12-08-2022 (Important News Clippings)

Afeias
12 Aug 2022
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Date:12-08-22

Enhancing Digifficiency

R Chandrashekhar, [ The writer is chairman, Centre for The Digital Future (CDF), and former secretary, departments of electronics, IT and telecom, GoI. ]

Despite transformative progress made in the digital and digital payment sphere, it is continuing amid a sea of regulatory uncertainty. Rapid adoption has thrown up new policy and regulatory challenges. The experience in this respect has been, at best, a mixed bag with many hiccups. The recent withdrawal of the Personal Data Protection (PDP) Bill, the aborted Non-Personal Data Governance Framework, the inconclusive eCommerce Policy, consumer protection regulations, online gaming caught between GoI promotion and state government bans, and divergence between GoI’s and RBI’s stances on cryptocurrencies are pointers to the complexities involved.

Perhaps such flux is normal. Indeed, the rapidly evolving global digital ecosystem poses challenges to law and policymakers across the world. But is something lacking in India’s approach or pace? What can we learn from other countries? And what does our own experience tell us?

Part of the complexity of digital regulation arises from the fact that digital is global and regulation is local. Technology is evolving at a frenetic pace, processes are adapting quickly, policies are evolving slowly, and law-making remains tortuously slow. It is unwise to ignore the sheer mismatch of the pace of these four tracks. Besides, any regulation requires enforcement. This raises questions of jurisdiction, extra-territoriality of laws, effective international cooperation, capacity of regulatory institutions and courts, and the technological feasibility of enforcement. Practicability trumps idealism.

Don’t blindly follow others. Each country has its own economic, social, political and technological ecosystems. Localise and calibrate regulation accordingly.

Keep it simple. Complex regulation requires an elaborate regulatory machinery that ends up being woefully inadequate for the job. Only technologically and financially powerful companies can comply — or legally sidestep laws. High compliance burden keeps small, local players out. Illegitimate and overseas players thrive.

Tech regulatory laws vs tech. Laws regulating technology should, ironically, steer clear of technology and confine themselves to mandated and disallowed actions and outcomes. The Telegraph Act stood for over a century and survived many generations of technology precisely because it followed this principle.

Experience and analysis show there are some overarching principles that can help navigate these choppy waters.

Focus on principles and desired outcomes. Do not get lost in technology or process details. If unavoidable, relegate these to the rules. That will make it easier for courts to do their job. The complexity of the PDP Bill was cited as a principal reason for its withdrawal.

Virtual and physical are intertwined. Avoid different regulations and policies for digital and physical. The PDP Bill excluded data in physical form.

Regulation shouldn’t aim to make the digital world perfect. Paradoxically, that very effort heightens existing inequities. Instead, use technology to track where needed while keeping the regulation simple.

Digital domination by platforms and the network effect. Ensuring competition is less relevant than preventing abuse of market dominance. Acting pre-emptively should be an exception.

Encouraging domestic players as key part of national strategy. But so is ensuring access to the latest technology and international funding. Bear in mind that most startup-funding is external.

Technological feasibility of regulatory intervention and low techno-managerial compliance burden. Expectations of boundless regulatory capability need to be moderated. The recommended NPD Governance Framework failed this test.

Digital security and individual privacyare not absolute. There will be tradeoffs with convenience and economic benefit. Transferring choice to users (for instance, the consent framework in the PDP Bill) gives only an illusion of privacy, given the complexities and asymmetries involved. Basic norms need to be mandated and enforced by law.

Balancing national security and economic gain. Remember, the entry of mobile telephony in India was delayed by almost a decade over security concerns.

Attaining tighter state control over the digital space and obtaining foreign investment are inversely related. The two need a careful balance. Impact on India’s IT business has been a concern.

Formulating regulation must follow an open, transparent process. This is particularly important for digital regulation as one can never completely anticipate who and what may be impacted. Astructured process, like the one the Telecom Regulatory Authority of India (Trai) follows, is highly recommended.
Each of the regulatory stumbles can be attributed to non-adherence to one or more of these principles. How well we balance these will determine the shape of our digital future and our ability to harness it to serve our own interests. Will the recent GoI announcement of a comprehensive regulation that encompasses the Information Technology (IT) Act, the PDP Bill and Data Governance Framework lead to a more intractable problem, or to a more coherent, elegant solution? Watch this space.


Date:12-08-22

रेवड़ियां बांटने की संस्कृति की जड़ें कहां हैं, यह समझना जरूरी

विराग गुप्ता, ( लेखक और वकील )

बिहार में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी राजद के साथ नीतीश कुमार की नई जोड़ी, यूपी के नोएडा में सरकारी गनर से लैस श्रीकांत त्यागी का उत्पात, महाराष्ट्र में संजय राठौड़ की कैबिनेट मंत्री के तौर पर प्रोन्नति : ऐसे सभी मामलों में सत्ता हासिल करने के लिए दलबदलू अपराधियों से गठजोड़ होता है और फिर काले कारनामों को ढकने के लिए गरीब जनता को फ्री की रेवड़ियों से नवाजा जाता है। प्रधानमंत्री पिछले कुछ महीनों से रेवड़ी कल्चर खत्म करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग की सलाह के अनुसार अभी तक कोई कानून नहीं बनाया। आयोग ने भी संवैधानिक संस्था की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट से नियुक्त होने वाली एक्सपर्ट कमेटी से खुद को बाहर रखने की दरख्वास्त की है। हर घर तिरंगा फहराने के साथ रेवड़ी-मर्ज के इलाज के लिए इसके इन 8 पहलुओं को समझने की जरूरत है।

1. आजादी के बाद शास्त्री युग तक के नेताओं के लिए सत्ता देशसेवा का माध्यम थी। इंदिरा गांधी और परवर्ती नेताओं ने सत्ता पर एकाधिकार कायम रखने के लिए भ्रष्ट नेताओं को प्रश्रय देने के साथ मासूम वोटरों को फुसलाने के लिए रेवड़ी संस्कृति शुरू कर दी थी।

2. संविधान में लोगों को जीवन का अधिकार हासिल है। रिजर्व बैंक के अनुसार सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाएं जनकल्याण करने के साथ अर्थव्यवस्था को पुष्ट करती हैं। लेकिन फ्री बिजली, पानी, सार्वजनिक यातायात, ऋण माफी जैसी चुनावी रेवड़ियां उत्पादकता में कमी लाने के साथ ही गरीबी, असमानता और बेरोजगारी के दुश्चक्र को बढ़ाती हैं।

3. जेपी और वीपी सिंह के आंदोलनों से सत्ता में गैरकांग्रेसी नेताओं का वर्चस्व बढ़ा था, लेकिन भ्रष्ट सिस्टम नहीं सुधरा। राज्यों में क्षेत्रीय दलों और केंद्र में गठबंधन सरकारों के दौर में रेवड़ी के साथ क्षेत्र, जाति और धर्म का झुनझुना बजने से स्थिति बद से बदतर हो गई।

4. अन्ना आंदोलन के दौर में मोदी ने भ्रष्टाचार के खात्मे, तो केजरीवाल ने गवर्नेंस में बदलाव के नाम पर सत्ता हासिल की। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के दुर्गम पथ पर चलने के बजाय त्यागी और राठौड़ जैसे नेताओं की सेटिंग और रेवड़ी कल्चर के शॉर्टकट से सत्ता हासिल करना बेहतर समझा।

5. चुनावी वादों के अलावा रेवड़ी के चार और तरीके हैं- सरकारी बैंकों में 5 सालों में 10 लाख करोड़ की बट्टे खाते की रकम; उद्योगपतियों को लाखों करोड़ की सालाना सब्सिडी; 70 लाख लोगों को केंद्र से 2.54 लाख करोड़ की पेंशन; कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों को फ्री में राशन।

6. रिजर्व बैंक और कैग रिपोर्ट के अनुसार कई राज्यों में कुल खर्च का 90 फीसदी राजस्व खर्चों के तौर पर हो रहा है। ये राज्य भाजपा, कांग्रेस, आप, कम्युनिस्ट पार्टी, टीएमसी सहित दूसरे दलों द्वारा शासित हैं। विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर लिए गए कर्ज से मुफ्त की रेवड़ी बांटने की वजह से राज्यों की हालत खस्ता हो गई है।

7. संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत अधिकारों का इस्तेमाल करके टीएन शेषन ने चुनावी व्यवस्था को काफी दुरुस्त कर दिया था। मतदाताओं को रेवड़ी बांटना घूसखोरी है, लेकिन उसे रोकने के लिए अब चुनाव आयोग के पास इच्छाशक्ति नहीं दिखती। वित्त आयोग की सलाह की ऐसे मामलों में क्या वैधानिक मान्यता होगी? सुप्रीम कोर्ट की प्रस्तावित एक्सपर्ट समिति से क्या उम्मीदें पाली जाएं?

8. रेवड़ियों की लॉन्चिंग, विज्ञापन और उद्घाटन समारोह में सत्ताधारियों की फोटो के लिए अब पुलिस फोर्स भी जुटने लगी है। रेवड़ियों के साथ नेताओं की फोटो छपना जरूरी है तो आर्थिक बदहाली के आंकड़ों के साथ भी नेताओं की फोटो का विज्ञापन छापने के लिए सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी करे। जो करे वही भरे के इस छोटे कदम से रेवड़ी-मर्ज से मुक्ति का दरवाजा खुल सकता है।


Date:12-08-22

आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर देश

डा. सुरजीत सिंह, ( लेखक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं )

आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के अनेक कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि भारत तमाम उतार-चढ़ाव के बीच महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस लक्ष्य को 2050 तक हासिल किया जा सकता है। ऐसा मानने के अच्छे-भले कारण भी हैं। जैसे कि भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सैन्य शक्ति में चौथा सबसे बड़ा ताकतवर देश है। विश्व की सर्वाधिक युवा शक्ति वाला एक ऐसा देश है, जो विकास को तेजी से आगे ले जाने में सक्षम है। सटीक एवं कारगर कूटनीति के परिणामस्वरूप विश्व मंच पर भारत की स्थिति निरंतर मजबूत होती जा रही है। कोरोना काल में विश्व ने भी भारत के फार्मास्युटिकल और आइटी उद्योग का लोहा माना है। विश्व के चौथे पायदान पर खड़ा भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में अपनी धमक दिखा रहा है। तेजी से विस्तार लेती आधारभूत संरचना और प्रशिक्षित श्रमिकों की बढ़ती संख्या भारत को विनिर्माण हब के रूप में विकसित करने में सक्षम हैं। भारत की बढ़ती आर्थिक विकास की दर भी विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही है। बदलती आर्थिक स्थितियों में विदेशी निवेश की गति बढ़ रही है। विनिर्माण से सूचना तकनीक तक, केमिकल उद्योग से इलेक्ट्रानिक उद्योग तक, कृषि क्षेत्र से सेवा क्षेत्र तक सभी प्रतिरूपों में भारत विश्व मानचित्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है।

हाल में आस्ट्रेलिया के लोवी इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ‘एशिया पावर इंडेक्स-2021’ के अनुसार भारत विश्व के ताकतवर देशों में अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथे स्थान पर है। भारतीय सैन्य क्षेत्र का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है, जिससे न केवल रक्षा उपकरणों के निर्माण में बढ़ोतरी हो रही है, बल्कि विदेशी निवेश भी बहुत बढ़ रहा है। आज भारत की सेना किसी भी शक्ति को चुनौती देने में सक्षम है। अब समय की मांग है कि दक्षेस देशों के अतिरिक्त कंबोडिया, म्यांमार, फिलीपींस, थाइलैंड, वियतनाम, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि एशियाई देशों के साथ मिलकर तकनीकी, आर्थिक और सामरिक संगठन बनाने में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। चीन की दादागीरी से त्रस्त दक्षिण एशियाई देश भारत की सेना के साथ मिलकर एक बड़ा संगठन खड़ा कर सकते हैं। इससे न केवल भारतीय सेना की पहुंच बहुत दूर तक बढ़ जाएगी, बल्कि समुद्री क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को भी रोका जा सकेगा। इन देशों के साथ व्यापार से भारत को दो प्रमुख लाभ होंगे। पहला, व्यापार में अत्यधिक वृद्धि से भारत के विनिर्माण हब बनने के उद्देश्य को प्रोत्साहन मिलेगा। दूसरा, रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति का दायरा बढ़ने से आर्थिक स्थिरता का आधार भी बढ़ेगा।

विश्व की बदलती परिस्थितियों में महाशक्ति बनने के लिए एक मजबूत अर्थव्यवस्था का होना अति आवश्यक है। किसी भी महाशक्ति देश की आर्थिक नीतियों की दिशाएं भी विदेश नीति से ही निर्धारित होती हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक विश्व की अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत योगदान एशियाई देशों का होगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की जुलाई 2022 की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर विश्व में सर्वाधिक रही और 2022 में भी सर्वाधिक रहने का अनुमान है। इसमें मेक इन इंडिया कार्यक्रम की प्रमुख भूमिका रही है जिसने औद्योगिक मजबूती के साथ-साथ जीडीपी को भी मजबूत किया है। आज विदेशी कंपनियां अपने प्लांट लगाने में भारत की ओर रुख कर रही हैं। अनुमान है कि 2030 तक भारत जापान को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। तब भारत की जीडीपी मौजूदा 2.7 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर से बढ़कर 8.4 ट्रिलियन डालर हो जाएगी। भारत में एक बड़े मध्यम वर्ग के कारण उपभोग वस्तुओं की मांग 2020 की तुलना में 2030 तक दोगुनी हो जाएगी। इससे बाजार का आकार भी 1.5 ट्रिलियन से बढ़कर तीन ट्रिलियन डालर तक हो जाएगा। भारत का बढ़ता उपभोक्ता बाजार निवेशकों के आकर्षण का केंद्र है। 4जी तकनीकी ने भारत में ई-कामर्स कंपनियों एवं स्टार्टअप को बहुत बढ़ावा दिया है। अब 5जी भारत के बाजार की संरचना को ही बदल कर रख देगा।

वास्तव में आने वाले समय में वही देश तेजी से महाशक्ति बनेगा, जिसके पास आधुनिक तकनीक होगी। तकनीकी में निवेश किए बिना कोई भी देश महाशक्ति बनने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। भारत की तकनीक का ही कमाल था कि इसरो ने एक राकेट के जरिये 104 उपग्रह अंतरिक्ष में भेजकर विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा है। आज इसरो विश्व में सबसे सस्ते उपग्रह बनाने के लिए जाना जाने लगा है। विकासशील ही नहीं, विकसित देश भी अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए इसरो के साथ समझौता करने को उत्सुक हैं। अब भारत को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, जेनेटिक इंजीनियरिंग, रोबाटिक जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान और निवेश पर अधिक बल देना चाहिए।

आज भारत जिस तेजी से विकास की सीढ़ि‍यां चढ़ रहा है, उसे देखते हुए उम्मीद है कि देश जब अपनी स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूरे कर रहा होगा तो अवश्य ही महाशक्ति बन चुका होगा। हालांकि इसके सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। सर्वप्रथम देशवासियों के सोच को बदलना होगा। साथ ही भ्रष्टाचार, आंदोलन, धार्मिक गतिरोध, गरीबी, असमानता, अलगाववाद आदि समस्यायों से पार पाना होगा। विभिन्न राज्यों के कमजोर सामाजिक मानकों पर भी कार्य करना होगा। सेना को आधुनिक तकनीकी से लैस करना होगा। प्राकृतिक गैस और तेल पर निर्भरता को कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहन और ग्रीन ऊर्जा की तरफ तेजी से बढ़ना होगा। युवा शक्ति की संभावनाओं का अधिकतम दोहन करना होगा।


Date:12-08-22

डिजिटल ऋण का नियमन

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने डिजिटल तरीके से ऋण देने को नियमित करने के लिए मानकों की पहली खेप प्रस्तुत कर दी है। ये मानक जनवरी 2021 में इसी विषय को लेकर बने एक कार्य समूह की अनुशंसाओं के बाद तय किए गए हैं। केंद्रीय बैंक ने यह भी कहा कि वह सरकार तथा अन्य अंशधारकों के साथ आवश्यक चर्चा के बाद मानकों की दूसरा हिस्सा जारी करेगा। एक नयी संस्थागत व्यवस्था स्थापित करने तथा शायद विधायी बदलावों की आवश्यकता भी हो सकती है। इस उभरते क्षेत्र की निगरानी अत्यंत आवश्यक है। यह क्षेत्र बहुत तेज गति से विकसित हुआ हैऔर इस क्षेत्र में बहुत बड़ी तादाद में धोखाधड़ी के भी इल्जाम लगे हैं। ऐसे भी आरोप हैं कि डिजिटल मामलों में अनभिज्ञ ग्राहकों को गलत तरीके से योजनाएं बेची जाती हैं जो बारीक अक्षरों में लिखी जानकारियों तथा इन योजनाओं के असर से नावाकिफ होते हैं। ऐसे में न केवल नागरिकों के बचाव के लिए कदम उठाए जाने चाहिए बल्कि केंद्रीय बैंक का इस तेज विकसित होते क्षेत्र में बड़े पैमाने पर देनदारी में चूक होने की आशंका जताना भी गलत नहीं है। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बड़े पैमाने पर डिफॉल्ट न हों और उनका व्यापक असर न हो।

नियामकों ने डिजिटल ऋण बाजार में काम कर रही कंपनियों के लिए तीन श्रेणियां विकसित की हैं। पहली श्रेणी में वे कंपनियां हैं जिनका आरबीआई नियमन करता है। दूसरी श्रेणी की कंपनियों में वे शामिल हैं जिनका नियमन आरबीआई नहीं करता लेकिन उन्हें अन्य प्रावधानों के तहत ऋण देने का अधिकार है। तीसरी श्रेणी में वे कंपनियां शामिल हैं जो डिजिटल ढंग से ऋण देने की प्रक्रिया में शामिल हैं लेकिन वे किसी भी तरह के नियमन से परे हैं। इस तरह की कंपनियों को नियामकीय निगरानी के दायरे में लाने के लिए विधायी कदमों की आवश्यकता हो सकती है। यह बाजार इस प्रकार काम करता है जहां डिजिटल कंपनियां बिचौलिये के रूप में काम करती हैं और ऐसे व्यक्तिगत ऋण उपलब्ध कराती हैं जो नियामकीय संस्था द्वारा दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए बैंक। ऐसे मामलों में ऋण वितरण और उसका पुनर्भुगतान कर्जदार के बैंक खाते और कर्ज देने वाली विनियमित संस्था के बीच प्रत्यक्ष स्थानांतरण के जरिये होना चाहिए। इस दौरान किसी तीसरे पक्ष या ऋण सेवा प्रदाता का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। अगर ऋण सेवा प्रदाता कंपनी को किसी प्रकार का शुल्क दिया जाता है तो वह ऋण देने वाली विनियमित संस्था द्वारा दिया जाना चाहिए, न कि कर्जदार द्वारा।

किसी भी डिजिटल ऋण में मानक अहम तथ्य वक्तव्य (केएफएस) भी कर्जदारों को मुहैया कराया जाना चाहिए। संस्थाएं सालाना प्रतिशत दर के रूप में डिजिटल ऋण की समग्र लागत का भी खुलासा कराएंगीजो केएफएस के हिस्से के रूप में होगा।कर्जदारों से जुटाये गए आंकड़े जरूरत के आधार पर ही लिए जाएंगे, उन्हें लेने के पहले स्पष्ट रूप से पूर्व सहमति प्राप्त करनी होगी। कर्जदार को यह अधिकार होगा कि वह अपना व्यक्तिगत डेटा हटवा सके। सभी डिजिटल ऋण योजनाओं के बारे में क्रेडिट इन्फॉर्मेशन कंपनियों को सूचना देनी होगी। सभी डिजिटल ऋण के साथ एक तयशुदा अवधि होनी चाहिए जिसके दौरान कर्ज लेने वाला मूलधन तथा आनुपातिक वार्षिक प्रतिशत दर चुकाकर बिना जुर्माने के योजना से बाहर निकल सके। विनियमित संस्थाओं और उनके साथ काम करने वाली ऋण सेवा प्रदाताओं को भी एक प्रमुख शिकायत निवारण अधिकारी नियुक्त करना चाहिए ताकि फिनटेक और डिजिटल ऋण से जुड़ी कंपनियों से निपटा जा सके। अगर कोई शिकायत 30 दिन की तय अवधि में नहीं निपटायी जाती है तो शिकायतकर्ता आरबीआई की एकीकृत बैंक लोकपाल प्रणाली के पास शिकायत कर सके।

एक साथ देखा जाए तो ये मानक उचित प्रतीत होते हैं। आरबीआई ज्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए सभी शुल्कों का स्पष्ट खुलासा करने की व्यवस्था कर सकता है और वह नियमित रूप से समेकित और गोपन जानकारियां सामने ला सके ताकि बाजार के आकार और वृद्धि दर का अंदाजा लग सके। जरूरत यह भी है कि अन्य नियामकों तथा सरकार के साथ संबद्धता बढ़ाने को प्राथमिकता दी जाए ताकि अनियमित संस्थाओं पर लगाम लगायी जा सके।


Date:12-08-22

पचहत्तर वर्षों की आर्थिक यात्रा

परमजीत सिंह वोहरा

आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। इन वर्षों में भारत ने एक लंबी यात्रा तय की है। इन साढ़े सात दशकों में आर्थिक स्तर पर भारत की बेहतरीन सफलता का राज समय-समय पर उसका सुदृढ़ आर्थिक नियोजन रहा है। शुरुआत पंचवर्षीय योजनाओं से हुई थी, जो कि धीरे-धीरे आर्थिक विकास की मुख्य आधारशिला बनी। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में पिछली योजनाओं के मूल्यांकन तथा भविष्य की रूपरेखा को इस तरह से आर्थिक नीतियों में समय रहते उतारा गया कि भारत हर चुनौती से बड़ी सफलता से लड़ा तथा आज वैश्विक स्तर पर बड़ी तेजी से उभरती हुई शक्ति के रूप में पहचाना जाने लगा है। एक समय वह भी था, जब खाद्य पदार्थों की भयंकर कमी हो गई थी तथा भारत विदेशी सहायता मुख्यत: अमेरिका पर निर्भर था। पर साठ के दशक के अंतिम वर्षों में भारत ने हरित क्रांति लाकर खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त की। आज भारत खाद्यान्न उत्पादन में विश्व में सर्वश्रेष्ठ तथा बड़ा निर्यातक देश माना जाता है। एक रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक पिछले छह वर्षों में कृषि उत्पादों के निर्यात में भारत ने 16.3 अरब अमेरिकी डालर की वृद्धि दर्ज की है। हरित क्रांति के बाद भारत में अपनी चाल बढ़ाई श्वेत क्रांति की तरफ और दुग्ध उत्पादन में भी आत्मनिर्भरता हासिल की। इस क्रांति के कारण पिछले चालीस वर्षों में भारत में दुग्ध उत्पादन पांच गुना बढ़ा है। वित्तवर्ष 2020-21 में दुग्ध उत्पादन 2.10 अरब टन के बराबर था।

1947 में भारतीय अर्थव्यवस्था का जीडीपी 2.7 लाख करोड़ के बराबर था, जो आज 2022 में 236.65 लाख करोड़ हो गया है। इससे यह स्पष्ट है कि इन पचहत्तर वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार तकरीबन नब्बे गुना बढ़ा है। विदेशी मुद्रा भंडारण आज 571 अरब अमेरिकी डालर के बराबर है, जो कि विश्व का पांचवा सबसे बड़ा संग्रह है। इससे स्पष्ट है कि एक आम भारतीय का आर्थिक जीवन लगातार सुधरता जा रहा है। इसमें यह समझना भी जरूरी है कि पिछले पचहत्तर वर्षों में कई दफा आर्थिक नीतियों में ऐसे आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं, जिसने सकारात्मक परिणाम भी दिए तथा कई ऐसी समस्याएं भी पैदा की हैं, जिनका निवारण अभी तक नहीं हुआ है।

आजादी के समय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का पचपन फीसद के आसपास अंशदान हुआ करता था, जो कि आज पंद्रह फीसद ही रह गया है। इसका अंशदान लगातार गिरा है। यह गहन सोच का विषय है। आज भी इस मुल्क की करीब अस्सी फीसद ग्रामीण आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन अब कृषि आर्थिक रूप से बिल्कुल भी सक्षम नहीं है। इसी कारण अर्थव्यवस्था के लगातार बढ़ रहे आकार के बावजूद किसान लगातार गरीब होता चला गया। यह भी सच्चाई है कि भारत आज अगर एक गरीब मुल्क है तो इसके पीछे यहां के किसान का गरीब होना एक कारण है। पिछले काफी वर्षों से कृषि क्षेत्र ने वार्षिक वृद्धि तीन से चार फीसद के बीच ही हासिल की है, जो कि चिंताजनक है। किसान का जीवन वित्तीय कर्जों के बोझ से दबा हुआ है। आज भी खेती मानसून पर निर्भर है, क्योंकि कृषि क्षेत्र में वैज्ञानिकीकरण न के बराबर हुआ है। किसान को उसकी उपज का सही मूल्य भी नहीं मिलता है। इन सब निराशाओं के कारण ही किसानों की आत्महत्याएं प्रति वर्ष बढ़ रही हैं।

आज अगर भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है तो निश्चित रूप से इस रूपांतरण का वास्तविक श्रेय सेवा क्षेत्र को जाता है। पिछले तीन दशकों से सेवा क्षेत्र ने भारतीय अर्थव्यवस्था की बागडोर बड़ी कुशलता से संभाल रखी है। पिछले वित्तवर्ष में भी इस क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 10.8 फीसद थी। तीन दशक पूर्व हुए आर्थिक सुधारों में जब निजीकरण को बढ़ावा दिया गया, तबसे सेवा क्षेत्र ने बड़ी तेजी से मुल्क को आर्थिक रूप से समृद्ध किया है। आज सेवा क्षेत्र के अंतर्गत सूचना तकनीक, टेलीकाम, परिवहन, बैंकिंग, बीमा आदि बड़ी तेजी से समृद्ध हो रहे हैं। पिछले दो दशक से स्वास्थ्य सुविधाओं ने भी इस क्षेत्र में अपने आप को काफी तेजी से स्थापित किया है। पिछले कई वर्षों से भारत में कुल विदेशी निवेश का अधिकतम भाग सेवा क्षेत्र ही आकर्षित करता है। कोरोना से प्रभावित होने के बावजूद वर्ष 2021-22 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक विदेशी मुद्रा का निवेश सेवा क्षेत्र में ही हुआ था। वर्तमान में मुल्क की तेईस फीसद आबादी को सेवा क्षेत्र में ही रोजगार प्राप्त होता है। इसके अलावा भारत के कुल निर्यात में भी अधिकतम हिस्सा सेवा क्षेत्र का ही है। 2025 तक भारतीय सूचना तकनीक की विभिन्न कंपनियों का वैश्विक बाजार मूल्य तकरीबन बीस अरब अमेरिकी डालर के बराबर हो जाएगा। निश्चित रूप से इससे भारत आने वाले समय में और अधिक आर्थिक रूप से संपन्न होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था की पचहत्तर वर्षों की इस लंबी यात्रा ने काफी सुखद परिणाम दिए हैं, तो कुछ समस्याएं भी जस की तस हैं। निर्माण क्षेत्र के अंशदान का तेजी से न बढ़ना भी एक मुख्य समस्या है। भारत में बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए निर्माण क्षेत्र को ही आगे आना होगा, अन्यथा यह समस्या और विकट होती चली जाएगी। इसके अलावा कृषि क्षेत्र के वे किसान जो लगातार गरीब होते जा रहे हैं, जिसके पीछे मुख्य कारण उनके स्वामित्व के छोटे जमीन के टुकड़े हैं, उनको भी आर्थिक रूप से सहारा यही क्षेत्र ही दे सकता है। निर्माण क्षेत्र अगर आज वैश्विक पहचान नहीं बना पाया है, तो इसकी वजह लागत का अधिक होना तथा गुणवत्ता का कम पाया जाना है। इसी कारण विदेशी निवेश भी यह क्षेत्र ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाता है।

हालांकि पिछले कई वर्षों से आटो तथा फार्मा क्षेत्र ने अपनी एक वैश्विक पहचान बनाई है तथा दोनों बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इसके अलावा मुल्क की अन्य आर्थिक समस्याओं में कच्चे तेल का आयात एक प्रमुख संकट है। अमूमन हर आमजन इस बात को समझता है कि घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ने के पीछे का एक मुख्य कारण वैश्विक बाजार में कच्चे तेल के मूल्यों में बढ़ोतरी होता है। आज भारत लगभग अस्सी फीसद कच्चे तेल का आयात करता है। भारतीय रुपया वैश्विक बाजार में जब भी विभिन्न कारणों से कमजोर होता है तो देश का आयात बिल बहुत तेजी से बढ़ता है तथा उस दशा में भी कच्चे तेल की खरीदारी एक मुख्य भूमिका निभाती है। इस समस्या का निदान तभी संभव है जब निर्माण क्षेत्र में देश निर्यात के अंतर्गत अपने अंशदान को बढ़ाए।

इन सबके बावजूद विभिन्न वैश्विक रपटें मानती हैं कि भारत का आर्थिक भविष्य बहुत समृद्ध है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत इसकी विशाल उपभोग क्षमता है। इसी कारण भारत को विश्व का सबसे बड़ा बाजार भी कहा जाता है। सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इन दिनों भारत में तकनीक के माध्यम से व्यापार संचालन में बड़ी तेजी से वृद्धि हो रही है। 2017 में कर प्रणाली में किए गए आमूलचूल परिवर्तन के बाद तकनीक के माध्यम से जीएसटी संग्रहण में काफी वृद्धि हुई है। यह भी देखने को मिला है कि अब भारत का शिक्षित युवा उद्यमी बनने की ओर अग्रसर है तथा अधिकतम स्टार्टअप आधुनिक तकनीक से संचालित हो रहे हैं। इसलिए हर भारतीय को महसूस करना चाहिए कि आने वाले वर्षों में भारत और अधिक आर्थिक समृद्ध होगा तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन आर्थिक रूप से और संपन्न रहेगा।


Date:12-08-22

गठबंधन धर्म का मर्म !

आचार्य पवन त्रिपाठी

बिहार में भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़ा जनता दल (यू) ने और आरोप लग रहा है कि भाजपा गठबंधन धर्म ठीक से नहीं निभा रही थी। देश में कहीं भी जब भाजपा के साथ किसी दल का गठबंधन टूटता है, तो आरोप लगने लगते हैं कि भाजपा गठबंधन धर्म का पालन ठीक से नहीं कर रही थी, इसलिए गठबंधन टूट गया। ऐसे आरोप महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में लगते रहते हैं।

हाल ही में महाराष्ट्र में शिवसेना सिरे से दोफाड़ हो गई, तो भी भाजपा पर ही उसे तोड़कर खुद सरकार बनाने का आरोप लगा, लेकिन इन आरोपों को समग्रता में देखे जाने की जरूरत है। चूंकि भाजपा का सबसे पहला गठबंधन महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ ही हुआ, इसलिए शुरु आत यहीं से करते हैं। जनता पार्टी से दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अलग हो जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी का जन्म ही 1980 में हुआ था। उसके पांच वर्ष बाद ही देश में श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन की
आहट सुनाई देने लगी। इसी दौरान 1985 में हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना एवं भाजपा एकदूसरे के नजदीक आए। उसके बाद से ही शिवसेना और भाजपा के बीच प्रदेश स्तरीय गठबंधन में 2014 तक शिवसेना ज्यादा एवं भाजपा कम सीटों पर चुनाव लड़ती रही है। सीटों का यह अंतर 50 से अधिक सीटों का होता था। इसके बावजूद शिवसेना हमेशा कहती रही कि जिसकी सीटें अधिक आएंगी, उसका ही मुख्यमंत्री बनेगा। कई चुनावों में शिवसेना 171 एवं भाजपा 117 सीटों पर चुनाव लड़ती रही। इस स्थिति में तो कभी भी भाजपा की सीटें शिवसेना से अधिक आ ही नहीं सकती थीं।

2014 में भाजपा कहती रही कि जिन 50 सीटों पर शिवसेना आज तक कभी नहीं जीती, कमसेकम वह सीटें तो भाजपा को लड़ने के लिए दे दे, लेकिन शिवसेना को वह 50 सीटें अपने पास रखकर हारना मंजूर था, भाजपा को देकर जीतना नहीं। यह कहां का गठबंधन धर्म था भला? अंततः उसकी इसी जिद के कारण 2014 में शिवसेना-भाजपा का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। भाजपा 260 सीटों पर अकेले लड़ी और 122 सीटों पर जीतने में कामयाब रही। 2019 में पुनः दोनों दल साथ आकर लड़े। तब भाजपा के हिस्से में 150 सीटें आईं। भाजपा इनमें भी 105 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि शिवसेना अपने हिस्से की 138 सीटों पर लड़कर 56 सीटें ही जीत सकी। ध्यान देने की बात है कि इस चुनाव में चुनाव पूर्व गठबंधन होने के बावजूद शिवसेना ने परिणाम आते ही पलटी मार ली। भाजपा के साथ संवाद एकतरफा रोक दिया और कांग्रेसराकांपा के साथ सरकार बनाने के जुगाड़ में लग गई। ‘महाविकास आघाड़ी’ का गठन कर सरकार बना भी ली। उद्धव ठाकरे ने स्वयं मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के साथ हुए चुनाव पूर्व गठबंधन का भी सम्मान नहीं रखा। ये कौन सा गठबंधन धर्म था भला? उद्धव के इस धोखे से तो उनके दल के विधायकसांसद भी हैरान थे। वही हैरानगी ढाई साल में उबाल खातेखाते बगावत तक आ पहुंची। क्योंकि शिवसेना के सांसदोंविधायकों को जवाब उस जनता के सामने देना है, जिसने अपना कीमती वोट कांग्रेसराकांपाशिवसेना की महाविकास आघाड़ी को नहीं, बल्कि शिवसेना-भाजपा गठबंधन को दिया था।

पुराने गठबंधनों को याद करें तो एक गठबंधन भाजपा और बहुजन समाज पार्टी का भी याद आता है। 1993 में मायावती और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। तब यह नारा प्रचारित था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। मुलायमकांशीराम के समझौते से बनी मुलायम सरकार दो साल ही चली थी कि मायावती समर्थन वापस लेने की योजना बनाने लगीं। तभी मुलायम सिंह ने दो जून, 1995 को अपना असली रूप दिखाया और ‘गेस्टहाउस कांड’ हो गया। ऐसे आड़े वक्त में भाजपा नेताओं ने ही गेस्टहाउस पहुंचकर मायावती की रक्षा की थी। यही नहीं, अगले दिन ही तीन जून को भाजपा के ही समर्थन से मायावती ने मुख्यमंत्री पद की भी शपथ ले ली थी।

ये सारे अहसान भूलकर जब मायावती ने भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह पर व्यक्तिगत हमले शुरू किए तो भाजपा को माया सरकार से समर्थन वापस लेना पड़ा। इसके दो साल बाद भाजपा और मायावती एक बार फिर साथ आए। भाजपा की मदद से मायावती फिर एक बार मुख्यमंत्री बनीं। इस बार मायावती और कल्याण सिंह को छहछह महीने मुख्यमंत्री पद का बंटवारा करना था। मायावती ने अपना कार्यकाल तो पूरा कर लिया, लेकिन कल्याण सिंह की बारी आते ही कुछ दिन बाद ही समर्थन वापस ले लिया। अब सवाल उठता है कि गठबंधन धर्म किसने नहीं निभाया? नीतीश कुमार द्वारा दो दिन पहले भाजपा से नाता तोड़े जाने के बाद उनकी तारीफों के पुल बांधते हुए राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने अकाली दल एवं भाजपा गठबंधन को भी याद किया। कहा कि भाजपा अपने साथी क्षेत्रीय दलों को आगे नहीं बढ़ने देती। उसके कारण ही आज शिरोमणि अकाली दल की हलत खस्ता है।

अब शरद पवार को कौन समझाए कि पंजाब में तो हमेशा वर्चस्व की स्थिति में अकाली दल ही रहा है। उसने कभी भाजपा के किसी सिख नेता को पनपने ही नहीं दिया। आज अकाली दल की हालत खस्ता है, तो स्वयं उसके कारण। ना कि भाजपा के कारण। रही बात बिहार में नीतीश कुमार की, तो बताने की जरूरत नहीं है कि नीतीश बाबू आठ में से पांच बार भाजपा के ही सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच सके हैं। यहां तक कि जब उनके अपने दल के लोग भी उनका विरोध कर रहे थे, तब भी भाजपा ही उनके साथ खड़ी दिखाई दे रही थी। भाजपा नेताओं ने ही उन्हें मख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर उनकी पार्टी में भी बढ़त दिलाए रखी। 2020 का चुनाव पूर्व गठबंधन भी नीतीश बाबू ने भाजपा के साथ किया था, वह भी जंगलराज पुनः न आने देने के नारे के साथ। अब यदि वह पुनः उसी जंगलराज के समर्थक हो गए हैं, तो ये कौन से गठबंधन धर्म का द्योतक माना जाएगा ?


Date:12-08-22

मुफ्त रेवड़ी पर चोट

संपादकीय

मुफ्त रेवड़ी की संस्कृति एक बार फिर निशाने पर आई है, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस बार देश की सर्वोच्च अदालत ने बहुत सख्त टिप्पणी की है। शीर्ष अदालत ने साफ तौर पर कह दिया, इस संस्कृति के चलते अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान हो रहा है। चुनाव के समय किए जाने वाले मुफ्त चीजों या सुविधाओं के वादे गंभीर मुद्दा है, क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान हो रहा है। शीर्ष अदालत ने सरकार को एक समिति बनाने का सुझाव दिया है। समिति से अपेक्षा की गई है कि वह निष्पक्षता से सुनवाई करे। जिन लोगों को वाकई मुफ्त मदद की जरूरत है और जिनको इस पर आपत्ति है, दोनों पक्षों को सुनने के बाद ही किसी संतुलित फैसले पर पहुंचा जा सकता है। वाकई भारत जैसे देश में एक जरूरतमंद तबका ऐसा है, जिसे मुफ्त सेवाओं की जरूरत है। अत: अगर मुफ्त योजनाओं पर अचानक से लगाम लगाई जाए, तो बेहद गरीब लोगों को भारी नुकसान का सामना करना पडे़गा।

दरअसल, सर्वोच्च अदालत में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई चल रही थी। याचिका में यह मांग की गई है कि चुनावों के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त का वादा करने वाले राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान हो। राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्रों के प्रति जवाबदेह बनाने की भी मांग की गई है। सर्वोच्च अदालत ने भी इसे गंभीर मुद्दा माना है, तो आने वाले दिनों में मुफ्त की रेवड़ी के संबंध में कोई न कोई नीति या नियम-कायदे का प्रावधान सामने आ सकता है। राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़ी कोई अपनी जेब से नहीं देते, वे करदाताओं के पैसे का ही उपयोग या दुरुपयोग करते हुए पूरा श्रेय लेते हैं। जनता को मुफ्त योजनाओं का लाभ देने की परिपाटी इस कदर स्थापित हो चुकी है कि कोई भी राजनीतिक दल आगे आकर मुफ्त की रेवड़ियों के खिलाफ बात नहीं कर रहा है। हालांकि, हर राजनीतिक दल को अपने विरोधी राजनीतिक दलों की मुफ्त योजनाओं पर आपत्ति है। भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा है कि भारत एक ऐसा देश है, जहां गरीबी मौजूद है और केंद्र सरकार की भूखे लोगों का पेट भरने की योजना है। वैसे, कई योजनाएं हैं, जिनसे अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है, अत: जन-कल्याण और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन की जरूरत गलत नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने 3 अगस्त को ही केंद्र सरकार, नीति आयोग, वित्त आयोग और आरबीआई जैसे हितधारकों से इस गंभीर विषय पर मंथन करने और समाधान के सुझाव देने को कहा था। इस बार शीर्ष अदालत ने समिति बनाने का सुझाव दिया है। अगर सरकार और संस्थाएं मुस्तैदी से जवाब देंगी, तो अगली सुनवाई में 17 अगस्त को सुधार की एक दिशा तय हो जाएगी।

कुल मिलाकर, यह एक गंभीर मुद्दा बन गया है। हर राजनीतिक पार्टी को अपने बलबूते ही चुनाव लड़ना चाहिए। सरकारी धन को अपनी झोली में मानते हुए वादा करने का चलन खत्म होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले दिनों कहा था कि मुफ्त रेवड़ी बांटने की संस्कृति देश के विकास के लिए खतरनाक हो सकती है। पार्टियों को गंभीरता से विचार करना ही होगा। गरीबी कोई राजनीतिक मुद्दा न बने, यह सामूहिक नाकामी या जिम्मेदारी है। जो जरूरतमंद लोग हैं, उन्हें एक समय तक मुफ्त योजनाओं का लाभ मिलना कतई गलत नहीं है। जो लोग भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए तरस रहे हैं, उन पर करदाताओं या देश के पैसे का खर्च बिल्कुल जायज है।


 

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