21-02-2018 (Important News Clippings)

Afeias
21 Feb 2018
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Date:21-02-18

Thou can’t wink

Remove the shroud of ambiguity that turns our laws into double-edged swords

TOI Editorials

Last week’s internet sensation 18-year-old Priya Varrier has become this week’s casualty to hazy laws that end up restricting free speech. Varrier approached Supreme Court after an FIR and multiple criminal complaints were lodged in Telangana and Maharashtra by Muslim groups alleging that the viral Malayalam song ‘Manikya Malaraaya Pooyi’ hurt their religious sentiments. The looming threat of police questioning in multiple states despite appreciation in its relevant market, Kerala, and across India is bizarre, and yet very familiar.

The trouble with such criminalising of free speech is that even if you are safe on home turf, harassment can come visiting from anywhere in India. Journalists are slapped with criminal defamation cases in faraway places to crush their spirits through litigation and inconvenience. Films are threatened with violence by fringe groups and bans by governments before and after censor board clearance. Political activists, artists and ordinary citizens are slapped with sedition charges for criticising the government. A law like Section 295 IPC extends from defiling places of worship to hurting religious sentiments. An insult is highly subjective and criminalising it has given legal cover to India’s offence industry.

Supreme Court is often the last resort for fighting such legal overreach and vigilantism. One of India’s abiding ironies is that while mosques can be demolished and offenders go unpunished, there can be calls to ban films for scenes not present in them, and young girls can be harassed for a remixed folk song popular for many decades among Kerala Muslims. In the 1962 Kedarnath Singh vs State of Bihar case, a constitution bench of the Supreme Court had framed guidelines restricting applicability of the sedition law. Similar guidelines are needed today to restrict the applicability of laws hurting religious sentiments, which perhaps should be confined only to physical acts involving damage and desecration of objects of religious worship.


Date:21-02-18

 Save our babies

Political will is needed to bring down India’s shameful levels of newborn mortality

TOI Editorials

Children do not get a fair start in this country. Just one in a thousand babies die during the first month in Japan, but in India 25.4 do. One might argue that newborn survival is closely linked to a country’s income level. But that doesn’t explain why Unicef has found that India ranks the 12th worst even among 52 lower middle income countries. Pakistan ignominiously tops this table but our other neighbours fare much better, with Sri Lanka at an exemplary 5.3 and Bangladesh at 20.1 – proving that progress is possible even where resources are scarce. So much for Indian leadership even in South Asia. It’s not just about per capita income; political will can make a major difference.

This is also why India sees such different outcomes in different states. Manipur has scored the lowest infant mortality rate three years running, despite battling insurgency and a moribund economy. Health schemes come and come with every budget, but they deliver only in places where they are implemented. In some states measures like raising a cadre of accredited social health activists (Asha workers) to reach women and newborns have borne fruit. In Manipur these local health workers have successfully facilitated antenatal health checkups, institutional deliveries and proper infant care.

But that too many newborns across the country are still falling through the cracks underlines the necessity of better implementation of our myriad healthcare schemes – including in populous states like Uttar Pradesh, which hovers around India’s worst infant and under-five mortality rates. Many schemes are also crying for a rewrite. For example, the Pradhan Mantri Matru Vandana Yojana (PMMVY) providing maternity benefits of Rs 5,000 per child restricts these benefits to one child per woman, the first living child. On top of this Aadhaar verification is becoming mandatory at every step, both the mother’s and her husband’s (who may not be around). Government must stop playing Scrooge with maternity entitlements.

The Unicef report emphasises two critical steps for progress: increasing access to affordable healthcare and improving the quality of that care. Too many corners of India are yet to see decent primary healthcare: all too often healthcare centres lack doctors, basic drugs and sanitation. Government at all levels needs to take far more seriously the health of India’s mothers and their newborns.


Date:21-02-18

सर्वप्रथम रिजर्व बैंक को बनाएं सक्षम

अजय शाह

पीएनबी मामले से संकेत मिलता है कि अगर बैंकिंग नियामक में एक विशिष्ट स्तर की क्षमताएं नहीं होंगी तो हमारी बैंकिंग यूं ही दिक्कतों से दो-चार होती रहेगी। विस्तार से बता रहे हैं अजय शाह

बैंकिंग नियमन और निगरानी व्यवस्था में एक खास स्तर तक सुधार की जरूरत है। यह लगातार अनुपस्थित नजर आ रही है। कुछ लोग इसे सरकारी बनाम निजी बैंकिंग के सवाल के रूप में देखते हैं। निजी बैंकों में भी फंसे हुए कर्ज की समस्या है। इससे पता चलता है कि देश में बैंकिंग व्यवस्था के नियमन में कुछ साझा दिक्कतें हैं। सबसे पहले हमें एक सक्षम केंद्रीय बैंक (आरबीआई) तैयार करना होगा। हमें बैंकिंग व्यवस्था का आकार धीरे-धीरे कम करना होगा जबकि आरबीआई को सक्षम भी बनाना होगा।

समस्या

पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) संकट मामले में पता चला कि स्विफ्ट संदेश भेजे गए थे और निजी लोगों को गारंटी सौंपी गई थी। इन्हें बैंक की मुख्य लेखा व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया। जब निरीक्षक बैंक आते तो उन्हें सबसे पहले यही मांगना चाहिए था। स्विफ्ट के जरिये कौन-कौन सी गारंटी दी गईं? क्या वे खातों का प्रतिनिधित्व करती हैं? इनके एक प्रादर्श के लिए क्या आप यह साबित कर सकते हैं कि जोखिम प्रबंधन की उचित प्रक्रिया अपनाई गई? ये कुछ शुरुआती काम हैं जो बैंक को करने चाहिए।

कई और बातें हैं जिनको बैंकिंग व्यवस्था की सामान्य क्षमताओं की मदद से ही पकड़ा जा सकता था। इसमें आरबीआई को बैंकों द्वारा विदेशी मुद्रा संबंधी गतिविधियों पर मिलने वाली रिपोर्ट, नियामकों द्वारा लोगों की संवेदनशील पदों पर तैनाती आदि इसमें शामिल हैं। इसी प्रकार फंसे हुए कर्ज के संकट से बचा जा सकता था, बशर्ते कि नियामक ने कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखा होता। वाणिज्यिक बैंकों के लिए बैंकिंग निगरानी कठिन काम नहीं है। इसके लिए ऐसे नियमों की आवश्यकता होती है जहां नाकाम हो रही संपत्ति का पता लगाकर तेजी से निपटान किया जा सके। इससे बैंक को छद्म तरीके से मजबूत नहीं दिखाया जा सकेगा। जब बैंक देखता है कि किसी परिसंपत्ति का आंतरिक मूल्य शून्य है तो वह वसूली के लिए वाणिज्यिक उपाय कर सकता है। इसे समझना कोई कठिन काम नहीं है लेकिन आरबीआई में इतनी क्षमता नहीं है और इसलिए एकदम आधारभूत काम भी नहीं होते। भारत में लोग अपने हित में काम करते नजर आते हैं जबकि संगठनात्मक लक्ष्यों को हासिल करने में वे पीछे रहते हैं। रेलवे का आकार रेलवे की नौकरशाही के हितों से जुड़ा है, शिक्षा में शिक्षा की नौकरशाही के हित हैं, रक्षा क्षेत्र से वर्दीधारियों के हित संबद्घ हैं और आरबीआई को बनाने में वहां की नौकरशाही का योगदान है।

यह केवल सरकारी बैंक का मामला नहीं

सरकारी बैंकों की आलोचना का सिलसिला चल रहा है। परंतु समस्या स्वामित्व की नहीं बल्कि निगरानी की है। अगर आरबीआई ने निगरानी का काम सही अंदाज में किया होता तो ये गलतियां होती ही नहीं। फिर चाहे बैंक सरकारी हो या निजी।निजी बैंक मसलन आईसीआईसीआई या ऐक्सिस बैंक आदि में भी फंसे कर्ज की समस्या है। उदाहरण के लिए जब सरकार ने सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की बात की थी तब आईसीआईसीआई बैंक के शेयरों में 9 फीसदी उछाल आई थी। इसलिए क्योंकि सरकार जनता के पैसे से डिफॉल्टरों को बचाने जा रही थी और इन डिफॉल्टरों ने आईसीआईसीआई बैंक से भी कर्ज लिया था। सरकारी बैंकों का नियमन करना वैसे भी आसान है। इन बैंकों के शीर्ष प्रबंधन को कम प्रोत्साहन और तयशुदा वेतन मिलता है। उन्हें कोई शेयर नहीं दिए जाते। उनका शीर्ष प्रबंधन मूलभूत रूप से आरबीआई के सामने विनयशील मुद्रा में रहता है। इसके विपरीत निजी बैंकों के वरिष्ठï प्रबंधकों को भारी भरकम प्रोत्साहन मिलता है और उनका वेतन भी ज्यादा होता है। इसके अलावा उन्हें बोनस, शेयर स्वामित्व आदि भी मिलते हैं। वे नियमों में कमी का फायदा उठाने का प्रयास करेगे। निजी क्षेत्र का नियमन अधिक कठिन काम है। ऐसे में उचित होगा कि सबसे पहले हम बैंकिंग नियमन की राज्य क्षमता विकसित करें। उसके बाद ही सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाए।

आरबीआई की क्षमता का खाका

एक बढिय़ा प्रदर्शन वाला आरबीआई कैसे हासिल किया जाए? इसके चार घटक हैं। पहला, इसका उद्देश्य एकदम स्पष्टï होना चाहिए। आरबीआई को मजबूत कोष और मजबूत बैंकिंग की कोशिश करनी चाहिए। मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने के साथ इनमें से एक दिशा में काम आरंभ हो चुका है जबकि दूसरे पर होना है। इसके अलावा भी अन्य लक्ष्य हैं जिन पर हम विफल रहे हैं। बोर्ड की भूमिका भी इसमें अहम है। फिलहाल फिलहाल आरबीआई बोर्ड सामान्य बैठकें करता है और संगठन इनकी अनदेखी कर देता है।

बोर्ड को संगठन के डिजाइन, संसाधन आवंटन और प्रक्रिया आदि का ध्यान रखना चाहिए और विभागीय प्रमुखों को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। तीसरी बात यह कि विधायी, कार्यपालिक और न्यायिक कदमों के लिए विस्तृत प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिए। फिलहाल आरबीआई स्टाफ को ये काम करने के लिए पूरे अधिकार दिए गए हैं। इसे क्षमता कम हुई है और एक तरह का मनमानापन आया है। जरूरत इस बात की है विस्तृत प्रक्रियागत कानून बनाया जाए ताकि निष्पक्ष तरीके से और सक्षम ढंग से कामकाज हो सके।

रिपोर्टिंग और जवाबदेही का नंबर चौथा है। फिलहाल आरबीआई एक अस्पष्टï संस्थान है। यह भारतीय राज्य की सबसे बड़ी और सबसे जटिल वित्तीय शाखा है। परंतु वित्तीय खुलासों पर इसके केवल चार पन्ने हैं और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक इसका ऑडिट भी नहीं करता। बेहतर रिपोर्टिंग से गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। भारतीय वित्तीय संहिता के मसौदे में इन चारों पर गहनता से विचार विमर्श किया गया है। यह आरबीआई को सक्षम बनाने की दिशा में एक अहम कदम है। आखिर में, ताली दोनों हाथों से बजती है। आरबीआई को अगर उच्च प्रदर्शन हासिल करना है तो उसके मातृ संस्थान यानी आर्थिक मामलों के विभाग को भी संस्थागत क्षमताएं विकसित करनी होंगी और आईएफसी में उल्लिखित भूमिका निभानी होगी।

जब तक ऐसा नहीं होता

यह एक लंबी परियोजना है। हमें पहले आईएफसी को कानून बनाना होगा। उसके बाद आरबीआई की क्षमता तैयार करने में कई साल लगेंगे। कुल मिलाकर इसमें 5 से 10 साल का वक्त लग सकता है। इस बीच क्या होगा? इस बीच हमें एक व्यापक बैंकिंग व्यवस्था को चुनौती के रूप में देखना होगा। एक ऐसा देश जिसे एयर ट्रैफिक कंट्रोल को ठीक से चलाना न आता हो उसमें विमानन कंपनियां नहीं होनी चाहिए। एक देश जिसे बैंकों का नियमन करना नहीं आता है वहां बैंकिंग का जीडीपी की तुलना में आकार निरंतर कम कम होना चाहिए। हमें गैर बैंकिंग वित्तीय व्यवस्था विकसित करनी चाहिए और बैंकिंग की सांकेतिक वृद्घि को तब तक रोक देना चाहिए जब तक कि एक तयशुदा आकार में क्षमता निर्माण नहीं हो जाता।


Date:21-02-18

चिंतित करते रुझान

संपादकीय

देश के निर्यात जगत से परेशान करने वाले संकेत मिल रहे हैं। निर्यात का स्तर दिसंबर 2017 के 12.3 फीसदी से घटकर जनवरी 2018 में 9 फीसदी रह गया है। इस बीच आयात के 26.1 फीसदी बढऩे से व्यापार घाटा साढ़े चार साल के उच्चतम स्तर पर पहुंचकर 1,630 करोड़ डॉलर हो गया है। कुल मिलाकर देश कानिर्यात अप्रैल-जनवरी 2017-18 में इससे पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 11 फीसदी ही बढ़ा। जबकि समान अवधि में आयात में इससे ठीक दोगुनी गति से बढ़ोतरी हुई।व्यापार घाटे में भी आशा के मुताबिक बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2017-18 के 10 महीनों में यह 13,100 करोड़ डॉलर रहा जबकि पिछले वर्ष की समान अवधि में यह 8,800 करोड़ डॉलर था। तेल कीमतों में भी मजबूती आने लगी है और ऐसे में चालू खाते का घाटा बढऩे की आशंका फिर सर उठाने लगी है। शुरुआती 10 महीनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह वित्त वर्ष 2016-17 की तुलना में निर्यात में 8 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ समाप्त होगा। यह 2016-17 के 5 फीसदी की तुलना में ज्यादा है और देश को 30,000 करोड़ डॉलर से ऊपर के दायरे में बनाए रखेगा जो उसने तीन साल पहले हासिल किया था। ऐसे समय में जबकि विश्व व्यापार में 2017 में 3.6 फीसदी की दर से वृद्धि हुई यह काफी निराशाजनक है। 2016 में विश्व व्यापार महज 1.3 फीसदी की दर से बढ़ रहा था।

निर्यात के मोर्चे पर देश का कमजोर प्रदर्शन दक्षिण एशिया के अन्य देशों से एकदम विरोधाभासी है। वे निर्यात के बल पर ही तरक्की कर रहे हैं। वियतनाम को रिकॉर्ड वृद्धि हासिल हो रही है। विडंबना यह है कि 2.5 लाख करोड़ डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना में 22,300 करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले वियतनाम की हालत में यह बेहतरी नीतिगत सुधारों की बदौलत आ रही है। भारत के निर्यात पर कर सुधारों के अव्यवस्थित क्रियान्वयन ने भी असर डाला है। नोटबंदी के तुरंत बाद सरकार ने 1 जुलाई, 2017 से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कर लागू कर दिया। उसने भी इसे प्रभावित किया। निर्यातकों द्वारा नई कर प्रणाली में पहला भुगतान करने के ठीक बाद अक्टूबर 2017 में निर्यात में गिरावट आई। यह नई व्यवस्था तकनीकी दिक्कतों और प्रक्रियागत विसंगतियों से ग्रस्त रही।

रिफंड में देरी तथा कार्यशील पूंजी के कम होने से निर्यातकों, खासतौर पर रोजगारोन्मुखी क्षेत्रों मसलन चमड़ा और वस्त्र निर्यातकों को विदेशी ग्राहकों को निपटाने में समस्या आने लगी और प्रतिद्वंद्वियों ने इसका लाभ उठाया। सरकार ने तत्काल प्रतिक्रिया दी और जीएसटी परिषद ने महीने के मध्य तक सारा रिफंड प्रोसेस करने का तय किया। हर निर्यातक के लिए एक ई-वॉलेट बनाने की घोषणा की गई और कहा गया कि कर क्रेडिट के लिए मामूली राशि जमा की जाएगी जिसे वास्तविक क्रेडिट रिफंड के समय समायोजित किया जाएगा। निर्यातकों को भी यह अनुमति दी गई कि वे इस फास्ट ट्रैक प्रक्रिया के अंग के रूप में ही जीएसटी रिफंड के दावों को पेश करें।

इनका नाटकीय लाभ हुआ और नवंबर में निर्यात में 30.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इससे संकेत मिला कि कारोबार जीएसटी से तालमेल बिठा रहे हैं। परंतु रिफंड की समस्या जनवरी में फिर उठ खड़ी हुई। प्लास्टिक एवं रसायन निर्यात परिषद ने दावा किया कि उनकी 18,000 करोड़ रुपये की राशि बकाया है। ऐसा तब है जबकि वे वैश्विक बाजार में भारत की 1.8 फीसदी की मामूली हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे अहम मुद्दे जब व्यापार सुविधा प्रक्रिया, निर्यात के कमजोर बुनियादी ढांचे और अधिमूल्यित रुपये से मिलते हैं तो समस्या बढ़ जाती है। इन्हें तुरंत हल करना होगा तभी भारत वैश्विक सुधार का लाभ ले सकेगा। संरक्षणवाद की बयार के बीच अवसर ज्यादा देर तक रहेगा भी नहीं।


Date:20-02-18

साख पर सवाल

संपादकीय

पीएनबी घोटाला उजागर होने के बाद से गिरफ्तारियों और छापों का सिलसिला जारी है। इस सब से जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे बैंकिंग व्यवस्था की विश्वसनीयता की पोल खोलते हैं। बैंकों में खासकर बड़े लेन-देन पर नजर रखने के लिए कई स्तरों की निगरानी व्यवस्था होती है, लिहाजा धोखाधड़ी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन धोखाधड़ी बस एक-बार या थोड़े-से वक्त नहीं हुई, बल्कि बहुत बार हुई और धोखाधड़ी का सिलसिला सालोंसाल चलता रहा। इसकी जद में केवल पंजाब नेशनल बैंक नहीं आया। तमाम दूसरे घोटालों की तरह इसमें भी अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत और रिश्वतखोरी सामने आई है। सीबीआइ ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है उनसे हुई पूछताछ से पता चलता है कि नियम-कायदों को ताक पर रख एलओयू यानी लेटर आॅफ अंडरटेकिंग जारी किए गए। एलओयू एक प्रकार का गारंटीपत्र या साखपत्र होता है, जिसके आधार पर दूसरे बैंक एलओयू धारक को कर्ज दे देते हैं, इस बिना पर कि इसे चुकाए जाने की जवाबदेही एलओयू जारी करने वाले बैंक ने ले रखी है।

नीरव मोदी को पीएनबी की मुंबई स्थित एक शाखा ने एलओयू जारी किए थे और इसी आधार पर उसने पंजाब नेशनल बैंक के अलावा सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया, देना, बैंक, बैंक आॅफ इंडिया, सिंडीकेट बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया, आइडीबीआइ बैंक, एक्सिस बैंक और इलाहाबाद बैंक की विदेश स्थित शाखाओं से कुल हजारों करोड़ रु. के कर्ज उठा लिये। यह पैसा न लौटने पर देर-सेबर भांडा फूटना ही था। पर सवाल है कि नियम-कायदों का उल्लंघन करते हुए ढेर सारे एलओयू कैसे जारी होते रहे? पकड़ में क्यों नहीं आया कि कुछ गलत हो रहा है? एलओयू को बैंक बुक में यानी बैंक के कोर बैंकिंग सिस्टम में दर्ज होना चाहिए था, पर कर्मचारियों ने ऐसा नहीं किया। एक ही कर्मचारी स्विफ्ट आॅपरेशन सिस्टम की जिम्मेदारी लगातार सात साल तक कैसे संभालता रहा?

एलओयू की राशि के आधार पर रिश्वत का फीसद तय था। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि बैंक के आॅडिट में भी कुछ गलत नहीं पाया गया। बैंकों की आंतरिक निगरानी प्रणाली के खोखलेपन का इससे बड़ा प्रमाण और इससे बड़ा चिंताजनक पहलू और क्या होगा? घोटाले का आकार वही बताया जा रहा है जो एलओयू के जरिए नीरव मोदी ने विभिन्न बैंकों से कर्ज उठाए। पर नुकसान का दायरा धोखाधड़ी की भेंट चढ़ी रकम से बहुत ज्यादा है। पीएनबी के शेयरों के ढह जाने और दूसरे कई बैंकों के भी शेयरों के नीचे आने से निवेशकों को कुल हजारों करोड़ रु. की चपत लगी है। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी बीमा कंपनी एलआइसी को भी खासा झटका लगा है, जिसकी पीएनबी में करीब चौदह फीसद, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया और इलाहाबाद बैंक में करीब तेरह-तेरह फीसद और गीताजंलि जेम्स में करीब तीन फीसद हिस्सेदारी है।

मुखौटा कंपनियों का खेल खत्म हो जाने के दावे किए जा रहे थे। पर नीरव मोदी और साझेदार मेहुल चोकसी के ठिकानों पर रविवार को हुई छापेमारी में दोनों आरोपियों की दो सौ से ज्यादा मुखौटा कंपनियों के बारे में दस्तावेज जांच एजेंसियों के हाथ लगे हैं। और भी सबूत मिलने तथा और भी राज उजागर होने का सिलसिला अभी चलता रहेगा। पर सवाल है कि विश्वसनीयता को जो नुकसान पहुंचा है, क्या बैंक जल्दी उससे उबर पाएंगे? इस बीच निजी क्षेत्र के सिटी यूनियन बैंक में भी करोड़ों की धोखाधड़ी का मामला सामने आ गया। क्या ऐसी ही बैंकिंग व्यवस्था के बल पर भारत दुनिया के सामने अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती का दावा करेगा? यह घोटाला ऐसे वक्त सामने आया है जब सरकारी बैंकों पर एनपीए का बोझ रिकार्ड स्तर पर पहुंच चुका है। एनपीए का बोझ अब और बढ़ सकता है, जिसकी कीमत आम लोग ही चुकाएंगे।


Date:20-02-18

Land of injustice

New Dalit movements see landlessness in the context of the caste question. The state must address the issue

Editorial

A tragedy, the self-immolation of Bhanuprasad Vankar, a 61-year-old Dalit activist in Patan, last week, has brought the issue of landlessness among Dalits into focus. Vankar, a leader of the Rashtriya Dalit Adhikar Manch, is said to have taken the extreme step after the Patan district administration kept stalling the transfer of ownership titles of two plots to their Dalit owners. The protests across Gujarat that followed Vankar’s death have forced the state government to action: It has agreed to facilitate the title deeds, free protestors who were arrested, including independent legislator Jignesh Mevani, and promised to address other concerns flagged by the protest.

Land has become central to the Dalit political discourse in Gujarat, especially since the Una protests in July 2016. Leaders who emerged from the mobilisations around Una, like Jignesh Mevani, have foregrounded the issue of land ownership over more routine discussions about constitutional rights and caste discrimination.In fact, they see Dalit access to land as an essential step towards ending marginalisation and as a means to break free of the social relations and economic structures that reinforce discrimination. A major demand of the Mevani-led Dalit Asmita Yatra in 2016 was five acres of land for each landless family. However, mainstream political parties have so far refused to endorse the demand of land for the landless.

Not surprisingly, then, Dalit mobilisations over the land question have been spearheaded mostly by new social movements, outside the platforms of established parties. According to the Socio Economic and Caste Census 2011, over 67 per cent of Dalit families in the country do not own land. Dalit landlessness, more than even among tribals, is a serious concern even in states like Kerala that have experienced land reforms in some form.

Here, state interventions did not go beyond tenancy reforms and protection, which mostly benefited the intermediary and backward castes, and failed to facilitate transfer of land ownership to Dalits. At the same time, socially empowered communities have been encroaching and appropriating the commons, further marginalising Dalits. Gandhian movements like Bhoodan to communist party-led mobilisations engaged with the land question, but they refused to recognise that it also had a caste dimension.The new Dalit mobilisations have been insistently raising the land question as a caste issue. Governments have so far evaded acting on the demand by arguing that they are short of land to distribute among the landless, a claim increasingly contested by the new social movements. If radical or innovative solutions are necessary to address the claims of the landless, the administration must explore those quickly.


Date:20-02-18

वैकल्पिक रास्ता

संपादकीय

ऊपरी तौर पर यह योजना बहुत महाकाय भी लगती है और हैरत में डालने वाली भी, लेकिन चीन की बेल्ट ऐंड रोड इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना, जिसे कई बार वन बेल्ट, वन रोड परियोजना भी कहा जाता रहा है, विवादों से कभी दूर नहीं रही। हालांकि चीन ने इसे लेकर पूरी दुनिया को, खासकर यूरोप, एशिया और अफ्रीका के देशों को बहुत से सब्जबाग भी दिखाए हैं। चीन इसके नाम पर उस पुराने सिल्क रूट को फिर से जीवित करने की बात करता है, जिससे सदियों पहले चीन से रेशम पूरी दुनिया, खासकर यूरोप में पहुंचता था। चीन इसको आधुनिक रूप देना चाहता है, ताकि दुनिया भर के देश आपस में आसानी से व्यापार कर सकें। पर इसे लेकर चीन की नीयत पर शक हमेशा से रहा है। यह माना जाता है कि पश्चिम की पिछली मंदी से चीन की अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा था, चीन अब वैसी स्थिति से निपटने के लिए एक पक्की व्यवस्था चाहता है, ताकि वह पश्चिम पर निर्भरता कम करके दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों में अपना माल खपा सके। खासकर एशिया, यूरेशिया और अफ्रीका के उन देशों में, जो अभी ज्यादा विकसित नहीं हैं। ज्यादा आपत्तिजनक यह है कि इसके नाम पर वह दुनिया में राजनीतिक आधिपत्य चाहता है। यह परियोजना उसे वह ढांचा दे देगी, जिससे वह जरूरत पड़ने पर कहीं भी हस्तक्षेप कर सके। भारत ने इसीलिए इस परियोजना का लगातार विरोध किया है।

चीन की इस नीयत को हम उस सड़क से समझ सकते हैं, जिसे चाइना-पाकिस्तान कॉरीडोर का नाम दिया गया है। इसे बेल्ट ऐंड रोड परियोजना का पहला हिस्सा भी माना जाता है। चीन से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक जाने वाली यह सड़क कश्मीर के उस हिस्से से निकलती है, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। चीन ने इसके लिए न तो भारत की भावनाओं और न ही कश्मीर पर उसके दावे का कोई ख्याल ही रखा। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ। उसके पहले भी चीन उस क्षेत्र में काराकोरम मार्ग बना चुका है। फिर पिछले दिनों चीन ने जिस तरह से भूटान के नाथुला तक सड़क बनाने की कोशिश की, वह बताता है कि चीन उन तमाम जगहों पर अपनी पहुंच बना रहा है, जो भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। पाकिस्तान ही नहीं, भारत को चारों ओर से घेरने के लिए चीन नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव आदि देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर अपने केंद्र बना रहा है। पर इस सब का भारत के पास विकल्प क्या है? अच्छी बात यह है कि एक विकल्प अब उभर रहा है।

अब भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया मिलकर बेल्ट ऐंड रोड का एक नया विकल्प देने की तैयारी कर रहे हैं। यह सच है कि चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजना का आर्थिक तर्क काफी मजबूत है। नए दौर में दुनिया को एक ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, जो तमाम देशों को आपस में जोडे़। ऐसी रिपोर्ट आ रही हैं कि ये चारों देश एक नया विकल्प देने को सहमत हो गए हैं। एशिया, अफ्रीका और यूरोप के ऐसे बहुत से देश हैं, जिन्हें ऐसी किसी परियोजना की जरूरत है, लेकिन वे चीन पर भरोसा नहीं करते। इनमें कई तो ऐसे हैं, जो पिछले काफी समय से चीन की दादागिरी के शिकार रहे हैं। इन सबके लिए यह विकल्प एक अच्छी खबर हो सकता है। इसलिए भी कि इस पर किसी एक देश का आधिपत्य नहीं, बल्कि चार देशों का सहयोग होगा।


 

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