04-08-2022 (Important News Clippings)

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04 Aug 2022
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Date:04-08-22

रेवड़ी संस्कृति

संपादकीय

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने रेवड़ी संस्कृति को एक गंभीर विषय बताते हुए उसे खत्म करने के लिए केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग से न केवल सुझाव मांगे, बल्कि एक विशेषज्ञ निकाय बनाने का निर्देश भी दिया। उसने इस निकाय में केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग के साथ विभिन्न दलों, नीति आयोग, रिजर्व बैंक आदि को शामिल करने को भी कहा। ऐसे किसी निकाय को गठित कर सबसे पहले रेवड़ी संस्कृति को परिभाषित करना होगा, क्योंकि कई दल अपनी लोक-लुभावन घोषणाओं को जन कल्याणकारी योजनाओं की संज्ञा देने लगे हैं। इसी कारण निर्वाचन आयोग ऐसे दलों पर लगाम लगाने में समर्थ नहीं, जो अपने घोषणा पत्रों में मनमानी लोक-लुभावन घोषणाएं करते हैं। रेवड़ी संस्कृति की शुरुआत तमिलनाडु से हुई और फिर वह पूरे देश में फैल गई। आज स्थिति यह है कि करीब-करीब प्रत्येक दल चुनाव के मौके पर लोक-लुभावन घोषणाएं करने लगा है। ऐसा करते समय राजनीतिक दल इसकी परवाह नहीं करते कि वे अपने लोक-लुभावन वायदों को पूरा कैसे करेंगे? वे इसका भी कोई आकलन नहीं करते कि क्या आर्थिक स्थिति उन्हें उनके वायदे पूरे करने की सुविधा प्रदान कर रही है?

इसका कोई अर्थ नहीं कि राजनीतिक दल चुनावी लाभ के लिए आमदनी अठन्नी-खर्चा रुपैया वाली कहावत चरितार्थ करें। राजस्व की अनदेखी कर रेवड़ी संस्कृति को अपनाना कितना घातक हो सकता है, इसका ताजा उदाहरण है श्रीलंका। वह इसीलिए तबाह हो गया, क्योंकि उसने अपनी दयनीय आर्थिक दशा के बाद भी लोगों को रियायत देने का सिलसिला कायम रखा। यह चिंता की बात है कि श्रीलंका जैसा काम अपने देश की कुछ राज्य सरकारें भी करने में लगी हुई हैं। रेवड़ी संस्कृति केवल अर्थव्यवस्था की समस्याएं ही नहीं बढ़ाती, बल्कि वह मुफ्तखोरी को बढ़ावा भी देती है। ऐसी किसी योजना को जनकल्याणकारी नहीं कहा जा सकता, जो लोगों को मुफ्तखोर बनाए। जनकल्याणकारी योजना तो उसे ही कहा जा सकता है, जो लोगों की उत्पादकता बढ़ाए और उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही उनकी आर्थिक क्षमता बढ़ाने में सहायक हो। इससे इन्कार नहीं कि देश में एक ऐसा वर्ग है, जो आर्थिक रूप से कमजोर है और उसे राहत एवं रियायत देने की आवश्यकता है, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि राजनीतिक दल आर्थिक नियमों की अनदेखी कर चुनाव के मौके पर रेवड़‍ियां बांटने की घोषणा करें। चूंकि कई बार ऐसी घोषणाएं एक तरह से वोट खरीदने की कोशिश और साथ ही भ्रष्ट चुनावी तौर-तरीकों का पर्याय दिखती हैं, इसलिए उन पर रोक लगनी ही चाहिए।


Date:04-08-22

आईपीईएफ और आरसेप तथा भारत की स्थिति

जैमिनी भगवती, ( लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं )

भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के क्वाड समूह की शिखर बैठक टोक्यो में गत 24 मई को आयोजित की गई थी। इससे पहले अमेरिका ने हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे (आईपीईएफ) के रूप में एक समूह बनाने का सुझाव रखा था और अमेरिकी राष्ट्रपति ने टोक्यो में ही 23 मई को 14 सदस्यीय आईपीईएफ के गठन की घोषणा की थी।

आईपीईएफ में खासतौर पर क्वाड समूह के चार देशों के अलावा दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, फिजी तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के समूह (आसियान) के 10 सदस्य देशों में से सात शामिल हैं। आईपीईएफ के घोषित लक्ष्य हैं व्यापार, स्वच्छ ऊर्जा, अधोसंरचना को बढ़ावा देना तथा आपूर्ति श्रृंखलाओं को मजबूत बनाना। चीन पर अत्यधिक आर्थिक निर्भरता के कारण आसियान के तीन सदस्य देशों लाओस, कंबोडिया और म्यांमार ने आईपीईएफ से दूर रहने का निर्णय लिया है।

इसके विपरीत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में सभी 10 आसियान देशों के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और चीन शामिल हैं। अमेरिका इस समूह का हिस्सा नहीं है।

नवंबर 2020 में 15 सदस्य देशों ने आरसेप नामक बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। विभिन्न सदस्य देशों के बीच क्षेत्रीय तथा अन्य मतभेदों के बावजूद आरसेप के रूप का घोषित लक्ष्य है एशिया प्रशांत क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देना। हमने ऊपर जिन मतभेदों का जिक्र किया उनके उदाहरण के रूप में जापान और ऑस्ट्रेलिया के चीन के साथ विवादों को गिन सकते हैं। भारत ने आरसेप की चर्चा के कई दौर में हिस्सेदारी की लेकिन अंतत: उसने इस समूह से बाहर रहने का निर्णय लिया।

क्वाड समूह के मूल में सुरक्षा का मसला है। आईपीईएफ की स्थापना के साथ अमेरिका का इरादा यह लगता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आर्थिक दबदबे को कम किया जाए। एशिया और ओसेनिया में समय के साथ चीन का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ा है। ऐसा आसियान देशों तथा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के साथ उसके कारोबारी और निवेश संबंधी रिश्तों की बदौलत हुआ है।

प्रमुख आसियान देश चीन के साथ गहन आर्थिक रिश्ते रखने पर जोर देंगे जबकि इसके साथ ही वे अमेरिका के साथ भी रिश्ते कायम रखेंगे। उन्होंने अतीत में ऐसा ही किया है। चूंकि आसियान के सदस्य देशों की प्रति व्यक्ति औसत आय काफी अच्छी है इसलिए आसियान समूह की खुद को लेकर धारणा आईपीईएफ की दक्षिण-पूर्व एशिया को लेकर केंद्रीयता को प्रभावित करेगा।

आईपीईएफ बनाम आरसेप

जी 20 एक ऐसा समूह है जो अक्सर चर्चा में रहता है। भारत भी इसका सदस्य देश है। जी 20 में जी 7 समूह के अलावा भारत, कुछ अन्य बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश तथा रूस और चीन शामिल हैं। यूक्रेन और रूस की जंग छठे महीने में प्रवेश कर गई है और अमेरिका एवं पश्चिम-यूरोप तथा रूस एवं चीन के बीच के मतभेद इतने अधिक हैं कि जी 20 के लिए किसी भी प्रकार की व्यवस्थित महत्ता हासिल करना बहुत मुश्किल है। भारत ब्रिक्स समूह का भी सदस्य है जिसमें उसके अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। वह शांघाई सहयोग संगठन का भी सदस्य है जिसमें चीन, रूस, कजाकस्तान, किर्गिजिस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, भारत और पाकिस्तान शामिल हैं। ईरान और अफगानिस्तान उन देशों में शामिल हैं जो इस संगठन में सदस्यता के लिए प्रतीक्षारत हैं। ये समूह आधिकारिक, मंत्रीय और शासन प्रमुख के स्तर पर मुलाकात करते हैं। इसके अलावा रूस-भारत और चीन त्रिपक्षीय समूह के रूप में विदेश मंत्री के स्तर पर वार्ता करते हैं।

ऊपर जिन बहुपक्षीय समूहों का जिक्र किया गया भारत के अलावा उनमें रूस और चीन तो शामिल हैं लेकिन अमेरिका या पश्चिम का कोई अन्य विकसित देश उसमें शामिल नहीं है। अहम बात यह है कि भारत और रूस का व्यापार, अधिकांश आसियान देशों के साथ उसके व्यापार की तुलना में कम है। बहरहाल, भारत रक्षा और संवेदनशील तकनीक के मामले में रूस पर बहुत अधिक निर्भर है और यह बात जाहिर है। हाल के महीनों में भारत ने रूस पर अपनी तेल आयात निर्भरता बढ़ाई है। आईपीईएफ का संस्थापक सदस्य बनने के साथ ही भारत ने यह संकेत भी दे दिया है कि वह ऐसे समूह में भागीदारी का इच्छुक है जो चीन को रोकना चाहता हो।

भारत के दृष्टिकोण में ऐसा बदलाव कैसे आया? एक बात तो यह कि चीन के साथ मौजूदा सैन्य गतिरोध बरकरार है और करीब 50,000 चीनी सैनिक तथा इतने ही भारतीय जवान लद्दाख की हाड़ जमा देने वाली ठंड में एक दूसरे के सामने डटे हुए हैं। वहां जवानों के लिए जरूरी सामान पहुंचाने तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराने में जो कठिनाई होती है उसकी समानुभूति तो भारत के उच्च आय वर्ग के लोगों तक में देखने को नहीं मिलती है। मीडिया तथा पश्चिम या आसियान देशों के थिंक टैंक भी इस विषय पर शायद ही कभी कोई टिप्पणी करते हों। यह अनुमान के अनुरूप ही है क्योंकि अधिकांश देशों को यही लगता है कि लद्दाख में चीन-भारत सैन्य गतिरोध तथा दुनिया के दो सर्वाधिक आबादी वाले देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर चीन की संवेदनशीलता के प्रति सावधानी बरती जाए। चीन के साथ कई मामलों में भारत की तुलना का सिलसिला सन 1950 के दशक से ही चला आ रहा है। मिसाल के तौर पर चीन में एकदलीय वाम शासन और भारत में बहुलतावादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना जबकि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार काफी छोटा है। इसके अलावा भारत ने दलाई लामा की मौजूदगी को लेकर सार्वजनिक स्वीकार्यता काफी बढ़ा दी है जो निश्चित रूप से चीन को रास नहीं आती।

अपने कारोबारी हितों को ध्यान में रखते हुए जापान ने व्यावहारिक रुख अपनाया है और वह आरसेप तथा आईपीईएफ दोनों का सदस्य बन गया है। भारत को भी आरसेप की सदस्यता लेनी चाहिए थी। बहुपक्षीय समूह चाहे व्यापार से संबंधित हों या सामरिक, वे लाभदायक साबित हो सकते हैं।

बहरहाल, विभिन्न देशों के समूह कभी भी किसी देश की अर्थव्यवस्था या रक्षा से संबंधित मजबूत नीतियों के क्रियान्वयन की जगह नहीं ले सकते। जमीनी कमियों ने अक्सर भारत को प्रभावित किया है और इसे बदले जाने की आवश्यकता है।


Date:04-08-22

पेलोसी का दौरा

संपादकीय

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी का ताइवान दौरा मामूली घटना नहीं है। देखा जाए तो चीन के भारी विरोध और धमकियों के बावजूद पेलोसी का ताइवान पहुंचना अमेरिका की चीन को खुली चुनौती है। जिस कड़ी सुरक्षा के बीच पेलोसी ताइवान पहुंचीं, वह असाधारण थी। चीन की गंभीर नतीजों की धमकियों के मद्देनजर अमेरिकी सेना ने पेलोसी के विमान को चौबीस लड़ाकू विमानों के घेरे के साथ ताइवान में उतरवाया। ऐसा कर अमेरिका ने यह संदेश दे दिया कि वह चीन की धमकियों से डरने वाला नहीं। इससे भी बड़ा संदेश यह कि ताइवान के मामले में वह पूरी तरह उसके साथ खड़ा है और उसे चीन से बचाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। हालांकि प्रतिक्रिया में चीन के लड़ाकू विमानों ने पेलोसी के दौरे के दौरान ही ताइवान के हवाई क्षेत्र में उड़ान भर विरोध जताया। पेलोसी की ताइवान यात्रा के मुद्दे पर चीन ने अमेरिकी राजदूत को भी तलब कर राजनयिक स्तर पर विरोध दर्ज करवाया। ये सारे घटनाक्रम इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि ताइवान को लेकर दोनों देशों के बीच टकराव कभी भी गंभीर रूप ले बैठे तो हैरानी नहीं होगी। जाहिर है, इसके नतीजे भी कम गंभीर नहीं होंगे।

इस साल फरवरी में यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से ही इन आशंकाओं को भी बल मिलता दिखा है कि चीन भी रूस के नक्शे-कदम पर बढ़ सकता है और ताइवान पर हमला कर सकता है। हालांकि ताइवान पर हमला चीन के लिए भी उतना आसान है नहीं। चीन भी इसके निहितार्थ समझता है। लेकिन सवाल है कि ताइवान पर कब्जे को लेकर चीन जहां तक बढ़ चुका है, उससे क्या वह अपने कदम खींचेगा? अब तक चीन का जो रुख रहा है और उसकी पूर्वी कमान जिस तरह ताइवान पर हमले के लिए तैयार बैठी है, उससे जरा नहीं लगता कि वह पीछे हटेगा। वैसे भी खुले तौर पर वह ताइवान को अपना हिस्सा बताता ही रहा है। यह स्थिति गंभीर टकराव वाली है। अगर ताइवान को लेकर जंग छिड़ी, तो यह स्थिति रूस-यूक्रेन संकट से कहीं ज्यादा भयावह साबित हो सकती है। हमला ताइवान पर होगा, पर असली जंग चीन और अमेरिका के बीच होगी। और इसका नतीजा एशिया क्षेत्र में स्थायी अशांति के रूप में देखने को मिल सकता है।

पेलोसी के ताइवान दौरे ने वैश्विक राजनीति में एक हलचल तो पैदा कर ही दी। बड़े देश फिर खेमों में बंट गए। पाकिस्तान ने खुल कर इसका विरोध किया तो आस्ट्रेलिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जापान के स्वर भी दबे रहे। रूस चीन के साथ खड़ा है ही। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन खुद भी इस पक्ष में नहीं थे कि पेलोसी अभी ताइवान जातीं। अमेरिकी सेना का विचार भी कुछ ऐसा ही था। लेकिन प्रतिनिधि सभा की स्पीकर की हैसियत से पेलोसी अमेरिकी राजनीति में तीसरी बड़ी ताकतवर नेता हैं। फिर, दो साल बाद अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव पर भी उनकी नजर है। वे शुरू से चीन की मुखर विरोधी भी रही हैं। ऐसे में बाइडेन उन्हें कैसे रोक पाते? वैसे भी चीन के साथ व्यापार युद्ध और फिर उस पर लगे कोरोना वायरस फैलाने के आरोप के बाद अमेरिका के साथ रिश्तों में और तनाव आया है। यूक्रेन में रूस को रोक पाने में अमेरिका को कोई सफलता हाथ लगी नहीं है। पिछले साल अफगानिस्तान से अमेरिका ने अपना बोरिया-बिस्तर समेटने में ही बुद्धिमानी समझी थी। ऐसे में अगर अमेरिका अब ताइवान के लिए चीन से उलझता है तो वह खुद तो मुश्किलों में पड़ेगा ही, दुनिया को नए संकट में धकेल देगा।


Date:04-08-22

डूबना शहरों की नियति !

पंकज चतुर्वेदी

देश में जहां भी बरसात हुई‚ सुकून से ज्यादा आफत बन गई। बरसात अचानक बहुत तेज‚ बड़ी बूंदों के साथ और कम समय में इफरात में हो रही है। बरसात की धार ने आईना दिखा दिया विकास का प्रतिमान कहे जाने वाले शहरों को‚ राजधानी दिल्ली हो‚ जयपुर या स्मार्ट सिटी परियोजना वाले इंदौर–भोपाल या बेंगलुरू या फिर हैदराबाद। अब जिला मुख्यालय स्तर के शहरों में भी बरसात में सड़क का दरिया बनना आम बात हो गई है। विडंबना है कि ये वे शहर हैं‚ जहां सारे साल एक–एक बूंद पानी के लिए मारामारी होती है‚ लेकिन पानी तनिक भी बरस जाए तो अव्यवस्थाएं उन्हें पानी–पानी कर देती हैं। बीते एक दशक के दौरान इस तरह शहरों में जल जमाव का दायरा बढ़ता जा रहा है।

देश की राजधानी दिल्ली में हाईकोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक कई–कई बार स्थानीय निकाय को बरसात में जल जमाव के स्थायी हल निकालने के लिए ताकीद कर चुके हैं। लेकिन हर बरसात में हाल पहले से बदतर होते हैं। अब समझना होगा कि जलवायु परिर्वतन में बरसात का अनियमित होना और चरम होना अब सतत जारी रहेगा और शहरों में सड़क निर्माण से अधिक ध्यान ड्रेनेज‚ बहाव के ढाल और जमा पानी के संग्रहीकरण पर करना जरूरी है। आम बात है कि जिन शहरों में सड़कें बन रही हैं‚ वहां बरसात होने की दशा में जल निकासी पर कोई सटीक काम हो नहीं रहा है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह खेती–किसानी से लेागों को मोह भंग हुआ और जमीन को बेच कर शहरों में मजदूरी करने का प्रचलन बढ़ा है‚ उससे गांवों का कस्बा बनना‚ कस्बों का शहर और शहर का महानगर बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। विडंबना है कि हर स्तर पर शहरीकरण की एक ही गति–मति रही‚ पहले आबादी बढ़ी‚ फिर खेत में अनधिकृत कालोनी काट कर या किसी सार्वजनिक पार्क या पहाड़ पर कब्जा कर अधकच्चे‚ उजड़े से मकान खड़े हुए। कई दशकों तक न तो नालियां बनीं‚ न सड़क और धीरे–धीरे इलाका ‘अरबन–स्लम’ में बदल गया। लोग रहें कहीं भी लेकिन उनके रोजगार‚ यातायात‚ शिक्षा और स्वास्थ्य का दबाव तो उसी ‘चार दशक पुराने’ नियोजित शहर पर पड़ा‚ जिस पर अनुमान से दस गुना ज्यादा बोझ हो गया है। परिणाम सामने हैं कि दिल्ली‚ बंबई‚ चेन्नई‚ कोलकाता जैसे महानगर ही नहीं‚ देश के आधे से ज्यादा शहरी क्षेत्र अब बाढ़ की चपेट में हैं। गौर करने लायक बात यह भी है कि साल में ज्यादा से ज्यादा 25 दिन बरसात के कारण बेहाल हो जाने वाले ये शहरी क्षेत्र पूरे साल में आठ से दस महीने पानी की एक–एक बूंद के लिए तरसते हैं।

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान‚ पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्क्त अकेले बाढ़ की ही नहीं है‚ इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती। चूंकि शहरों में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है‚ और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है‚ सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी–तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है। जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है‚ और लगातार कमजोर हो रही जमीन पर खड़े कंक्रीट के जंगल किसी छोटे से भूकंप से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कालोनियां के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं।

यह दुखद है कि हमारे नीति निर्धारक अभी भी अनुभवों से सीख नहीं रहे हैं‚ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य की नई बन रही राजधानी अमरावती कृष्णा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बनाई जा रही है। कहा जा रहा है कि यह पूरी तरह नदी के तट पर बसी होगी लेकिन यह नहीं बताया जा रहा कि इसके लिए नदी के मार्ग को संकरा कर जमीन उगाही जा रही है‚ और उसका अति बरसात में डूबना और यहां तक कि धंसने की पूरी–पूरी आशंका है। शहरों में बाढ़ के बड़े कारण पारंपरिक जल संरचनाओं जैसे–तालाब‚ बावड़ी‚ नदी का खत्म करना और उनके जल आगम क्षेत्र में अतिक्रमण‚ प्राकृतिक नालों पर अवैध कब्जे‚ भूमिगत सीवरों की ठीक से सफाई न होना हैं। लेकिन इनसे भी बड़ा कारण है हर शहर में हर दिन बढ़ते कूड़े के अंबार और उनके निबटान की माकूल व्यवस्था न होना। बरसात होने पर यही कूड़ा पानी को नाली तक जाने या फिर सीवर के मुंह को बंद करता है।

शहरीकरण और वहां बाढ़ की दिक्कतों पर विचार करते समय एक वैश्विक त्रासदी को ध्यान में रखना जरूरी है–जलवायु परिवर्तन। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीन हाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है‚ और इसकी की दुखद परिणति है– मौसमों का चरम। गरमी में भीषण गर्मी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास। बरसात में कभी सुखाड़ तो कभी अचनाक आठ से दस सेमी. पानी बरस जाना। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट तो ग्लोबल वामिÈग के चलते धरती का तापमान ऐसे ही बढ़ा तो समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और उसके चलते कई शहरों पर डूब का खतरा होगा। खतरा महज समुद्र तटों के शहरों पर ही नहीं होगा ‚ बल्कि उन शहरों को भी डुबा सकता है जो ऐसी नदियों के किनारे हैं‚ जिनका पानी सीधे समुद्र में गिरता है।

तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं हैं‚ यह भी तय है कि आने वाले दिन शहरीकरण के विस्तार के हैं‚ तो फिर किया क्या जाएॽ एक तो जिन शहरी इलाकों में जल भराव होता है‚ उसके जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई की जाए। दूसरा‚ किसी भी इलाके में प्रति घंटा अधिकतम बरसात की संभावना का आकलन कर वहां से जल निकासी के अनुरूप ड्रेन बनाए जाएं। यह भी अनिवार्य है कि सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई में शहरीकरण–जलवायु परिवर्तन और जल निकासी पर नये सिरे से पाठ्यक्रम तैयार हों और इन विषयों के विशेषज्ञ तैयार किए जाएं। आम लोग और सरकार कम से कम कचरा फैलाने पर काम करें। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शहरों में अधिक से अधिक खाली जगह यानी कच्ची जमीन हो‚ ढेर सारे पेड़ हों। शहरों में जिन स्थानों पर पानी भरता है‚ वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों।


Date:04-08-22

चीनी आपत्ति

संपादकीय

चीनी साम्राज्यवाद वैश्विक राजनीति में लगातार तनाव बढ़ा रहा है। वह जिन इलाकों को कागज पर ही सही, अपना हिस्सा मानता है, उनके प्रति उसकी आक्रामकता सरासर अनुचित है। उसकी अशालीन प्रवृत्ति सिर्फ दावे तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उसके आगे बढ़कर वह बयान देता है और अपनी हरकतों से नाराजगी दर्शाता है। अमेरिकी नेता नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा पर चीन ने जो तनाव पैदा किया है, उसकी प्रशंसा कोई भी लोकतंत्र या अमनपसंद देश नहीं करेगा। चीन अमेरिकी स्पीकर पेलोसी के ताइवान दौरे को अगर चुनौती के रूप में देख रहा है, तो उस तक संदेश साफ शब्दों में पहुंचना चाहिए। पेलोसी की यात्रा के जरिये अमेरिका ने चीन को ताइवान के मुद्दे पर ललकारकर एक तरह से ठीक ही किया है। ताइवान का स्वतंत्र वजूद नया नहीं है। वह एक संप्रभु राष्ट्र है, लेकिन चीनी साम्यवादी सत्ता ने अपने उत्थान के दिनों में जो आक्रामक सपने संजोए थे, उन्हें साकार कर लेना चाहता है। यह एक तरह से दुनिया में बढ़ती चीनी ताकत का दुष्परिणाम है। वह रणनीति के तहत ऐसे तनाव पैदा कर रहा है कि आसानी से उसका साम्राज्यवादी सपना साकार हो जाए।

नैन्सी पेलोसी ताइवान से दक्षिण कोरिया के लिए निकल चुकी हैं। खास यह है कि पहले चीन ने ऐसी स्थिति पैदा करने की कोशिश की थी कि अमेरिकी नेता ताइवान आने से परहेज करें। चीन ने एक तरह से सीधे सैन्य कार्रवाई करने की धमकी दे डाली थी। हालांकि, अमेरिका ने भी उचित ही न झुकने का इरादा स्पष्ट कर दिया है। आज बडे़ व आक्रामक देशों के पड़ोस में स्थित छोटे देशों की संप्रभुता की रक्षा जरूरी है। कायदे से चीन को ज्यादा जिम्मेदारी का परिचय देना चाहिए, लेकिन उसने रणनीति के तहत केवल रूस से लगती अपनी सीमा का समाधान किया है। भारत सहित बाकी देशों के साथ वह सीमा विवाद को जारी रखे हुए है। यह अब स्पष्ट है कि रूस हर तरह से चीन के साथ है। कहीं न कहीं रूसी नेता पुतिन की योजना भी साम्राज्यवादी है और इसलिए वह यूक्रेन से युद्ध लड़ रहे हैं। यह भारत के लिए चिंता की बात है। ताकतवर देश अगर इस तरह से पड़ोसी देशों या उनकी जमीन पर दावा करने लगेंगे, तो यह गलत प्रवृत्ति भविष्य में क्या रूप लेगी? एक भी उदार या छोटा देश सलामत नहीं रह सकेगा। राष्ट्रीयता, परंपरा, इतिहास की उपेक्षा करके केवल भूखंड के लिए चल रही यह लड़ाई कहां पहुंचकर रुकेगी?

अफसोस कि ख्वाब से उपजे दावों की इस गलत परिपाटी का कोई इलाज संयुक्त राष्ट्र के पास भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र नव-साम्राज्यवाद के समक्ष नाकाम है। उससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती। रूस-यूक्रेन मामले में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका हम देख ही चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र में रूस और चीन, दोनों ही देशों की मंजूरी जरूरी है। दोनों अगर मिल जाएं, तो संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों को निष्प्रभावी बना सकते हैं। ऐसे में, ताइवान का भविष्य क्या होगा? क्या चीन सैन्य कार्रवाई करेगा? क्या अफगानिस्तान से हाल ही में भागा अमेरिका ताइवान में अपनी सेना उतारेगा? अब चीन ने ताइवान के भयादोहन के लिए कहा है कि वह ताइवान के पास युद्धाभ्यास करेगा। हालांकि, ताइवान ने भी पूरी मजबूती का परिचय दिया है। अगर दुनिया ताइवान के साथ खड़ी नहीं होगी, तो यकीन मानिए, दुनिया मध्ययुग की तरह ही कब्जे की लड़ाई में लग जाएगी। जो देश आज चुप रह जाएंगे, उन्हें शायद भविष्य में कोई न कोई कीमत चुकानी पड़ेगी।


Date:04-08-22

ड्रैगन के लिए मुंह छिपाने की नौबत

श्रीकांत कोंडापल्ली, ( प्रोफेसर, चाईना स्टडीज, जेएनयू )

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी ताइवान का दौरा पूरा कर दक्षिण कोरिया पहुंच चुकी हैं। उनकी ताइपे यात्रा को लेकर माहौल जितना गरम था, अब उतनी ही शांति है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ‘प्लेइंग विद द फायर’ (आग से खेलना) जैसे शब्दों से यह आशंका जताई गई थी कि चीन इस दौरे के खिलाफ अमेरिका से पारंपरिक जंग की शुरुआत कर सकता है। उसने ताइवान के आसपास युद्धपोत भी तैनात कर दिए थे। बावजूद इसके पेलोसी मंगलवार को ताइवान पहुंचीं और बुधवार को वहां से विदा हो गईं।

पेलोसी पिछले ढाई दशक में ताइवान पहुंचने वाली अमेरिका की सबसे बड़ी नेता हैं। प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष होने के नाते उनका कद राष्ट्रपति व उप-राष्ट्रपति के बाद सबसे बड़ा है। देखा जाए, तो उनका यह दौरा अप्रत्याशित था। अभी अमेरिका, चीन और ताइवान, तीनों देश अपनी-अपनी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। यूक्रेन युद्ध के कारण ऊर्जा और खाद्यान्न संकट के साथ-साथ कमजोर होती अर्थव्यवस्था और कोविड दुष्प्रभाव इन सभी देशों के लिए बड़ी समस्या है। इसके अलावा, अमेरिका जहां बढ़ती महंगाई दर (आठ फीसदी) से भी मुकाबिल है, तो चीन धीमी विकास दर (अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इस साल 3.3 फीसदी विकास दर का अनुमान लगाया है) से उबरना चाहता है। ऐसे में, पेलोसी का ताइवान जाना बहुत आवश्यक नहीं था।

दरअसल, इस दौरे को लेकर तनाव तब बढ़ा, जब एक ‘वर्चुअल मीटिंग’ में शी जिनपिंग ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से कहा कि वह आग से खेल रहे हैं। जब कोई राष्ट्रपति ऐसे शब्दों का प्रयोग अपने समकक्ष के साथ करता है, तो कूटनीतिक अर्थों में इसे युद्ध की भाषा माना जाता है। बाद में इन्हीं शब्दों को चीन के कई अन्य नेताओं ने भी दोहराया। आखिर उन्होंने पेलोसी के दौरे को इतनी अहमियत क्यों दी? दरअसल, प्रथम चीन-जापान युद्ध का अंत 1895 में जिस शिमोनोस्की समझौते से हुआ था, उसने ताइवान को जापान के हवाले कर दिया था। यह चीन के लिए लज्जा की बात मानी गई, क्योंकि तब तक वह ताइवान को अपने अधीन करने की योजना बना चुका था। इस बात की खटास चीनियों के मन में इतनी गहरी है कि आज भी वहां देशद्रोही या गद्दार को लु हुं चेंग (चीन का अंतिम शाही राजवंश किंग का कूटनीतिज्ञ और चीनी नेता) कहा जाता है, जिन्होंने शिमोनोस्की समझौता किया था। यह शब्द उतना ही भयावह है, जैसे अपने यहां जयचंद। चूंकि ताइवान को चीन अब भी अपना हिस्सा मानता है, इसलिए पेलोसी की यात्रा उसे नागवार गुजरी।

अब तमाम धमकी के बावजूद पेलोसी ताइवान से सुरक्षित विदा हो चुकी हैं। हवाई व समुद्री मार्ग बंद करने का चीन का दावा भी खोखला नजर आया। लिहाजा शी जिनपिंग की चिंता यह है कि उन्हें भी कहीं लोग लु हुं चेंग कहकर संबोधित न करने लगें। अगले चंद महीनों में उनका तीसरा कार्यकाल शुरू होने वाला है। कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे होने पर दिए गए अपने संबोधन में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि ताइवान में जो कोई दखल देगा, उसका ‘सिर फोड़’ दिया जाएगा। जाहिर है, पेलोसी की यात्रा को इतना महत्व देने के कारण अब उन पर काफी ज्यादा दबाव बन गया है। चीन की घरेलू राजनीति में इससे उबाल आ सकता है।

फिलहाल, चीन ने ताइवान को सामरिक रूप से घेरकर रखा है। ताइवान एक द्वीप है और समुद्री इलाके में युद्धपोत की तैनाती से उस तक वस्तुओं व उत्पादों की आवाजाही प्रभावित हो सकती है। हालांकि, यह माना जा रहा था कि चीन के इस कठोर कदम के बाद ताइवान का शेयर बाजार टूट जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसका अर्थ है कि चीन की कार्रवाई को ताइवान ने बहुत तवज्जो नहीं दी है।

हालांकि, इससे अमेरिका और चीन के रिश्ते जरूर प्रभावित होंगे। उल्लेखनीय है कि ट्रंप के कार्यकाल में दोनों देशों के रिश्ते बेपटरी होने शुरू हुए थे। इसकी बड़ी वजह अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप थे, जिन्होंने 2018 में शी जिनपिंग के साथ खाने की मेज पर यह दावा किया था कि अमेरिका ने 36 मिसाइल सीरिया के ऊपर गिराए हैं। यह चीन को चिढ़ाने जैसा था, क्योंकि सीरिया और रूस के साथ उसकी दोस्ती जगजाहिर है। प्रतिक्रिया में ‘टैरिफ वार’ की शुरुआत हुई। चूंकि दोनों देशों के कारोबारी रिश्ते में चीन को अधिक फायदा हो रहा था, इसलिए अमेरिका के लिए यह कोई घाटे का सौदा नहीं था। चीन को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा। डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव के अपने अभियान में इसे मुद्दा भी बनाया था। बीजिंग और वाशिंगटन का विवाद तब और बढ़ गया, जब अमेरिका ने 1979 के ताइवान संबंध कानून के तहत डिफेंसिव मिसाइल ताइपे भेजे।

बीजिंग के लिए परेशानी की एक वजह ताइवान का लोकतंत्र भी है। ताइवान में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) का संविधान खुदमुख्तारी का हिमायती है। हालांकि, उसकी सरकार ने इस मुद्दे को तवज्जो नहीं दी है, क्योंकि एक तथ्य यह भी है कि ताइवान की 58 फीसदी आबादी यथास्थिति के पक्ष में है। यानी, वह न चीन के साथ जाना चाहती है और न आजाद होना चाहती है। ताइवान की आजादी को लेकर अमेरिका भी मुंह छिपाता है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं इससे उसकी हिंद-प्रशांत नीति प्रभावित न हो जाए। चूंकि ताइवान की यथास्थिति को चीन अपने लिए खतरा मानता है, इसलिए पेलोसी की यात्रा उसके लिए मौका था कि वह इस बहाने अपना आक्रामक रुख दिखाए।

बहरहाल, इस घटना से विश्व व्यवस्था में तत्काल कोई बदलाव नहीं आने वाला। विश्व समुदाय यूक्रेन युद्ध, ऊर्जा व खाद्य संकट में उलझा हुआ है। चीन और अमेरिका बेशक इस मुद्दे पर एक-दूसरे से टकराते रहें, लेकिन ताइवान अन्य देशों के लिए कोई बडा मसला नहीं है। भारत ने अभी तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है कि वह चीन के पक्ष में है या ताइवान के या फिर अमेरिका के। भारत लोकतंत्र समर्थक है और पेलोसी की यह यात्रा उसके हितों पर कोई चोट नहीं कर रही। फिलहाल, चिंता की लकीरें शी जिनपिंग के माथे पर होंगी। ताइवान को बेजा अहमियत देने के कारण उनके लिए मुंह छिपाने जैसी स्थिति बन गई है।


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