28-02-2023 (Important News Clippings)

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28 Feb 2023
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Date:28-02-23

Bring States On the Same Capex Page

Facilitation may deliver better results

ET Editorials

The Centre is monitoring capital expenditure by states, vital stakeholders in reviving private investment in the economy, on evidence of flagging capacity. GoI has accelerated its capex budget since the pandemic with matching allocations for states but has found greater slippage in their ability to exhaust budgets than among its own ministries and departments. States as a block have improved their fiscal balance over the past couple of years. However, individual performance is diverse. This affects any given state’s capability to commit to big capex plans. States have improved their revenue position largely on account of stable GST collections and robust devolution from the Centre on buoyant direct taxes. States, however, are less nimble at altering their revenue-capital expenditure mix.

Where commitments have been made to bigger capex, fiscal headroom gets in the way. The common experience has been to squeeze capital rather than revenue expenditure to secure fiscal balance. Again, where fiscal headroom permits, it is expedient to bump up revenue expenditure over capex. Then there are forecasting errors where state budgetary assumptions do not work, making the process less reliable. Finally, the variance in physical and social infrastructure deficits across states may not be mapped adequately through interest rate subvention for capex and tied assistance in centrally sponsored schemes.

One suggestion to break out of the uncertainty surrounding states’ capacity to ramp up capex is to create a dedicated fund they can tap into on need. States will also have to create more borrowing capacity by becoming transparent on off-budget liabilities. The capex push is coinciding with a nudge from the Centre for states to clean up their books. So, there could be some scheduling issues there. Also, the sooner states recover their fiscal balance relative to pre-pandemic levels, the easier it will be to reorient expenditure. GoI needs to bring states on the same page over capex. Facilitation may deliver better results than enhanced scrutiny.


Date:28-02-23

A New ‘New Normal’ For Zoonotic Diseases

ET Editorials

A spike in adenovirus cases in West Bengal should serve as a warning for the country at large. While the Covid-19 pandemic is in our collective rear view, zoonotic diseases that are caused by germs like viruses, bacterial parasites and fungi are not. Preparedness and capacity to deal with them must increase across the board via the triple mechanism of prevention, surveillance, treatment. Government must not squander the hard lessons of the pandemic.

As the population grows, so does the demand for material resources such as food and fuel. As people earn more, demand rises further. Meeting these needs creates more opportunities for animal-to-human spillovers and higher prevalence of zoonotic diseases. Reducing possibilities of such spillovers is possible through better resource management. Also, there should be continued surveillance to identify a zoonotic disease and its spread potential, studies of the genomic structure to identify its impact on human health and development of drugs. Creating institutions, systems and capacity for continuous surveillance must become the new ‘new normal’. Governments should roll out plans to ensure accessible, affordable primary healthcare. For those better placed such as readers of this column, focus must shift to individual-specific check-up and treatment for specific bodies.

On the broader front, central and state governments along with local authorities must work together to develop a roadmap, ensuring human and physical infrastructure. Focusing on clean habitations, effective waste collection and management, and enhanced awareness among people is critical to improving human well-being and reducing the incidence of vector diseases. Improving health and healthcare systems must become a priority.


Date:28-02-23

मौलिक संस्कृति छोड़ने के नुकसान उठाने उठाने पड़ेंगे

संपादकीय

देश की राजधानी में फिर एक दरिंदे ने लिव-इन पार्टनर की हत्या कर दी। हाल के दौर में महानगरों में लिव-इन पार्टनर की नृशंस हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। शहरीकरण, युवा पुरुषों और महिलाओं का अनजान शहरों में नौकरी करके आर्थिक रूप से सबल हो, स्वतंत्र निर्णय करना विवाह जैसी पारम्परिक मजबूत बंधन वाली भारतीय संस्था को बदल रहा है। चूंकि पश्चिमी समाज में औद्योगीकरण के बाद से ही परिवार, खासकर संयुक्त परिवार नाम की संस्था खत्म हो चुकी है और विवाह एक पारस्परिक अनुबंध से ज्यादा नहीं रहा, लिहाजा भारत में अभिजात्य वर्ग और बुद्धिजीवियों ने इस नई संस्कृति को नारी मुक्ति का नया पड़ाव मान लिया। इस रिश्ते में पारस्परिक लगाव का अभाव होता है, क्योंकि इसकी शर्तें सामाजिक दबाव से परे होती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी पश्चिम से आने वाली इस नई हवा को नागरिक स्वतंत्रता के चश्मे से देखकर इसे वैध करार दिया। दरअसल, हमने नारी स्वतंत्रता और व्यक्तिगत आजादी की पश्चिमी आधुनिक जीवन शैली को अंगीकार तो किया पर उनके कानून और औपचारिक आचार-व्यवहार के मानदंडों के प्रति आदतन प्रतिबद्धता को अपने व्यक्तित्व में शामिल नहीं किया। दूसरी ओर भारतीय मूल्यों को, जो नानी की कहानियों, मां की लोरियों और चाचा की डांटों, दादा- दादी और नाना-नानी के प्यार में मिलता था, उसे भी पीछे छोड़ दिया। देश एक ऐसे बदलाव के मुहाने पर है जहां वह नई सभ्यता के लिए मौलिक संस्कृति छोड़ रहा है।


Date:28-02-23

हम पंजाब में पुरानी गलतियों को दोहरा रहे हैं

शेखर गुप्ता, ( एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ )

पिछले कुछ दिनों में अमृतपाल सिंह के समर्थकों द्वारा पंजाब के अजनाला पुलिस थाने पर हमले के जो दृश्य सामने आए हैं, वे अगर हमें झटका नहीं पहुंचाते तो साफ है कि हम देशहित से जुड़े महत्वपूर्ण मसलों के प्रति कितने उदासीन और आलसी हो गए हैं। उन लोगों ने पाकिस्तान की सीमा से सटे उस क्षेत्र के पुलिस थाने को तहस-नहस कर दिया, जिसे आप संवेदनशील क्षेत्र कह सकते हैं। भीड़ ने अपने एक आदमी को रिहा करने पर सरकार को मजबूर कर दिया, जिसे अपहरण के मामले में गिरफ्तार किया गया था। अमृतसर के पुलिस प्रमुख के उस वीडियो को देखिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि प्रदर्शन करने वालों ने साबित कर दिया कि गिरफ्तार आदमी के खिलाफ आरोप फर्जी हैं, इसलिए पुलिस एफआईआर वापस ले रही है।

1978 के बाद के उग्रवाद के दौर में हम पंजाब पुलिस को इस तरह आत्मसमर्पण करते देख चुके हैं। लेकिन तब वह परेशान और लाचार दिखती थी। आज तो वह बड़ी राहत महसूस करती, बेबाक लहजे से पेश आती दिख रही है। यह उस राज्य में हो रहा है, जिसमें कभी साइकिल चोरी के फर्जी आरोप के साथ दायर एफआईआर को आरोपित व्यक्ति की मौत होने तक खारिज करवाना असंभव था। तीन दशकों तक तो नहीं ही संभव था, जब तक किसी सरकार ने दिहाड़ी पर चल रही वीपी सिंह सरकार की तरह अपने गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की अपहृत बेटी रुबैया सईद को छुड़ाने के एवज में गिरफ्तार आतंकवादियों को रिहा करके घुटने टेकने का प्रदर्शन नहीं किया था।

जरा सोचिए, तलवारों और बंदूकों से लैस एक भीड़ देश की सीमा पर स्थित बड़े पुलिस थाने पर हमला बोल देती है, गिरफ्तार संदिग्ध शख्स को रिहा कर दिया जाता है, और इसके बाद सरकार कहती है कि ‘खेद है, हमने गलती की’। इस सबके बाद भी अगर आप सोचते हैं कि इसका कोई नतीजा सामने नहीं आएगा, तो आप बड़े नादान हैं। आगे चलकर कुछ न हो और मैं गलत साबित हो जाऊं तो मुझे बड़ी खुशी होगी। लेकिन क्रूर सच्चाई यह है कि हम पंजाब के बीते बुरे दौर की गलतियां दोहरा रहे हैं। सरकार ने, चाहे वह पंजाब की हो या केंद्र की, अभी तक यह नहीं कहा है कि स्थिति नाजुक है।

इससे पहले ऐसा हमने 1978 से 1993 के बीच देखा। वह मानो कभी खत्म न होने वाली ‘हॉरर फिल्म’ जैसा था। उसने मुख्यतः हिंदू और सिख समेत सभी समुदायों के हजारों लोगों को लील लिया, अनगिनत हत्याएं हुईं, विवादास्पद फौजी कार्रवाई ऐसे पैमाने पर हुई, जैसी पहले कभी नहीं देखी गई थी। साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा और एक पूरी पीढ़ी ने अलगाव को झेला। सामान्य स्थिति की ओर लौटने में 15 साल लग गए। आज बहुत कुछ वैसी ही स्थिति लग रही है, जैसी 1978 में 13 अप्रैल को बैसाखी वाले दिन थी। उस दिन अमृतसर में निरंकारियों की एक सभा में प्रदर्शन कर रहे भिंडरांवाले के समर्थकों पर गोलियां चलाई गई थीं, काफी खूनखराबा और मौतें हुई थीं।

मैं आपको बता दूं कि तब और अब में फर्क क्या है। भिंडरांवाले ने ‘खालिस्तान’ शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया था, कभी नहीं। कई पत्रकारों ने उनका इंटरव्यू लिया, खुद मैंने 1983-84 में बीस से ज्यादा बार बातचीत की लेकिन उन्होंने कभी यह शब्द नहीं बोला। वास्तव में, अंतिम बार जब मैंने अकाल तख्त में उन्हें उनके प्रमुख साथियों के साथ देखा था, जब सेना ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत मंदिर परिसर को घेरना शुरू किया था तब भी उन्होंने अलग देश की मांग नहीं की थी। अपने अंतिम सप्ताहों में, जब तनाव बढ़ रहा था और फौजी कार्रवाई अपरिहार्य दिख रही थी, तब उन्होंने तेवर बदल लिया था, फिर भी शब्दों का सोच-समझकर इस्तेमाल किया था। हम अक्सर पूछते थे कि क्या वे खालिस्तान चाहते हैं? या इस मांग के बारे में उनका विचार क्या है? वे शरारत भरी मुस्कान के साथ जवाब देते कि ‘मैंने कभी खालिस्तान की मांग नहीं की लेकिन बीबी (इंदिरा गांधी) ने मुझे यह दे दिया तो मैं ना नहीं कहूंगा।’ लेकिन अमृतपाल सिंह तो पहले दिन से ही खालिस्तान की बात कर रहे हैं। बेशक वह इसे केवल आत्म निर्णय के अधिकार की मांग के रूप में बोलते हैं और इसे किसी का भी लोकतांत्रिक अधिकार बताते हैं। इसके बाद वे यह भी कहते हैं कि अगर अमित शाह कहते हैं कि वे ‘खालिस्तान मूवमेंट’ को कुचल देंगे तो पहले याद कर लें कि इंदिरा गांधी का क्या हश्र हुआ था।

आजादी के बाद के पंजाब का इतिहास यही बताता है कि जब भी उसे कमजोर नेतृत्व मिला यानी ऐसा नेता जिसकी डोर दिल्ली के हाथ में हो और जो सिख धार्मिकता को अपने राजनीतिक दायरे में नहीं समेट पाया, तब-तब यह राज्य संकट में घिरता रहा। पंजाब में ‘कमजोर’ की परिभाषा कुछ अलग है। वहां इसे निर्वाचित सरकार के बहुमत से नहीं आंका जाता। ऐसा होता तो आज कोई समस्या नहीं होती। इस राज्य को मुख्यमंत्री के रूप में ताकतवर हस्ती चाहिए। सत्ता किस पार्टी के हाथ में है, इससे खास फर्क नहीं पड़ता। 1965 में जीटी रोड पर सोनीपत के पास पूर्व सीएम प्रताप सिंह कैरों की हत्या कर दी गई, जब वे चंडीगढ़ जा रहे थे। पंजाबीभाषियों के लिए अलग सूबे की जो मांग दबी हुई थी, वह फिर उभर आई। 1966 में राज्य का विभाजन कर दिया गया। कुछ समय शांति रही, जब तक 1972 में ज्ञानी जैल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने बागडोर नहीं संभाली। वे ऐसे घोर धार्मिक सिख की तलाश करने लगे, जो शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में अकाली दल को परेशान करे। इस तरह भिंडरांवाले को ढूंढ निकाला गया। इसके बाद की कहानी हम सबको पता है।


Date:28-02-23

अग्निपथ योजना

संपादकीय

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अग्निपथ योजना को सही करार देकर उन सबके इरादों पर पानी फेरने का काम किया, जो राजनीतिक कारणों से इस योजना का विरोध करने में लगे हुए थे। यह सहज ही समझा जा सकता है कि इस योजना का विरोध राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा था। इसी कारण उसके विरोध में तरह-तरह के कुतर्क दिए जा रहे थे। कई बार तो इन कुतर्कों का स्थान बेहूदे बयानों ने ले लिया, जैसे कि हाल में बिहार के सहकारिता मंत्री ने कहा कि अग्निपथ योजना के चलते देश की सेना नाकारा हो जाएगी। वह यहां तक कह गए कि जिसने भी इस योजना का प्रस्ताव बनाया हो, उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए। इसके पहले जब इस योजना की घोषणा की गई थी, तब भी न केवल इसी तरह की बातें की गई थीं, बल्कि युवाओं और विशेष रूप से सेना में भर्ती के आकांक्षी युवकों को बरलगाने-भड़काने का भी काम किया गया था। इसी कारण इस योजना के विरोध में देश के कई हिस्सों में हिंसा भी हुई थी। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस हिंसा के पीछे स्वतःस्फूर्त आक्रोश के साथ ही कुछ लोगों की शरारत भी थी। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि इस योजना के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों में करीब दो दर्जन याचिकाएं दायर की गईं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय को भेज दिया। उसने इस योजना को सही करार देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय हित में है।

यह समझा जाना चाहिए कि अग्निपथ योजना यह सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई है कि हमारे सशस्त्र बल बेहतर ढंग से सुसज्जित हों। एक ऐसे समय जब युद्ध के तौर-तरीके बदल रहे हों, तब भारत के लिए यह आवश्यक था कि वह भी वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए अपनी सेना को सक्षम बनाए। इस योजना के अमल में आने से एक तो भारतीय सेना की औसत आयु कम होगी और दूसरे, कहीं अधिक सक्षम सैनिक मिलेंगे। इस योजना के तहत भर्ती अग्निवीर चार साल के लिए सेवाएं देंगे। इनमें से 25 प्रतिशत की ही सेवाएं आगे ली जाएंगी। ऐसे नियम को लेकर यह जो माहौल बनाया जा रहा है कि आखिर चार साल बतौर अग्निवीर काम करने वाले युवा आगे क्या करेंगे? इसका उत्तर यह है कि उनके पास अवसरों की कोई कमी नहीं होगी। इसलिए नहीं होगी, क्योंकि उद्योग-व्यापार जगत को अनुशासित, दक्ष और कार्यकुशल युवाओं की जो तलाश रहती है, उसे अग्निवीर कहीं अधिक आसानी से पूरी करने में सक्षम होंगे। चार साल का सैन्य प्रशिक्षण अग्निवीरों को बेहतर नागरिक के रूप में निखारेगा। सैन्य प्रशिक्षण व्यक्तित्व के निर्माण में कितना अधिक सहायक होता है, इसका पता इससे चलता है कि कई देशों ने अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण के नियम बना रखे हैं।


Date:28-02-23

सुनियोजित तरीके से सिर उठाती कट्टरता

दिव्य कुमार सोती, ( लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं )

गत वर्ष इंग्लैंड के लेस्टर में भारतीय मूल के हिंदुओं पर पाकिस्तानियों द्वारा किए गए हमलों और हाल में आस्ट्रेलिया और कनाडा में हिंदू मंदिरों को खालिस्तानियों द्वारा निशाना बनाए जाने की घटनाओं के बीच ब्रिटिश सरकार के आतंकवाद निरोधक कार्यक्रम ‘प्रिवेंट’ को लेकर सामने आई ब्रिटिश सरकार की ही रिपोर्ट ने आतंकवाद और कट्टरपंथ को लेकर स्थापित विमर्श की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। यह रिपोर्ट तीन साल की गहरी छानबीन के बाद जारी की गई है। रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश एजेंसियां इस्लामिक कट्टरपंथ और दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों को लेकर दोहरे मापदंड अपनाती हैं और इस्लामिक कट्टरपंथ से बड़ी नरमी से पेश आती हैं। यह बताती है कि ब्रिटेन की सुरक्षा को सिर्फ आतंकी संगठनों से खतरा नहीं, बल्कि सबसे अधिक खतरा उन कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों से है, जो प्रत्यक्ष आतंकी गतिविधियों में शामिल नहीं होते, परंतु लोगों का ब्रेनवाश कर ऐसा माहौल बनाते हैं, जो अचानक से लोगों को आतंकवाद के रास्ते पर ले जाता है। ऐसी स्थिति में सुरक्षा एजेंसियां आतंकी हमले और हिंसा को रोकने में अक्सर विफल रहती हैं, क्योंकि ऐसे संगठनों पर खुफिया एजेंसियों की कड़ी निगाह नहीं होती। इसी रिपोर्ट के अनुसार दक्षिणपंथी संगठनों के बारे में सरकारी नीति अलग है, जिसमें मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों द्वारा विवादास्पद बातों पर दिए गए साधारण से बयान को भी हिंसा भड़काने के प्रयास के रूप में देखा जाता है। यह रिपोर्ट सिविल सोसायटी की आड़ में दुकान चलाने वाले ऐसे एनजीओ और अन्य सामाजिक संगठनों को भी कठघरे में खड़ा करती है, जो इस्लामिक कट्टरपंथ को सही ठहराने के लिए तमाम बहाने गढ़ते हैं और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के लिए सहानुभूति भरे बयान देते रहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार ऐसे सभी एनजीओ से ब्रिटिश सरकार को अपने रिश्ते समाप्त करने के साथ ही आतंक निरोधक तंत्र को इस्लामिक कट्टरपंथ के पीछे की विचारधारा को गहराई से समझने की आवश्यकता है। ब्रिटेन में ईशनिंदा को लेकर बढ़ते हमलों और हत्याओं पर भी इसमें चिंता जाहिर की गई है। साथ ही कहा गया है कि कश्मीर को लेकर खड़े किए जाने वाले विमर्श अक्सर ब्रिटेन में हिंदुओं की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर देते हैं और उनके विरुद्ध हिंसा को बढ़ावा देते हैं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि ईशनिंदा को लेकर लोगों को भड़काने वाले मौलाना अक्सर वही होते हैं, जो ब्रिटेन में भारत को लेकर दुष्प्रचार करते हैं। यह भी पाया गया कि ब्रिटेन में आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोग अक्सर वे होते हैं, जो कश्मीर में भी आतंकवाद में संलिप्त रहे हैं। यह रिपोर्ट खालिस्तानी आतंकवाद को भी ब्रिटेन की सुरक्षा के लिए नए उभरते खतरे के रूप में चिह्नित करते हुए रेखांकित करती है कि खालिस्तानी संगठन भारत में की जाने वाली हिंसा को ब्रिटेन में महिमामंडित करने में जुटे हैं और भारत एवं ब्रिटेन की सरकारों के विरुद्ध सिखों पर अत्याचार का दुष्प्रचार कर रहे हैं। इस रिपोर्ट की सभी 34 सिफारिशों को ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया है।

अगर इस रिपोर्ट को भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम यह सब अन्य देशों के साथ भारत में भी होता देख सकते हैं। यह सर्वविदित है कि इस्लामी कट्टरपंथ को लेकर भारत में वामपंथी उदारवादियों का एक धड़ा हमेशा नरम रहता है और वह जिहादी आतंकवाद के हर हिंसक कृत्य को या तो अनदेखा करता है या फिर कोई तर्क देकर सहानूभूतिपूर्वक उसका बचाव करता है। जिहादी आतंकियों को बचाने की कोशिशों का पूरा देश साक्षी रहा है। भारत में सिविल सोसायटी के नाम पर चल रहे तमाम वामपंथी एनजीओ महीनों तक सीएए के विरोध में शाहीन बाग और जामिया जैसी जगहों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा की गई भड़काऊ बयानबाजी, जिसमें असम को भारत से काट देने की धमकी भी शामिल थी, को नजरअंदाज कर चुके हैं। इतना ही नहीं, दिल्ली दंगों का आरोप एक दक्षिणपंथी नेता के महीनों से जाम रखे गए राजधानी के एक भाग को खुलवाने के बयान पर मढ़ चुके हैं। सच यह है कि शाहीन बाग में महीनों तक चला कट्टरपंथ का नंगा नाच ही दिल्ली दंगों के लिए जिम्मेदार था, जिसे वहां काम कर रहे एनजीओ किसी सामान्य प्रदर्शन का रूप देना चाहते थे। इसी प्रवृत्ति की ओर ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट इशारा करती है।

यदि ब्रिटेन में ईशनिंदा को लेकर हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं तो भारत में भी स्थितियां बहुत अलग नहीं हैं। नुपुर शर्मा प्रकरण के बाद ईशनिंदा को लेकर पिछले वर्ष भारत में आधा दर्जन हत्याएं और हत्या के प्रयास हुए। फिर से सिर उठाते खालिस्तानी कट्टरपंथ के बीच पंजाब में बेअदबी को लेकर हत्याएं आम होती जा रही हैं। बीते दिनों इंदौर में कट्टरपंथी सिख संगठनों द्वारा अपनी परंपरा के अनुसार गुरु ग्रंथ साहिब की पूजा करते आए सिंधी मंदिरों को लेकर आपत्ति जताई गई। इस मामले में टकराव सिंधी समुदाय की समझदारी से टल गया, क्योंकि उन्होंने ससम्मान गुरु ग्रंथ साहिब के स्वरूप गुरुद्वारों को सौंप दिए। इसके बावजूद सिंधी संतों को धमकियां मिलीं। यही स्थिति आस्ट्रेलिया और कनाडा में भी है, जहां खालिस्तानी लगातार हिंदू मंदिरों को निशाना बना रहे हैं। ब्रिटेन में तो भारतीय उच्चायोग की इमारत के मुख्य दरवाजे पर जाकर खालिस्तानी भारत के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर चुके हैं। इसी तरह कश्मीर को लेकर भारत विरोधी विमर्श से उपजी घृणा पिछले वर्ष लेस्टर में भारतवंशी हिंदुओं और हिंदू धार्मिक स्थलों के विरुद्ध हिंसा के रूप में परिणत हुई थी। तब इसके पीछे तमाम कारण दिए गए थे, लेकिन अब ब्रिटिश सरकार की यह रिपोर्ट इंगित करती है कि कश्मीर को लेकर तथाकथित मानवाधिकार संगठनों एवं इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार के चलते ही ब्रिटेन में हिंदूफोबिया के मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे में आवश्यक है कि इस रिपोर्ट से निकले प्रमुख बिंदुओं पर भारत में भी ध्यान दिया जाए, क्योंकि इसमें खींचा गया खाका हुबहू भारत के सुरक्षा परिदृश्य और उसके चारों ओर बनाए जाने वाले विमर्श से मिलता है और आतंकवाद और कट्टरपंथ के विरुद्ध भारत की लड़ाई के अनुभवों से मेल खाता है।


Date:28-02-23

शहरों को मिले जीवंत स्वरूप

वरुण गांधी, ( लोकसभा सदस्य लेखक ने ‘द इंडियन मेट्रोपोलिस: डिकंस्ट्रक्टिंग इंडियाज अर्बन स्पेसेस’ किताब लिखी है )

पेरिस 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक संकरी मध्यकालीन सड़कों वाला एक घिनौना यूरोपीय शहर था। एक ऐसा शहर जहां लोग भीड़भाड़ वाले घरों में रहते थे और हर जगह महामारी तथा सड़ांध फैली थी। 1851 में लुई-नेपोलियन बोनापार्ट (प्रसिद्ध बोनापार्ट का भतीजा) तख्तापलट करके फ्रांस की सत्ता में आया। उसी समय पेरिस के शहरी परिदृश्य को नया स्वरूप देने के लिए बड़ी कोशिश हुई। हरे-भरे स्थानों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया गया। पेरिस में 80 घरों के बीच कम से कम एक पार्क की व्यवस्था सुनिश्चित की गई, जहां पहुंचने में लोगों को दस मिनट की पैदल दूरी से ज्यादा नहीं तय करना पड़े। इस तरह शहर के रूप-स्वरूप को नए सिरे से निखारा और संवारा गया। देखते-देखते पेरिस ‘रोशनी का शहर’ बन गया।

दरअसल शहरों के पास भी अपना एक जीवंत व्यक्तित्व होना चाहिए। विशेष रूप से भारत के शहरों को देखें तो हमारे ऐतिहासिक मंदिरों से जुड़े शहरों की विलक्षणता है कि वहां मंदिरों के साथ बस्तियां बसी हैं। इस तरह पूरे शहर के साथ एक मंदिर अर्थव्यवस्था विकसित हुई है। इसके बावजूद भारत में तमाम ऐसे शहर हैं, जहां शहरी विकास की कोई रूपरेखा या विचार नदारद है। भारत में शहरों का निर्माण उपयोगितावादी या समृद्ध जरूरतों को पूरा करने के लिए किया गया है। इसमें स्थानीय परंपराओं और सांस्कृतिक प्रभावों की जानबूझकर उपेक्षा की गई है। विशेष रूप से कई जरूरी लाभों को देखते हुए भारत में अधिक शहरी हरित स्थानों की स्पष्ट दरकार है। वानस्पतिक उपलब्धता के साथ कार्बन के खतरे से निपटने के लिए यह हरित व्यवस्था शहरों के साथ जरूरी है। भारत के पास शहरों के निर्माण की अपनी समझ और शैली होनी चाहिए, जो उनकी विरासत और स्थिरता के इर्दगिर्द निर्मित हो। देश में शहरों के निर्माण और नियोजन के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव और क्षमता वृद्धि की भी जरूरत है। देश में कालेजों में टाउन प्लानिंग संबंधित कोर्स का घोर अभाव है। इसके कारण देश को हर साल सिर्फ 700 टाउन प्लानर्स ही मिल रहे हैं। इस तरह लगभग 11 लाख प्लानर्स की कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए और अधिक कालेज स्थापित करने की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की भी है कि स्थानीय आइआइटी और एनआइटी के लिए एक समर्पित योजना विभाग बनाने पर जोर दिया जाए। इस बीच हमें भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप नियम-कायदे बनाने के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे। इसके लिए क्षेत्रीयकरण पर जोर एक बेहतर तरीका है। आगे चलकर शहरों को अपने बाहरी इलाकों में आम सार्वजनिक भूमि की पहचान करने और वन भूमि में उनको रूपांतरित करने की योजना बनानी चाहिए। इसके जरिये भौगोलिक और जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्रों को विशेष रूप से और संवर्धित तथा सुरक्षित किया जा सकता है। गौरतलब है कि दिल्ली-एनसीआर के रीजनल प्लान में महज दस प्रतिशत वनक्षेत्र सुरक्षित रखने का प्रविधान रखा गया है। अरावली से लगे गुरुग्राम में इस तरह की योजनात्मक प्रतिबद्धता इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि वहां यह बड़ा जलस्रोत है। हालांकि इस तरह के मास्टरप्लान को लागू करने के लिए स्थानीय वार्ड समितियों के साथ बेहतर समन्वय की आवश्यकता होगी।

इस संबंध में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की नगर वन परियोजना एक आशाजनक पहल प्रतीत होती है। भारत में कम से कम 200 शहरी वन बनाने की बात की गई है। हालांकि यह कार्यान्वयन के स्तर पर बेहद लचर नजर आता है। वैसे इस तरह की कुछ पहल पहले भी हुई है, लेकिन उचित कार्यान्वयन के अभाव में अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पाईं। नतीजतन बेंगलुरु जैसे बड़े शहर में तुरहल्ली जंगल में कदाचार और अपशिष्ट डंपिंग की समस्या सामने आई है। हमें आगामी मास्टरप्लान में कुल और प्रति व्यक्ति शहरी वनक्षेत्र में वृद्धि पर बल देना चाहिए। हरित वानिकी को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। पुणे में वारजे वन का निर्माण इस दिशा में एक उल्लेखनीय कदम रहा। यह महाराष्ट्र की पहली शहरी वानिकी परियोजना मानी जाती है। इसमें 16 हेक्टेयर भूमि को जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्र में परिवर्तित किया है, जिसमें पक्षियों की तमाम प्रजातियों, सरीसृपों और स्तनधारियों की पूरी श्रृंखला को शामिल किया गया है। इस दिशा में नागरिक समाज का प्रोत्साहन भी जरूरी है। इसके लिए चेन्नई में थुवक्कम एनजीओ एक मिसाल है, जिसके पास 1800 स्वयंसेवक हैं। इसकी मुहिम से तमिलनाडु के शहरी क्षेत्रों में 25 मियावाकी जंगल अस्तित्व में आए। इससे 9.2 एकड़ में 65 हजार से ज्यादा वृक्ष हरित आबोहवा सुनिश्चित कर रहे हैं।

कुछ समय पहले तक गुरुग्राम में ऐतिहासिकता की एक यादगार निशानी थी-काम सराय। 1820 में निर्मित यह संरचना यात्रियों, व्यापारियों, सैनिकों और आम लोगों के लिए एक पड़ाव स्टेशन के रूप में बनाई गई थी। इस निर्माण में एक विशिष्ट औपनिवेशिक उपस्थिति थी, जिसमें व्यापक मोटी दीवारें और छत ऊंची थीं। बाद में इसका इस्तेमाल स्थानीय सदर बाजार में व्यापार के लिए आने वाले व्यापारियों के घोड़ों और बैलों के एक पड़ाव के रूप में होने लगा। 1975 तक स्थानीय शहर थाना इस क्षेत्र में स्थापित हो गया था। 1994 में फिल्म बैंडिट क्वीन के कुछ दृश्यों की वहां शूटिंग की गई थी। 2020 के मध्य में एक बहुस्तरीय पार्किंग क्षेत्र के निर्माण के लिए इस संरचना को ध्वस्त कर दिया गया। स्पष्ट है कि अगर गंभीरता और तत्परता के साथ पहल नहीं की गई तो भारतीय शहरों की ऐतिहासिकता और हरियाली जल्द ही खो जाएगी।


Date:28-02-23

विकास का समावेशी ढांचा

सुशील कुमार सिंह

साम्राज्यवाद की समाप्ति के बाद भारत के समक्ष दो ही प्रमुख मुद्दे थे। पहला, राष्ट्र निर्माण और दूसरा सामाजिक-आर्थिक प्रगति। इसी पृष्ठभूमि में विकास प्रशासन का जन्म हुआ और समाज के बहुमुखी और नियोजित विकास पर जोर दिया जाने लगा। इस यात्रा को पचहत्तर वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आवाजविहीन, जड़विहीन और भविष्यविहीन विकास को तभी रोका जा सकता है, जब इसके लिए सुनियोजित और दूरदर्शी कदम निरंतर उठते रहें। इसी कड़ी में समावेशी विकास, विकास की एक ऐसी परिकल्पना है, जिसमें रोजगार के अवसर निहित होते हैं और यह गरीबी को कम करने में मददगार साबित होता है। अवसर की समानता तथा शिक्षा और कौशल के माध्यम से लोगों को सशक्त करना भी इसका निहित लक्ष्य है। बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने, मसलन आवास, भोजन, पेयजल, स्वास्थ्य आदि समेत आजीविका के साधनों को निरंतर गतिशील बनाए रखना समावेशी विकास की लक्ष्योन्मुख अवधारणा है।

गौरतलब है कि देश कई ढांचों और उसमें निहित विकास की कई जमावटों से युक्त है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी विकास समेत अन्य शामिल हैं। इसी के अंतर्गत इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में समावेशी विकास को सशक्त करने की दिशा में मनरेगा योजना शुरू की गई थी। गौरतलब है कि इसे पहले नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना नाम दिया गया था, फिर 2 अक्तूबर 2009 को इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ते हुए इसे मनरेगा की संज्ञा दी गई। इस योजना के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों को लाभ मिल चुका है। यह योजना ग्रामीण रोजगार की दृष्टि से एक क्रांतिकारी पहल है। इसने देश के समावेशी ढांचे को न केवल पुख्ता किया, बल्कि पलायन से लेकर गरीबी और भुखमरी आदि पर भी अंकुश लगाने में कारगर सिद्ध हुई है। अगर सुशासन की दृष्टि से देखें, तो यह शासन की ओर से उठाया गया ऐसा कदम है, जो लोक सशक्तिकरण के साथ कदमताल करता और निहित मापदंडों में बुनियादी विकास की दृष्टि से आजीविका की एक बेहतरीन खोज है।

केंद्रीय बजट 2023-24 में मनरेगा के लिए साठ हजार करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं, जो 2022-23 के बजट में तिहत्तर हजार करोड़ के मुकाबले अट्ठारह फीसद और संशोधित अनुमान से करीब बत्तीस फीसद कम है। किसी भी योजना की प्रगति और सफलता में निहित बजट कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। बीते नौ वर्षों की पड़ताल बताती है कि सरकार मनरेगा को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक रही है और हर बजट में अनुमान बढ़ी हुई दर में ही देखने को मिलते हैं, जबकि इस बार सरकार का रुख इससे कुछ ज्यादा ही विमुख हुआ है। मुख्य आर्थिक सलाहकार की मानें तो मनरेगा के लिए बजट आबंटन घटाने से रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि मनरेगा के बजट में कटौती हुई है, मगर पीएम आवास योजना, ग्रामीण और जल-जीवन मिशन आदि मदों में राशि अच्छी-खासी बढ़ा दी गई है। माना जा रहा है कि इस प्रकार की योजनाओं से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। जबकि मनरेगा की तुलना रोजगार की दृष्टि से किसी अन्य से करना इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि यह रोजगार की गारंटी योजना है, जबकि अन्य किसी मिशन में रोजगार की संभावना कम-ज्यादा के साथ वैकल्पिक होगी। मनरेगा में बजट की कटौती ग्रामीण रोजगार की दिशा में जारी समावेशी विकास के लिए भी नई समस्या बन सकती है। गौरतलब है कि कोरोना काल में बंदी के दौरान जब नगरों और महानगरों से करोड़ों कामगार अपने गांव-घर पहुंचे थे तो मनरेगा ने ही उनकी आजीविका चलाने में बड़ी भूमिका अदा की थी।

देखा जाए तो मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है, जिसने ग्रामीण श्रम में एक सकारात्मक बदलाव को प्रेरित किया है। आंकड़े बताते हैं कि कार्यक्रम के शुरुआती दस वर्षों में कुल तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए और आजीविका और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से यह गरीबों के लिए सशक्तिकरण का माध्यम बन गया। वर्ष 2013-14 में मनरेगा के तहत कार्यरत व्यक्तियों की संख्या लगभग आठ करोड़ थी, जो 2014-15 में घट कर पौने सात करोड़ के आसपास हो गई। उसके बाद इसमें बढ़ोतरी भी हुई और कमोबेश ग्रामीण बेरोजगारों के लिए यह संजीवनी का रूप लिए हुए है। इसमें महिलाओं की संख्या आधी और किसी वर्ष तो आधी से अधिक भी देखी जा सकती है। इसके तहत प्रत्येक परिवार के श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों के लिए सौ दिन की गारंटी युक्त रोजगार, दैनिक बेरोजगारी भत्ता और परिवहन भत्ता, अगर पांच किलोमीटर दूर है, तो आदि का प्रावधान है। सूखा ग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में डेढ़ सौ दिनों के रोजगार का प्रावधान है। जनवरी 2009 से केंद्र सरकार सभी राज्यों के लिए अधिसूचित की गई मनरेगा मजदूरी दरों को प्रति वर्ष संशोधित करती है। मजदूरी का भुगतान न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के तहत राज्य में खेतिहर मजदूरों के लिए निर्दिष्ट मजदूरी के अनुसार ही किया जाता है।

गौरतलब है कि 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को तिहत्तरवें संविधान संशोधन के अंतर्गत संवैधानिक स्वरूप दिया गया। यह स्थानीय स्वशासन भारत विकास की कुंजी सिद्ध हुआ। इसी पंचायती राज व्यवस्था को मनरेगा के तहत किए जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है। इस तरह पंचायती राज व्यवस्था शासन के विकेंद्रीकरण के साथ समावेशी ढांचे को भी मजबूती बनाने में कारगर सिद्ध हो रही है। समावेशी विकास के लिए समावेशी ढांचे का होना आवश्यक है। गांवों में बुनियादी सुविधाएं न होना, गांवों से पलायन और शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना, कृषि से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना, समावेशी विकास की दृष्टि से सही नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक गरीबी के सभी रूपों, मसलन बेरोजगारी, निम्न आय और भुखमरी आदि को समाप्त करने का लक्ष्य तय किया है। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय किया था। विशेषज्ञों की राय है कि भारत में तीव्र समावेशी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी। इस बार के बजट में कृषि के लिए पैकेज तैयार करने समेत ग्रामीण डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने आदि का संदर्भ दिखता है। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा समावेशी विकास का पर्याय है, जो न केवल आर्थिक विकास के लिए, बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक अनिवार्यता भी है। ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी स्थायी या दीर्घकालिक रोजगार साधनों की आवश्यकता पूरी नहीं हुई है। ऐसा इसलिए कि मनरेगा को रोजगार के स्थायी साधन के रूप में शामिल करना उचित नहीं होगा। मनरेगा एक अकुशल कर्मचारियों को दिए जाने वाले रोजगार की गारंटी योजना है। जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल निर्माण करना संभव नहीं होगा, तब तक स्थायी रोजगार की संभावना कमतर रहेगी।

गौरतलब है कि देश में कौशल विकास के पच्चीस हजार केंद्र हैं, जिनमें से ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में हैं, जबकि चीन जैसे बराबर की आबादी वाले देश में पांच लाख ऐसे केंद्र हैं। दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया जैसे कम आबादी वाले देशों में भी कौशल केंद्रों की संख्या एक लाख है। फिलहाल, मनरेगा गरीब समर्थक और आजीविका से युक्त रोजगार गारंटी की एक ऐसी योजना है, जहां रूखे-सूखे विकास के बीच रोजगार की हरियाली को अवसर मिलता है। ऐसे में इसकी शक्ति को न घटाया जाए तो देश की ताकत बढ़ेगी और ग्रामीण जनता आर्थिक झंझवातों से कुछ हद तक निजात पाएगी।


Date:28-02-23

पंजाब में कुछ पक रहा

संपादकीय

हाल में पंजाब में हुई दो घटनाओं ने सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क कर दिया है । ये घटनाएं आने वाले वक्त में बढ़ने वाली दिक्कतों का संकेत दे रही हैं। एक घटना तरनतारन जिले की गोइंदवाल जेल में रविवार को गैंगस्टरों के बीच हुई हिंसक झड़प थी, जिसमें पंजाबी गायक सिद्ध मूसेवाला की हत्या में शामिल दो गैंगस्टर मारे गए। इनकी पहचान मनदीप सिंह उर्फ तूफान और मोहन सिंह उर्फ मनमोहन सिंह के रूप में हुई है। झड़प में तीसरा कैदी केशव गंभीर रूप से घायल हुआ है। ये तीनों ही मूसेवाला हत्याकांड में आरोपी हैं। तूफान अमृतसर के एक अस्पताल में कुख्यात गैंगस्टर रणबीर सिंह की हत्या में भी वांछित था। सिद्धू मूसेवाला के नाम से मशहूर पंजाबी गायक शुभदीप सिंह सिद्धू की 29 मई, 2022 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। जेल में यह झड़प विवादास्पद स्वयंभू सिख उपदेशक अमृतपाल सिंह के समर्थकों के अजनाला में किए गए हंगामे के दो दिन बाद हुई । खालिस्तान समर्थक अमृतपाल दुबई से लौटने के बाद से ही सुर्खियों में है। तलवार और हथियारों से लैस उसके समर्थक अपने एक साथी को छुड़ाने के लिए पुलिस से भिड़ गए थे और और थाने की जबरदस्त घेराबंदी कर ली थी। इस घटना में अनेक पुलिसकर्मियों को गंभीर चोटें आईं। विपक्ष की प्रमुख पार्टी शिरोमणि अकाली दल ने जेल में गैंगवार की स्वतंत्र जांच की मांग की है। उसका कहना है कि इसके पीछे कोई गहरी साजिश हो सकती है। खुफिया एजेंसियां भी अत्यंत सतर्क हो गई हैं क्योंकि अमृतपाल सिंह सिद्धू मूसेवाला के समर्थकों को प्रभावित करने की कोशिश में जुटा है। वह न सिर्फ भिंडरांवाला जैसे कपड़े पहनता है बल्कि उसके जैसी भाषा शैली भी अपनाता है। अजनाला थाने के बाहर हुई घटना को पाकिस्तान के अखबारों ने काफी बढ़ा चढ़ाकर छापा है और इसे खालिस्तान आंदोलन की सुगबुगाहट के तौर पर पेश किया है। इस घटनाक्रम से केंद्रीय गृह मंत्रालय भी चौकन्ना हो गया है और पंजाब पुलिस से व्यापक रिपोर्ट मांगी है। खुफिया एजेंसियां भी अमृतपाल के दुबई में रहने के दौरान की गतिविधियों को खंगालने जुट गई हैं। यह सतर्कता बेहद जरूरी है क्योंकि पाकिस्तान वर्तमान में जिन हालात से गुजर रहा है उनसे अपनी जनता का ध्यान हटाने के लिए भारत को परेशान करने वाली किसी भी हरकत को उकसाने का काम कर सकता है।


Date:28-02-23

अग्निपथ पर मुहर

संपादकीय

दिल्ली उच्च न्यायालय ने सैन्य भर्ती की अग्निपथ योजना को वैध करार दिया है, इससे न केवल सरकार का पक्ष मजबूत हुआ है, उन युवाओं के भ्रम भी दूर हुए हैं, जो भर्ती की तैयारी में लगे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने रक्षा सेवाओं में पिछली भर्ती योजना के अनुसार बहाली और नामांकन की मांग वाली याचिकाओं को भी खारिज कर दिया। अग्निपथ योजना जब से आई है, समर्थन के साथ ही, उसका विरोध भी खूब हो रहा है। इस योजना के विरोधी विभिन्न मंचों पर सक्रिय हैं। अलग-अलग न्यायालयों में अग्निपथ योजना के खिलाफ याचिकाएं लगाई गई थीं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस योजना को चुनौती देने वाली तमाम याचिकाओं को दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए हस्तांतरित करवा दिया था। शीर्ष अदालत ने सावधानी बरतते हुए केरल, पंजाब, हरियाणा, पटना और उत्तराखंड के उच्च न्यायालयों से भी कहा था कि वे अग्निपथ योजना के खिलाफ लंबित जनहित याचिकाओं को दिल्ली उच्च न्यायालय भेज दें या इसे किसी फैसले तक लंबित रखें। दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिसंबर महीने में ही फैसला सुरक्षित रख लिया था और अब आया फैसला अनेक तरह की आशंकाओं को दूर कर रहा है।

गौरतलब है कि 14 जून को शुरू की गई अग्निपथ योजना के साथ भारत में सैन्य भर्ती की प्रक्रिया लगभग आमूल-चूल बदल चुकी है। करीब चार साल के लिए इस योजना के तहत भर्ती प्रस्तावित है, इसके बाद केवल 25 प्रतिशत सैन्य जवान ही नियमित सेवा में आगे के लिए रह जाएंगे। मतलब यह कि नियमित सेवाओं को खत्म नहीं किया जा रहा है, पर युवाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है कि वह कुछ वर्ष के लिए सैन्य सेवा में आकर खुद को अनुशासित व प्रशिक्षित करें और बेहतर नागरिक के रूप में देश की सेवा करें। लगभग चार साल की सैन्य सेवा के बाद इन जवानों को एकमुश्त राशि देकर रिटायर कर दिया जाएगा। इसमें पेंशन का प्रावधान नहीं है और यही विवाद की जड़ है। पेंशन एक नीतिगत निर्णय है। अतः अदालत ने कहा कि इस योजना में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिला है। कोर्ट ने पक्षकारों को पूरा मौका दिया और उसके बाद ही फैसला आया है। हालांकि, जो असंतोष है, वह जारी रहेगा। जो लोग इस योजना को लेकर आशंकित हैं, उन्हें लगता है, चार साल की सेवा के बाद जवान क्या करेंगे? ऐसे सवाल अपनी जगह हैं, पर अल्पकालीन सेवा के बाद रिटायर हुए योग्य युवाओं का दूसरी नागरिक सेवाओं में क्या स्वागत नहीं होगा? यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी सेवा या सुविधा में कोई कमी आती है, तो उसका विरोध या असंतोष स्वाभाविक है।

अदालत में केंद्र सरकार द्वारा दी गई दलीलें भी खूब चर्चा में रही हैं। सरकार ने साफ कहा था कि एक युवा, आधुनिक और भविष्योन्मुखी लड़ाकू बल विकसित करने के लिए, सेना में युवा रक्त के संचार के लिए, जो मानसिक व शारीरिक रूप से ज्यादा दुरुस्त आयु समूह है, उसे सरकार तरजीह दे रही है। सरकार ने यह भी कहा कि इस योजना को बहुत सोच-विचार के बाद लाया गया है। वैसे पेंशन सुविधा का जहां तक प्रश्न है, इसका समाधान आसान नहीं है, इस पर सरकार को अलग से सोचना चाहिए। एक दिन हर नागरिक को बूढ़ा होना है, हर किसी को पेंशन के रूप में इतना न्यायोचित धन तो मिलना ही चाहिए कि जिंदगी में किसी तरह का बुनियादी अभाव न हो ।