30-04-2018 (Important News Clippings)

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30 Apr 2018
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Date:30-04-18

Panmunjom Promise

Peace beckons the Korean peninsula but what will the stakeholders sacrifice?

TOI Editorials

The historic meeting between North Korea’s Kim Jong-un and South Korean President Moon Jae-in, just months after Kim tested his nukes and missiles and irked US President Donald Trump enough to pose the threat of a nuclear war, resembles the rush achieved in a roller coaster ride. Indeed, Kim’s sweeping promise to “put an end to the history of confrontation” and the joint statement confirming the goal of a nuclear-free Korean peninsula is a breakthrough. But until Kim’s meeting with Trump, tripartite talks between US and both Koreas, and four-party talks also involving China happen, it would be naïve to assume there’s no fine print to Pyongyang’s offer of denuclearisation.

Washington will need to allay North Korean security fears in exchange, and Beijing will need to play honest broker. It’s possible that Beijing may conclude a settlement of the Korean dispute is not in its interest, and block it. Moreover, if Trump decides to pull the US out of the nuclear deal with Iran next month, that could nuke US credibility with North Korea. Kim’s prolific missile tests followed by Trump’s tough talk, Moon’s diplomatic outreach, and the secret Kim-Xi summit make up a decidedly odd mix of developments. Yet these have improved understanding of each other’s motives.

Interestingly, the Panmunjom Declaration also broached reunification of Korea. This could be optimistic in the near term given Kim’s stranglehold over North Korea and Chinese concerns of a united capitalist Korea at its doorstep. Moreover younger South Koreans – unhappy that the economy has plateaued in recent times – are hesitant to shoulder the North’s developmental deficit. But even if the Panmunjom Declaration paves the way towards a peace treaty between the Koreas, leaving reunification for a later date, it will be a monumental achievement.


Date:30-04-18

Positive Talks

Modi-Xi informal summit may herald new India-China understanding

TOI Editorials

Both President Xi Jinping and Prime Minister Narendra Modi like to reflect on the antiquity of Chinese and Indian civilisations respectively. But that won’t necessarily resolve problems between the two countries in the present. More of this approach was evident in the informal summit between the two leaders in Wuhan last week, when Xi took Modi on a guided tour of the Hubei provincial museum storing antiquities. Gains from the trip were not confined, however, to Xi’s hospitality, the face-time between the two leaders, or the bonhomie and symbolism on display. There were tangible outcomes as well, which could alleviate some of the stress in the India-China relationship.

The two sides agreed, for example, to undertake a joint economic project in Afghanistan. If such projects do indeed come to fruition – especially in Afghanistan where Pakistan is keen to exorcise any Indian presence – they would work wonders in terms of lowering distrust between New Delhi and Beijing. Also promising is the “strategic guidance” given by Xi and Modi to their countries’ respective militaries to build trust and predictable engagements in managing the border. If this means heading off future confrontations between the two armed forces, as was witnessed in Doklam last year, it’s indeed welcome.

The tone of the summit was best summed up by Modi’s enunciation of his own five mantras (akin to the 1954 Panchsheel Treaty) – thinking, contact, cooperation, determination and dreams – that he said could define the new India-China relationship. However, in that context it’s worthwhile remembering that the earlier Panchsheel came apart, and that talks and bonhomie have been experienced before only to disappoint later. Xi’s visit to India in 2014 was similarly cordial but also saw incursion of Chinese troops in Ladakh. Plus, mechanisms to resolve the border issue appear to have ground to a halt.

To be sure, special representatives of both countries have been “urged” to intensify their efforts to settle the border issue. But such efforts have been ongoing for decades without result. If the two leaders really wish to think big about the future of the India-China relationship, they must take control of the process and settle the border. After all, an undefined border is the fundamental reason confrontations between the two militaries arise. It makes little sense for the Chinese to claim Arunachal Pradesh now, as they overran and then relinquished it in 1962.


Date:30-04-18

वुहान ने जगाई एक उम्मीद

मोदी और चिनफिंग के बीच बनी सहमति ने सीमा विवाद पर टकराव की आशंका को कम तो किया है, लेकिन अभी उसे पूरी तौर पर दूर करना शेष है

संजय गुप्त ,(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)

वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अनौपचारिक शिखर वार्ता में किसी समझौते की घोषणा न होने के बावजूद उसकी अहमियत इसलिए बढ़ जाती है, क्योंकि दोनों देशों ने सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए संचार तंत्र को मजबूत करने और आपसी समझ विकसित करने के लिए अपनी-अपनी सेनाओं को रणनीतिक मार्गदर्शन जारी करने का फैसला किया। इसके अलावा चीन ने संकेत दिए कि वह अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट-वन रोड में भारत की भागीदारी पर जोर नहीं देगा। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से गुजरने वाला चीन निर्मित आर्थिक गलियारा इसी परियोजना का हिस्सा है।

यह भी खासा उल्लेखनीय है कि दोनों देशों में अफगास्तिान में मिलकर काम करने की समझबूझ बनी। बीते वर्ष डोकलाम में 73 दिनों के गतिरोध के बाद दोनों देशों के बीच इस तरह आपसी समझ कायम होना एक कूटनीतिक कामयाबी है। इस कामयाबी तक इसीलिए पहुंचा जा सका, क्योंकि डोकलाम विवाद के बाद दोनों देशों ने अपने-अपने स्तर पर संबंध सुधारने की पहल की और आखिरकार भारतीय प्रधानमंत्री जून में चीन के अपने प्रस्तावित दौरे के पहले ही चीनी राष्ट्रपति से मिलने वुहान गए। ऐसे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन दुर्लभ ही होते हैं। चीन भारत का सबसे बड़ा पड़ोसी देश ही नहीं, एशिया की एक ऐसी बड़ी ताकत है जो दुनिया में अपनी छाप छोड़ने को तत्पर है, लेकिन वह इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत भी एक उभरती हुई ताकत और सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है।

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद एक पेचीदा मसला बना हुआ है। डोकलाम में टकराव इसी सीमा विवाद की उपज था। हालांकि 1962 के युद्ध के बाद चीन सीमाओं पर शांति बनाए हुए है, लेकिन उसकी आक्रामकता किसी से छिपी नहीं। भारत ने तिब्बत को चीन के स्वायत्तशासी क्षेत्र के रूप में मान्यता देकर यह समझा था कि इससे चीन अपने विस्तारवादी रवैये का परित्याग करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले साल डोकलाम में भूटान के इलाके में सड़क निर्माण की चीन की कोशिश उसके विस्तारवादी रवैये के साथ ही इसका भी सूचक थी कि वह भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है। इस खतरे को भांपकर ही भारत ने डोकलाम में अपनी सेनाएं भेजीं और चीन की तमाम धमकियों के बाद भी अपने कदम पीछे खींचने से इन्कार किया। भारत की दृढ़ता के आगे चीन कोे पीछे लौटना पड़ा।

जब यह आशंका थी कि चीन फिर से डोकलाम अथवा अरुणाचल या लद्दाख में अतिक्रमण की कोशिश कर सकता है तब उसने अपना रुख नरम किया। इसके जवाब में भारत ने भी दलाई लामा को लेकर उसकी चिंताओं को समझा। इसके बाद दोनों देशों ने संबंध सुधार की जो कोशिश की उसका ही नतीजा वुहान में अनौपचारिक बैठक के रूप में देखने को मिला। वुहान में दोनों देशों के नेताओं ने भारत-चीन के प्राचीन संबंधों का स्मरण किया। चूंकि चीन में प्रचलित बौद्ध धर्म भारत की ही देन है इसलिए दोनों देशों के बीच एक आध्यात्मिक रिश्ता भी है। इस रिश्ते के बाद भी दोनों देशों के संबंधों में वैसी मधुरता नहीं जैसी होनी चाहिए। इसका मूल कारण पुराने समझौतों को नकारने की चीन की आदत है। वह अन्य किसी से अपने लिए जैसे आचरण की अपेक्षा करता है वैसा दूसरों के प्रति प्रदर्शित करने से इन्कार करता है।

शी चिनफिंग के आजीवन राष्ट्रपति के तौर पर स्थापित होने के बाद यह माना गया था कि चीन के विस्तारवादी रुख में और आक्रामकता देखने को मिलेगी और इसके चलते सीमा विवाद सुलझाने में कहीं मुश्किल हो सकती है। इसमें दोराय नहीं कि वुहान में दोनों देशों के बीच विभिन्न मसलों पर बनी सहमति ने सीमा विवाद पर टकराव की आशंका को कम तो किया है, लेकिन अभी उसे पूरी तौर पर दूर करना शेष है। बावजूद इसके वुहान में दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात के विरोध का कोई औचित्य नहीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस मुलाकात को लेकर कटाक्ष करने से बाज नहीं आए। इससे कूटनीति के प्रति उनकी खोखली सोच और राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय मिला। पता नहीं कैसे वह यह भूल गए कि डोकलाम विवाद के वक्त उन्होंने चीनी राजदूत से मुलाकात कर अपनी किरकिरी कराई थी? कांग्रेस को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि चीन की ओर से मिल रही चुनौती के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से पूर्वोत्तर के विकास के प्रति विशेष ध्यान दिया है।

पूर्वोत्तर के राज्य न केवल शेष देश से कटे-कटे से रहे हैं, बल्कि विकास में भी पिछड़ गए हैं। मोदी सरकार ने इस कमी को दूर करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। इसका उसे राजनीतिक फायदा भी मिला है। आज पूर्वोत्तर के पांच राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगियों की सरकार है। चीन केवल अरुणाचल पर ही नजरें नहीं गड़ाए, वह पूर्वोत्तर के कुछ अन्य क्षेत्रों को लेकर भी विवाद उत्पन्न करता रहा है। भारत को परेशान करने के लिए वह कभी ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का सहारा लेता है तो कभी सिक्किम के नाथू ला दर्रे पर समस्याएं खड़ी करता है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि भारत सरकार पूर्वोत्तर के विकास के साथ उसकी सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान दे। चूंकि आज के युग में सैन्य टकराव कोई विकल्प नहीं इसलिए इसका औचित्य नहीं कि भारत और चीन सेना के जरिये किसी विवाद का समाधान करने के बारे में सोचें।

चीन एक बड़ी ताकत के तौर पर उभरने के बाद भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत अब 1962 जैसी स्थिति में नहीं। विडंबना यह है कि इसके बावजूद वहां के मीडिया का एक हिस्सा उकसावे वाली बातें करता रहता है। उसे पता होना चाहिए कि छोटा सा भी सैन्य टकराव आर्थिक- व्यापारिक रिश्तों पर गहरा असर डालेगा। इसके चलते चीन के विश्व महाशक्ति बनने के सपने को धक्का पहुंच सकता है। आज चीन के पास भारत जैसा विशाल बाजार और कोई नहीं और यह किसी से छिपा नहीं कि अमेरिका के साथ व्यापार संघर्ष ने उसकी समस्याएं बढ़ा दी हैं। चीन इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत के साथ व्यापार संतुलन कुल मिलाकर उसके ही पक्ष में है। चीन को होने वाला भारत का निर्यात बहुत ज्यादा नहीं।

दरअसल भारत के पास कृषि उत्पादों के अलावा ऐसा बहुत कुछ है भी नहीं जो चीन को निर्यात किया जा सके और चीन अपना कृषि बाजार खोलने के लिए तैयार नहीं है। इसके विपरीत चीन बड़े पैमाने पर भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश करने का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा तभी पूरी हो सकती है जब रिश्ते सामान्य बने रहें और वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल करना छोड़े। चीन की रणनीति अक्सर हठधर्मिता वाली होती है और वह जब भी ऐसे रवैये का परिचय देता है, संबंध सुधार में बाधा आती है और अविश्वास बढ़ता है। उम्मीद है कि वुहान शिखर वार्ता के बाद चीनी नेतृत्व को यह समझने में आसानी हुई होगी कि भारत से बेहतर संबंध उसके अपने हित में हैं।


Date:29-04-18

नेहरू का पंचशील और मोदी का स्ट्रेंथ

ओंकारेश्वर पांडेय , वरिष्ठ समूह संपादक

अप्रैल 2018 का आखिरी हफ्ता दुनिया के इतिहास में दो अहम मुलाकातों के लिए याद किया जाएगा। एक तरफ दो कोरियाई देशों के नेताओं ने करीब छह दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर दोस्ती के लिए सीमाएं लांघ दीं। वहीं डोकलाम विवाद के बाद आये तनाव को भुलाते हुए दो बड़े एशियाई देश चीन और भारत के नेता आपसी रिश्तों का नया पंचशील रचते नज़र आये। पहले बात भारत और चीन की। नरेन्द्र मोदी और शी जिनपिंग की। करीब 64 साल पहले 29 अप्रैल 1954 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन के पहले प्रीमियर (प्रधानमंत्री) चाऊ एन लाई के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किया था, जो महज आठ साल यानी सन 1962 तक ही भारत-चीन रिश्तों की ठोस बुनियाद रह पाया।

सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर पंचशील समझौते की धज्जियां उड़ा दी थीं। तब से दोनों देशों के बीच विास में जो कमी आयी, उसकी भरपाई कोई समझौता आज तक नहीं कर पाया। उसके बाद दोनों देशों में कोई युद्ध तो नहीं हुआ। पर चीन की शत्रुतापूर्ण हरकतों ने भारत की निगाहों में उसे बकौल जॉर्ज फर्नाडीस दुश्मन नंबर-वन बनाये रखा। चीन के साथ रिश्तों में जमी बर्फ वर्ष 1988 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चीन दौरे से पिघली। तब से भारत-चीन रिश्तों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद क्रमिक सुधार तो आया है, पर कभी भी ये रिश्ता पंचशील के दौर के भाईचारे को हासिल नहीं कर पाया क्योंकि बात तो तुम शांति और विकास की करते रहे चीन। पर आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को संरक्षण तो तुम ही दे रहे हो न चीन। जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध के खिलाफ वीटो तुम ही कर देते हो चीन। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने से तुम ही रोक रहे हो चीन। एनएसजी में भी तुम ही रोक रहे हो चीन।

जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से समेत भारत की हजारों वर्ग मील जमीन अवैध रूप से कब्जाये बैठा चीन अरु णाचल प्रदेश के तवांग और अक्साई-चिन क्षेत्र को अपना दक्षिण तिब्बत कहता है और इन इलाकों में अक्सर घुसपैठ व अतिक्रमण के अलावा सड़कें और स्थायी निर्माण भी करता रहता है। डोकलाम में भारत के साथ विवाद उसके सड़क बनाने के कारण ही पैदा हुआ था। पाक कब्जे वाले कश्मीर के रास्ते चीन-पाक आर्थिक गलियारा और ग्वादर बंदरगाह बनाकर उसने भारत की चिंताएं और बढ़ायी हैं। अप्रैल 2017 में दलाई लामा की अरु णाचल यात्रा से बौखलाये चीन ने अरु णाचल प्रदेश के छह जगहों के नाम भी बदल डाले थे।

इस पृष्ठभूमि में पीएम मोदी की चीन यात्रा को देखें तो भले ही इस दो दिवसीय दौरे में उनकी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से छह बार मुलाकातें हुई हों, झील से लेकर नाव तक और म्यूजियम से लेकर टेबल तक पर। वुहान शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी ने चीन के परंपरागत वाद्य यंत्रों पर मिले सुर मेरा-तुम्हारा जैसी धुन निकालने की कोशिश की हो और नेहरू के पंचशील की तरह चीन के साथ मजबूत रिश्तों के लिए ‘‘स्ट्रेन्थ’ का नया सिद्धांत दिया हो, बावजूद इसके चीन के साथ रिश्तों में विास की कमी अभी तो है और रहेगी भी। हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए नेहरू ने बीजिंग में जिस पंचशील समझौते पर चीन के साथ हस्ताक्षर किये थे, उसके पांच मुख्य बिंदु थे-1.एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान, 2. परस्पर अनाक्रमण, 3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, 4. समान और परस्पर लाभकारी संबंध और 5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व। इसी समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार किया था, जिससे भारत-चीन संबंध सामान्य हो गये थे।

डोकलाम के दौरान चीन ने भारत को इसी पंचशील समझौते को तोड़ने का आरोप लगाया था।अब बुहान शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी ने चीन पर अपना जो नया पांच सूत्री सिद्धांत पेश किया है, उसके पांच बिंदु हैं 1) समान दृष्टिकोण, 2) बेहतर संवाद, 3) मजबूत रिश्ता, 4) साझा विचार और 5) साझा समाधान।इसका पहला ही बिंदु अगर चीन मान ले तो भारत के साथ रिश्ता सुधर सकता है। पाकिस्तान और आतंकवाद के प्रति उसकी भूमिका, मसूद अजहर पर प्रतिबंध, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और एनएसजी में भारत के प्रवेश तथा चीन-पाक आर्थिक गलियारे पर भारत का दृष्टिकोण अगर चीन मान ले तो दोनों देशों में मित्रता संभव है। पर क्या यह सब मान लेगा चीन? शायद नहीं।क्योंकि बात चाहे सीमा विवाद की हो, या भारत की किसी अन्य चिंता की, चीन अपनी ओर से कोई रियायत नहीं देना चाहता और उम्मीद करता है कि भारत अपने सभी दावे छोड़ दे, जो भारत के लिए कतई संभव नहीं है। फिर भी नेहरू के पंचशील समझौते के छह दशक बाद मोदी ने अपने ‘‘स्ट्रेन्थ’ की पंचशील से भारत-चीन रिश्तों को एक नया नज़रिया तो दे ही दिया है। इस नाते अप्रैल अंत की इन नेताओं की मुलाकात की खास अहमियत रहेगी ही।

वैसे सन 1988 में राजीव गांधी ने अपने शासन के चौथे वर्ष में अचानक चीन की ऐतिहासिक यात्रा की थी, जो उनके लिए भाग्यशाली साबित नहीं हुई। 1989 में वह सत्ता से बाहर हो गए थे। इस बार मोदी ने भी अपने शासन के चौथे साल में चीन की यात्रा की है, देखना यह उनके लिए लकी साबित होता है, या नहीं।

कोरिया प्रसंग

बीते शुक्रवार को उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन ने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन के साथ ऐतिहासिक मुलाकात कर दुनिया को चौंका दिया। 1953 के समझौते के बाद पहली बार उत्तर और दक्षिण कोरिया के नेताओं ने विभिन्न मुद्दों पर र्चचा की और एक साझा घोषणा पत्र जारी कर कोरियाई प्रायदीप में स्थायी शांति बहाली के साथ निरस्त्रीकरण करने पर भी सहमति जताई। दोनों कोरियाई नेता एक-दूसरे के गले भी लगे। यह सब कैसे हुआ? उत्तर कोरिया की इस रणनीति के पीछे चीन का दिमाग है। इसी महीने ट्रेन से गुपचुप चीन पहुंचे किम को राष्ट्रपति शी जिनपिंग यह समझाने में कामयाब रहे कि प्रतिबंधों से जर्जर उसका देश अमेरिका के हमले को कतई नहीं झेल पाएगा और परमाणु मिसाइल दागने पर तो पूरी दुनिया मिलकर उसे बर्बाद कर देगी। बेहतर है कि वह इराक और सीरिया बनने की गलती न करे। चीन ने यह सलाह अमेरिका को कोरियाई प्रायद्वीप से दूर रखने के लिए भी दी क्योंकि युद्ध होने पर अमेरिका चीन की सीमा पर आ पहुंचता, जो चीन को बर्दाश्त नहीं होता।

इसके बाद हुई दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात ने कोरियाई प्रायद्वीप में युद्ध और शत्रुता के माहौल का अंत करते हुए शांतिपूर्ण संबंधों के नये अध्याय की भूमिका लिख डाली। निकट भविष्य में मून जे-इन उत्तरी कोरिया का दौरा करेंगे। दोनों देशों के नेता टेलीफोन पर भी नियमित बात करते रहेंगे। कोरियाई शिखर वार्ता पर पूरी दुनिया की निगाहें थीं, क्योंकि बीते साल उत्तर कोरिया ने छठा परमाणु परीक्षण करने के साथ अमेरिका तक मार कर सकने वाली मिसाइल का भी परीक्षण किया था और अपना परमाणु कार्यक्रम तेजी से बढ़ा रहा था। कोरियाई शिखर वार्ता ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और किम जोंग-उन के बीच होने वाली मुलाक़ात का एजेंडा ही बदल दिया है। अब ट्रंप क्या कहेंगे किम से? क्योंकि परमाणु निरस्त्रीकरण की घोषणा तो किम ने पहले ही कर दी। अब तो अमेरिका को उत्तर कोरिया से प्रतिबंध हटाने की बात करनी होगी। बड़ी चालाकी से चीन ने उत्तर कोरिया की पीठ पर हाथ रखकर अमेरिका को जतला दिया कि दुनिया के दादा तुम अकेले नहीं हो। बात साफ है, बहुध्रुवीय दुनिया बनने का यह एक बड़ा संकेत है। कोरियाई प्रायद्वीप और भारत-चीन में दोस्ती का नया अध्याय शुरू हो गया है।


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