चलता कि भारतीय महिला टीम ने लगातार विजय पताका फहराई है। अगर कुश्ती, बॉक्सिंग, वेट-लिफ्टिंग, टेनिस और बैडमिंटन सहित अनेक खेलों में भारतीय महिलाएं ओलिंपिक पदक ला सकती हैं तो केवल पुरुष क्रिकेट के प्रति ही क्यों यह पूजा-भाव? कहीं यह बाजार की ताकत का प्रभाव तो नहीं?


Date:29-10-22

बेलगाम पर लगाम

संपादकीय

राजनेता अक्सर चुनावी उन्माद में भूल जाते हैं कि सार्वजनिक मंचों से क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए। पिछले कुछ दशक से जब धर्म को राजनीति से जोड़ कर जनाधार बनाने का प्रयास तेज हुआ है, तबसे ऐसे बयानों की बाढ़-सी आ गई है, जिसमें सामाजिक ताने-बाने का खयाल भी भुला दिया जाता है। ऐसे बयानों को लेकर पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने खासी नाराजगी जाहिर की और राजनेताओं को उनकी लोकतांत्रिक मर्यादा याद दिलाई थी। दरअसल, राजनेता इसलिए किसी धर्म, जाति, समुदाय के खिलाफ और प्रतिपक्षी पर तीखी व्यक्तिगत टिप्पणियां करने से गुरेज नहीं करते कि उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो पाती। मगर अब शायद राजनेताओं को समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां के मामले से कुछ सबक मिले। आजम खां को भड़काऊ और नफरती भाषण देने की वजह से दोषी करार दिया गया। उन्हें पच्चीस हजार रुपए का जुर्माना और तीन साल कैद की सजा सुनाई गई है। इससे समाजवादी पार्टी की राजनीतिक पकड़ और आजम खां के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा, वह अलग बात है, मगर महत्त्वपूर्ण यह है कि इस फैसले से राजनेताओं के आपत्तिजनक और अलोकतांत्रिक बयानों पर अंकुश लगाने की नजीर बनी है।

राजनीति में प्रतिद्वंद्वी पर कटाक्ष करना, उसकी कमियों को सामने लाना और तीखे प्रहार करना गलत नहीं माना जाता। बल्कि विपक्षी दलों से तो यह अपेक्षा की जाती है कि वे सत्तापक्ष की गलत नीतियों, फैसलों और कामकाज के अनुचित तरीकों के खिलाफ आवाज उठाएं। मगर इसकी भी एक मर्यादा होती है। शालीन भाषा में भी गलत बातों का प्रतिकार किया जा सकता है, सत्ता की नीतियों का विरोध किया जा सकता है, बल्कि यही लोकतांत्रिक तरीका होता है। मगर कुछ राजनीतिक दल मान बैठे हैं कि सत्ता पक्ष या अपने प्रतिपक्षी के खिलाफ वे जितनी कड़वी भाषा का इस्तेमाल करेंगे, जितना वे उसके नेताओं पर व्यक्तिगत हमले करेंगे, उतना ही उनका जनाधार बढ़ेगा। यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक रूप से बढ़ चुकी है। अब न केवल विपक्षी, बल्कि सत्ता पक्ष के नेता भी जवाबी हमले के रूप में खूब बढ़-चढ़ कर अशोभन, भड़काऊ और नफरत फैलाने वाले बयान देते नजर आते हैं। जब से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की घेरेबंदी कर चुनावी समीकरण हल किए जाने लगे हैं, तब से ऐसे भाषणों की बाढ़-सी आ गई है। जैसे नेताओं की जुबान पर कोई लगाम ही न रह गई हो। आजम खां ने भी इसी झोंक में न सिर्फ वहां के जिलाधिकारी के खिलाफ व्यक्तिगत तल्ख टिप्पणियां की थी, बल्कि प्रधानमंत्री के खिलाफ भी जहर उगले थे।

कायदे से चुनाव प्रचार के समय दिए जाने वाले नफरती और आपत्तिजनक बयानों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का अधिकार निर्वाचन आयोग को है, मगर वह प्राय: अपने कान में तेल डाले रहता है। अगर ऐसे बयानों के खिलाफ मुकदमा किया जाता है, तो वह लंबे समय तक अदालतों में लटका रहता और अंतत: बेअसर साबित होता है। इसी का नतीजा है कि राजनेताओं का मनोबल बढ़ता गया है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे बयानों के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई न करने पर पुलिस के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का आदेश दिया। तब से उम्मीद बनी है कि अब राजनेता अपनी जुबान को कुछ साफ करने की कोशिश करेंगे। अब आजम खां को मिली सजा से और कड़ा संदेश मिला है। मगर स्वाभाविक ही लोगों के मन में सवाल बने हुए हैं कि ऐसे राजनेता हर दल में हैं, तो क्या उनके खिलाफ भी कभी ऐसी कड़ी कार्रवाई हो पाएगी!


Date:29-10-22

समानता का मैदान

संपादकीय

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट की जो जगह बन चुकी है, उसमें इसे बाजार और कमाई के लिहाज से भी एक अहम खेल के तौर पर देखा जाता है। मगर हैरानी की बात है कि इसमें पुरुष और महिला क्रिकेट खिलाड़ियों की फीस के मसले पर बराबरी नहीं थी। हालांकि लंबे समय से यह सवाल उठाया जाता रहा था कि इस खेल में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को कम मेहनताना दिए जाने का आधार क्या है! क्या इसके पीछे महिलाओं को कम करके आंकने का भाव नहीं पता चलता है? क्या उनके खिलाफ यह प्रत्यक्ष भेदभाव नहीं है? इस सवाल का कोई उचित जवाब यही हो सकता था कि इस दिशा में पुरुष और महिला खिलाड़ियों के बीच हर स्तर पर बराबरी लाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। अब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने फिलहाल शुल्क के मामले में गैरबराबरी को खत्म करने के लिए एक बड़े कदम की घोषणा की है। बोर्ड की ओर से गुरुवार को कहा गया कि हम अपनी अनुबंधित बीसीसीआइ महिला क्रिकेटरों के लिए वेतन समानता की नीति लागू कर रहे हैं; पुरुष और महिला क्रिकेटरों, दोनों के लिए मैचों की फीस समान होगी, क्योंकि हम भारतीय क्रिकेट में लैंगिक समानता के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं।

यह भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक बड़ा और सकारात्मक कदम है, हालांकि ऐसा बहुत पहले हो जाना चाहिए था। यह अपने आप में विचित्र व्यवस्था थी कि हर स्तर पर एक ही तरह से खेलने वाले खिलाड़ियों के बीच शुल्क के निर्धारण में भेदभाव की व्यवस्था का आधार महिला और पुरुष होना हो। एक पुरुष खिलाड़ी को एक टेस्ट मैच के लिए पंद्रह लाख रुपए, एकदिवसीय के लिए छह लाख और टी-20 अंतरराष्ट्रीय मैच के लिए तीन लाख रुपए फीस के तौर पर मिलते हैं। मगर भारतीय महिला क्रिकेटरों के लिए यही राशि टेस्ट मैच में चार लाख और एकदिवसीय या टी-20 में महज एक लाख रुपए था। बेशक अब नया फैसला लागू होने के बाद अनुबंधित महिला टीम के खिलाड़ियों को भी पुरुष खिलाड़ियों के बराबर फीस मिलेगी, मगर यह व्यवस्था फिलहाल सिर्फ प्रति मैच के मामले में लागू होगा। सालाना अनुबंध की राशि अब भी पहले से निर्धारित रकम के मुताबिक ही मिलेगी। जाहिर है, फीस में यह समानता अभी पुरुष और महिला क्रिकेट खिलाड़ियों के बीच बराबरी की व्यवस्था को लागू करने की ओर बढ़े शुरुआती कदम हैं।

यह समझना मुश्किल है कि महिला क्रिकेटरों के प्रति भेदभाव के पीछे क्या वजहें रहीं! भेदभाव की यह व्यवस्था आमतौर पर सभी खेलों और दुनिया भर में रही है। एक दलील यह दी जाती है कि महिला क्रिकेट के दर्शकों की संख्या चूंकि कम होती है, इसलिए इसका असर उनके मेहनताने पर भी पड़ता है। लेकिन जब एक खेल का समूचा ढांचा पुरुष और महिला खिलाड़ियों के लिए एक ही है, तो उसमें महिला क्रिकेट के आयोजन को लोकप्रिय बनाने की जिम्मेदारी किसकी है? पिछले कुछ सालों के दौरान महिला क्रिकेटरों ने अपने प्रदर्शन के बूते मैदान में अपनी क्षमता साबित की है और भारी पैमाने पर लोगों की दिलचस्पी इस खेल में बढ़ी है। दरअसल, किसी खेल की लोकप्रियता उसके आयोजन और आयोजकों के रुख पर निर्भर है कि उसे कितनी गंभीरता से लिया जाता है। अब अगर मैचों में फीस बराबर करने की पहल की गई है तो उम्मीद है कि हर स्तर पर पुरुषों के मुकाबले बराबरी को महिलाओं का हक माना जाएगा और इसे लेकर कोई बहाना या टालमटोल का रवैया अख्तियार नहीं किया जाएगा।


Date:29-10-22

महिला क्रिकेटरों की बल्ले–बल्ले

संपादकीय

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का यह निर्णय ऐतिहासिक माना जाएगा‚जिसमें अब महिला खिलाड़ियों को पुरुष क्रिकेटरों के समान ही मैच फीस मिलेगी। लैंगिक समानता की दृष्टि से बृहस्पतिवार (27 अक्टूबर) भारतीय खेल के लिए यादगार तारीख बन गई है। पुरुष खिलाड़ियों के बराबर महिला खिलाड़ियों को मैच फीस देने वाला भारत न्यूजीलैंड क्रिकेट बोर्ड के बाद विश्व का दूसरा बोर्ड बन गया है। भारत में खेल की दशा और दिशा बदलने वाले इस फैसले के बावजूद अभी बहुत बदलाव होना शेष है। दरअसल‚महिला क्रिकेटरों को इस बात का मलाल रहता है कि पुरुषो के मुकाबले उनके लिए मैच काफी कम आयोजित होते हैं। बीसीसीआई के कैलेंडर में भी महिला खिलाड़ियों के लिए कार्यक्रम नहीं होते हैं। टेस्ट मैच तो काफी लंबे अंतराल पर होते हैं। हां‚महिला क्रिकेट में इस वर्ष से आईपीएल का आयोजन जरूर इनके उत्साह को बढ़ाने में मददगार होंगे। इसके अलावा‚बोर्ड को आधारभूत सुविधाओं को बढ़ाने के प्रयास करने होंगे। मसलन; प्रैक्टिस के लिए अधिकाधिक स्टेडिम और पिच होने जरूरी हैं। आमतौर पर लड़कों के मुकाबले लड़कियों के लिए प्रैक्टिस पिच का अनुपात 12:2 होता है। जाहिर है‚लड़कियों के लिए ऐसी स्थिति उनके खेल के स्तर और उनकी रुचि को कमतर ही करेंगी। क्रिकेट बोर्ड के इस फैसले से दूसरे खेलों पर असर पड़ना स्वाभाविक है। हो सकता है दूसरे खेल में रुचि रखने वाली खिलाड़ी आकर्षक मैच फीस के लालच में क्रिकेट की तरफ जाएं। इससे निश्चित तौर पर क्रिकेट के अलावा उन खेलों में प्रतिभाशाली खिलाड़ी आने से हिचकेंगे‚जहां हाल के वर्षों में उनका प्रदर्शन अद्भुत रहा है। उदाहरण के तौर पर भारत में महिला खिलाड़ियों–मेरीकॉम‚पी.वी. सिंधु‚साइना नेहवाल‚मीराबाई चानू आदि ने अपने व्यक्तिगत प्रदर्शनों के दम पर खेल को ऊंचाई प्रदान की। खैर‚इन सब कमियों के बावजूद बीसीसीआई का महिला और पुरुष क्रिकेटरों के बीच कोई अंतर नहीं रखना खेल खासकर महिला क्रिकेट के लिए नया सवेरा है। हां‚दूसरे खेल के सर्वेसर्वा भी इस तरह की बराबरी की बात करें तो हो सकता है‚भारत में खेल का वह माहौल बन सके‚जिसकी प्रतीक्षा हम वर्षों से करते रहे हैं |


Date:29-10-22

समाज की कलंक कथा

डॉ. मोनिका शर्मा

इन दिनों बिहार से ऑनर किलिंग की कुछ घटनाएं संकीर्ण सोच‚निष्ठुर बर्ताव की बानगी बन सामने आई हैं। भागलपुर की घटना में घरवालों के खिलाफ जाकर शादी करने पर भाई ने बहन की हत्या कर दी। कुछ समय पहले अपनी मर्जी से शादी कर घर बसाने वाली इस बेटी को मां ने दीपावली पर घर बुलाया था। पर्व पर घर आई बहन को गोली मारकर सगे भाई ने ही उसकी जान ने ली है।

बिहार के ही हाजीपुर में भी एक नाबालिग लड़की की जान लेने की खौफनाक साजिश भी सामने आई है। लड़की का गांव के किसी युवक से प्रेम प्रसंग होने के चलते उसके पिता‚मां‚भाई और रिश्तेदार ने मिल कर हत्या कर डाली। इसी प्रांत के नवादा में भी एक लड़की को अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुन लेने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। लड़की के भाई ने शादी के 5 साल बाद अपनी बहन को गोलियों से भून दिया। गौरतलब है कि शादी के बाद से ही दोनों परिवारों के बीच तनातनी के चलते लड़की अपने पति के साथ बाहर रहने चली गई थी। बीते दिनों दशहरे के अवसर पर दोनों अपने गांव आए थे। त्योहारी परिवेश में गांव की एक दुकान से खरीदारी रही बहन पर भाई ने गोलियां बरसा दी। दरअसल‚आन के नाम जान ले लेने की ये घटनाएं बर्बर और अमानवीय तो हैं ही सामाजिक और पारिवारिक सोच की बंधी–बंधाई स्थितियों से रूबरू करवाती हैं। समय के साथ जिन क्रूर और असभ्य घटनाओं पर लगाम लग जानी चाहिए थी‚उनके आंकड़ों का बढ़ना वाकई तकलीफदेह है। घर बसाने के पांच साल बाद अपनी बहन की जान ले लेने के नवादा जैसे मामले को अप्रत्याशित आक्रोश का नतीजा भर भी नहीं कहा जा सकता है। ऐसी घटनाएं स्पष्ट रूप से बताती हैं कि रूढ़िवादी सोच की पैठ कितनी गहरी है। गौरतलब है कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में ऐसी घटनाएं होती रही हैं। ऐसे में गिनती के दिनों में बिहार से सामने आए ऑनर किलिंग के कई वाकये वाकई हैरान परेशान करने वाले हैं। दरअसल‚ सम्मान बचाने के नाम होने वाली ऐसी क्रूरतापूर्ण घटनाएं शिक्षा और मानवीय समझ के हर मोर्चे पर सवाल उठाती हैं। मर्जी से शादी करने वाले बच्चों के साथ मारपीट करना‚तेजाब फेंक देना‚जान ले लेना‚गांव–घर से निकाल देना जैसे वाकये दूरदराज के इलाकों में ही नहीं महानगरों तक में होते रहते हैं। कुछ साल पहले मुंबई जैसे महानगर में हुए ऑनर किलिंग के बर्बर मामले में गर्भवती बेटी जब पिता के पैर छूने के लिए झुकी तो चाकू से वार कर उसकी जान ले ली गई है। इसी प्रदेश के ओर मामले में अंतरजातीय विवाह का विरोध कर रहे घर वालों ने बेटी सहित दामाद को जिंदा जला दिया था। ऑनर किलिंग के ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं‚जिनमें मर्जी से शादी कर लेने वाले लड़के–लड़की के परिवारजनों या रिश्तेदारों के साथ भी बर्बरता की गई है। नतीजतन आपराधिक मामलों की फेहरिस्त में इन घटनाओं का आंकड़ा वाकई भयावह है। 2019 के एनसीआरबी आंकड़ों के मुताबिक बीते कुछ बरसों मे देश भर में ऑनर किलिंग की घटनाओं में। गुना वृद्धि हुई है। उत्तर प्रदेश‚हरियाणा‚गुजरात और फिर मध्य प्रदेश में ऐसे मामले सबसे ज्यादा दर्ज किए गए हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश भर में ऑनर किलिंग की घटना में 68 फीसद घटनाएं सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही होती है। वर्ष 2014 से 2016 के बीच देश में सम्मान के नाम पर हत्या के 356 मामलों की सूचना लोक सभा को दी गई थी।

ध्यान देने वाली बात है कि इज्जत और प्रतिष्ठा के नाम पर बच्चों की जान लेने वाले बहुत से मामले तो रिपोर्ट तक नहीं किए जाते। एक ओर शिक्षा और जागरूकता का बढ़ता ग्राफ तो ओर दूसरी ओर बच्चों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारने की सोच का नदारद होना है। अपने ही बच्चों के साथ दरिंदगी के हैरान–परेशन करने वाले ऑनर किलिंग के मामले बताते हैं कि सामाजिक–पारिवारिक ढांचे में आज भी बदलाव के नाम पर कुछ नहीं बदला है। हाजीपुर की घटना में सामने आया है कि बेटी के प्रेम–प्रसंग के चलते गांव वालों के तानों से परेशान घरवालों ने उसकी जान ले ली है। यानी हमारा समग्र समाज ही वैचारिक ठहराव और बाहरी बदलाव की विरोधाभासी प्रवृत्ति का शिकार है। दूरदराज के गांवों में तो ऐसे अमानवीय आक्रोश को समाज की चुप्पी का भी साथ मिलता है। नतीजतन‚ऐसी घटनाएं कानून और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनी हुई हैं। ऐसे मामलों को लेकर सर्वोच्च अदालत द्वारा भी अपनी टिप्पणी में कहा जा चुका है कि ‘इज्जत के नाम पर हो रही इन हत्याओं में कुछ भी सम्मानजनक नहीं है बल्कि ये बर्बर और शर्मनाक तरीके से की गई हत्या है। अब इन बर्बर‚सामंती प्रथाओं को खत्म करने का समय है‚ जो हमारे देश पर कलंक हैं।’ अफसोस कि आज भी अपनों का यह रक्तरंजित व्यवहार अपने ही बच्चों का जीना दुश्वार कर रहा है।


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