28-11-2023 (Important News Clippings)
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बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए संसदीय सीटें बढ़ाना जरूरी
वरुण गांधी, ( सांसद, पीलीभीत, उत्तर प्रदेश )
एक भारतीय संसद सदस्य औसतन 25 लाख नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी तुलना में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा का एक सामान्य सदस्य सात लाख नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। इसी तरह, पाकिस्तान में नेशनल असेंबली का सदस्य छह लाख नागरिकों का, प्रतिनिधित्व करता है, जबकि बांग्लादेश में यह अनुपात पांच लाख नागरिकों के करीब है। नवंबर, 2023 में भारत में 4,126 विधायक, 543 लोकसभा सांसद और 245 राज्यसभा सांसद थे। हमारे पास नागरिक कल्याण के लिए जिम्मेदार बहुत कम सांसद और विधायक हैं। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीमित प्रतिनिधित्व को हम आरंभ से प्रश्रय देते रहे हैं। भारतीय स्थिति में यह एक बड़ा विरोधाभास है, क्योंकि हमारे यहां जमीनी स्तर पर अनगिनत राजनेता हैं। 50-100 वार्डों वाली 1000 से अधिक म्युनिसिपल काउंसिलों/ कारपोरेशनों और 238,000 पंचायतों में राष्ट्रीय/राज्य स्तर पर औसतन 5-30 सदस्य होते हैं। अहम मुद्दे उठाने और विधि निर्माण को लेकर प्रतिनिधित्व में कमी साफ नजर आती है।
हम यह भी पाते हैं कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था गैर-बराबरी के दोष से ग्रस्त है। विधायी महत्व अन्य राज्यों की तुलना में चुनिंदा राज्यों के नागरिकों की ओर झुका दिखता है। भारत के उलट अमेरिका में भिन्न राजनीतिक व्यवस्था है। वहां हर राज्य से अमेरिकी सीनेट में दो सीनेटर जाते हैं। वे विधि निर्माण की प्रक्रिया को संतुलित करते हैं। प्राय: देखने में आता है कि शक्ति के अनुपातहीन आवंटन को प्रोत्साहित किया जाता है। द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले देश में ऐसा फिर भी चल सकता है क्योंकि वहां दोनों दल राज्यों में प्रतिस्पर्धा करते हैं। भारत में विषम राजनीतिक व्यवस्था के बीच विभिन्न राज्यों में गैरवाजिब हिस्सेदारी का मतलब चुनिंदा राजनीतिक संगठनों को दूसरों के मुकाबले सशक्त बनाना है। आनुपातिकता बहाल करने के लिए परिसीमन एक संभावित समाधान हो सकता है। इसका उपयोग अतीत में किया भी गया है। इसके लिए अतीत में चार बार (1952, 1962, 1972 और 2002) एक स्वतंत्र आयोग बनाया जा चुका है। 1976 में आपातकाल के दौरान चल रही परिवार नियोजन की नीतियों के कारण कुछ राज्यों पर पड़ने वाले असर को देखते हुए लोकसभा सीटों की संख्या को स्थिर कर दिया गया। इस तरह परिसीमन 2001 तक के लिए बढ़ा दिया गया। परिसीमन तब फिर से शुरू हुआ, जब राज्यों ने अपनी प्रजनन दर कम कर दी थी, जिससे समानता संभव हो सके। फरवरी 2002 में संविधान का 84वां संशोधन पेश किया गया, जिसने 2026 के बाद पहली जनगणना (2031) तक लोकसभा सीटों की संख्या को सीमित कर दिया। इस बीच 2021 की जनगणना में देरी हुई। इसके अब 2024 में होने और इसके परिणाम 2026 तक प्रकाशित होने की संभावना है। इस प्रक्रिया से पहले परिसीमन करने की गुंजाइश है।
वैसे परिसीमन लागू करने के कुछ खतरे भी हैं। 1971 और 2011 के बीच, राजस्थान और केरल की जनसंख्या, 1971 में 2.5 करोड़ और 2.1 करोड़ थी, जो बढ़कर क्रमशः 6.8 करोड़ और 3.3 करोड़ हो गई है। इसी तरह 2019 के चुनावों में उत्तर प्रदेश के प्रत्येक सांसद ने औसतन 30 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व किया, जबकि लक्षद्वीप के एक सांसद ने 55,000 मतदाताओं का। यह मानते हुए कि परिसीमन के बाद संसदीय सीटों की संख्या बढ़ जाती है, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल जैसे राज्यों में सीटों में छह फीसद की वृद्धि संभव है। कर्नाटक में 11% वृद्धि का अनुमान है। इस बीच, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे उत्तरी राज्यों की सीटों में 63% तक की वृद्धि का अंदाजा है। परिसीमन के ऐतिहासिक अनुभव को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह हिंदी भाषी उत्तर भारतीय आबादी के प्रति पूर्वाग्रहित रहा है, जबकि चुनिंदा राष्ट्रीय पार्टियों को सत्ता में आने में मदद मिली है। तमिलनाडु और केरल जैसे जिन राज्यों ने जनसंख्या वृद्धि को कम करने में अच्छा प्रदर्शन किया है, वे फिर से नुकसान में रह सकते हैं।
परिसीमन अपरिहार्य है, लेकिन इससे होने वाले नुकसान को भी कम करना चाहिए। इस संदर्भ में पहली बात तो यह कि संसद में सीटों की संख्या में वृद्धि की दरकार है। किसी भी राज्य की सीटें खोने से बचने के लिए हमें कम से कम 848 संसदीय सीटों तक पहुंचना होगा। इससे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व अनुपात बढ़ाने में मदद मिलेगी। साथ ही, परिसीमन महज जनसंख्या पर आधारित कारकों के आधार पर न हो। भौगोलिक विषमता, आर्थिक उत्पादकता, भाषाई इतिहास की भी इसमें भूमिका हो।
Date:28-11-23
लोकतांत्रिक मूल्यों को खुली चुनौती
विकास सारस्वत, ( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य और वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
हर वर्ष की तरह इस बार भी दिल्ली और आसपास के शहरों में वायु प्रदूषण खतरनाक मानकों को पार कर गया। दस वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ द्वारा दिल्ली को विश्व का सबसे प्रदूषित शहर घोषित किए जाने के बाद से राष्ट्रीय राजधानी की स्थिति साल दर साल बद से बदतर होती गई है। इस वर्ष दिल्ली में वायु प्रदूषण डब्ल्यूएचओ द्वारा सुरक्षित माने गए मानकों से सौ गुना खराब स्तर पर पहुंच गया है। शिकागो विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार दिल्ली में वायु गुणवत्ता इतनी खराब है कि वह दिल्लीवासियों की उम्र को औसतन 11 से 12 साल कम कर सकती है। लगातार कायम खतरनाक प्रदूषण के कारण विदेशी दूतावास और उच्चायोग अपने राजनयिकों की संख्या कम करने पर विचार कर रहे हैं। कई दूतावासों ने तो राजनयिकों को अपने बच्चे भारत न लाने की सलाह भी दी है।
अध्ययन बताते हैं कि यदि वाहनों से निकला धुआं इस प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है तो खेतों में जलती पराली सर्दियों की शुरुआत में आकस्मिक प्रदूषण वृद्धि की एक तात्कालिक वजह है। वायु प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण अधिनियम, 1981 के तहत पराली जलाना अपराध है। हवा को विषैला बनाने में पराली की भूमिका को देखते हुए एनजीटी ने 2015 में अलग से आदेश पारित कर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में पराली जलाने पर रोक लगाई हुई है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने पराली जलाने की रोकथाम के लिए इन सभी राज्यों को विशेष टास्क फोर्स बनाने का आदेश भी दिया है। अन्य राज्यों में रोकथाम के कुछ प्रयास हुए हैं, परंतु पंजाब में पराली जलाने की घटनाएं कम होने के बजाय और बढ़ गई हैं। पांच नवंबर को एक ही दिन में ऐसी तीन हजार से अधिक घटनाएं दर्ज की गई थीं।
पंजाब में पराली जलाने की समस्या के लिए मुआवजे से लेकर गैर-बासमती धान की उपज जैसे तमाम कारण गिनाए गए हैं, परंतु ये कारण इस बात की अनदेखी करते हैं कि चाहे गेहूं हो या धान, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर सरकारी खरीद का सबसे बड़ा लाभार्थी भी पंजाब ही है। तमाम कारणों को मानने के बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पराली दहन न रोक पाने का बड़ा कारण सरकारी ढील भी है। कभी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के लिए पंजाब में पराली दहन को जिम्मेदार ठहराने वाली आम आदमी पार्टी यानी आप की ही पंजाब सरकार अब सर्वोच्च न्यायालय में किसानों पर कार्रवाई करने में असमर्थता जता चुकी है। किसानों से सहानुभूति अच्छी बात है, परंतु एक समूह को कानून तोड़ने की खुली छूट संवैधानिक दायित्व की सीधी-सीधी अवहेलना है। आम आदमी पार्टी की असहज स्थिति को देख आशा के अनुरूप भाजपा और कांग्रेस दोनों हमलावर हैं। पंजाब में पराली दहन पर शासकीय विफलता दलगत राजनीति से परे ऐसी विकराल समस्या बन गई है, जिसमें चुनावी लोकतंत्र संगठित समूहों के सामने असहाय बनकर खड़ा है। प्रदूषण से उत्पन्न खतरनाक स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे अरुण मिश्र ने 2019 में कुंठित होकर कहा था कि ‘इससे तो अच्छा हो कि विस्फोटक लगाकर सभी को मार दिया जाए।’ यह गंभीर चिंता की बात है कि प्रदूषण के कारण करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित है, लेकिन चुनावी राजनीति के चलते सरकारें पराली जलाने पर किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई नहीं करना चाहतीं।
निरंकुश पराली दहन विधि आधारित शासन व्यवस्था को सरकारी उदासीनता के कारण मिली कोई पहली चुनौती नहीं है। दशकों से बना हुआ कावेरी जल विवाद, विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की तय सीमा से ऊपर आरक्षण के प्रस्ताव, राजनीतिक दलों द्वारा मजहबी आधार पर आरक्षण का बार-बार एलान, कृषि सुधार कानूनों का वापस लिया जाना ऐसे अन्य उदाहरण हैं, जिनमें सरकारें या तो संगठित समूहों के सामने मजबूर नजर आई हैं या फिर वोटों की खातिर उन्हें उकसाती दिखती हैं। यह खतरनाक प्रवृत्ति लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलती नजर आ रही है। इस दिशा में विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थिति में फर्क सिर्फ इतना ही है कि कोई दल ऐसी स्थितियों का निर्माण करता दिख रहा है तो कोई दूसरा दल इन परिस्थितियों के सामने बेबस और लाचार है। चुनावी लोकतंत्र की यह कमजोरी न सिर्फ शासन के इकबाल पर प्रश्न चिह्न लगा रही है, बल्कि न्याय और निष्पक्षता की उस विधिसम्मत व्यवस्था को भी धता बताती है, जो लोकतंत्र का मूल आत्मा है। भीड़तंत्र को प्रश्रय देने के शर्मनाक उदाहरण राज्य विधानसभाओं के पटल तक पहुंच चुके हैं। चाहे केरल विधानसभा द्वारा कोयंबटूर बम विस्फोटों में वांछित अबदुन्नसीर मदनी की रिहाई के लिए पारित प्रस्ताव हो या तमाम राज्यों की विधानसभाओं द्वारा नागरिकता संशोधन कानून एवं कृषि कानूनों के खिलाफ पारित संकल्प। इन कृत्यों ने कानून के राज की बेशर्मी से धज्जियां उड़ाई हैं।
पंजाब में भी कई बार ऐसी स्थिति देखने को मिली है। चाहे पंजाब टर्मिनेशन आफ एग्रीमेंट एक्ट के तहत अन्य राज्यों के साथ पूर्व में किए गए जल बंटवारा समझौतों को एकतरफा तरीके से रद करना हो या मुख्तार अंसारी का कानूनी प्रक्रिया से बचाव, पंजाब सरकार का रिकार्ड खासा चिंताजनक रहा है। कानून, संविधान और चुनाव से ऊपर उठकर लोकतंत्र नैतिकता की कसौटी का विषय है। लोकतंत्र की कल्पना इस मान्यता पर आधारित है कि जन-जन की नैतिकता एक व्यक्ति या छोटे समूह की तानाशाह प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाएगी, परंतु यदि सत्ता प्राप्ति के लिए संगठित समूहों की निरंकुशता को बढ़ावा दिया जाता है तो यह भी लोकतंत्र की हार है। इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का अवमूल्यन होता है।
दिल्ली में जानलेवा प्रदूषण के बावजूद पंजाब सरकार का नाकारापन दिखाता है कि चुनावी गणित लोकतांत्रिक मूल्यों को तार-तार कर चुका है। ऐसे में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों और नागरिक समाज को चाहिए कि प्रदूषण का संज्ञान लेने के अलावा यह विचार भी किया जाए कि चुनावी लोकलुभावनवाद भारतीय लोकतंत्र को किस संकट की ओर ले जा रहा है। इस पर विचार करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि यह लोकलुभावनवाद कानून के शासन को खुली चुनौती दे रहा है।
Date:28-11-23
भारत के लिए चुनौती बनता मालदीव
ब्रह्मदीप अलूने
डेढ़ दशक पहले मालदीव में बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना हुई थी और उसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने समुद्र के बढ़ते स्तर और कार्बन उत्सर्जन के खतरों से दुनिया को आगाह करने के लिए समुद्र के तल पर कैबिनेट बैठक आयोजित की थी। तब माना गया था कि पर्यटकों की खास पसंद बना तथा भारत की समुद्री सीमा से लगे हिंद महासागर में स्थित यह छोटा-सा देश विश्व शांति और प्रगति में महती भूमिका निभाने को तैयार है। समुद्री प्राकृतिक जटिलताओं से जूझने वाले मालदीव को वैश्विक पहचान दिलवाने में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। मगर पिछले कुछ वर्षों में इस देश की घरेलू राजनीति और विदेश नीतियों में गहरे परिवर्तन हुए हैं। इसके प्रमुख कारणों में देश में राजनीतिक अस्थिरता, धार्मिक कट्टरपंथ को राजनीतिक संरक्षण, लोकतांत्रिक शक्तियों को कुचलने की कोशिशें, खाड़ी देशों से आयातित चरमपंथ, पाकिस्तान का भारत विरोधी दुष्प्रचार और चीन की कर्ज नीति का मकड़जाल है। इसका प्रभाव भारत मालदीव संबंधों पर भी पड़ा है, जो लगातार जटिल होते जा रहे हैं।
मालदीव में राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू के नेतृत्व में आई नई सरकार ने भारत से अपील की है कि वह मालदीव से भारतीय सैनिकों को वापस बुलाए। मालदीव लंबे समय से भारत के प्रभाव में रहा है, मगर मुइज्जू का यह रुख भारत विरोधी तथा चीन समर्थक माना जा रहा है। हालांकि भारत विरोध के संकेत मुइज्जू के राजनीतिक गुरु यामिन की सरकार में ही देखने को मिल गए थे, जब मालदीव और चीन के रिश्ते बेहद गहरे हो गए थे। उन्होंने भारत की एक कंपनी का हवाई अड्डा बनाने का करार खारिज करके ठेका चीन की कंपनी को दे दिया था। इसके साथ ही 2018 में मालदीव ने बहुराष्ट्रीय आठ दिवसीय नौसैनिक अभ्यास मिलन में शामिल होने के भारत के निमंत्रण को ठुकरा दिया था।
मालदीव, हिंद महासागर में सामरिक रूप से बेहद संवेदनशील स्थान पर स्थित है और यही कारण है कि भारत उससे मित्रवत संबंध बनाए रखने की लगातार कोशिशें करता रहा है। वहीं पिछले कुछ दशकों में चीन ने दक्षिण एशिया समेत हिंद महासागर के देशों में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए सहायता कूटनीति को अपना हथियार बनाकर सामरिक बढ़त बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है। 1980 के दशक के अंत में चीनी नौसेना ने समुद्री इलाके पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने की एक रणनीति बनाई थी। उसके अनुसार अपने जल क्षेत्र से बाहर काम करने में सक्षम पनडुब्बी और अत्याधुनिक हथियार बनाना, हिंद महासागर में उसका संचालन करना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीनी धाक जमाना था। इस योजना को अमल में लाने के लिए चीन ने अपने रक्षा बजट में भी बेहताशा बढ़ोतरी की। इस समय चीन की नौसेना दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना शक्तियों में शुमार है। वह पश्चिमी प्रशांत, हिंद महासागर और यूरोप के आसपास के व्यापक जलक्षेत्रों में अभियान चला रही है। दक्षिण चीन सागर पर अधिक नियंत्रण या प्रभुत्व प्राप्त करना, चीन की वाणिज्यिक समुद्री संचार लाइनों की रक्षा करना, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को कम करना और अग्रणी क्षेत्रीय शक्ति तथा एक प्रमुख विश्व शक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने की कोशिशों से क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर सामरिक चुनौतियां बढ़ गई हैं।
मालदीव और चीन के बीच 2017 में मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है। वहां बड़े पैमाने पर चीन ने निवेश किया है और वह ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ में भागीदार बन गया है। ‘स्ट्रिंग आफ द पर्ल्स’ पहल के हिस्से के रूप में मालदीव में बंदरगाहों, हवाई अड्डों, पुलों और अन्य महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के विकास सहित विभिन्न परियोजनाओं के वित्तपोषण और निर्माण में चीन ने भूमिका निभाई है। इस रणनीति के मुताबिक जरूरत पड़ने पर इनका उपयोग सैन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
मालदीव द्वीपों का एक बड़ा समूह है, जिसमें करीब बारह हजार टापू हैं। इसमें सिर्फ दो सौ द्वीपों पर लोग बसते हैं। मालदीव के सबसे नजदीकी पड़ोसियों में से एक भारत है और उसकी चिंता यह है कि मालदीव के सैकड़ों निर्जन द्वीपों पर समुद्री डाकू, तस्कर और चरमपंथी ठिकाना न बना लें। समुद्री रास्तों से हथियारों, नशीले पदार्थों और मानव तस्करी, संगठित अपराध के रूप में एक बड़ी सामुद्रिक सुरक्षा चुनौती है। भारत के अंतरराष्ट्रीय व्यापार का अधिकांश हिस्सा समुद्री मार्ग से संचालित होता है। इसलिए भारत की आर्थिक क्षमताओं को मजबूत करने और सुरक्षा रणनीति में समुद्री सुरक्षा एक महत्त्वपूर्ण अवयव है।
भारत की हिंद महासागर को लेकर वर्तमान नीति शक्ति संतुलन पर आधारित है। उस पर चीन का बढ़ता प्रभाव आशंकाएं बढ़ा रहा है। चीन को रोकने और उसके सामरिक खतरों से निपटने के लिए भारत क्वाड का सदस्य बना है। 2007 में स्थापित क्वाड के सदस्य भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका खुले और स्वतंत्र हिंद महासागर की बात कहते रहे हैं। इन राष्ट्रों द्वारा चीन पर दबाव बनाए रखने के लिए नियमित सैन्य अभ्यास भी किए जाते हैं। हालांकि हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी नौसेना की संख्या और गतिविधियां जिस तरह से बढ़ती दिख रही हैं, ऐसा लगता है कि उसे रोकने में क्वाड भी बहुत सफल नहीं हो रहा है। इन क्षेत्रों में चीन नियंत्रित बंदरगाहों और सैन्य सुविधाओं के विकास से भारत के रणनीतिक हितों और क्षेत्रीय सुरक्षा को लगातार चोट पहुंच रही है। चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का प्रमुख भागीदार है। श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह, बांग्लादेश का चिटगांव बंदरगाह, म्यांमा की सितवे परियोजना समेत मालद्वीप के कई निर्जन द्वीपों को चीनी कब्जे से भारत की सामरिक और समुद्री सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ गई हैं।
इस समय मुइज्जू सरकार का रुख भारत विरोधी प्रतीत हो रहा है। वे मालदीव के सामाजिक और आर्थिक विकास में चीन की भूमिका की सराहना कर रहे हैं, फिलीस्तीन को आक्रामक समर्थन देकर अपने देश की कट्टरपंथी ताकतों को खुश कर रहे हैं, तुर्किए के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन से मिलने को आतुरता तथा भारत से रिश्तों को लेकर ठंडापन दिखा रहे हैं। ऐसे में यह आशंका गहरा गई है कि मालदीव के सैकड़ों निर्जन द्वीपों की सुरक्षा को लेकर मुइज्जू सरकार संसाधनों का हवाला देकर अपनी असमर्थता जता सकती है। यह स्थिति चीन के लिए मुफीद हो सकती है।
पिछले वर्ष चीनी जहाज युआन वांग 5 ने समुद्र में शोध करने के नाम पर श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर डेरा डाला था। यह चीन के नवीनतम पीढ़ी के अंतरिक्ष ट्रैकिंग जहाजों में से एक है, जिसका उपयोग उपग्रह, राकेट और अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की निगरानी के लिए किया जाता है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए ‘लांच बेस इंफ्रास्ट्रक्चर’ देने वाला सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र श्रीहरिकोटा में स्थित है, जो हंबनटोटा से करीब ग्यारह सौ किलोमीटर की दूरी पर है। मालदीव से कोच्चि की दूरी बहुत ज्यादा नहीं है। भारतीय नौसेना के दक्षिणी नौसैनिक कमान का केंद्र तथा भारतीय तटरक्षक का राज्य मुख्यालय भी यहीं स्थित है। केरल के एर्नाकुलम जिले में लक्षद्वीप सागर से तटस्थ स्थित यह एक बड़ा बंदरगाह नगर है।
चीन हिंद महासागर से जुड़े देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर भारत के करीब आता जा रहा है। इससे यह आशंका गहराने लगी है कि चीन अत्याधुनिक टोही जहाजों का उपयोग करके भारत की सामरिक ताकत का न केवल अंदाजा लगा सकता है, बल्कि भविष्य में जरूरत पड़ने पर अपने युद्धपोतों और खासकर पनडुब्बियों की सुरक्षित तरीके से तैनाती कर सकता है। जाहिर है, श्रीलंका के बाद अब मालदीव सरकार की नीतियां भारत की सामरिक समस्याओं को बढ़ा रही हैं।
चीन के वायरस से फिलहाल हमें कितना डरना चाहिए
राजीव दासगुप्ता, ( प्रोफेसर, कम्युनिटी हेल्थ, जेएनयू )
चार साल पहले यही मौसम था, सर्दी की शुरुआत ही हुई थी, जब चीन से कोरोना वायरस की लहर उठी और देखते-देखते पूरी दुनिया उसकी घातक चपेट में आ गई थी। इस साल फिर वहां एक वायरस के प्रसार की सूचनाएं मिल रही हैं और यह वायरस भी इंसान, विशेषकर बच्चों के श्वसन-तंत्र पर हमला कर रहा है। लिहाजा, चीन में फैल रही माइकोप्लाज्मा निमोनिया और इन्फ्लूएंजा (फ्लू) को लेकर दुनिया भर में स्वाभाविक चिंता देखी जा रही है। हालांकि, यह कोई नया वायरस नहीं है और इसे फिलहाल वहां भी नियंत्रण में बताया जा रहा है, लेकिन इसके मरीजों की संख्या काफी तेजी से बढ़ रही है। इसीलिए, भारत सरकार ने भी अपने यहां सुरक्षा को लेकर तमाम तरह के दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। राज्य सरकारों और अस्पतालों को निमोनिया के मरीजों की खास निगरानी करने और जरूरी एहतियाती उपाय अपनाने को कहा गया है।
सवाल यह है कि इस इन्फ्लूएंजा और कोरोना वायरस में कितनी समानता है? निश्चित तौर पर, ये दोनों ही वायरस काफी तेजी से फैलते हैं और दोनों के पास महामारी पैदा करने की पर्याप्त क्षमता है। फिर भी, दोनों एक-दूसरे से अलग प्रकृति के वायरस हैं। दरअसल, चीन में जिस एच9एन2 वायरस की वजह से इन्फ्लूएंजा फैला है, उसकी कई लहर आ चुकी है, और यह ऐसे ही आती रहेगी, क्योंकि इसका रूप बड़ी तेजी से बदलता है। किसी भी वायरस के रूप में बदलाव वास्तव में दो तरह से होता है, जिसे तकनीकी शब्दावली में ‘ड्रिफ्ट’ और ‘शिफ्ट’ कहते हैं। ड्रिफ्ट का मतलब होता है वायरस के जीन में मामूली बदलाव, जिसमें सतह के प्रोटीन में भी कुछ हद तक बदलाव होते हैं, जबकि शिफ्ट में अचानक इतना बड़ा बदलाव होता है कि उससे वायरस में नया प्रोटीन बन जाता है। चूंकि इसमें प्रोटीन नया होता है, इसलिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली उसको पकड़ने में सफल नहीं हो पाती। एच9एन2 वक्त के साथ नए-नए रूप लेता रहता है, जिसके कारण कमोबेश एक नियमित अंतराल पर मानव आबादी इसकी चपेट में आती रहती है। यही वजह है कि एच9एन2 वायरस पर 2019 के बाद से हरसंभव निगाह रखी जा रही है।
अभी इस बीमारी के फैलने की एक और वजह है। इन्फ्लूएंजा आमतौर पर सर्दी के मौसम में ही फैलता है। अभी चीन में तेज सर्दी पड़ रही है और कोरोना के समय लगाए गए प्रतिबंध भी हटा लिए गए हैं। इसके मरीज उन इलाकों या शहरों में अधिक आ रहे हैं, जो काफी उन्नत है और जहां पर जनसंख्या घनत्व ज्यादा है। चूंकि बच्चे एक-दूसरे के संपर्क में अधिक रहते हैं, इसलिए उनमें इस निमोनिया का प्रसार काफी ज्यादा हो रहा है। फिलहाल राहत की बात यह है कि वहां मौत की खबरें कम हैं। वैसे भी, इन्फ्लूएंजा वायरस या बीमारी बुजुर्गों में अधिक घातक होती है। इसका इलाज आमतौर पर वही है, जो अन्य इन्फ्लूएंजा का है और लक्षण भी समान रूप से सर्दी-जुकाम ही हैं। बीमारी के लक्षण को देखकर ही इसका उपचार किया जाता है। इन्फ्लूएंजा वायरस चूंकि नियमित तौर पर दुनिया भर में फैलता रहा है, इसलिए भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। संभवत यह नया वायरस भी यहां आ सकता है। बस दिक्कत यह है कि इसका पता जब तक चल पाता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है और इसका चारों ओर संक्रमण फैल चुका होता है। चीन में भी अस्पताल हांफने लगे हैं, क्योंकि उन पर अचानक मरीजों का बोझ आ गया है।
भारत सरकार ने स्वाभाविक ही इस संदर्भ में दिशा-निर्देश जारी किए हैं। यह एक सराहनीय पहल है। इस दिशा-निर्देश में पूर्व-तैयारी की चर्चा है। अच्छी बात यह है कि कोविड के कारण ये चीजें काफी हद तक काम करने लगी हैं। वैसे, अपने यहां खतरा उन इलाकों में ज्यादा है, जहां पर बाहर से लोग आते हैं। खासकर महानगरों से इस वायरस का प्रसार हो सकता है। हालांकि, सुखद बात यह है कि अब तक ऐसा कोई उभार देखने को नहीं मिला है। बहुत मुमकिन है कि यह दिखे भी नहीं, क्योंकि यह वायरस अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप अख्तियार करता है। फिर भी, हमें सावधान रहना होगा और इस पर नजर बनाए रखनी होगी। किसी किस्म की अफरा-तफरी से बचने का यही मुफीद रास्ता है।