20-11-2018 (Important News Clippings)

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20 Nov 2018
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Date:20-11-18

Back off Now

RBI’s credibility is central to ensuring financial stability, don’t mess with it

TOI Editorials

The disagreements between Reserve Bank of India (RBI) and government are deep and serious. They are apparent in speeches, tweets and observations critical of the central bank from even highways minister Nitin Gadkari. It’s not uncommon for RBI and government to disagree on issues as they have different roles. But differences have been resolved through communication at senior levels. It’s this history which makes the current friction extraordinary as informal mechanisms to resolve differences appear to have broken down.

RBI’s role is not just limited to tackling inflation or regulating banks. It’s also at the heart of the system to ensure financial stability. Consequently, its credibility is all important and must not be messed with. Any action on the government’s part that undermines the central bank’s credibility will have an impact on financial stability. At a time when India’s domestic saving is not enough to fund investment, inflow of foreign investment bridges the gap. Among other things, this inflow could dry up if RBI’s functional autonomy is seen to be undermined.

Three issues seem to be at the heart of the current friction. One, Prompt Corrective Action (PCA), an RBI regulatory constraint on fresh lending by banks with a high proportion of bad loans. Two, differences about the extent of liquidity available for NBFCs, which play a critical intermediation role in credit to small businesses. Three, the “economic capital framework” for RBI’s balance sheet. These issues have shown up in one way or the other over the last three decades. Invariably, they have been resolved through talks where a compromise has been reached or one side has been able to persuade the other.

The need of the hour is to repair channels of communication. A central bank’s unique functions make it unrealistic for it to be governed like a joint stock company through a governing board. Operational issues need regular communication between RBI and government. This is why finance ministers have consulted RBI governors even while crafting the Union Budget. Government should avoid using a nuclear option such as Section 7 to ram its view through, as it will result in long-term damage to the central bank’s credibility whose consequences would be more difficult to manage than demonetisation. That was one victory of politicians over experts which damaged the economy; this one will be catastrophic.


Date:20-11-18

अमेरिका-चीन कारोबारी जंग और भारत के लिए अवसर

अमेरिकाऔर चीन के बीच छिड़े व्यापारिक युद्घ के बीच भारत के पास यह अवसर है कि वह चीन के साथ सहयोग बढ़ाए। यह दोनों के हित में साबित हो सकता है।

श्याम सरन , ( लेखक पूर्व विदेश सचिव और वर्तमान में सीपीआर के वरिष्ठ फेलो हैं। )

अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापारिक युद्ध के दो पहलू हैं। पहले का संबंध वस्तु व्यापार से है जहां अमेरिका को लगातार महत्त्वपूर्ण कमी से जूझना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में कुछ प्रगति हो सकती है अगर चीन अमेरिका को शांत करने के लिए कुछ बड़ी खरीद करे। वह अमेरिका में बने नागरिक उड्डयन विमान, सोयाबीन और गेहूं जैसी कृषि जिंस तथा महंगे उपभोक्ता उपकरणों की खरीदारी कर सकता है। अतीत में ऐसा हो चुका है लेकिन तब भी व्यापारिक तनाव अस्थायी रूप से ही कम हुआ था। अभी हाल ही में चीन ने शांघाई में एक महत्त्वाकांक्षी आयात मेले की शुरुआत की। वहां शी चिनफिंग ने स्वयं मुक्त व्यापार को लेकर चीन की प्रतिबद्धता के बारे में बात की। हालांकि उन्होंने कहा कि अगले 15 वर्ष में चीन का इरादा अमेरिका से 30 लाख करोड़ डालर के वस्तु आयात और 1,000 करोड़ डॉलर के सेवा आयात का है। ये आंकड़े बहुत विशिष्ट हैं लेकिन ऐसा लगता नहीं कि चीन के अधिकांश कारोबारी साझेदारी इनसे प्रभावित होंगे।

दूसरी बात, बौद्धिक संपदा और औद्योगिक नीति से जुड़े मसले भी हैं जहां चीन अमेरिका की मांग का प्रतिरोध करेगा। उदाहरण के लिए मेड इन चाइना 2025 नामक पहल का मकसद कृत्रिम मेधा, क्वांटम कंप्यूटिंग, इलेक्ट्रिक वाहन और एडवांस रोबोटिक्स में चीन का दबदबा कायम करना है। इसमें सरकारी सहयोग वाली निजी और सरकारी कंपनियों की सहायता ली जाएगी। ऐसा लगता नहीं कि यह विषय चीन-अमेरिका की कारोबारी बातचीत के एजेंडे में शामिल होगी। इस विषय को लेकर अमेरिका का दबाव चीन को और अधिक प्रतिबद्ध कर रहा है। तकनीकी स्तर पर आत्मनिर्भर होने और अमेरिकी तथा पश्चिमी देशों द्वारा इस सिलसिले में कड़ाई करने के बाद चीन में घरेलू नवाचार की मांग तेजी से उठ रही है। चीन यह घोषणा भी कर सकता है कि वह पश्चिमी कंपनियों की बाजार पहुंच के लिए तकनीकी हस्तांतरण की शर्त नहीं रखेगा लेकिन बौद्धिक संपदा चोरी से जुड़ी पश्चिम की चिंताएं इतनी आसानी से समाप्त नहीं होने वाली हैं। ऐसे में इस महीने के अंत में जब जी-20 शिखर बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग मिलेंगे तो व्यापारिक मोर्चे पर अस्थायी शांति स्थापना देखने को मिल सकती है। परंतु मूलभूत जटिलताएं बरकरार रहेंगी।

अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ ने हाल ही में विश्व व्यापार संगठन में सुधार को लेकर साझा पहल पर सहमति जताई है ताकि बाजार में विसंगति पैदा करने वाली गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। यह विसंगति सब्सिडी या सरकारी उपक्रमों को बढ़ावा देकर पैदा की जाती है। इसके लिए कई उपाय अपनाने की बात कही गई है। जानकारी छिपाने और अनुपालन न करने वालों पर जुर्माने का प्रस्ताव है। बौद्घिक संपदा से जुड़े मसलों को लेकर अधिक सख्त नियम बनाए जा रहे हैं, बाजार पहुंच के बदले तकनीकी जानकारी की मांग खत्म की जा रही है। सरकारी उपक्रमों की भी अब गहरी पड़ताल होगी। कुलमिलाकर नीतिगत और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता में इजाफा होगा। स्पष्ट है कि यह पूरी कवायद चीन के खिलाफ जाएगी और इस बात की भी संभावना बहुत कम है कि निकट भविष्य में चीन को उसकी मांग के मुताबिक बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया जाएगा।

बौद्घिक संपदा के मसले से सुरक्षा का पहलू जुड़ा हुआ है और ऐसे में लगता नहीं कि इस विषय पर भी कोई समझौता हो पाएगा। हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन ने असैन्य-सैन्य एकीकरण में उस बौद्घिक संपदा की मदद ली है जो उसने पश्चिमी कंपनियों से प्राप्त की। इसका इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में किया जा रहा है। चीन अमेरिका में सिलिकन वैली के अलावा ब्रिटेन और जर्मनी में कई स्टार्टअप में निवेश कर रहा है। इससे उसे उत्कृष्ट तकनीक प्राप्त हो रही है जिसका इस्तेमाल वह अपने असैन्य और रक्षा क्षेत्र में कर रहा है। आने वाले महीनों में यह गुंजाइश बहुत सीमित हो जाएगी। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अभी अकेले अमेरिका में 25,000 चीनी आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और वे असैन्य और सैन्य दोनों तरह के उद्योगों में गुणवत्ता वाले कार्मिकों के रूप में शामिल होंगे। अमेरिका ने अभी हाल ही में अपने करीबी सहयोगी इजरायल से कहा है कि वह चीनी कंपनियों को उच्च गुणवत्ता वाली चीजें न बेचे।

अतीत में यह दलील दी जाती रही है कि पूंजी और तकनीकी क्षमताओं के साथ चीन के आर्थिक विकास की मदद करने और पश्चिमी बाजारों की पहुंच प्रदान करने से चीन को उच्च समृद्घि के पूर्वी एशियाई चक्र के समकक्ष ले जाने में मदद मिलेगी। इससे बाजार में खुलापन आएगा और वहां की राजनीति और अधिक लोकतांत्रिक होगी। पश्चिम और चीन के बीच की गहन आर्थिक परस्पर निर्भरता के चलते उनके बीच सैन्य प्रतिस्पर्धा के भी सीमित होने की उम्मीद की गई थी। शी चिनफिंग के चीन का निर्विवाद नेता बनने के साथ ही ये उम्मीदें झूठी साबित हुईं। व्यापार, अमेरिका और चीन के बीच सुरक्षा प्रतिस्पर्धा का उपकरण बन गया।

सवाल यह है कि मौजूदा व्यापारिक जंग, वैश्विक अर्थव्यवस्था पर क्या असर डाल सकती है? इसमें दो राय नहीं कि अगर मौजूदा व्यापारिक और निवेश संबंधी प्रवाह प्रभावित हुआ तो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर होगा। चीन दक्षिण पूर्वी एशिया के कई देशों के उत्पाद की असेंबली का अंतिम सिरा है। ये उत्पाद अमेरिका, यूरोप तथा जापान जाते हैं। अगर इन बाजारों में चीन की पहुंच प्रभावित हुई तो इसका असर इस आपूर्ति शृंखला पर भी होगा। ऐसे में चीन के हिस्से का काम वियतनाम या इंडानेशिया जैसे अन्य देशों में जा सकता है। चीन खुद पश्चिमी देशों के अवरोध से बचने के लिए दूसरे देशों में फैक्टरियां लगा सकता है। वाहन कलपुर्जे और औषधि को छोड़ दें तो भारत इसमें शामिल नहीं है। परंतु भारत के लिए यह अवसर हो सकता है कि वह खुद को इस आपूर्ति शृंखला से जोड़े। हमें क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी के जरिये इस लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करना चाहिए।

बदलता वैश्विक आर्थिक और व्यापारिक परिदृश्य निस्संदेह चीन को मजबूर करेगा कि वह अपनी व्यापारिक और निवेश संबंधी नीतियों की समीक्षा करे। उसे व्यापारिक युद्घ से निपटने के तरीके निकालने होंगे ताकि वृद्घि बरकरार रहे। इस लिहाज से देखें तो भारत एक आकर्षक आर्थिक साझेदार साबित हो सकता है। बेहतर होगा हम अपने मतभेद दूर कर चीन के साथ गंभीर बातचीत शुरू करें और साझा उत्पादकता वाली व्यापार और निवेश साझेदारी की शुरुआत करें। क्या पता यह दोनों के लिए लाभप्रद साबित हो।


Date:19-11-18

मौजूदगी से बनेगी बात

अवधेश दौरा

मालदीव की राजधानी माले में यह दृश्य देखने के लिए भारतीय तरस रहे थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में सर्वोच्च रैंकिंग वाले राजकीय अतिथि थे। शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मोदी मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और मौमून अब्दुल गयूम के बीच में बैठे थे। यह दृश्य हर उस व्यक्ति को भावुक कर रहा था, जो मालदीव के साथ भारत के पारंपरिक रिश्तों से वाकिफ हैं। इसमें चीन के संस्कृति और पर्यटन मंत्री लू शुगांग भी शामिल हुए लेकिन वो एक सामान्य अतिथि की तरह थे। माले हवाई अड्डे पर मोदी का जैसा शानदार स्वागत हुआ वह यह बता रहा था कि स्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं।

पूर्व राष्ट्रपति और भारत के मित्र समझे जाने वाले मोहम्मद नाशीद समेत कई नेताओं से गले मिलने की तस्वीरें भी सुखद थीं। वस्तुत: गर्मजोशी के ये हाव-भाव बता रहे थे कि पूर्व शासन द्वारा अकारण उदण्डतापूर्वक भारत को मालदीव से बाहर करने और चीन द्वारा स्थानापन्न कराने की नीति पर विराम लगने की शुरु आत हो गई है। राष्ट्रपति सोलिह और नाशीद दोनों और उनकी मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी भारत की ईमानदार मित्रता और इसके नि:स्वार्थ सहयोगी व्यवहार के समर्थक हैं। शपथ ग्रहण के बाद मोदी और सोलिह दोनों ने एक-दूसरे की चिंताओं और भावनाओं का सम्मान करने और हिन्द महासागर के इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता बनाए रखने पर जो सहमति व्यक्त की उसके मायने व्यापक हैं। राष्ट्रपति सोलिह ने संबंधों में भारत को प्राथमिकता देने का संकेत देकर तस्वीर साफ कर दिया। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की मूर्खता से मालदीव चीन के कर्ज में बुरी तरह फंसा हुआ है। उन्होंने चीन के काम करने की खुली छूट दे दी।

मोटा-मोटी आकलन यह है कि चीन का करीब 1.5 अरब डॉलर का कर्ज मालदीव पर होगा। सोलिह ने कहा कि यह पूरा हिसाब नहीं है, कर्ज ज्यादा हो सकता है। 4 लाख की आबादी वाले देश के लिए यह कितना बड़ा कर्ज है, इसे समझना कठिन नहीं है। सोलिह सरकार ने चीन के कर्जे और उसके रिस्ट्रक्चरिंग पर काम आरंभ कर दिया है। इसमें भारत सबसे बड़ा सहयोगी हो सकता है। भारत के हित में यही है कि कठिनाई के बावजूद तुरंत मालदीव को इतनी वित्तीय मदद दे, जिससे वह चीनी कर्ज दबाव से मुक्त हो सके। वस्तुत: रणनीतिक रूप से इस महत्त्वपूर्ण देश से भारत को यामीन ने व्यवहार में निष्क्रिय और अंशत: बाहर कर दिया था। यामीन ने भारत की परियोजनाओं को रोक देने की स्थिति पैदा की, चीन को ठेके पर ठेके दिए, यहां तक कि बिजली पैदा करने का ठेका पाकिस्तान को दिया गया। चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता और भारतीयों के लिए वर्क वीजा पर भी अघोषित प्रतिबंध लग गया था। मालदीव, मॉरीशस और सेशेल्स जैसे देशों को हेलिकॉप्टर, पेट्रोल बोट और सैटेलाइट सहयोग देना हिन्द महासागर में भारत की नौसेना रणनीति का हिस्सा रहा है। यामीन अपने क्षेत्र में इसे खत्म करने का उदण्ड प्रयास कर रहे थे।

हिन्द महासागरीय क्षेत्र का सबसे निकट का देश होने के कारण भारत की सामुद्रिक क्षेत्र सुरक्षा को देखते हुए इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यामीन ने कई द्वीप चीन को सौंपे। उनके जहाज वहां बेरोकटोक आने-जाने लगे। चीनी पोत और पनडुब्बियों ने वहां लंगर भी डाल रखा है। उनके फैसलों से हमारे यहां उत्तेजना पैदा हुई थी। सरकार पर वहां कुछ करने का दबाव था। मालदीव की विपक्षी पार्टयिां भी भारत से हस्तक्षेप कर शासन को उखाड़ फेंकने का अनुरोध कर रहीं थीं। पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद अब्दुल गयूम और मोहम्मद नशीद ने अपने निर्वासन स्थल से ही कई बार भारत से सैनिक हस्तक्षेप की गुहार लगाई। बावजूद भारत ने सैनिक हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं समझा। नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति में नेबर फस्र्टयानी पड़ोसी पहला प्रमुख स्तंभ है। इसके तहत उन्होंने सभी पड़ोसी देशों की यात्रा कीं। चाहते हुए भी मालदीव नहीं जा सके। 2015 में निर्धारित यात्रा प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण रद्द करनी पड़ी थी। भारत ने धैर्य के साथ मालदीव के लिए रणनीति बनाकर काम करना आरंभ किया। यह संदेश दिया गया कि भारत अपने समर्थकों के साथ है। यामीन ने संसद से 9 विपक्षी सांसदों की सदस्यता रद्द कर दी। जब सर्वोच्च न्यायालय ने इसके विपरीत फैसला दिया तो पुलिस ने न्यायालय को ही घेर लिया।

देश में 5 फरवरी को आपातकाल लागू कर इन्हें भी जेल के अंदर बंद कर दिया। भारत ने आपातकाल और विरोधियों को दमन करने की नीति की न केवल आलोचना की बल्कि साफ मांग की कि मोहम्मद नशीद को वापस बुलाए, सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करे और चुनावी और राजनीतिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता बहाल करे। भारत ने सीधा हस्तक्षेप फिर भी नहीं किया। वस्तुत: भारत ने शांति से नेपय में रहते हुए उनकी विदाई के लिए हरसंभव कोशिशें कीं। विश्व स्तर पर प्रचार किया कि मालदीव के वर्तमान शासन के तहत निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकता। भारत की सक्रियता से अमेरिका और ब्रिटेन ने बयान जारी कर दिया कि अगर निष्पक्ष चुनाव नहीं हुए तो मालदीव पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। इससे मालदीव के विपक्षी नेताओं का मनोबल बढ़ा और जनता के बीच भी संदेश गया। यामीन दबाव में आ गए। भारत ने विपक्षी दलों के बीच एकता कायम कराई, जिनने गठबंधन करके संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर सोलिह को उतारा। किंतु 24 सितम्बर को चुनाव परिणाम आ जाने के बावजूद यामीन सत्ता पर काबिज रहने की कोशिश कर रहे थे।

भारत ने इस बार अपनी ताकत उनको दिखाई। भारत ने उनको अच्छी भाषा में समझा दिया कि आप जनादेश का सम्मन करिए नहीं तो हमें कुछ करना होगा। चीन भी जनादेश नकारकर सत्ता में बैठे रहने के लिए सरेआम मदद नहीं कर सकता था। डेढ़ महीने की रस्साकशी में राजनीतिक स्थिति को यहां तक लाने में मुख्य भूमिका भारत की ही रही है। अब प्रधानमंत्री के वहां जाने से ही यह संदेश चला जाएगा कि नई सरकार के साथ भारत खड़ा है। मोहम्मद नशीद के स्वदेश लौटने के बाद उनका प्रभाव सरकार पर रहेगा। पूर्व राष्ट्रपति गयूम भी भारत के साथ रहेंगे। प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की मौजूदगी बता रही है कि सामरिक संबंधों पर भी निर्णय हुए हैं। यामीन की भारत विरोधी नीतियों के कारण कई चीजें नये सिरे से आरंभ करने की जरूरत है तो कई को नई परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की। तो हम मालदीव भारत संबंधों में फिर नये सिरे से एक बेहतर दौर की संभावना देख सकते हैं।


Date:19-11-18

हिंसा के विरुद्ध

संपादकीय

दुनिया भर में व्यापक आलोचना के बावजूद अगर म्यांमा सरकार रोहिंग्या समुदाय के मसले पर अपने रुख में कोई बदलाव लाने को तैयार नहीं दिख रही है, तो यह अपने आप में एक गंभीर स्थिति है। ऐसे में वह खुद किस आधार पर दुनिया के देशों से अपने लिए किसी मामले में सहयोग या उदारता की अपेक्षा कर सकती है। इसलिए अगर संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमा में रोहिंग्या मुसलमानों के मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में चिंता जताई है तो यह स्वाभाविक ही है। इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने रोहिंग्या मुसलमानों के मानवाधिकारों के लगातार हनन के खिलाफ बाकायदा एक प्रस्ताव पारित किया है। इसमें साफ तौर पर कहा गया है कि म्यांमा की सेना अब भी रोहिंग्या समुदाय के लोगों पर अत्याचार कर रही है और खुद हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों में शामिल है। यों पिछले काफी समय से दुनिया के बहुत सारे देशों ने इस मसले पर चिंता जताई है और स्पष्ट रूप से म्यांमा सरकार की आलोचना की है। इसकी झलक संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर हुए मतदान में भी दिखी, जब इसके पक्ष में 142 देशों ने और विरोध में महज दस देशों ने वोट दिया। इस प्रस्ताव के समर्थन में वोट देने वाले देशों में बांग्लादेश भी शामिल है, जिसने दस लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दी है।

जाहिर है, म्यांमा के भीतर और वहां से बाहर भागे रोहिंग्याओं की त्रासदी देखने के बाद उसके खिलाफ विश्व भर में एक जनमत बना है। मगर विडंबना है कि तमाम आलोचनाओं और सवालों के बावजूद म्यांमा सरकार और वहां की सेना को अपने रुख पर पुनर्विचार करना जरूरी नहीं लग रहा है। हालत यह है कि संयुक्त राष्ट्र के ताजा प्रस्ताव पर विचार करने और अपने रवैये पर कोई आत्ममंथन करने के बजाय म्यांमा के राजदूत ने इसे राजनीति से प्रेरित, एकतरफा और भेदभावपूर्ण करार दिया है। सवाल है कि क्या केवल चरमपंथी हमलों का जवाब देने और नागरिकों को लक्षित न करने की दलील से उस हकीकत की अनदेखी की जा सकती है, जो एक बड़ी त्रासदी के रूप में खड़ी हो रही है? क्या म्यांमा के लिए यह सच कोई मायने नहीं रखता कि इस समस्या की शुरुआत के बाद से अब तक लाखों लोगों को देश छोड़ कर इसलिए भागना पड़ा कि उनकी पहचान रोहिंग्या मुसलमान के रूप में है?

आखिर इतनी बड़ी तादाद में लोगों को जान बचाने के लिए दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी है तो इसकी जवाबदेही किस पर आती है? म्यांमा की सीमा के भीतर रोहिंग्या समुदाय पर संगठित रूप से हमला करने और व्यापक हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है? किसी भी देश की सेना जरूरत पड़ने पर आंतरिक उपद्रवों को भी शांत करती है और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करती है। लेकिन इसके उलट ऐसा क्यों है कि म्यांमा की सेना पर रोहिंग्याओं पर अत्याचार ढाने, हत्या और बलात्कार तक में शामिल होने के आरोप लगे हैं? ऐसे हालात और सेना के ऐसे रुख के रहते म्यांमा कैसे यह दावा कर सकता है कि उसके भीतर लोकतंत्र के प्रति कोई सम्मान बचा हुआ है? जरूरत इस बात की है कि विश्व समुदाय की चिंता के मद्देनजर म्मांमा अपने हित में भी रोहिंग्या समुदाय की समस्या के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाए। इस तरह के हालात जब जातीय हिंसा में तब्दील हो जाते हैं तो इससे समूची मानवता को व्यापक नुकसान होता है।


Date:19-11-18

सिंगापुर में बनी एक उम्मीद

हर्ष वी पंत, प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज लंदन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, आसियान-भारत अनौपचारिक बैठक और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) की मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए पिछले हफ्ते सिंगापुर में थे। सिंगापुर फिनटेक फेस्टिवल में शिरकत करने के साथ ही वह पहले ऐसे शासनाध्यक्ष भी बन गए, जिन्हें ‘फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी’ के इस सबसे बड़े आयोजन को संबोधित करने का सम्मान प्राप्त हुआ है। यहां उन्होंने ऐसी बैंकिंग टेक्नोलॉजी को लॉन्च किया, जिसे दुनिया भर के उन दो अरब लोगों के लिए तैयार किया गया है, जिनके पास अब भी बैंक खाता नहीं है।

बहरहाल, यह बदलते इंडो-पैसिफिक (हिंद-प्रशांत) क्षेत्र की भू-राजनीति और भू-आर्थिकी को समेटे था, जो कि प्रधानमंत्री के अधिकांश कार्यक्रमों के केंद्र में भी था। आरसीईपी की ही बात करें, तो लगभग 40 फीसदी वैश्विक कारोबार इन्हीं देशों में होता है। इसके 16 सदस्य देश हैं- 10 आसियान देश और शेष भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड। ये सभी देश मिलकर मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की कोशिशों में हैं। बेशक यह एक महत्वाकांक्षी योजना है और जल्द ही इस पर सहमति बनाने की बात भी की जा रही है, बावजूद इसके यह कई मामलों को लेकर उलझ गया है। इसे बनाने को लेकर बातें 2013 में ही शुरू हुई थीं, मगर उसकी प्रगति धीमी रही। हालांकि अब ट्रंप प्रशासन की संरक्षणवादी नीतियों ने इस पर बातचीत को एक नई गति दी है। ऐसे में, उम्मीद यही है कि इस संधि को अगले साल अमली जामा पहना दिया जाएगा। घरेलू राजनीति में आरसीईपी पर सहमति बनाने में भारत को भी मुश्किलें आई हैं और संभावना है कि टैरिफ कटौती पर कठिन फैसला अगले साल आम चुनाव के बाद ही लिया जाएगा।

पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में भारत ने शिरकत करने वाले 17 अन्य नेताओं के साथ स्मार्ट शहर, आईटी, संचार, समुद्री सहयोग और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चर्चा की। पूर्वी एशिया सम्मेलन अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण बहुपक्षीय ढांचे के रूप में उभरा है, जिसमें हर साल तमाम साझेदार देश हिस्सा लेते हैं और एक-दूसरे की सुनते हैं। 10 आसियान देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका और रूस इसके सदस्य देश हैं। यह सम्मेलन भी भारत को ऐसा बेहतरीन मंच देता है कि वह क्षेत्रीय विकास के एक महत्वपूर्ण साझेदार के रूप में अपनी उपलब्धियों को सबके सामने रखे। इस साल पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने शांतिपूर्ण, मुक्त और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए भारत के नजरिये को दोहराया और समुद्री सहयोग बढ़ाने व संतुलित आरसीईपी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

सिंगापुर में प्रधानमंत्री मोदी ने आसियान-भारत द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन में भी हिस्सा लिया, जिसमें आसियान-भारत स्मारक शिखर सम्मेलन की दिल्ली घोषणा में तय किए गए लक्ष्यों में प्रगति पर चर्चा की गई। इस साल के आसियान-भारत शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हिंद-प्रशांत क्षेत्र की समृद्धि के लिए जरूरी समुद्री सहयोग और कारोबार की महत्ता पर जोर डाला। भारत की ‘एक्ट इस्ट पॉलिसी’ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र के क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे में इसकी महत्ता कोई छिपी बात नहीं है’। चीन पर निशाना साधते हुए उन्होंने यह भी आश्वस्त किया कि ‘नियम आधारित क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचा बनाने की दिशा में आसियान को लगातार समर्थन दिया जाएगा, क्योंकि यह क्षेत्रीय हितों और इसके शांतिपूर्ण विकास की दिशा में सर्वश्रेष्ठ प्रयास करता है’।

हिंद-प्रशांत में आसियान की महत्ता को भारत ने बार-बार जाहिर किया है। इस साल की शुरुआत में शांगरी-ला वार्ता के अपने भाषण में भी प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आसियान के साथ मिलकर भारत तहे-दिल से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लोकतांत्रिक व नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देगा। यह साझा स्थानों पर निर्बाध आवाजाही की अनुमति देता है और ‘क्लब ऑफ लिमिटेड मेंबर्स’ तक ही सीमित नहीं है। ‘क्लब ऑफ लिमिटेड मेंबर्स’ असल में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तरफ इशारा था।

दिलचस्प है कि ‘क्वाड’ को लेकर कुछ नहीं होने की बुदबुदाहट के बीच सिंगापुर में संयुक्त-सचिव स्तर की ‘क्वाड’ देशों की तीसरी बैठक भी हुई। ‘क्वाड’ में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। अब ये चारों देश उस लय को शायद ही बिगाड़ना चाहेंगे, जो धीरे-धीरे गति पकड़ रही है। बेशक इस दिशा में फिलहाल कुछ बड़ा नहीं हो रहा है, लेकिन ये चारों राष्ट्र किसी न किसी रूप में इसका लाभ उठाने को उत्सुक हैं।

जाहिर है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र अब वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था के केंद्र में आ गया है, और हालिया घटनाक्रमों ने उन ट्रेंड को मजबूत किया है, जो पिछले कुछ समय से उभर रहे हैं। चीन इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी है और बीजिंग खुद को क्षेत्रीय व वैश्विक ताकत के रूप में पेश करने को लेकर पहले से कहीं ज्यादा निश्चयी है। चीन की खुशकिस्मती यह भी है कि अमेरिका में फिलहाल एक ऐसा प्रशासन है, जिसमें उद्देश्यों को लेकर गंभीरता का अभाव है और जो इस क्षेत्र के लिए अपनी प्राथमिकताओं को प्रभावी रूप से जाहिर कर पाने में अब तक असमर्थ रहा है। इसने इस क्षेत्र की दीर्घकालिक स्थिरता में महत्वपूर्ण दखल रखने वाले भारत जैसे देशों के लिए भी इस संक्रमण-काल को महत्वपूर्ण बना दिया है। चीन की भूमिका बढ़ रही है और अमेरिका अब भी अपनी सुरक्षा प्रतिबद्धताओं को लेकर उलझन में है, ऐसे में भारत के लिए इस क्षेत्र में एक नया अवसर है। इतिहास के विपरीत, नई दिल्ली अब उन तमाम दूसरे क्षेत्रीय खिलाड़ियों के साथ संबंध आगे बढ़ाने को लेकर उलझन में नहीं दिखता, जो क्षेत्र में सत्ता-संतुलन को स्थिर बनाने में भारतीय हितों का पोषण करते हैं। हालांकि बतौर आसियान सहयोगी भारत को रोजगार बढ़ाने की दिशा में खासतौर पर ध्यान देना होगा, जिसके लिए उसे घरेलू आर्थिक सुधार के एजेंडे को बढ़ावा देने, क्षेत्र के भीतर कनेक्टिविटी बढ़ाने और क्षेत्रीय संस्थानों में अधिक से अधिक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत है। अपने दौरों में प्रधानमंत्री मोदी को इन्हीं प्राथमिकताओं पर ज्यादा जोर देना चाहिए।


Date:19-11-18

Being prepared against extreme events

Coastal districts must continue to strengthen resilience against extreme weather events

Editorials

Tamil Nadu was more prepared than before to deal with Cyclone Gaja when it made landfall between Nagapattinam and Vedaranyam on November 16, but it still took a toll of at least 45 lives. The severe cyclonic storm damaged infrastructure, property and agriculture. Even so, the effort to professionalise disaster management through a dedicated national and State organisation initiated more than 15 years ago appears to be paying off, with bureaucracies acquiring higher efficiency in providing early warning and in mitigating the impact of cyclones. The National Cyclone Risk Mitigation Project started by the Ministry of Home Affairs has been working to reduce the impact of such catastrophic events on Andhra Pradesh, Odisha, West Bengal, Tamil Nadu and Gujarat, classified as States with higher vulnerability; most western coastal States are in the next category. However, there is a lot to be done to upgrade infrastructure and housing in coastal districts to meet higher standards of resilience in an era of extreme weather events. The lead taken by the State Disaster Management Authority in issuing a stream of alerts ahead of Gaja helped coastal residents move to camps and adopt safety measures. The active measures taken by the State after the cyclone, notably to clear roads, remove fallen trees and repair power infrastructure and communications, helped restore some stability. In its destructive exit path, the cyclone has affected some southern districts, felling tens of thousands of trees and also 30,000 electricity poles along the coast. It also hit residents in some central Kerala districts.

Tamil Nadu’s political parties have acted in a mature manner and kept partisan criticism from getting in the way of relief and rehabilitation after Gaja. This is in contrast to some earlier instances, such as the Chennai flood of 2015, when the distribution of relief became politicised. Today, if any pressure on the government machinery is necessary, it is to secure without delay the financial relief of ₹10 lakh that has been promised for families of the dead, compensation for lost crops, trees and livestock, provision of emergency health intervention and rehabilitation assistance to rebuild lives. The larger question, of course, is whether the coastal States have equipped themselves for an even bigger event, such as the super cyclone that hit Odisha in 1999 that killed about 10,000 people. Even with far fewer casualties, Cyclone Phailin in 2013 required reconstruction estimated at $1.5 billion. India’s coastline experiences a lower frequency of tropical cyclones compared to many other regions, but the loss of life and destruction is much higher. Coastal States must, therefore, focus on reducing the hazard through policies that expand resilient housing, build better storm shelters and create financial mechanisms for insurance and compensation.


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