28-06-2018 (Important News Clippings)
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Date:28-06-18
The Van Dhan Route to Gram Swaraj
What it will take to treble tribal incomes in two years
Pravir Krishna , [The author is MD, TRIFED, Ministry of Tribal Affairs, Government of India.]
What does swaraj connote for the forest-dwelling tribes? Like for anyone else, it means attaining the power to shape one’s own destiny. The issues vexing the tribes relate to jal, jungle and zamin, among which this article is concerned with forest rights. The traditional forest was a mixed forest that yielded a range of non-timber forest products (NTFP). These included tree/ bush borne oilseeds, fruits, flowers, roots, shoots, leaves, bark and herbs. They provided food, medicine and a living ambience. Apart from subsistence needs of the community, NTFP helped them earn useful cash for other requirements of everyday use.
The rights over forest were entirely usufruct rights: nobody claimed rights over land. This liberty was infringed upon by the Forest Act, 1927. Forests overnight became out-of-bounds for the tribes. People dwelling there for ages became trespassers in their own backyard. The Provisions of the Panchayats (Extension to Scheduled Areas) Act, 1996, or PESA, was a major breakthrough, but it suffers from technical deficiencies. Ownership of ‘minor forest produces’ (MFP) is conferred but MFP has not been defined nor has any mechanism been built in for framing of rules at state level to define these. Likewise, the ownership of MFP is conferred upon the Gram Sabha (not the NTFP gatherer).
The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006, was brought to remedy this. This Act is perhaps the most significant piece of legislation to date for the forest tribes. The challenge now lies in implementation of the Act in right earnest. Many NTFP bearing forests have been cleared to make way for timber plantations. This makes the provision regarding tribal ownership of NTFP more symbolic than real. The challenge now is to re-profile the forest to make the tribals’ right real and meaningful.
What is Van Dhan? How can it help? In deference to law, the wealth of the forests excludes timber and refers only to NTFP, the legal ownership of which is now granted to the tribes. Most of the reputed and heavily selling drugs, pharmaceuticals, FMCG items and confectionery contain raw materials picked by tribals from the forest floor. The estimated value of NTFP in raw form is around Rs 2 lakh crore a year. This is when NTFP is dependent on the vagaries of nature and there is no input to nourish the crop yielding trees. If NTFP forests are proactively developed, this value can rise to Rs 10 lakh crore. Even now, in many districts the value of NTFP far exceeds total state spend on development.
NTFP gatherers generally receive a dismal 20% or less of the value of their produce. The balance is cornered by a chain of middlemen. The trading yards (weekly haat bazars) are hotspots of exploitation by sharp operatives of merchants in nearby towns. If the gatherer’s share is increased to 40-50% through enforcement of fair trade practices, and if primary level value addition is optimised, there will be no need for any other livelihood promotion schemes in tribal forest areas. And tribals constitute over 8% of our population.
We must develop an NTFP-centric holistic development model for tribal-forest areas to usher in Gram Swaraj. This revolves mainly around (a) reforming the trade to make it fair and equitable to the tribal gatherer; (b) promoting local-level primary value addition to the NTFP; (c) doing everything necessary to increase production of NTFP; and (d) the state facilitating technological upgradation of the entire NTFP chain from production to sale of processed produce at the best price through market intelligence. The focal point of such a model will be the Van Dhan Vikas Kendra, a common facility where NTFP gatherers can add value to NTFP.
We propose to set up 30,000 Van Dhan SHGs across the country, federated through 3,000 Van Dhan Vikas Kendras. Primary level value addition, after training and provision of equipment to SHGs, can treble tribal incomes. By convergence with Jan Dhan, Van Dhan will leverage the funds necessary for the working capital requirements of raw material, transport and storage.Van Dhan is also open to partnerships with corporates to develop infrastructure and marketing. It aims to treble the income of 50 lakh tribal families in the first two years. And, that’s just the start.
Date:28-06-18
अहम शक्ति बनने के लिए जरूरी हैं समुद्री क्षमताएं
अगले दो दशक में दुनिया की प्रमुख ताकत बनने के लिए यह आवश्यक है कि भारत समुद्री क्षेत्र में गहरी क्षमताएं विकसित करे।
प्रेमवीर दास , (लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं। प्रस्तुत विचार पूरी तरह व्यक्तिगत हैं।)
इन दिनों हर तरफ समुद्री सुरक्षा की चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के दौरान वहां के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जो बातचीत की उसके बाद ऐसी चर्चाओं का सिलसिला शुरू हुआ जिनसे यह बोध हुआ कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हित वाला एक प्रमुख समुद्री क्षेत्र बन सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुअल मैक्रां के साथ बातचीत के दौरान और फिर आसियान देशों के प्रमुखों के साथ चर्चा में भी समुद्री सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख रहा। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ बातचीत में भी इस विषय पर चर्चा हुई।
अभी हाल ही में इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर में और सैद्घांतिक तौर पर सामरिक महत्व के शांग्रीला संवाद में अपने वक्तव्य में मोदी ने देश के इर्दगिर्द के समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर चिंता जाहिर की। इतना ही नहीं उन्होंने सिंगापुर में विशेष रूप से तैनात भारतीय युद्घपोत पर अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस का स्वागत भी किया। अगर कोई साधारण व्यक्ति इस परिदृश्य पर दृष्टिï डाले तो उसे लगेगा कि भारत बहुत तेजी से उपमहाद्वीपीय भूक्षेत्र वाले शक्तिशाली राष्ट्र से समुद्री क्षमता संपन्न देश बनने की ओर अपनी रुचि बढ़ा रहा है। परंतु जमीनी हकीकत एकदम अलग है।
हमारा रक्षा बजट 27.4 खरब रुपये का है जो जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से अब तक का न्यूनतम है। नौसेना को इसमें से 14 फीसदी राशि आवंटित होती है। ऐसे में तो हम हिंद महासागर क्षेत्र के आसपास ही बहुत प्रभावी नहीं रह पाएंगे, एशिया-प्रशांत क्षेत्र की तो बात दूर ही है। हां, एक या दो युद्घपोतों से यदाकदा मित्रतापूर्ण यात्राएं की जा सकती हैं और मित्र नौसेनाओं की मदद से कुछ युद्घाभ्यास किए जा सकते हैं। यहां तक कि मालाबार जैसा बड़ा सैन्याभ्यास भी किया जा सकता है लेकिन इससे हम बड़ी समुद्री शक्ति नहीं बन जाएंगे।
ताजातरीन रक्षा बजट के केवल 14 फीसदी के साथ नौसेना नकदी की कमी से जूझ रही है और समूचे हिंद महासागर क्षेत्र के लिए तैयार नहीं है। हिंद-प्रशांत तो दूर की बात है। रक्षा नीतिकारों को यह समझना होगा। अगर हमें उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करना है तो हमें सामरिक रुझान को देखते हुए अपना निवेश बढ़ाना होगा और अगर हम उस दिशा में बढ़ते हैं तो दो मोर्चों पर युद्घ की तैयारी जैसी बातें तत्काल हमारी राह रोक लेती हैं। क्षमताओं के साथ ऐसा कोई भी समझौता नौसेना की हिस्सेदारी को हमेशा सीमित रखेगा और इस तरह प्रधानमंत्री के सपनों का हकीकत में बदलना दूरी की कौड़ी बना रहेगा।
15 साल पहले रक्षा बजट में नौसेना की हिस्सेदारी 18 फीसदी थी और उसके जल्दी 20 फीसदी होने की उम्मीद थी। उसके लिए हमारी जमीनी सीमा पर आक्रमण होने और घरेलू स्तर पर पनपने वाले किसी भी तरह के विद्रोह का पुनर्आकलन होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चूंकि थल सेना की हिस्सेदारी पहले जैसी बरकरार है इसलिए भारतीय सशस्त्र बलों को वह मिलता रहेगा जो वे पिछले छह दशक से पाते रहे हैं। इस तरह समुद्री शक्ति बनने की चर्चा केवल बातों में रह जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि मौजूदा विचार प्रक्रिया के मुताबिक समुद्री क्षमता बढ़ाने की भारत की जोर नहीं पकड़ पाएगी और अपेक्षाकृत दूर बनी रहेगी।
अमेरिका की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने की है और इसे समझा जा सकता है। देर से सही लेकिन यह चीन द्वारा पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में उठाए जा रहे कदमों के प्रति सीधी प्रतिक्रिया है। वह चीन को दक्षिणी चीन सागर के स्पार्टली द्वीप में यानी ऐसे इलाके में विमानन परिचालन सुविधा कायम करने से रोकना चाहता है जो साफ तौर पर उसका भूभाग नहीं है। इस बीच क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ाने के क्रम में अमेरिका कई क्षेत्रीय देशों को अपने पाले में करना चाहता है। जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले से ही उसके पाले में हैं जबकि भारत उनमें ताजातरीन है।
भारत की नीति इस क्षेत्र में सक्रिय रहने की हो सकती है लेकिन अगर वह इस क्षेत्र की एक अहम ताकत बनना चाहता है तो उसे समुद्र में विश्वसनीय क्षमता दिखानी होगी। खासतौर पर हिंद महासागर क्षेत्र में। जैसा कि हमने पहले कहा अभी उसके पास ऐसी क्षमता नहीं है और भविष्य में भी ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक कि हम अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाएंगे। हमें भू सीमाओं प्रति अपने लगाव को परे करना होगा। भू सीमाओं पर शत्रु के आक्रमण और कब्जे की आशंकाओं में कुछ दशक पहले तक दम था लेकिन बीते कुछ वर्षों में हालात नाटकीय अंदाज में बदल गए हैं। हम सभी इस बात को अच्छी तरह समझते भी हैं। संक्षेप में कहें तो हम जो कहते हैं उसमें और हमारी क्षमताओं में बहुत अधिक अंतर है।
हमारी आकांक्षाओं को परिणाम में बदलने के लिए भारत को खुद को पारंपरिक उपमहाद्वीपीय शक्ति से एक मजबूत समुद्री शक्ति में बदलना होगा। अगर हमें अगले 20 वर्ष में दुनिया की शीर्ष चार-पांच ताकतों में से एक बनना है तो हमें समुद्री क्षमताओं के विकास पर काफी ध्यान देना होगा। पश्चिमी ताकतों की बात करें तो वे ऐतिहासिक रूप से समुद्री शक्ति वाले देश रहे हैं और अब तो चीन भी यह स्वीकार कर चुका है कि कोई देश तब तक बड़ी शक्ति नहीं बन सकता है जब तक कि उसने समुद्री क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को साबित नहीं कर दिया हो। इसीलिए चीन पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में आक्रामक भूमिका में नजर आ रहा है और उसने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं विकसित की हैं। उसकी युद्घपोत निर्माण परियोजना बहुत तेज गति से चल रही है और उसने केवल पांच साल में विमान वाहक पोत तैयार किया है। इससे भी पता चलता है कि वह लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में किस गति से बढ़ रहा है। हमारे पास वक्त बहुत कम है।
हमारे देश में सुरक्षा की स्थिति तेजी से बदल रही है। अब हमें दुनिया में शीर्ष तीन-चार शक्तियों में से एक बनना होगा। इसके लिए हमें राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षमता विकसित करनी होगी। हमारे सशस्त्र बलों के आकार पर नए सिरे से नजर डालने का वक्त है। इसलिए नहीं कि इससे अगले कुछ सालों में कोई बड़ा बदलाव आने वाला है बल्कि इसलिए क्योंकि बिना इसके हम वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां हमें अब से दो दशक बाद होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री ने अपनी बात कहकर शुरुआत कर दी है। परंतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। अब वक्त आ गया है कि बातों पर अमल किया जाए।
Date:28-06-18
चीन की घेराबंदी रोकने की जुगत
एजंप्शन द्वीप पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकर सेशेल्स के साथ बनी सहमति भारत की बड़ी कूटनीतिक कामयाबी है।
डॉ. रहीस सिंह , (लेखक विदेश संबंधी मामलों के जानकार हैं)
यह अच्छी बात है कि सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर की हालिया भारत यात्रा के दौरान एजंप्शन द्वीप पर दोनों देशों द्वारा साथ मिलकर नौसैनिक अड्डा बनाने पर सहमति बन ही गई, जिसे लेकर बीते लगभग एक महीने से आशंकाएं जताई जा रही थीं। भारत के लिए यह सामरिक लिहाज से बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि चीन लगातार अपनी पैठ हिंद महासागर के द्वीपों में बना रहा है और यह भी माना जा रहा है कि पिछले दिनों सेशेल्स में विपक्षी दलों ने भारत को लेकर जो विरोध किया था, उसमें चीन का अहम किरदार था। बड़ी उपलिब्ध इसलिए भी कि यदि भारत सेशेल्स को राजी नहीं कर पाता तो एजंप्शन द्वीप में चीन या फिर कोई यूरोपीय देश, मसलन फ्रांस नौसैनिक अड्डा बनाने की कोशिशें करता और हिंद महासागर में चीन के इस तरह सैन्य विस्तार का मतलब है, भारत के लिए चुनौतियों व खतरों का बढ़ना। पर भारत बाजी पलटने में कामयाब रहा। फिर भी कुछ प्रश्न हैं। पहला सवाल, सेशेल्स इतना अहम क्यों है और सेशेल्स के जरिए हम अन्य पड़ोसियों एवं हिंद महासागर के द्वीपीय देशों को क्या संदेश दे सकते हैं? दूसरा, क्या भारत अब ओसीन अथवा ब्लू वॉटर डिप्लोमेसी की रणनीतिको बदलने की कोशिश में है, ताकि वह सामुद्रिक ताकत बन सके?
सेशेल्स के साथ दोस्ती अथवा सामरिक साझेदारी का नया युग सही अर्थों में वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सेशेल्स यात्रा से शुरू हुआ। उसी यात्रा के दौरान सेशेल्स के एजंप्शन द्वीप पर नौसैनिक अड्डा बनाए जाने के प्रस्ताव पर सहमति बनी थी। मोदी की वह सेशेल्स यात्रा किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा लगभग 34 वर्षों के बाद की गई यात्रा थी। इसका तात्पर्य है कि बीते साढ़े तीन दशक में भारत ने हिंद महासागर के द्वीपीय देशों की ओर ठीक से देखा ही नहीं। स्वाभाविक है कि भारतीय सामरिक नीति हिंद महासागर के द्वीपीय या छोटे देशों की महत्ता का आकलन भी नहीं कर पाई होगी। जबकि ये द्वीपीय देश न केवल दक्षिण एशियाई कूटनीति में भारत का पलड़ा भारी कर सकते थे, बल्कि वैश्विक कूटनीति के लिहाज से भी भारत के पक्ष में कुछ नए संतुलनों व रणनीतियों को जन्म दे सकते थे। भारत की इस कूटनीतिक निष्क्रियता व अदूरदर्शिता का लाभ चीन ने उठाया और वह इस हिंद महासागरीय देश से मजबूत रिश्ता बनाने में सफल हो गया।
ध्यान रहे कि लगभग 84 हजार की आबादी वाला सेशेल्स भले ही एक बहुत छोटा देश हो, किंतु भारत के लिए सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। सेशेल्स के साथ भारत का प्रमुख मुद्दा रक्षा और सामुद्रिक सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग संबंधी है, जिसे सुदृढ़ करना भारत की प्राथमिकता है। इस क्षेत्र में समुद्री दस्युओं के आधिक्य को देखते हुए भारत सेशेल्स पीपुल्स डिफेंस फोर्सेस (एसपीडीएफ) की क्षमता मजबूत करने की कोशिश लगातार कर रहा है। सेशेल्स का जल सीमा क्षेत्र 1.3 मिलियन वर्ग किमी से भी ज्यादा विस्तृत अनन्य आर्थिक क्षेत्र (एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन- ईईजेड) भी रखता है, इसलिए भारत ने उसकी निगरानी क्षमता बढ़ाने के लिए उसे नौसैनिक जहाज ‘आईएनएस तरासा दिया, जो सेशेल्स कोस्ट गार्ड के बेड़े में ‘पीएस कान्स्टैंट के नाम से शामिल हो चुका है। इससे पहले सेशेल्स को ‘पीएस टोपाज नाम जहाज दिया गया था। यही नहीं, 2013 में भारत ने सेशेल्स के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन की आतंकवाद और समुद्री दस्युओं से रक्षा के लिए अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक डोर्नियर-228 (समुद्री गस्ती विमान) भी भेंट किया था। यही सेशेल्स की वायुसेना की सामुद्रिक क्षमता का मुख्य आधार है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सेशेल्स यात्रा के दौरान उसे डोर्नियर लड़ाकू विमान देने और द्विपक्षीय सहयोग के प्रतीक के रूप में तटीय निगरानी राडार परियोजना शुरू करने की घोषणा की थी। तटीय निगरानी राडार परियोजना एजंप्शन द्वीप पर है, जो उन 115 द्वीपों में से एक है, जिससे मिलकर सेशेल्स बना है।
दरअसल भारत के लिए सेशेल्स जैसे द्वीपीय देशों के साथ संबंध मजबूत करना जरूरी है, क्योंकि हिंद महासागर में एक ‘ग्रेट गेम की स्थिति निर्मित हो चुकी है और इस समय सबसे बड़ा खिलाड़ी चीन है। अमेरिका पहले से ही अपनी हिंद महासागर नीति पर काम कर रहा है और अमेरिकी सेंट्रल कमान (सेटकॉम) के अधीन त्वरित बल सक्रिय हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिका का हवाई व नौसैनिक अड्डा डिएगो-गार्सिया, हिंद महासागर में भू-सामरिक प्रतिस्पर्द्धा का केंद्र बना हुआ है। दूसरी तरफ चीन हिंद महासागर में एक बड़ा संजाल निर्मित कर चुका है। चीन अपने ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स के तहत ग्वादर (पाकिस्तान), मारओ (मालदीव), हंबनटोटा(श्रीलंका) से लेकर सिंहनौक्विलै (कंबोडिया) जैसे बंदरगाहों के जरिए सामरिक-आर्थिक महत्व के मोतियों की पूरी श्र्ाृंखला निर्मित कर चुका है। पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह भू-सामरिक दृष्टि से चीन के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि इसके माध्यम से चीन मध्य-एशिया और इसके आस-पास के समुद्री क्षेत्र में अपनी नौसैनिक ताकत प्रदर्शित कर सकता है। मारओ नौसैनिक बंदरगाह पर चीन अपने युद्धपोत और नाभिकीय पनडुब्बियों को रखने का इरादा रखता है। श्रीलंका का हंबनटोटा कोलंबो जितना बड़ा है और सामरिक दृष्टि बेहद महत्वपूर्ण भी। चीन ने कंबोडिया के रेएम बंदरगाह के आधुनिकीकरण के लिए सारा खर्च उठाया है तथा सिंहनौक्विले बंदरगाह के पुनर्निर्माण में सहयोग किया है। इसलिए चीन को इनका सामरिक प्रयोग करने का अधिकार मिल ही जाएगा। इनके जरिए चीन दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी पैठ बनाने में सफल हो जाएगा। इसके साथ ही चीन मलक्का से जिबूती तक न्यू मैरीटाइम सिल्क रूट का निर्माण कर रहा है और जिबूती में इसी उद्देश्य अपना सैन्य अड्डा बना रहा है। कुल मिलाकर वह हिंद महासागर में दोहरी सामरिक दीवार निर्मित कर रहा है, जिसे भारत तोड़ न पाए।
इन स्थिति में सेशेल्स जैसे द्वीपीय देश का महत्व भारत के लिए बहुत बढ़ जाता है। इस दिशा में भारत की पिछले महीने प्राप्त सफलता भी ध्यान देने योग्य है, जब प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी इंडोनेशिया यात्रा के दौरान मेजबान देश से एक व्यापक समुद्री सुरक्षा समझौता किया। चूंकि हम मनीला में अमेरिका, जापान व ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए रणनीतिक चतुर्भुज (क्वैड) बनाने की प्रक्रिया के लिए हस्ताक्षर कर चुके हैं, ऐसे में सेशेल्स में नौसेनिक अड्डे पर सहमति बनने का आशय है कि भारत सामुद्रिक सुरक्षा के मोर्चे पर अब चीन के समानांतर अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है। इससे भारत डिएगो-गार्सिया व जिबूती पर निगरानी रख सकता है और एजंप्श्ान से लेकर ईरान के चाबहार तक सामरिक रेखा बनाकर चीन की ग्वादर-जिबूती सामरिक रेखा को कमजोर कर सकता है। इस दृष्टि से एजंप्शन द्वीप में नौसैनिक अड्डा बनाने संबंधी भारत को मिली यह सफलता एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।
Date:28-06-18
Plan Ahead for More Secondary Airports
ET Editorials
As India picks up economic speed, it is little wonder that several major airports are facing huge capacity constraints. Domestic air passenger traffic has been growing by leaps and bounds in recent months, and the way ahead is to better anticipate demand and proactively boost airport capacity. Reports say that half of the 50 busiest airports nationwide are already operating beyond their stipulated capacities.
It is true that in May, domestic air traffic growth dropped to 16.5%, which is the slowest in five years. But note that traffic growth soared 28% in March, notched 26% in April, and has been rising an unanticipated 18-20% per annum. Delhi’s Indira Gandhi International, our busiest airport, reportedly handled 65.6 million passengers in 2017-18, and the figure is projected to rise to 70 million this fiscal.
And, yet, the expansion programme at Indira Gandhi International Airport is expected to be completed only by 2021, and raise its capacity to 85 million. With the highest air traffic growth globally, India seems set to grow into the world’s third-largest aviation market in a matter of years. Already, long queues at check-in counters are quite routine, which can lead to security risks, clogging and flight delays. A three-pronged strategy is needed to cope with fast-rising demand.
We need to fast-forward second airports in major urban centres like Navi Mumbai and Noida (Jewar). In tandem, there’s the need to concretise upgradation plans at the main aviation hubs countrywide, and seek to carry out airport expansion plans at tier II and III cities. Carriers can then avail of cheaper hanger facilities at non-metro airports, and boost hinterland connectivity in the bargain. In parallel, given the fast-rising passenger volumes, taxes and duties on aviation fuel do need to be rationalised forthwith nationally.
Date:27-06-18
Clearing Coalition Confusion
T K Arun in Cursor
Are Opposition claims of defeating BJP in combination belied by their jostling and squabbling, for ministerial berths, as in Karnataka, for share of seats, as in UP and MP, and for total dominance, as in Bengal? On the contrary. Such infighting among potential allies shows they are serious about the alliance.
A pre-poll alliance matters among parties with competing vote bases, as between SP and BSP in Uttar Pradesh. Here, neither side wants to give away seats to Congress. However, BSP’s declaration that it would contest all the seats in Madhya Pradesh, where Congress is the dominant Opposition to the incumbent BJP, must be seen as the opening gambit in a protracted bargain: Congress would have to accommodate BSP in Madhya Pradesh to be part of the alliance in Uttar Pradesh.
Impressive Track Record
Whether Trinamool Congress has a pre-poll alliance with NCP or Telugu Desam is neither here nor there. They do not directly compete anywhere. What matters is the post-poll alliance. Each party wants to enter the Lok Sabha with as many MPs as it can muster. So, the Left and Congress would fight tooth and nail in Kerala, but would be perfectly willing to cooperate, once the elections are over.
In other words, the seeming contradictions in Opposition alliances disappear once you factor in temporal (prepoll or post-poll?), spatial (overlapping or distinct areas of influence?) and federal (state-level cooperation or statelevel contest in the run-up to alliance at the Centre?) dimensions.
Are not coalitions inherently unstable and bad for governance? Would the nation not be better off under a single party that has absolute majority? The Rajiv Gandhi government had a two-thirds majority and was absolutely stable. However, the polity was racked by the anti-foreigner agitation in Assam, Khalistani separatism in Punjab, gathering secessionism in Kashmir, Tamil passions over Sri Lankan mistreatment of fellow Tamils and the violent mobilisation across north India for demolishing the Babri mosque. Stability of the regime is very different from stability of the polity.
P V Narasimha Rao’s government started off without a majority, secured allies through bribery halfway into its term. But it launched India’s economic reforms, held elections in Punjab and Kashmir, recalibrated foreign policy to suit the post-Soviet world.
Of course, it also saw the Babri demolition campaign find success. The 1996-98 United Front government, which had P Chidambaram as finance minister, carried its predecessor’s economic reforms briskly forward, bringing down income-tax rates to their current levels, dematerialising shares, opening up the debt market to foreign portfolio investment and taking the decision to decontrol petroleum prices.
The A B Vajpayee-led coalition government (a post-poll coalition in 1998, which carried on into the 1999 elections), far from reversing the reforms as some influential segments of the Sangh Parivar had wanted, carried the economic reforms forward, launched the Universal Primary Education Programme, launched inter-state and intra-village road building, co-opted the states into transitioning to value added tax and set up two tax reform panels under Vijay Kelkar, whose reports provided the blueprint for subsequent reform. It also carried out the nuclear tests that Narasimha Rao had planned but put off.
Fight Against Exclusion
The UPA government that followed presided over remarkable achievements that it failed to take credit for. It accelerated road building and urbanisation, doubled the installed capacity of power generation, doubled the proportion of students who enrol in college after leaving school, saw India grow at its fastest pace in history, cutting poverty down sharply. The policy of awarding a liberal number of telecom licences on a first-come, first-served basis that did not force telcos to lock up expensive capital in upfront payments for spectrum resulted in intense competition, spread of infrastructure and plummeting tariffs that together sent even rural tele-density soaring from 1.55% in 2004 to 44% by 2014. This revolution, however, got reduced to a scam, thanks to clever perception management.
UPA secured the nuclear deal with the US and even staked its survival for it, facing desertion of a crucial ally and facing down a no-confidence vote moved by BJP, enabling India to break out of a technology denial regime that had stunted its strategic capacity even as China raced ahead.
The short point is that coalition governments can do significant good. Their lack of single-party majority would not come in the way. Even with single-party majority, the present government needed a cooperative Opposition to launch GST through amendments to the Constitution. It is in the politics that is pursued, rather than the numbers, that national well-being depends.
And it is one important kind of politics that brings the Opposition together against BJP: defending India’s inclusive, democratic conception of the nation against the Sangh Parivar’s attempt to redefine India’s nationhood as Hindutva, unleashing verbal and physical violence against non-Hindus to cow them into second-class citizenship.
Date:27-06-18
कूटनीतिक हासिल
संपादकीय
आखिरकार भारत एजम्पशन द्वीप में नौसैनिक अड्डा बनाने देने के लिए सेशेल्स को राजी करने में सफल हो गया। यह भारत की एक अहम कूटनीतिक उपलब्धि है। इसकी अहमियत का अंदाजा हिंद महासागर में चीन की बढ़ती पैठ को ध्यान में रख कर ही लगाया जा सकता है। चीन जिबूती बेस के जरिए हिंद महासागर में अपनी गतिविधियां बढ़ा चुका है। भारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति चीन की इसी सक्रियता की काट निकालने की कोशिश है। अगर इसके लिए सेशेल्स को भारत राजी नहीं कर पाता, क्या पता कल वह चीन या फ्रांस को नौसैनिक अड्डा बनाने की मंजूरी दे देता। यों सेशेल्स से भारत की नजदीकी तभी बढ़ गई थी जब 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां गए थे। तभी नौसैनिक अड्डा बनाए जाने के प्रस्ताव पर सहमति बन गई थी। यही नहीं, सेशेल्स के सैनिकों को प्रशिक्षण और सैन्य सामग्री की आधी से अधिक आपूर्ति भारत ही करता रहा है। पर नौसैनिक अड्डे के लिए सेशेल्स को रजामंद कर पाना भारत के लिए आसान नहीं था, क्योंकि वहां का विपक्ष इस प्रस्ताव के खिलाफ था। और, विपक्ष के तीखे विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति डैनी फॉर ने भारत का प्रस्ताव रद्द कर दिया था। इसे भारत की हार और चीन की जीत के रूप में देखा गया।
कुछ दिन पहले तक भारत के लिए स्थिति निराशाजनक थी। हाल में डैनी फॉर ने कह दिया था कि जब वे भारत जाएंगे तो एजम्पशन आइलैंड में नौसैनिक अड्डा बनाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के साथ कोई बातचीत नहीं करेंगे। लेकिन आखिरकार भारत ने हारी हुई बाजी पलट दी। भारत ने कोई नाराजगी दिखाने के बजाय सेशेल्स से सहयोग और सदाशयता का व्यवहार जारी रखा, और उसे बतौर उपहार एक विमान तटीय निगरानी के लिए दिया। इससे सेशेल्स के राजनीतिक नेतृत्व का विश्वास अर्जित करने में भारत को सफलता मिली और फॉर के दिल्ली आने पर भारत का मंसूबा एक द्विपक्षीय सहमति में बदल गया। जाहिर है, भारत के प्रति सेशेल्स का ताजा रुख चीन को रास नहीं आया होगा। डैनी फॉर के साथ सुरक्षा समेत विभिन्न मुद्दों पर चर्चा के बाद मोदी ने सेशेल्स को छह सौ इक्यासी करोड़ रुपए कर्ज देने का भी एलान किया। फॉर ने कहा कि इससे सेशेल्स के बुनियादी सैन्य ढांचे को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी; इस कर्ज से हम नए सरकारी भवन, पुलिस मुख्यालय और महान्यायवादी कार्यालय का निर्माण करेंगे। इस मौके पर भारत और सेशेल्स के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जो कि साइबर सुरक्षा, समुद्री सुरक्षा और बुनियादी ढांचा विकास आदि से संबंधित हैं। समुद्री सुरक्षा के तहत महासागरीय क्षेत्रों में मौजूद असैन्य वाणिज्यिक पोतों की पहचान और आवाजाही संबंधी सूचनाएं साझा की जाएंगी।
डैनी फॉर के साथ वार्ता के बाद मोदी ने कहा कि भारत सेशेल्स की रक्षा क्षमता बढ़ाने और समुद्री बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के लिए वचनबद्ध है। भारत और सेशेल्स प्रमुख सामरिक सहयोगी हैं और हिंद महासागर में शांति, सुरक्षा और स्थिरता कायम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आगे उन्होंने कहा कि दोनों देश समुद्री लूट, नशीले पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी और समुद्री संसाधनों का अवैध तरीके से दोहन जैसे अंतरराष्ट्रीय अपराधों का सामना कर रहे हैं। भारत और सेशेल्स मिल कर इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश करेंगे। भारत और सेशेल्स के बीच एजम्पशन परियोजना पर काफी समय से बातचीत चलती रही है, मगर जमीन पर कुछ नहीं हो पाया। देखना है अब यह परियोजना कब मूर्त रूप लेती है ।
Date:27-06-18
नष्ट हो सकती है दुनिया!
अवधेश कुमार
दुनिया में व्यापार युद्ध छिड़ गया है। स्थिति कितनी गंभीर हो रही है, इसका अनुमान इसी से लगाइए कि अमेरिका और चीन के बीच आयात शुल्कों से आरंभ यह युद्ध अब भारत, यूरोपीय संघ, तुर्की, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान और मैक्सिको तक फैल गया है। दुनिया भर के केंद्रीय बैंक एवं प्रमुख संस्थाएं भारी आर्थिक मंदी के खतरे की भविष्यवाणी कर रहे हैं। वास्तव में अमेरिका फस्र्ट का नारा देने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप ने संरक्षणवादी नीतियों और व्यापार शुल्क को हथियार के तौर पर जिस तरह उपयोग करना आरंभ किया है उसका परिणाम यही होना है। अमेरिका ने पिछले सप्ताह चीन के 50 अरब डॉलर के सामानों पर 25 प्रतिशत शुल्क लगा दिया था। इसके जवाब में चीन ने भी अमेरिका के 50 अरब डॉलर के 659 उत्पादों पर शुल्क लगा दिया। ट्रंप ने चीन को परोक्ष रूप से धमकी दी थी कि वह 200 अरब डॉलर के अतिरिक्त चीनी सामानों पर शुल्क लगाएगा। चीन के वाणिज्य मंत्रालय ने कहा कि ऐसा हुआ तो चीन भी इसके जवाब में कदम उठाएगा। ट्रंप के रवैये को देखते हुए चीन से आयात किए जाने वाले 450 अरब डॉलर के उत्पादों पर शुल्क लगाए जाने की आशंकाएं बढ़ गई हैं। चीन ने कहा है कि यह अमेरिका की ब्लैकमेलिंग है।
चीन के विषय में र्चचा तथा अन्य देशों का उल्लेख करने से पहले भारत पर आते हैं। अमेरिका ने मार्च महीने में भारत से आयातित इस्पात पर 25 प्रतिशत और अल्युमीनियम पर 10 प्रतिशत शुल्क लगा दिया था। जवाब में भारत ने अमेरिका से आने वाली 29 वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। हालांकि, अमेरिका से आयातित मोटरसाइकिलों पर शुल्क नहीं बढ़ाया गया है। जून के दूसरे सप्ताह में वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु अमेरिका के दौरे पर गए थे। प्रभु की अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विल्बर रॉस और अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइजर के साथ हुई बैठकों के दौरान विवाद को बातचीत से सुलझाने का निर्णय करने की घोषणा की गई थी। इसके पूर्व मई में भारत ने विश्व व्यापार संगठन के विवाद निपटान में भी मामला दायर किया। हालांकि मामला दायर करने के बावजूद भारत का मत यही था कि हम पहले बातचीत करेंगे। नहीं सुलझा तो विवाद निपटान ईकाई से इसका निर्णय देने के लिए कहेंगे। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने कनाडा के क्यूबेक में आयोजित जी-7 की बैठक में भारत समेत दुनिया भर की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं पर तीखा हमला किया। भारत पर कुछ अमेरिकी उत्पादों पर 100 प्रतिशत का शुल्क लगाने का आरोप लगाया। वास्तव में क्यूबेक के भाषण में ट्रंप ने पूरी दुनिया को निशाना बनाते हुए भारत सहित दुनिया की कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं पर अमेरिका को व्यापार में लूटने का आरोप लगाया। कहा कि भारत कुछ अमेरिकी उत्पादों पर 100 प्रतिशत शुल्क वसूल रहा है। हम तो ऐसे गुल्लक हैं, जिसे हर कोई लूट रहा है। ट्रंप भारत में विशेष रूप से हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिलों पर ऊंचा शुल्क लगाए जाने का मुद्दा कई बार उठा चुके हैं। हम अमेरिका को आने वाली भारतीय मोटरसाइकिलों पर आयात शुल्क बढ़ाने की चेतावनी दे चुके हैं।
ट्रंप ने सम्मेलन के संयुक्त घोषणा पत्र के पाठ को खारिज कर दिया। कहा कि हम सभी देशों से बात कर रहे हैं। यह रु केगा या फिर हम उनसे कारोबार करना बंद करेंगे। जी 7 के नेताओं ने उन्होंने मनाने की पूरी कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। उसके बाद सबको कुछ न कुछ जवाबी कदम उठाना था। भारत ने संकेत समझ लिया। इसलिए प्रतीक्षा नहीं की। यूरोपीय संघ ने अमेरिका के बोर्बोन, जींस, व्हिस्की, चावल और मोटरसाइकिल सहित कई उत्पादों पर 3.3 अरब डॉलर का शुल्क लगाया है। अमेरिका ने वहां के इस्पात एवं अल्यूमीनियम पर 25 प्रतिशत और 10 प्रतिशत शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है। जापान की कारों और कई सामग्रियों पर भी ट्रंप ने शुल्क लगाने की चेतावनी दी है। तुर्की ने भी अमेरिका से आयातित वस्तुओं पर 267 मिलियन डॉलर मूल्य का आयात शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है। तत्काल शुल्क बनाम प्रतिशुल्क का यह युद्ध रु कने की स्थिति में नहीं है। कुछ भी हो सकता है। जैसे चीन कई तरीकों से बदला ले सकता है। आईफोन एक्स, एक्सेल कार, स्टारबक्स और टॉम क्रूज की फिल्मों आदि की मांग चीन में है। इन सब पर प्रतिबंध लगा सकता है, उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका के कूटनीतिक संबंध कायम करवाने के अपने प्रयास को रोक सकता है।
चीन ने पिछले महीने कहा था कि उसने अमेरिका से आयातित पोर्क और ऑटोमोबाइल्स की जांच शुरू कर दी है, जिसके बाद ये उत्पाद बंदरगाहों पर ही रहे। चीन और अमेरिका, दुनिया की दो अर्थव्यवस्थाएं हैं। इस व्यापार युद्ध ने नियंतण्र कंपनियों के बीच भरोसे को घटाया है, और नियंतण्र अर्थव्यवस्था खतरे की ओर जा रही है। ऑटोमोबाइल कंपनियां इसका शिकार होती दिख रही हैं। मर्सेडीज-बेंज बनाने वाली जर्मनी की ऑटोमोबाइल कंपनी डेमलर एजी ने 2018 के अपने लाभ के पूर्वानुमान को घटा दिया है। जनरल मोटर्स और फोर्ड के शेयर जहां एक प्रतिशत गिरे हैं, वहीं टेस्ला के शेयरों में भी 0.5 प्रतिशत की गिरावट हुई है।
बीएमडब्ल्यू ने भी कहा है कि इसकी वजह से उसे रणनीतिक उपायों की तलाश करनी पड़ रही है। डेमलर एजी ने कहा है कि उसकी कारों पर चीन द्वारा आयात शुल्क बढ़ा देने से चीन के ग्राहकों की मांग में कमी आएगी। उसे इस साल कम फायदा होगा। यह ठीक है कि अमेरिका भारी व्यापार घाटे में है, और उसकी अर्थव्यवस्था भी घाटे की अर्थव्यवस्था बन गई है। किंतु वही एक समय दुनिया में खुले और मुक्त व्यापार का झंडाबरदार बना हुआ था। यही मुक्त व्यापार व्यवस्था उसके गले की हड्डी क्यों बन रही है? क्यों वह अपने ही मुक्त बाजार की विश्व व्यवस्था से पीछे हट रहा है? इस व्यवस्था में संरक्षणवादी और आयात शुल्कों का हमला कतई निदान नहीं हो सकता। व्यापार आगे बढ़ते हुए कई प्रकार के अन्य तनावों में परिणत हो सकता है। इससे दुनिया को बचाना जरूरी है। आज यह प्रश्न उठाने की आवश्यकता है कि क्या यह तथाकथित बाजार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वाभाविक संकट है? क्या इसका निदान इस व्यवस्था में है, या हमें किसी वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश करनी होगी जिसमें देशों को एक दूसरे के आयातों और निर्यातों पर निर्भरता कम हो सके?
Date:27-06-18
हिंद महासागर में चीन को जवाब
अभिजीत सिंह (सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन)
एजम्पशन आइलैंड पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकरभारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति सामरिक नजरिये से काफी अहम है। यह सही है कि 2015 का यह समझौता इस साल संशोधित किए जाने के बाद भी वहां की संसद की मंजूरी नहीं पा सका है। मगर दोनों देश एक-दूसरे के हितों को देखते हुए आपस में मिलकर इस नौसैनिक अड्डे पर काम करने को लेकर सहमत हुए हैं, जो सुकूनदेह है। इसे सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर के भारत दौरे की ‘बेस्ट पॉसिबल आउटकम’ कहा जा रहा है, यानी सबसे अच्छा संभावित नतीजा। मौजूदा स्थिति में इससे बेहतर परिणाम नहीं निकल सकता था। अगर यह समझौता रद्द हो जाता (जिससे जुड़ी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले खबरों में आई थी), तो हमें खासा नुकसान हो सकता था। मगर अब उम्मीद बंधी है कि अगले चुनाव में सेशेल्स के मौजूदा राष्ट्रपति यदि और अधिक प्रभावी तरीके से सत्ता में आते हैं, तो यह समझौता वहां की संसद की रजामंदी पा सकता है।
इस नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता और सेशेल्स की झिझक को समझना मुश्किल नहीं है। चीन इसकी एक बड़ी वजह है। उसका प्रभाव हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है। यहां पहले भारत प्रभावी भूमिका में था और चीन दक्षिण चीन सागर में। मगर अब हिंद महासागर में चीन की दखल के बाद क्षेत्र की राजनीतिक व सामरिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। उसने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा तो बना ही लिया है, ग्वादर (पाकिस्तान) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) बंदरगाह भी अपने खाते में झटक लिए हैं। इस बदलते घटनाक्रम से नई दिल्ली का चिंतित होना लाजिमी है। इस लिहाज से हमारे लिए एजम्पशन आइलैंड उम्मीद की एक बड़ी किरण है। यहां यदि नौसैनिक अड्डा बनकर तैयार हो जाता है, तो यह चीन को करारा जवाब देने जैसा होगा। मगर दुर्भाग्य से, चीन के दबाव के कारण ही सेशेल्स फिलहाल उलझन में दिख रहा है। दरअसल, साल 2004 के बाद से सेशेल्स में चीन का निवेश काफी बढ़ गया है। और जिस तरह हिंद महासागर में भारत व चीन की स्पद्र्धा चल रही है, उसमें सेशेल्स, मॉरिशस, मालदीव जैसे आस-पास के तमाम छोटे-बड़े देश व आइलैंड खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं।
वे भारत को खुलेआम समर्थन देकर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। एक दिक्कत यह भी रही कि कुछ सामरिक पंडित ने एजम्पशन आइलैंड के नौसैनिक अड्डे को इस रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था, मानो यह अड्डा भारत का होगा और यहां से चीन के जहाजों पर नजर रखी जाएगी। इस अति-उत्साह ने भी सेशेल्स को अभी आगे बढ़ने से रोका है। अगर वह यह कहता कि नौसैनिक अड्डा भारत ही बनाएगा, तो भारत-चीन प्रतिस्पद्र्धा में संभवत: वह भी हिस्सा बनता दिखता। हालांकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। अच्छी बात यह है कि सेशेल्स से हमारे रिश्तों में खटास नहीं आई है। लिहाजा भविष्य के लिए हम सकारात्मक भरोसा रख सकते हैं।
भारत और सेशेल्स के बीच बनी ताजा सहमति भी हमारे लिए कम फायदेमंद नहीं है। संयुक्त नौसैनिक अड्डा हिंद महासागर में हमारी सामरिक ताकत बढ़ाएगा। यहां भारत को घेरने के लिए चीन की विस्तारवादी नीतियां अपनी गति से चल रही हैं। आलम यह है कि उसकी पनडुब्बियां कभी-कभी दक्षिण एशियाई सागर में भी आ जाती हैं और हम उसे पकड़ नहीं पाते। हालांकि इसकी वजह तकनीक और साजो-सामान के मामले में हमारा चीन से कमतर होना भी है। मगर सेशेल्स का नौसैनिक अड्डा बनता है और भारत की मौजूदगी वहां बढ़ती है, तो इस महासागर में चीन की दखल पर हमारी नजर बनी रहेगी। यह सही है कि चीन को ‘काउंटर’ करने के लिए हमारे पास जितने पत्ते होने चाहिए, उतने नहीं हैं।
हमारा प्रयास मालदीव और मेडागास्कर जैसे राष्ट्रों से रिश्ता बढ़ाकर भी उसे रोकने का रहा है, जिसमें हमें सफलता नहीं मिल पाई। फिर चीन का इन देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव भी खासा है। इस लिहाज से देखें, तो सेशेल्स से समझौता हो पाना ही अपने-आप में बड़ी उपलब्धि है। हिंद महासागर में चीन से एक और चुनौती हमें ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में मिल रही है। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र में भी तमाम तरह के निवेश किए जा रहे हैं। इसकी काट के लिए हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक ‘चतुष्कोणीय’ गुट बनाने को तत्पर हैं। यह एक राजनीतिक समूह तो होगा ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भी इसका अस्तित्व काफी मायने रखेगा। एक संयुक्त क्षेत्रीय ढांचागत स्कीम तैयार करने पर चारों देश विचार कर रहे हैं। अगर यह साकार हो जाता है, तो हम चीन को कई मामलों में चुनौती दे सकेंगे।
हालांकि वुहान में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग की ‘अनौपचारिक मुलाकात’ से एक संदेश यह भी निकला कि भारत अब चीन के साथ एक स्थिर संबंध बनाने को लेकर अपनी ओर से रुचि दिखा रहा है। इसने ‘चतुष्कोणीय’ गुट की बुनियाद थोड़ी कमजोर की है। हालांकि मेरा मानना है कि जब तक इस चौकड़ी के बहाने हम राजनीतिक और सामरिक संबंधों को गति नहीं देंगे, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती चुनौती का प्रभावी जवाब शायद ही दे पाएंगे। हमें अपनी उस ‘नेबरहुड पॉलिसी’ (पड़ोसी देशों को खास तवज्जो देने की नीति) को भी नई धार देनी होगी, जिसकी तरफ 2015 में कदम बढ़ाए गए थे। यह न सिर्फ हिंद महासागर क्षेत्र के लिए, बल्कि दक्षिण एशिया के लिहाज से भी किया जाना जरूरी है। आज भूटान, नेपाल जैसे हमारे करीबी पड़ोसी देश भी चीन के पाले में जाते दिख रहे हैं। हमें उन्हें समझाना होगा कि चीन या अमेरिका की तुलना में, भारत के साथ रिश्तों को मजबूती देना उनके लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद है।