11-08-2022 (Important News Clippings)

Afeias
11 Aug 2022
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Date:11-08-22

State Of Opposition

If 2019 is a guide, wins & losses of opposition in states may not add up to anything substantial nationally

TOI Editorials

With Nitish Kumar and Tejashwi Yadav assuming office again, the opposition earned its first political breakthrough in 2022. It has been a year where BJP’s hold over politics has intensified. It won elections in UP, Uttarakhand, Manipur and Goa, toppled Maharashtra’s MVA government by engineering a Shiv Sena split, and dominated the president and vice-president elections. Defeated in five states including Punjab, Congress is trying many things: the underwhelming chintan shivir was one, and the next in line is a nationwide padayatra.

Mamata Banerjee’s sheen from last year’s big victory over BJP has dimmed. Despite the big Punjab win, Arvind Kejriwal and AAP still have a long way to go. Other regional satraps with national ambitions like Sharad Pawar and K Chandrashekar Rao are bogged down in increasingly desperate turf battles with BJP. Nevertheless, even BJP will admit that total domination of state-level politics is proving harder to accomplish. Amid the vacuum in national politics where Congress is unable to project itself as a credible alternative to BJP, the real battlegrounds have shifted to state capitals.

Not surprisingly, reverberations from Uddhav Thackeray’s plight in Mumbai resonated in Patna: Nitish’s fear of BJP destabilising JD(U) reportedly passed the point of no return. Bihar, like Maharashtra and Jharkhand, does show opposition parties, even if only driven by political survival, can get together. However, upcoming elections suggest no possibility of a Congress truck with AAP in Gujarat and HP, or with JD(S) in Karnataka.

Victories in state polls are good for morale and funds but aren’t necessarily a presager of national outcomes. Despite three critical Hindi heartland wins in 2018, Congress crashed in 2019. For 2024, if the opposition is serious, the starting point has to be unity and a common national manifesto. The opposition also needs a suitable political face to prop up nationally, with elections turning presidential. But mammoth egos will likely scupper that idea. Third, most opposition netas today come with political baggage that stymies their prospects. For instance, Nitish’s diminished stock in Bihar doesn’t help his cause. Mamata’s ventures outside Bengal have massively flopped. Nevertheless, Nitish brings useful OBC and Hindi heartland identity, sobriety and political smarts. With 12 assembly elections due in 2022 and 2023, NDA is raring to take its national dominance to states. Opposition parties have the opposite task of harnessing their prospects in states into a credible national campaign.


Date:11-08-22

ताइवान से सैन्य और खुफिया रिश्ते मजबूत करना जरूरी

अभिजीत अय्यर मित्रा, ( सीनियर फेलो, आईपीसीएस )

ताइवान से भारत के गहरे हित जुड़े हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि ताइवान और भारत चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की राह में अड़ंगे की तरह हैं। चीन हम दोनों को अपने एक ऐसे काम की तरह देखता है, जिसे निपटाया नहीं जा सका है। अगर दोनों में से कोई एक कमजोर पड़ता है तो चीन अपनी आक्रामकता का पूरा रुख दूसरे की ओर मोड़ देगा। एक की सुरक्षा दूसरे पर निर्भर है। इसके बावजूद भारत ताइवान से संवाद करने में संकोच करता है।

हमारी फौज इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझती है कि चीन दुश्मन है और वह उसके लिए खुद को तैयार रखती है। वह यह भी चाहती है कि हम ताइवानियों से सैन्य और खुफिया सहभागिता कायम करें। लेकिन हमारा विदेश मंत्रालय भारत की सुरक्षा नीति को वीटो कर देता है। कभी-कभी हम चीन के पक्ष को इतनी बेपरवाही से स्वीकार कर लेते हैं कि अनेक चीनी वार्ताकारों ने मुझसे कहा है कि हम चीन के विदेश मंत्रालय से भी ज्यादा प्रो-चाइना रुख अपना लेते हैं। इसके पीछे यह खुशफहमी है कि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हमें प्रवेश की स्वीकृति देगा। यह कभी नहीं होने वाला है। एक और बड़ा कारण है चीन पर हमारी अतिशय निर्भरता। हम सेमी-कंडक्टर से लेकर मोबाइल तक चीन पर आश्रित हो चुके हैं। अगर नॉर्थ ब्लॉक में बैठे अफसरान संजीदा होते तो वे ताइवान से सेमीकंडक्टर्स लेने का प्रस्ताव रखते और ऐसी सप्लाई चेन रचने की कोशिश करते, जिसमें हम चीन को पूरी तरह बायपास कर देते।

इससे पहले यूक्रेन वाले मामले में भी हमारे सामने यही दुविधा की स्थिति बनी थी कि हम उस पर क्या रवैया अपनाएं। रूस हमारा मित्र था। लेकिन जहां यूक्रेन की सुरक्षा हमारे लिए अप्रासंगिक थी, वहीं ताइवान की सुरक्षा से हमारे हित जुड़े हैं। ताइवान में आखिर ऐसा क्या हो रहा है? अमेरिकी कांग्रेस की स्पीकर नैन्सी पेलोसी के द्वारा ताइवान की यात्रा करने को चीन ने अक्षम्य बताया है। भारत के परिप्रेक्ष्य में इसे ऐसे समझें कि मानो नैन्सी पीओके गई हों, उसके नेताओं से मिली हों और यह बयान दिया हो कि अमेरिका ‘आजाद कश्मीर’ की रक्षा करेगा। तब भारत कैसे प्रतिक्रिया करेगा? कम से कम चीन की तरह तो नहीं। क्योंकि हमारे सबसे मुखर विरोध भी शालीन होते हैं, जबकि चीन तो फर्जी प्रोपेगंडा और लड़ाई-झगड़े पर आमादा हो जाता है।

चीन कहता था कि वह नैन्सी को ताइवान नहीं आने देगा, लेकिन वो आ गईं। चीन अब कह रहा है कि ऐसा फिर नहीं हो सकेगा, लेकिन वह किसी को रोक नहीं सकता। नैन्सी वाले मामले में फजीहत होने के बाद खिसियाया चीन अब खम्भा नोंच रहा है। वह सैन्य अभ्यास करने लगा है। समस्या यह है कि यहां से अगर वह पीछे लौटा तो कमजोर माना जाएगा। लेकिन अगर उसने ताइवान पर चढ़ाई कर दी तो यह बहुत महंगा एडवेंचर होगा, जिसमें उसे नाकामी का सामना करना पड़ेगा। याद रखें कि हिटलर अपनी तमाम सैन्यशक्ति के बावजूद ब्रिटेन को हरा नहीं सका था, क्योंकि उसने जिस फ्रांसीसी तटरेखा पर डेरा डाल रखा था, वहां से ब्रिटेन 33 किमी दूर था। ताइवान तो चीनी तट से पूरे 180 किमी दूर है। ताइवानी फौजें भी बहुत उन्नत व प्रभावी हैं।

सम्भावना यही है कि चीन कोई दीर्घकालीन नाकाबंदी करेगा, जिससे ताइवानी उत्पादों और सेवाओं की इंश्योरेंस दरें बढ़ जाएंगी। हम ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि भारत-ताइवान के परस्पर-हितों को आगे बढ़ाएं, जो चीन को अपने प्रतिकूल लगे। इनमें सबसे जरूरी होगा दोनों देशों के बीच सघन खुफिया सहभागिता। दूसरे, प्रणालीगत तरीके से चीन को सप्लाई-चेन से बेदखल करते हुए ताइवान की एडवांस्ड इलेक्ट्रॉनिक्स की आपूर्ति को हमारी निर्माण-इकाइयों से जोड़ना। लेकिन इस सबके लिए विजन, साहस और आत्मविश्वास की जरूरत है। क्या वह हमारे नेतृत्व में है?


Date:11-08-22

विश्वविद्यालयी शिक्षा में क्रांतिकारी कदम

प्रो. निरंजन कुमार, ( दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं वैल्यू एडिशन कोर्सेस कमेटी के अध्यक्ष हैं )

राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी एनईपी की दूसरी वर्षगांठ कुछ ही दिन पहले मनाई गई। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नीति आयोग की बैठक में भी शिक्षा नीति के क्रियान्वयन पर गहन चर्चा हुई। 21वीं सदी की चुनौतियों से मुकाबले के लिए तैयार एनईपी-2020 के उद्देश्य बहुत उच्च और दूरगामी हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन अपने आप में एक चुनौती है। एनईपी-2020 का एक प्रमुख लक्ष्य विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण है, ताकि शिक्षार्थियों के जीवन के सभी पक्षों और क्षमताओं का संतुलित विकास हो सके। भारतीय चिंतन परंपरा में चरित्र निर्माण और समग्र व्यक्तित्व विकास, विद्या या कहें कि शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य माना जाता है। वर्तमान युग में चरित्र निर्माण और समग्र व्यक्तित्व विकास की जरूरत और बढ़ जाती है।

यह अनायास नहीं कि एनईपी-2020 की घोषणा के साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया। मानव संसाधन से ध्वनित होता था कि मानवीय संवेदना, भावों एवं संस्कारों से रहित मनुष्य जैसे एक भौतिक संसाधन मात्र हों जिसे इस्तेमाल कर फेंक दिया जाए। यह एक तरह से पश्चिम के भौतिकवादी चिंतन से प्रेरित था। जबकि शिक्षा अभिधान मनुष्य के भौतिकवादी पहलू के साथ-साथ चारित्रिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक सभी पक्षों को समाहित करता है, जो भारतीय चिंतन-पद्धति का प्रतिबिंबन है। युवाओं की इन्हीं जरूरतों को ध्यान में रखकर एनईपी-2020 के क्रियान्वयन की दिशा में दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा वैल्यू एडिशन कोर्सेस अर्थात मूल्य संवर्धन पाठ्यक्रम बनाए गए हैं। यह एक अभिनव और ऐतिहासिक कदम है। पश्चिम से प्रभावित जीवनशैली, टेक्नोलाजी के खोल में सिमटती हुई दुनिया, रियल लाइफ के बजाय वर्चुअल लाइफ और इंटरनेट मीडिया का बढ़ता वर्चस्व, शारीरिक और श्रमपरक खेलकूद की जगह गैजेट गेम्स में उलझते जीवन, बढ़ते एकाकीपन ने देश के युवाओं को एक खतरनाक गिरफ्त में लेना शुरू किया है। इसका दुष्परिणाम है ऐसे असंतुलित व्यक्तित्व का निर्माण, जो स्वयं उनके लिए ही नहीं, बल्कि परिवार, समाज और देश के लिए भी अनुत्पादक और खतरनाक साबित हो रहा है। आए दिन युवाओं से संबंधित अनेक असामान्य और डरावनी घटनाएं हमें देश भर से सुनने को मिलती हैं। शिक्षा के धरातल पर इन्हीं से निपटने के लिए एक सुचिंतित, सुविचारित और दूरगामी प्रयास है मूल्य संवर्धन पाठ्यक्रम। देश भर के विशेषज्ञों की सहायता से तैयार इन पाठ्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य छात्रों का सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास और चरित्र निर्माण और टीम वर्क का विकास करना है। मैकाले माडल की तरह ये कोरे सैद्धांतिक कोर्स नहीं होंगे, बल्कि प्राचीन भारतीय अध्ययन पद्धति या आधुनिक काल में महात्मा गांधी के माडल से प्रेरित सभी कोर्सों में प्रायोगिक अध्ययन कम से कम 50 प्रतिशत होगा। इन पाठ्यक्रमों को विज्ञान, कला और कामर्स आदि सभी के छात्र पढ़ सकते हैं। ये पाठ्यक्रम हमारे युवाओं में सामाजिक दायित्व का बोध और सेवा का भाव भरने के साथ उनमें देशप्रेम का भाव भी विकसित करेंगे।

आगामी अकादमिक सत्र 2022-23 के पहले सेमेस्टर के लिए अब तक 24 कोर्स बनाए जा चुके हैं। पूरे स्नातक प्रोग्राम के लिए कुल लगभग सौ ऐसे कोर्स बनाए जाएंगे। वर्तमान के कुछ प्रमुख कोर्स इस प्रकार हैं-वैदिक गणित, स्वच्छ भारत, फिट इंडिया, आर्ट आफ बीइंग हैप्पी, इमोशनल इंटेलीजेंस, पंचकोश: होलिस्टिक डेवलपमेंट, भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य, आयुर्वेद एंड न्यूट्रिशन, साइंस एंड सोसायटी, योग: फिलासफी एंड प्रैक्टिसेज, साहित्य, संस्कृति और सिनेमा, प्राचीन भारतीय परंपरा में आचार-नीति और मूल्य, कांस्टीट्यूशनल वैल्यूज एंड फंडामेंटल ड्यूटीज, डिजिटल एंपावरमेंट इत्यादि। वैदिक गणित का पाठ्यक्रम अपने ढंग का अद्वितीय कोर्स है। यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि गणित की अपनी प्राचीन समृद्ध विरासत को स्वाधीनता पश्चात भी हम अपने पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं कर पाए। वैदिक गणित विद्यार्थियों की संगणन क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है। आइआइएम में प्रवेश के लिए कैट एग्जाम की कोचिंग कराने वाले संस्थान वैदिक गणित की टेक्निक सिखाते हैं।

युवाओं में बढ़ते असंतुलन, मानसिक तनाव और आक्रामकता आदि से निपटने में पंचकोश: होलिस्टिक डेवलपमेंट बहुत सहायक सिद्ध होगा। तैत्तिरीय उपनिषद में उल्लिखित ‘पंचकोश’ के आधार पर व्यक्तित्व-चरित्र का निर्माण युवाओं को एक नई दिशा देने का कार्य करेगा। योग: फिलासफी एंड प्रैक्टिसेज कोर्स भी आज के जटिल और तनावपूर्ण जीवन में बहुत उपयोगी सिद्ध होने वाला है। अन्य कोर्सों में भी भारतीय ज्ञान परंपरा के तत्वों को यथासंभव शामिल किया है। जैसे कांस्टीट्यूशनल वैल्यूज एंड फंडामेंटल ड्यूटीज वाले कोर्स में सेक्युलरिज्म के साथ-साथ सर्व धर्म समभाव की अवधारणा भी जोड़ी गई है। धर्म को लेकर हमारी संवैधानिक स्थिति सेक्युलरिज्म की अवधारणा के बजाय भारतीय सर्व धर्म समभाव की अवधारणा के ज्यादा अनुरूप है।

21वीं सदी में दुनिया में परचम लहराने को तैयार युवाओं का नया भारत आर्थिक रूप से तो तैयारी कर ही रहा है, लेकिन यह जरूरी है कि न्यू इंडिया संतुलित, चरित्रवान, सामाजिक दायित्व-बोध और राष्ट्रप्रेम के भाव से युक्त भी हो, तभी भारत पुन: जगद्गुरु बन पाएगा। आशा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के वैल्यू एडिशन कोर्सेस देश के विश्वविद्यालयों के लिए इस संदर्भ में एक माडल होंगे।


Date:11-08-22

ताइवान का संकट

संपादकीय

चीन और ताइवान के बीच जारी तनाव किसी युद्ध से कम नहीं लग रहा। पिछले हफ्ते अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद इस क्षेत्र में दोनों देशों के युद्धाभ्यास की कवायद बता रही है कि इस आग की लपटें फिलहाल शांत नहीं होने वालीं। पेलोसी के ताइवान पहुंचने के पहले अमेरिका और चीन ने एक दूसरे को जिस तरह की चेतावनियां दीं, उससे भी यह तो साफ हो चला था कि चीन-ताइवान विवाद अभी भड़केगा। इसीलिए पेलोसी के ताइवान से छोड़ते ही चीन ने जो आक्रामक रुख दिखाया और सैन्य गतिविधियों को अंजाम दिया, उसे युद्ध भले ही न कहा जाए, पर मतलब साफ था, ताइवान के साथ-साथ अमेरिका को भी धमकाना। चीन के सत्ताईस लड़ाकू विमान ताइवान में घुस गए। इसके अलावा ताइवान की घेरेबंदी के लिए उसने दो जंगी बेड़े और पनडुब्बियां भी महासागर में तैनात कर दीं। जवाब में अब ताइवान भी युद्धाभ्यास कर रहा है। ये घटनाक्रम बता रहे हैं कि ताइवान के आसपास शांति नहीं है। चीन उस पर कब हमला कर बैठे, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। उधर, ताइवान का भी मनोबल जिस तरह से बढ़ा हुआ है, उससे साफ है कि वह चीन का डट कर मुकाबला करेगा। लेकिन जो हो, युद्ध के ऐसे हालात एशियाई शांति के बड़ा खतरा तो बन ही गए हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ताइवान का विवाद इसलिए भी ज्यादा गरमाया है कि अमेरिका बीच में कूदा हुआ है। वह शुरू से ताइवान के रक्षक की भूमिका में है। इसलिए भी कि इसमें उसके बड़े हित छिपे हैं। ताइवान हथियारों के लिए एक तरह से उस पर निर्भर है। ऐसे में अमेरिका हथियारों का इतना बड़ा खरीदार हाथ से कैसे जाने देना चाहेगा! कहना न होगा कि अमेरिका यही काम यूक्रेन में भी कर रहा है। यूक्रेन रूस का मुकाबला करता हुआ जंग के मैदान में डटा रहे, इसके लिए वह उसे लगातार हथियार दे रहा है। वैसे चीन ताइवान पर हमला करता है या नहीं, यह एक अलग बात है। मगर जब-जब अमेरिका ने ताइवान की आड़ में चीन को घेरने रणनीति बनाई, यह विवाद कहीं ज्यादा गंभीर रूप लेता गया है। देखा जाए तो चीन-ताइवान का विवाद तो सात दशक से भी पुराना है। भले चीन उसे अपना हिस्सा बताता रहा हो, लेकिन हमले के नतीजों को वह भी अच्छी तरह समझता है। वरना वह कब का ही उस पर धावा बोल चुका होता!

गौरतलब है कि द्वीपों, समुद्री सीमाओं और जमीनी सीमाओं को लेकर चीन के कई देशों के साथ विवाद हैं। कहने को तो ताइवान पर लंबे समय तक जापान का भी कब्जा रहा। लेकिन आज ताइवान स्वतंत्र देश है। यों भी दुनिया में तमाम देश ऐसे हैं जो कभी न कभी किसी देश का हिस्सा रहे, पर कालातंर में इन देशों ने स्वतंत्र अस्तित्व हासिल कर लिया। इसलिए छोटे-छोटे द्वीपों और देशों पर अधिकार और कब्जे की मंशा रखने वाले महाबली देश अशांति का कहीं बड़ा कारण बनते जा रहे हैं। इसी से इन्होंने दुनिया में हथियारों का बड़ा बाजार भी खड़ा कर लिया। यह समझना होगा कि ताइवान के नाम पर सिर्फ खेमेबाजी बढ़ेगी। इस मुद्दे पर पाकिस्तान और रूस तो पहले से चीन के साथ खड़े हैं ही। पश्चिमी देश अमेरिका के दबाव में रहेंगे। ऐसे में खतरा यही है कि कहीं एशिया में भी एक और यूक्रेन न देखने को मिल जाए!


Date:11-08-22

बढ़ते मुकदमे, बोझिल होती जेलें

सुशील कुमार सिंह

सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड के कानूनविद् विलियम ब्लैकस्टोन ने एक विचार दिया था, जो बाद में पूरी दुनिया में आधुनिक न्याय व्यवस्था के लिए एक सिद्धांत बना। उन्होंने कहा था कि एक भी निर्दोष को कष्ट नहीं होना चाहिए, भले ही दस अपराधी बच कर क्यों न निकल जाएं। यह अवधारणा इस बात को पुख्ता करती है कि न्याय पर भरोसा तो पूरा करना चाहिए, मगर निर्दोष के लिए कानून तनिक मात्र भी संकट न बने। देश की शीर्ष अदालत ने भी कई बार कहा है कि जमानत ही नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। जाहिर है, अन्याय, गिरफ्तारी और जेल का यह सिलसिला कमोबेश अनवरत चलता रहेगा। मगर बढ़ते मुकदमे और बोझिल होती जेलें कब भारहीन होंगी, इसका अंदाजा लगा पाना कठिन है।

भारत की जेलों में कैदियों की संख्या इस कदर बढ़ी हुई है कि कई बार जगह न मिलने और बुनियादी सुविधाओं पर भी सवाल उठते रहे हैं। गौरतलब है कि वे कैदी जिन पर जब तक आरोप सिद्ध नहीं हुए हों, उन्हें विचाराधीन की श्रेणी में रखा जाता है और अदालत में उनके मामले चल रहे होते हैं। संसद में इसे लेकर के एक सवाल पहले उठा था, जिस पर गृह मंत्रालय ने जवाब में बताया था कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जेल संबंधी आंकड़ों का ब्योरा रखता है और इन्हें अपनी सालाना रिपोर्ट प्रिजन स्टेटिस्टिक इंडिया में प्रकाशित करता है। 31 दिसंबर 2020 की स्थिति के अनुसार भारत में तीन लाख इकहत्तर हजार से अधिक विचाराधीन कैदी हैं। इसमें उन्नीस हजार से थोड़े अधिक आठ केंद्रशासित क्षेत्रों से हैं, जबकि शेष सभी भारत के अट्ठाईस राज्यों से हैं। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2015 से देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या में तीस फीसद से अधिक की वृद्धि हुई है, जबकि दोष सिद्धी के मामले में पंद्रह फीसद की कमी आई है। पड़ताल के अगले हिस्से में देखें तो यह भी पता चलता है कि जमानत पर रिहा किए जाने के कारण साल 2020 में 2019 की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या दो लाख साठ हजार की कमी आई।

शायद यह बहस की जा सकती है कि देश में बढ़ रहे विचाराधीन कैदियों की संख्या लोकतांत्रिक दृष्टि से सामाजिक न्याय को ही चुनौती दे रही है। विचाराधीन कैदियों के अनुपात को सघनता से समझा जाए तो सबसे अधिक वृद्धि पंजाब में देखने को मिलती है। उसके बाद हरियाणा और मध्यप्रदेश को देखा जा सकता है। पंजाब में यह संख्या 2019 में छियासठ फीसद से बढ़ कर 2020 में पिच्यासी फीसद हो गई। जबकि हरियाणा में यही चौसठ फीसद से बयासी फीसद और मध्य प्रदेश में चौवन से बढ़ कर लगभग सत्तर फीसद तक पहुंच गई। दिल्ली में भी विचाराधीन कैदियों की संख्या बयासी फीसद से बढ़ कर इनक्यानबे फीसद हो गई, जिसकी वजह से यह राज्य सबसे अधिक विचाराधीन कैदियों वाला बन गया। बिहार की जेलें हों या उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओड़ीशा आदि की, ऐसे कैदियों की तादाद सब जगह बढ़ रही है। तमिलनाडु के बाद तेलंगाना ऐसा राज्य हैं जहां विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी देखने को मिलती है। तमिलनाडु की जेल में बंद कैदियों में महज इकसठ फीसद ही विचाराधीन कैदी हैं और तेलंगाना में यह आंकड़ा पैंसठ फीसद के आसपास है। साल 2020 में केरल की जेलों में विचाराधीन कैदियों का अनुपात सबसे कम महज उनसठ फीसद था। इसका एक बड़ा कारण तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में कैदियों को अदालत में ले जाए बिना जेलों में ही सुनवाई भी हो सकता है। गौरतलब यह भी है कि लगभग सभी राज्यों में कोविड प्रतिबंधों के चलते चिकित्सा देखभाल को लेकर अदालती यात्राओं की संख्या में गिरावट हुई है। शीर्ष अदालत ने कोविड-19 को देखते हुए पात्र कैदियों की अंतिम रिहाई का आदेश दिया था। न्यायालय का उद्देश्य जेलों में भीड़ कम करना और कैदियों के जीवन के स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करना शामिल था।

कानून के शासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं। मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लंबित हो जाए तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं। हमारी संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समता और संरक्षण का अधिकार हासिल है। मगर कानून का उल्लंघन करने वालों को मुकदमे, जेल और सजा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसी का परिणाम है कि करोड़ों मुकदमे लंबित और लाखों लोग जेल में बंद हैं, जिसमें अधिकतर विचाराधीन हैं और जेल में बंद हैं।

प्रिजन स्टेटिस्टिक इंडिया 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया है। विचाराधीन कैदियों की आबादी भारत में सर्वाधिक है। साल 2016 के आंकड़े से यह पता चलता है कि कुल कैदियों में से अड़सठ फीसद विचाराधीन थे। खास बात यह भी है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 (क) को लेकर अनभिज्ञता भी इन्हें जेल में रहने के लिए मजबूर किए हुए है। गौरतलब है कि दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के अंतर्गत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किए गए कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है। इसके तहत अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है। साल 2019 का एक आंकड़ा बताता है कि जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़ कर एक सौ अठारह फीसद से अधिक हो गई है। जाहिर है, बुनियादी दिक्कतें तो बढ़ेंगी ही, साथ ही रखरखाव के लिए बजट की भारी-भरकम राशि भी इन पर खर्च होती है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अमिताभ राय समिति ने जेलों में सुधार के लिए कई सिफारिशें की थीं। इसमें शीघ्र विचारण को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया, तीस कैदियों के लिए कम से कम एक वकील अनिवार्य करने की बात कही और पांच साल से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे मामलों के निपटान हेतु त्वरित न्यायालयों की स्थापना का सुझाव शामिल था। इतना ही नहीं, कैदियों के लिए कानूनी सहायता जैसे तमाम संदर्भ भी इसमें निहित हैं। इसके अलावा रिक्तियों को भरने जैसे कई अन्य संदर्भों पर भी सुझाव देखे जा सकते हैं। पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में त्वरित अदालतें बनाई भी गई हैं, लेकिन अधीनस्थ न्यायालय और इन त्वरित अदालतों में लंबित मामलों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। मई 2021 तक चौबीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की नौ सौ छप्पन त्वरित अदालतों में नौ लाख से अधिक मामले लंबित थे। साल 2019 और 2020 के बीच उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों में बीस फीसद की दर से और अधीनस्थ न्यायालयों में तेरह फीसद की दर से बढ़ोत्तरी हुई।

न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अवगत होना चाहिए और कानून की गरिमा में उनका दृढ़ विश्वास होना चाहिए। लेकिन हकीकत में मामला उलट है। कुछ को तो अपने अधिकार ही मालूम नहीं हैं और बहुत से ऐसे हैं जो वकीलों की कानूनी फीस नहीं चुका सकते। एक गंभीर समस्या न्याय प्रक्रिया की जटिलता भी है। कानूनी प्रक्रियाएं लंबी और महंगी हैं। न्यायपालिका के पास इन मामलों के निराकरण के लिए कर्मचारियों और भौतिक ताम-झामों की भारी कमी है। शायद यही कारण है कि भारत की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लंबित पड़े हैं जो न्याय में देरी को पूरी तरह पुख्ता करते हैं।


Date:11-08-22

खेल संस्कृति की दरकार

आरके सिन्हा, ( लेखक वरिष्ठ संपादक‚स्तंभकार एवं पूर्व सांसद हैं )॥

यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है‚ अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल आयोजनों में भारत की लगभग सांकेतिक उपस्थिति रहा करती थी। हम हॉकी में तो कभी–कभार बेहतर प्रदर्शन कर लिया करते थे‚ पर शेष खेलों में हमारा प्रदर्शन औसत से नीचे या खराब ही रहता था। हिंदुस्तानी खेल प्रेमियों की निगाहें तरस जाती थीं कि एक अदद पदक को देखने के लिए। पर गुजरे दशक से स्थितियां तेजी से बदल रही हैं खासकर मोदी सरकार के आने के बाद।

सबसे बड़ी बात है कि हम बैडमिंटन में विश्व चैंपियन बनने लगे हैं‚ हमारा खिलाड़ी ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतता है और क्रिकेट में तो हम विश्व की बड़ी शक्ति हैं ही। इस कॉमनवेल्थ गेम में 22 स्वर्ण पदकों सहित कुल 61 पदकों के साथ भारत चौथे स्थान पर पहुंच गया। पहली बार भारत को 22 स्वर्ण‚ 16 रजत और 23 कांस्य पदक मिले। भारतीय शटलर पी. वी. सिंधु ने आखिरी दिन बैडमिंटन में स्वर्ण पदक जीता। बैडमिंटन में सिंधु के अतिरिक्त लक्ष्य सेन ने एकल में और चिराग–सात्विक साईराज ने जुगल में स्वर्ण पदक जीता। ईशा–गायत्री और श्रीकांत ने भी कांस्य पदक प्राप्त किए। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इस प्रकार पदकों की बारिश हुई। बेटियां वेटिलफ्टिंग तथा कुश्ती जैसी स्पर्धाओं में देश की झोली पदकों से भर देती हैं। कॉमनवेल्थ खेलों की वेटिलफ्टिंग स्पर्धाओं में मीराबाई चानू‚ जेरेमी लालरिनुंगा और अचिंता शुली ने तीन गोल्ड मेडल जीते‚ जबकि संकेत महादेव सरगर‚ बिंद्यारानी देवी सोरोखैबम और विकास ठाकुर ने सिल्वर और लवप्रीत सिंह‚ गुरु राजा‚ हरजिंदर कौर और गुरदीप सिंह ने कांस्य पदक जीता। कुश्ती मुकाबलों में भारतीय खिलाडि़यों का जलवा देखने को मिला। पहले ही दिन साक्षी मलिक ने महिला 62 किलो भार वर्ग के फाइनल में कनाडा की एना गोडिनेज गोंजालेज को हराकर गोल्ड मेडल जीता। भगवान शिव के भक्त बजरंग पूनिया ने भारत के लिए गोल्ड मेडल जीता। अंशु मलिक सिल्वर मेडल जीतने में कामयाब रहीं जबकि दिव्या काकरान और मोहित ग्रेवाल कांस्य पदक हासिल करने में सफल रहे। रवि दहिया और दीपक पुनिया ने भी स्वर्ण पदक हासिल किए। कॉमनवेल्थ खेलों से ठीक पहले ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा ने वर्ल्ड़ एथलेटिक्स चैंपियनिशप में इतिहास रच दिया था। उन्होंने इस चैंपियनिशप में 19 साल बाद भारत को पदक दिलाया। वह भारत के पहले पुरुष खिलाड़ी बन गए हैं‚ जिन्होंने वर्ल्ड़ एथलेटिक्स चैंपियनशिप में पदक हासिल किया है। उनसे पहले लंबी कूद में महिला एथलीट अंजू बॉबी जॉर्ज ने पदक जीता था। अंजू ने साल 2003 में वर्ल्ड़ एथलेटिक्स चैंपियनशिप में मेडल अपने नाम किया था।

बीती मई में भारत ने थॉमस कप जीता था। लक्ष्य सेन‚ किदांबी श्रीकांत‚ एच एस प्रणय और सात्विक साईराज रंकी रेड्डी–चिराग शेट्टी ने जो धैर्य और द्रण्ड संकल्प दिखाया उसने उस धारणा को धराशायी कर दिया कि भारतीय खेलों के लिए नहीं बने हैं। कहा जाता रहा है कि भारतीयों में जीतने वाला दम नहीं होता। हम सिर्फ देश में ही अच्छा खेलते हैं‚ और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिसड़्ड़ी साबित होते हैं। भारतीय बैडमिंटन की लंबी छलांग की बात करेंगे तो पी.वी. सिंधु को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। उन्होंने कुछ हफ्ते पहले सिंगापुर ओपन चैंपियनशिप को जीता। उन्होंने अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी चीन की वैंग झी यी को धूल चटाई। सिंधु के लिए यह किसी कड़ी परीक्षा की तरह था लेकिन वो जंग ही क्या जिसे भारत की सिंधु पार नहीं कर पाए। मुकाबला टक्कर का था पर कोर्ट पर सिंधु की फुर्ती के सामने चीनी दीवार ढेर हो गई। सिंधु ने महत्वपूर्ण लम्हों पर धैर्य बरकरार रखना सीख लिया है। सिंधु का मौजूदा सत्र का यह तीसरा खिताब है। सिंधु ओलिंपिक में रजत और कांस्य पदक के अलावा विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण‚ दो रजत और दो कांस्य पदक भी जीत चुकी हैं।

बहरहाल‚ कहना पड़ेगा कि भारत खेलों में चौतरफा स्तर पर आगे बढ़ रहा है। हमारी क्रिकेट टीम ने हाल ही में पहले इंग्लैंड़ में और वेस्ट इंडीज में शानदार प्रदर्शन किया। यह वास्तव में सुखद स्थिति है। पर देखना होगा कि हमें खेलों में उपलब्धियां पूर्वोत्तर या हरियाणा से ही अधिक क्यों मिल रही हैं। बिहार‚ झारखंड तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से सफल खिलाडि़यों का निकलना बाकी है। इन राज्यों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। उभरतीं प्रतिभाओं को सुविधाएं देनी होंगी। झारखंड से बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी खास तौर पर निकलते रहे हैं। भारत ने कॉमनवेल्थ खेलों की कुश्ती स्पर्धा में उम्मीद के मुताबिक सही प्रदर्शन किया। पदक दिलवाने वाले लगभग सब पहलवान हरियाणा से थे। उत्तर प्रदेश के वाराणसी‚ इलाहाबाद‚ आजमगढ़‚ गाजीपुर‚ गोरखपुर आदि जिलों के अपने अखाडों से श्रेष्ठ पहलवान क्यों नहीं निकल रहेॽ क्या हालत है इन जिलों के अखाड़ों कीॽ उत्तर सुनकर सिर शर्म से झुक जाएगा कि बदहाल इन अखाड़ों को कोई पूछने वाला नहीं है। रु स्तम–ए–हिंद मंगला राय‚ हिंद केसरी विजय बहादुर‚ मनोहर पहलवान कभी तो इन्हीं अखाड़ों से निकले थे।

बिहार को भी खेलना होगा। याद नहीं आता कि 10-12 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश से कब कोई नामवर खिलाड़ी निकला। बिहारी समाज को खेलों पर फोकस करना होगा। खेलों का कल्चर विकसित करना जरूरी है। हरेक भारतवासी की चाहत है कि भारत खेलों की महाशक्ति बने। बेशक‚ हम इस दिशा में तेजी से बढ़ भी रहे हैं‚ लेकिन अब भी कुछ राज्यों में खेलों की संस्कृति विकसित नहीं हो पा रही है। दिल्ली‚ मुंबई‚ कोलकाता तथा अन्य महानगरों से भी पदक दिलवाने वाले खिलाड़ी सामने नहीं आ रहे हैं। दिल्ली में 1982 के एशियाई खेल हुए। 2012 में कॉमनवेल्थ खेल हुए। इसलिए यहां तमाम विश्वस्तरीय स्टेडियम बने। इनमें उच्च कोटि की सुविधाएं दी गई। इसके बावजूद दिल्ली भी बहुत सारे खिलाड़ी देश को नहीं दे रही है। इन पहलुओं पर गौर करने की जरूरत है।


Date:11-08-22

हमारी बहनें आखिर कितनी आजाद

अनिता भटनागर जैन

रेडियो पर गाना आ रहा था, भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना। घर में शकरपारे के पकने की खुशबू आ रही है। दादी ने नीलम का दुपट्टा ठीक करते हुए कहा, ‘तुम भैया को राखी बांधोगी और बदले में भैया अपनी बड़ी बहन की रक्षा करेगा।’ मम्मी बोलीं, ‘अरे अम्मा, वे जमाने गए, जब लड़कियां भाई की सुरक्षा पर आश्रित थीं, अब तो लड़कियां स्वयं ही सक्षम हैं।’

यह माना जाता है कि बहन अपने भाई की तरक्की और दीर्घायु होने की कामना करती है और बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। यह त्योहार कब शुरू हुआ, कोई नहीं जानता। कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है। जब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया, तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने अपना पल्लू फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय द्रौपदी की साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं, परस्पर एक-दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना का यह पर्व यहीं से प्रारंभ हुआ। ऐतिहासिक प्रसंग यह है कि मेवाड़ की रानी कर्णावती को बहादुर शाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी ने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने बहादुर शाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती के राज्य की रक्षा की।

सुखद संयोग है कि रक्षाबंधन का पर्व 75वें स्वतंत्रता दिवस के समीप पड़ रहा है। मन में विचार आया कि क्या आज भी बहनों को सुरक्षा की जरूरत है? यह विचारणीय है कि बेटियों ने इन वर्षों में कितनी प्रगति की? हमारे समाज में पितृवादी सोच में बेशक लड़कियों के साथ दोयम दरजे का व्यवहार किया जाता है, मगर गत 75 वर्षों में सरकारी नीतियों के कारण महिलाओं की स्थिति में अनेक मानकों पर बदलाव आया है।

स्वतंत्रता के समय महिलाओं में साक्षरता दर 8.9 प्रतिशत थी, जो अब 70.3 प्रतिशत हो गई है। लिंग अनुपात की बात करें, तो 1961 में प्रति हजार पुरुषों पर 976 महिलाएं थीं, अब यह 1,020 महिलाएं प्रति हजार पुरुष हैं। आज उन महिलाओं की संख्या में भी इजाफा हुआ है, जिनके नाम अकेले अथवा संयुक्त स्वामित्व की संपत्ति, बैंक खातों में दर्ज हैं। बेशक संसद में उनकी संख्या में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है, लेकिन बड़ी संख्या में महिलाएं अपना वोट डालती हैं। यही कारण है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के लिए महिला वोट महत्वपूर्ण हो गया है।

अब महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में उच्च जिम्मेदार पदों पर आसीन हैं। वे उन क्षेत्रों में भी उपलब्धि हासिल कर रही हैं, जिनको पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान माना जाता है। लड़़ाकू विमानों की कमान महिलाओं के हाथों में होना, महिला कमांडो द्वारा जेड प्लस सुरक्षा देना, अग्निवीर में महिलाओं की भर्ती जैसा कदम उल्लेखनीय है। अब महिलाएं विज्ञान, अंतरिक्ष, बायो-टेक्नोलॉजी जैसे पारंपरिक पुरुष एकाधिकार वाले क्षेत्रों में भी सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। उन्होंनेे ई-कॉमर्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, स्वास्थ्य जैसे कई क्षेत्रों में सफलतापूर्वक स्टार्टअप स्थापित किया है। कॉरपोरेट भारत में 30 फीसदी महिला कर्मचारी हैं, जबकि इंजीनियरिंग की कक्षाओं में 40 प्रतिशत लड़कियां हैं। पंचायती राज एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें 33 प्रतिशत आरक्षण, जो अब कई राज्यों में 50 प्रतिशत है, के कारण ग्रामीण अंचलों में भी महिलाएं सशक्त हुई हैं।

तो क्या अब महिलाओं को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं रह गई है? राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, प्रत्येक घंटे दहेज के कारण एक महिला की मृत्यु होती है और तीन का बलात्कार होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह अनुमानित है कि 99 प्रतिशत बलात्कार रिपोर्ट ही नहीं किए जाते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे ने 11 राज्यों में यह पाया कि 70 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा के बारे में शिकायत नहीं करती हैं। अन्य सर्वेक्षण के अनुसार, 80 प्रतिशत से अधिक महिलाओं ने पति द्वारा शारीरिक हिंसा को सही ठहराया है, 80 फीसदी कामकाजी महिलाओं को कार्यस्थल पर विभिन्न प्रकार के यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा और शिकायत करने के उपरांत भी उनको न्याय नहीं मिला। लिंग अनुपात के आंकड़ों में सुधार आया है, परंतु जन्म के लिंग अनुपात में स्थिति अभी चिंताजनक है। सरकार ने विभिन्न योजनाओं, जैसे बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला, नारी शक्ति पुरस्कार, महिला शक्ति केंद्र, निर्भया आदि के माध्यम से महिलाओं को सशक्त करने का प्रयास किया है, जिसके परिणाम अब कई क्षेत्रों में दिखने लगे हैं। इस प्रगति को और गति कैसे दी जाए कि हम अधिकांश ्त्रिरयों को सशक्त कर सकें, इस पर हमें सोचना होगा।

बच्चे माता-पिता को देखकर उनका आचरण सीखते हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि घरेलू हिंसा व महिलाओं के विरुद्ध अन्य जो भी अपराध होते हैं, उन सब पर परिवार, कॉलेजों में, सभी स्थानों पर चर्चा की जाए। हाल ही में पंजाब, हरियाणा एवं ओडिशा में ‘जेंडर इक्वलिटी’ (लैंगिक समानता) पाठ्यक्रम लागू किया गया है, जिनमें किशोर लड़के-लड़कियों को लैंगिक विषयों पर संवेदनशील बनाया जाएगा। माता-पिता को भी अब बुढ़ापे का सहारा लड़कियां देने लगी हैं। चेन्नई हवाईअड्डे पर रात साढ़े ग्यारह बजे टोल टैक्स बूथ पर लड़कियों को बैठे देख प्रसन्नता होती है। साफ है, जितनी अधिक संख्या में लड़कियां व महिलाएं घर के बाहर कार्य क्षेत्रों में दिखेंगी, उससे सामाजिक परिवर्तन और तेज होगा।

आज देश के राष्ट्रपति पद पर अत्यंत सामान्य परिवार की एक आदिवासी महिला आसीन हैं। कदाचित इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता कि अब महिलाओं की प्रगति के लिए कई रास्ते खुले हैं और अनेक महिलाओं को पारंपरिक रूप से सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। मगर इस राह पर अभी आगे और बढ़ना है, ताकि कोई लड़की यह महसूस न करे कि वह अपने माता-पिता पर भार है या उसे पुरुष की सुरक्षा की आवश्यकता है।

वेटलिफ्टर मीराबाई चानू के लिए कुछ पुरुषों ने सोशल मीडिया पर लिखा था कि यह उनके बच्चे पैदा करने की उम्र है, न कि वजन उठाने की। मीराबाई ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर 201 किलो वजन उठाकर कॉमनवेल्थ गेम्स 2022 में देश के लिए स्वर्ण पदक जीतकर मुंहतोड़ जवाब दे दिया।


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