08-05-2018 (Important News Clippings)

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08 May 2018
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Date:08-05-18

वैश्वीकरण एवं इंटरनेट के युग और असमानता में फंसी दुनिया

सुनीता नारायण

जनवरी, 1993 में पत्रिका डाउन टू अर्थ में ‘वल्र्ड ऑन ए बॉइल’ शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित हुआ था। पत्रिका के तत्कालीन संपादक अनिल अग्रवाल ने लेख में इस बात पर जोर दिया कि 1992 में दुनिया वैश्वीकरण की दिशा में कई कदम बढ़ चुकी है। उन्होंने लिखा कि अनुचित विश्व व्यापार नियमों और जलवायु समझौते वाला यह साल दुनिया में बड़े पैमाने पर व्याप्त असमानता में वैश्वीकरण का रुख और कार्यक्रम तय करेगा। करीब 25 साल बाद ऐसा लगता है कि विश्व में दरार ही नहीं पड़ी है, बल्कि यह बिखर भी गया है। जानबूझकर की गई गलतियों के दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विश्व व्यापार के वे नियम, जो उस समय के अमीर देशों ने गरीब लोगों और पर्यावरण के हितों को ताक पर रख कर बनाए थे, उन तथाकथित अमीर देशों के लिए भी मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। यह सही है कि वैश्वीकरण ने बाजारों को जोड़ा है, व्यापार को खोला है और दुनिया में कुछ देशों को और ज्यादा समृद्ध बनाया है। एक और घटनाक्रम ने सबका ध्यान खींचा है और वह है इंटरनेट की अप्रत्याशित मगर शानदार वृद्धि। इसने लोगों को जोड़ा है, लेकिन सबसे अहम यह है कि यह हमारे क्षेत्र में बाजार का संवाहक बना है।

वैश्वीकरण ने उत्पादन की प्रकृति बदल दी है। अब उत्पादन उन देशों में नहीं हो रहा है, जहां श्रम, पर्यावरण, और सामग्री की लागत बहुत अधिक थी, बल्कि इसकी रफ्तार ने उन देशों में जोर पकड़ा है, जहां लागत कम है या इससे कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता है। हालांकि श्रम दूसरे देशों में नहीं गया है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नई आर्थिक व्यवस्था में पहले रोजगार में लगे और संपन्न लोग स्वयं को ठगा महसूस कर रहे हैं। ब्रेक्सिट के बाद दुनिया एक बड़े व्यापार युद्ध की तरफ बढ़ रही है।

इंटरनेट ने कारोबार का ढर्रा बदल दिया है। इन दोनों बातों का असर यह हुआ है कि कारोबार परंपरागत दुकानों से बाहर होने लगा है। इनकी जगह अब इंटरनेट आधारित कारोबार, निगमित ढांचे और धन उगाही करने वाले तंत्र ने ले ली है। यह तंत्र कर चोरी से लेकर गोपनीय सूचनाएं चुराने तक में शामिल है। इस पूरे बदलाव में हम साझेदार रहे हैं। यह खासा आसान दिखा है। सोशल मीडिया के इस दौर में हमने ऊं ची छलांग लगाई है। इस खेल में हम नए किरदार बन गए हैं। हमने सभ्यता और क्रूरता के बीच की रेखा पार कर ली है। हमें ऐसा लगा कि दुनिया में हम बदलाव ला रहे हैं। ऐसा बोध हुआ कि सोशल मीडिया का हिस्सा बनकर हम सरकार पर कदम उठाने के लिए दबाव बना रहे हैं। हमें लगा कि हम पूरी तरह नियंत्रित हैं और बदलाव लाने की अगुआई कर रहे हैं।

आखिर, हमारी सोच कितनी गलत साबित हुई। तकनीक ने हमारी आंखों पर पट्टी बांध दी। मौजूदा सच्चाई यह है कि आज अगर लोकतंत्र को किसी चीज से सबसे अधिक खतरा है तो वह है सोशल मीडिया। हाल में सामने आए फेसबुक कांड ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। व्यक्तिगत तुच्छ गोपनीयता की तो बात ही छोड़ दीजिए। दरअसल हमसे अपना नेता चुनने की आजादी छीनी जा रही है। यह महज संयोग नहीं है और ना ही हम इसे दुर्घटना का नाम दे सकते हैं। दरअसल यह हमारी उस सोच का हिस्सा है जब हमने अपनी सुविधा के हिसाब से चीजें चुनने और इन्हें अपनाने का निर्णय लिया था। वास्तव में सोशल मीडिया की दुनिया केवल साझा करने तक ही सीमित है और इसका लोगों की वास्तविक जरूरतों और कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है।

समस्या की जड़ यह है कि हमने उन चीजों को दुरुस्त नहीं किया, जो टूटी हुई थीं। हम बस आगे बढ़ते गए। हाल में ही ऑक्सफेम ने अपने एक अध्ययन में कहा है कि विश्व की एक प्रतिशत धनाढ्य आबादी और वास्तव में दुनिया के आठ सबसे अमीर लोगों के पास दुनिया के आधे सबसे अधिक गरीब लोगों के संयुक्त धन के मुकाबले अधिक संपत्ति है। 1992 में दुनिया में असमानता और विभाजन अधिक था। अब 2019 में स्थिति उससे भी बदतर हो गई है। जलवायु परिवर्तन से चीजें आसान नहीं हो रही हैं। पूरी दुनिया में आसन्न प्रलय के संकेत मिलने लगे हैं। प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक चोट गरीब खासकर किसानों को झेलनी पड़ती है। आपदाओं से बचने के लिए उनके पास पर्याप्त सुरक्षा उपाय भी नहीं हैं। हालांकि, चर्चा का विषय केवल गरीबों तक ही सीमित नहीं है। प्रलय आ रही है और पूरी दुनिया इसकी शिकार होगी। दरअसल दिक्कत उस विरासत से है, जिसे हमने बरकरार रखी है। यह मामला केवल कार्बन डॉइऑक्साइड के उत्सर्जन तक ही सीमित नहीं है। परेशानी की मुख्य वजह यह है कि दुनिया ने जलवायु परिवर्तन पर एक ऐसे समझौते पर हामी भरी है, जिसमें सहयोग में असमानता दिख रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो दुनिया के देशों में परस्पर सहयोग नहीं दिख रहा है और गरीब देशों ने इसलिए उत्सर्जन कम नहीं किया, क्योंकि अमीर देशों ने अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ी। इस समय जीवाश्म ईंधन आधारित अर्थव्यवस्था का विकल्प हमारे पास मौजूद नहीं है। अगर दुनिया पर्यावरण से जुड़ी जिम्मेदारी साझा करने पर सहमत हुई होती तो आपसी सहयोग दिखता और आर्थिक वृद्धि का एक नया माध्यम जरूर मिल जाता।

अब सवाल यह है कि हम क्या कर सकते हैं? जो घटित हो चुका है, उसे हम बदल नहीं सकते। हालांकि हम एक दूसरे तरीके से नुकसान की भरपाई जरूर कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें एक बार फिर मिल बैठकर नए सिद्घांत प्रतिपादित करने चाहिए, जो दुनिया के देशों, कारोबार और लोगों के लिए आगे की राह प्रशस्त कर सके। यानी नैतिकता और न्याय की राजनीति हमें फिर अपनानी होगी। दुनिया के देशों का संविधान एक बार फिर लिखने की जरूरत है। मैं जानती हूं कि यह सोच आदर्शवादी लगती है और अंधी आधुनिकता की होड़ में व्यस्त इस दुनिया की कसौटी पर कतई खरी नहीं उतरती है। अगले 25 साल हम मौजूदा ढर्रे पर चल सकते यह भी विकल्प नहीं है।


Date:08-05-18

भारतीयों का पुनर्निर्माण और तालिबानियों का विध्वंस

अफगानिस्तान का संसद भवन भी भारतीयों ने ही बनाकर दिया है, जिसका उद्‌घाटन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था।

संपादकीय

अफगानिस्तान के बागलान प्रांत से छह भारतीय इंजीनियरों समेत बिजली कंपनी केईसी के सात कर्मचारियों के अगवा किए जाने से वहां चल रहे पुनर्निर्माण के काम पर असर पड़ेगा और इससे हिंसा और बढ़ने की आशंका है। अगवा करने वाला संगठन तालिबान चाहता है कि उसके कब्जे वाले इलाके में बिजली की आपूर्ति चलती रहे और साथ ही वह कर्मचारियों की जान भी जोखिम में डालता रहे, जो एक कट्‌टर और हिंसक संगठन की जटिल व दोमुंही रणनीति है।

कुछ समय पहले तालिबान ने सरकार से कहा था कि वह उसके कब्जे वाले प्रांत कुंदुज और बागलान में बिजली बहाल करे। जब वह काम सुचारू रूप से नहीं हो पाया तो उसने बिजली का एक टावर गिरा दिया और काबुल की बिजली कई दिनों तक कटी रही। अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार और अमेरिका की ट्रम्प सरकार चाहती है कि तालिबान बातचीत करे और आगामी चुनाव में हिस्सा ले, जबकि तालिबानी हथियार बंद लड़ाई में हिस्सा लेने में यकीन करते हैं। इसलिए 2014 में अपनी थल सेनाओं को वापस कर चुका अमेरिका हवाई हमले कर रहा है और उसमें तालिबानियों को नुकसान हो रहा है। इस बीच भारत बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और दूसरी ढांचागत योजनाओं के माध्यम से ध्वस्त और नष्ट हुए अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण कर रहा है।

अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में भारत की 116 परियोजनाएं चल रही हैं और 16 वर्षों के इस काम में उनकी लागत दो अरब डॉलर तक पहुंच चुकी है। बताया जाता है कि तालिबानियों ने भारतीयों को सरकारी कर्मचारी समझकर अगवा किया, जबकि वे एक निजी कंपनी के मुलाजिम हैं। निजी और सरकारी से ज्यादा सवाल उन इनसानों की जोखिम में पड़ी जान का है, जो ध्वस्त हो चुके अफगानिस्तान को फिर से संवार रहे हैं।

अफगानिस्तान का संसद भवन भी भारतीयों ने ही बनाकर दिया है, जिसका उद्‌घाटन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। हालांकि भारत अफगानिस्तान में सैन्य गतिविधियों में शामिल नहीं है लेकिन, अपने नागरिकों की रक्षा का दायित्व उसे निभाना ही होगा। बागलान प्रांत के गवर्नर अब्दुलहाई नीमाती ने कहा है कि अगवा किए गए लोगों को रिहा कराने का प्रयास जारी है पर इतना आश्वासन पर्याप्त नहीं है। सरकार सारे राजनयिक संबंधों का पुरजोर इस्तेमाल करके भारतीयों को सकुशल रिहा कराए। इसमें भारत के साथ अफगानिस्तान का भी भला है।


Date:08-05-18

चीन के आर्थिक गलियारे की काट

डॉ. भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)

बहुत दिन नहीं हुए जब चीन से एक रेलगाड़ी 12 हजार किमी का सफर तय करके इंग्लैंड पहुंची। इस ट्रेन में चीनी फैक्ट्रियों में तैयार कपड़े और अन्य सामान था। इस ट्रेन का पहुंचना चीन द्वारा बनाई जा रही ‘बेल्ट रोड का ट्रेलर था, जो उसकी महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है। चीन के माल को यूरोप और अफ्रीका में पहुंचाने के लिए 65 देशों के बीच से एक गलियारे का निर्माण होगा, जो सड़क और रेल यातायात को सुलभ बनाएगा। ‘बेल्ट रोड बनने के बाद चीन के माल को यूरोप पहुंचाना आसान हो जाएगा और इससे चीन की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचेगा।

वर्तमान में अमेरिका द्वारा इलेक्ट्रिकल स्विच जैसी वस्तुएं यूरोप को आपूर्ति की जा रही हैं, क्योंकि अमेरिका का माल सस्ता पड़ रहा है। वहीं ‘बेल्ट रोड बनने के बाद चीन में बने इलेक्ट्रिकल स्विच सस्ते पड़ेंगे। तब यूरोपीय ग्र्राहक अमेरिका के स्थान पर चीनी माल खरीदने को तरजीह देंगे। इसलिए ‘बेल्ट रोड का असल मुद्दा चीन बनाम अमेरिका का है। यूरोप में अमेरिकी वर्चस्व को चीन ‘बेल्ट रोड के माध्यम से चुनौती दे रहा है। इस तरह चीन विश्व अर्थव्यवस्था का नया रूप स्थापित करने में लगा हुआ है। इस विषय को विश्व अर्थव्यवस्था की बड़ी तस्वीर के तहत देखना चाहिए।

वर्तमान में अमेरिका, जापान और यूरोप के विकसित देशों में विश्व की 25 प्रतिशत आबादी रहती है, जबकि इन देशों के पास दुनिया की 75 प्रतिशत आय है। दूसरी तरफ चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों में विश्व की 75 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन इन देशों के पास विश्व की केवल 25 प्रतिशत आय है। अगर ‘बेल्ट रोड सफल होता है तो विश्व अर्थव्यवस्था का यह असंतुलन टूटेगा। विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की आय का हिस्सा बढ़ेगा और अमेरिका का हिस्सा घटेगा। इसीलिए अमेरिका का प्रयास है कि विश्व अर्थव्यवस्था के इस वर्तमान असंतुलन को बनाए रखा जाए।

भारत के सामने संकट यह है कि ‘बेल्ट रोड का एक हिस्सा चीन से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके से होकर अरब सागर के ग्वादर पोर्ट तक पहुंच रहा है। ‘बेल्ट रोड के इस हिस्से से चीन को अपना माल अफ्रीका तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। भारत की आपत्ति है कि यह रोड पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र से गुजरता है और इससे भारत की संप्रभुता को चुनौती मिलती है। इसीलिए भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर ‘बेल्ट रोड का विरोध किया है। इसमें संदेह है कि भारत और अमेरिका का यह विरोध सफल होगा। इसका कारण यह है कि चीन ने ‘बेल्ट रोड बनाने के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं से मदद नहीं ली है। चीन के सरकारी बैंक विश्व पूंजी बाजार में निजी निवेशकों से कर्ज ले रहे हैं और इस रकम को द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से उन 65 देशों को दे रहे हैं जिनके बीच से ‘बेल्ट रोड गुजरनी है। ऐसे में अमेरिका और भारत शोर मचा सकते हैं, लेकिन ‘बेल्ट रोड पर कोई अड़ंगा नही लगा सकते, क्योंकि वे इसके दायरे से बाहर हैं।

भारत के सामने दो परस्पर विरोधी मुद्दे हैं। एक तरफ विश्व अर्थव्यवस्था का असंतुलन है। इसे प्रमुखता दें तो भारत को चीन के साथ मिलकर ‘बेल्ट रोड में सहयोग देना चाहिए, जिससे वैश्विक स्तर पर आय का असंतुलन दूर हो और भारत एवं चीन का विश्व अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़े। दूसरी ओर भारत यदि संप्रभुता के मुद्दे को प्रमुखता देता है तो उसे इसका विरोध करना होगा। मेरे आकलन में भारत को 70 साल से चले आ रहे कश्मीर विवाद के चलते विश्व अर्थव्यवस्था के वर्तमान असंतुलन को बनाए रखने के पक्ष में नहीं खड़ा होना चाहिए। कश्मीर विवाद को किनारे रखकर या कुछ हल निकालकर विश्व अर्थव्यवस्था के असंतुलन के मुख्य मुद्दे पर कार्य करना चाहिए। ‘बेल्ट रोड के माध्यम से चीन मुख्यत: अपनी फैक्ट्रियों में उत्पादित माल को यूरोप पहुंचाना चाहता है। विश्व अर्थव्यवस्था में विनिर्मित वस्तुओं का हिस्सा क्रमश: घटता जा रहा है। वर्तमान में विकसित देशों में सेवाओं का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत, उत्पादित माल का 9 प्रतिशत और कृषि का एक प्रतिशत है। ‘बेल्ट रोड के माध्यम से चीन उत्पादित माल के नौ प्रतिशत हिस्से में अपनी पैठ बनाने का प्रयास कर रहा है। भारत के सामने चुनौती है कि विश्व आय के 90 प्रतिशत सेवा क्षेत्र के हिस्से में अपनी पैठ बनाए। भारत को एक महत्वाकांक्षी ‘ग्लोबल सर्विसेस पाथवे योजना बनानी चाहिए जिसके माध्यम से सेवाओं जैसे कंप्यूटर गेम्स, सॉफ्टवेयर, यातायात, अंतरिक्ष प्रक्षेपण आदि का वैश्विक बाजार विकसित हो। भारत को इस क्षेत्र में महारत हासिल है। ‘ग्लोबल सर्विसेस पाथवे से हम ‘बेल्ट रोड को बौना बनाने में सफल हो सकते हैं।

भारत की ओर से एक कदम यह भी उठाया जा सकता है कि वह ‘बेल्ट रोड से जुड़े। जिस रोड से चीन अपने माल को यूरोप पहुंचाना चाहता है, उसी रोड से वह भी अपने माल को यूरोप पहुंचाने का प्रयास करे। जैसे आज हम अमेरिका द्वारा बनाए गए इंटरनेट से अपने सॉफ्टवेयर को दुनिया में पहुंचा रहे हैं। यहां पीओके के भूगोल को समझने की जरूरत है। यह क्षेत्र पूरब में भारत, उत्तर में चीन, पश्चिम में अफगानिस्तान और दक्षिण में पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है। यदि भारत को पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए एक गलियारा बनाने की अनुमति मिल जाए तो वह अफगानिस्तान के माध्यम से मध्य एशिया और यूरोपीय बाजार तक पहुंच सकता है। हम चीन से वार्ता करकेउसे इसके लिए प्रेरित कर सकते हैं कि वह पाकिस्तान पर दबाव डाले कि भारत को पीओके के बीच से कश्मीर और अफगानिस्तान को जोड़ने के लिए गलियारा उपलब्ध कराए। यदि यह भी संभव न हो तो हम कश्मीर और तिब्बत के माध्यम से भी ‘बेल्ट रोड से जुड़ सकते हैं, जिससे हमारा माल किफायती दामों में यूरोप तक पहुंच सके और ‘बेल्ट रोड का लाभ केवल चीन को मिलने के स्थान पर हमें भी मिले।

एक अन्य कदम यह हो सकता है कि ‘बेल्ट रोड बनाने के लिए चीन को बैंकों से कर्ज लेने में हम अवरोध पैदा करें। चीन तमाम वैश्विक बैंकों से कर्ज ले रहा है। खबर है कि भारत, चीन एवं अन्य ब्रिक्स देशों द्वारा बनाया गया न्यू डेवलपमेंट बैंक भी चीन को ‘बेल्ट रोड बनाने के लिए भारी रकम दे रहा है। यानी एक तरफ भारत की हिस्सेदारी वाला न्यू डेवलपमेंट बैंक ‘बेल्ट रोड को कर्ज देकर बढ़ावा दे रहा है तो दूसरी तरफ भारत पीओके के मुद्दे पर उसी ‘बेल्ट रोड का विरोध कर रहा है। भारत को यदि ‘बेल्ट रोड का विरोध ही करना है तो कम से कम न्यू डेवलपमेंट बैंक पर दबाव डाले कि वह ‘बेल्ट रोड को कर्ज न दे।

मेरे आकलन में हमें ‘बेल्ट रोड के सार्थक पक्ष को समझकर अपने देश की आय बढ़ाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। जो विवाद 70 साल से हमारे और पाकिस्तान के बीच बना हुआ है, उसके चलते ‘बेल्ट रोड के जरिए अपनी जनता के जीवन स्तर को सुधारने का जो अवसर मिला है, उसे गंवाना नहीं चाहिए।


 

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