26-12-2023 (Important News Clippings)

Afeias
26 Dec 2023
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Date:26-12-23

Choppy Waters

Houthi attacks on Red Sea shipping pose a global challenge. India must work with US to protect interests.

TOI Editorials

Two weekend attacks on commercial ships with Indian interests in the contiguous seascape stretching from the northern Indian Ocean to the Red Sea have created a serious security dilemma for New Delhi. First, India-bound MV Chem Pluto with 21 Indian crew was hit by a projectile. Hours later crude carrier MV Sai Baba with 25 Indians on board faced a drone attack in the southern Red Sea.

Houthi challenge | Yemen’s Houthi rebels’ attack on ships seems to now target vessels with no Israel connection. This has raised suspicions that Houthis’ Iranian backers may be providing the rebels with a list of targets for strategic purposes – something Tehran denies.

Iran conundrum | Logically, India should parley with Iran to protect Indian crewed and flagged ships or those with Indian cargo manifest. But New Delhi’s relations with Tehran have dipped over the last few years, mirroring the upswing in its ties with Gulf Arab states as well as its closer ties with Israel.

Securing sealanes | America recently proposed a multi-national naval force – Operation Prosperity Guardian (OPG). And Danish shipping major Maersk said it would resume transit through the Red Sea under the force’s protection. But there are issues. It’s not the availability of ships – many countries have been engaged in antipiracy missions in the region for years. But Arab nations don’t want to be seen attacking Yemen, another Arab nation. Some countries don’t want to be seen acting in favour of Israel, and others are trying to avoid a larger regional conflagration involving Iran.

Global test | That China hasn’t joined the OPG despite its interests being potentially affected gives the problem a geopolitical dimension. Iran, through its proxies, along with China and Russia, is demonstrating its disruptive capabilities. India should coordinate with US naval assets in the region to protect its shipping interests. And the Indian navy should stand by to contribute more robustly to this effort.


Date:26-12-23

Glacial Ties Should Not Mean Non-Coop

ET Editorials

An International Centre for Integrated Mountain Development (ICIMOD) report, released earlier this year, warns that glaciers in Hindu Kush Himalayas are melting at unprecedented rates. They could lose up to 75% of their volume by the end of the century, leading to flooding and water shortages for the nearly 2 billion people who live downstream of the rivers. Such warnings mean that international monitoring of glaciers will be a crucial bulwark for safeguarding the region’s future.

But, last week, GoI rejected a parliamentary panel’s recommendation for a data-sharing agreement on Himalayan glaciers with countries of the region, including not-best-of-pals China. This is a shortsighted step. One reason cited to reject the panel’s report is national security. Any mechanism that would give Beijing informational access to the upper reaches of the Himalayas, a natural border, is a non-starter. This is why a joint mechanism on glaciers proposed by the previous Indian government was also abandoned.

Yet, given the precarity of the climate challenge, GoI must find a solution that best balances national security and environmental-economic demands. India must step up its research on glaciers and augment its understanding of the issue. As major countries of the region, both India and China must engage in this. New Delhi can take a leaf from Washington’s book on balancing immediate and long-term security needs. Even though the security concerns are qualitatively different, India can relate to the difficulties of the US-China relationship. Washington and Beijing identify climate change as a sphere that requires both to work together. Despite the problematic bilateral relationship, even India aligns with China in international climate negotiations. A similar path and holistic view could benefit India and the region in this climate-hit era.


Date:26-12-23

दुरुस्त आयद

संपादकीय

केंद्रीय खेल मंत्रालय ने जिस तरह भारतीय कुश्ती महासंघ यानी डब्लूएफआइ को निलंबित कर दिया, उससे यह पता चलता है कि इस मसले पर चल रही खींचतान के बीच कैसे एक तरह से अराजक माहौल खड़ा हो रहा था और इसके लिए सरकार के रुख पर सवाल उठ रहे थे। हालांकि डब्लूएफआइ के संदर्भ में सरकार के ताजा फैसले का आधार तकनीकी है, लेकिन इसका एक संदेश यह भी निकला है कि महिला खिलाड़ियों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के समूचे ढांचे और कामकाज के तौर-तरीके को लेकर जो आईना दिखाया था, वास्तव में वह जमीनी हकीकत की बुनियाद पर उठाए गए ठोस सवाल थे। इसके बावजूद बेहद विचित्र तर्कों और परिस्थितियों के बीच भारतीय राजनीति में कद्दावर माने जाने वाले कुछ खास लोगों को बचाने की कोशिशें चलती रहीं और महिला पहलवानों के आरोपों को निराधार बताया जाता रहा। अब जिस आधार पर भारतीय कुश्ती महासंघ की नई संस्था को निलंबित किया गया है, उससे यह साफ होता है कि आंतरिक ढांचे में एक विचित्र मनमानी चल रही थी, जिसका खमियाजा कुश्ती के खेल और इसके खिलाड़ियों को उठाना पड़ रहा था।

दरअसल, कुश्ती महासंघ पर जो कार्रवाई की गई है, उसकी वजह राष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता को जल्द आयोजित कराने का फैसला है। सरकार के मुताबिक, हाल ही में डब्लूएफआइ के नव-निर्वाचित सदस्यों ने निर्णय लेने के क्रम में नियमों का उल्लंघन किया। चुनाव जीतने के कुछ ही देर के बाद इसके अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश के गोंडा में 28 दिसंबर से अंडर 15 और अंडर 20 राष्ट्रीय प्रतियोगिता कराने की घोषणा कर दी थी और पिछली तदर्थ समिति के सभी फैसलों को खारिज कर दिया था। इसके पीछे इस वर्ष में बहुत कम समय बचने या नए पहलवानों का भविष्य बचाने जैसी दलीलें दी जा सकती हैं, मगर सवाल है कि इस क्रम में निर्धारित नियमों को ताक पर रख कर फैसला लेने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? डब्लूएफआइ की नई संस्था के गठन और नए पदाधिकारियों के चयन के संबंध में जो खबरें आई हैं, उनके मद्देनजर देखा जाए तो ऐसा लगता है कि चुनाव प्रक्रिया में भी नियमों का पूरी तरह पालन करना जरूरी नहीं समझा गया। ऐसे में अगर केंद्र सरकार ने भारतीय ओलंपिक संघ से कुश्ती संघ से जुड़े कार्यों की देखरेख के लिए एक तदर्थ समिति गठित करने को कहा तो उसका तकाजा समझा जा सकता है।

गौरतलब है कि पिछले काफी समय से कई महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर कई गंभीर सवाल उठाए थे और आंदोलन भी किया था। मगर उनकी मांगों पर सरकार ने कोई साफ रुख अख्तियार नहीं किया। हाल में जब डब्लूएफआइ का चुनाव हुआ तब भी उसके अध्यक्ष के रूप में बृजभूषण शरण सिंह के ही नजदीकी माने जाने वाले व्यक्ति की नियुक्ति हुई। इसी से निराश साक्षी मलिक ने कुश्ती से संन्यास लेने की घोषणा कर दी और कई अन्य पहलवानों ने अपने पदक लौटा दिए। किसी भी हाल में यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है। महिला पहलवानों ने डब्लूएफआइ के कुछ उच्चाधिकारियों के खिलाफ शिकायत उठाई थी, उसमें एक तरह से कुश्ती संघ के भीतर नियमों को ताक पर रख कर चलाई जा रही मनमानी पर रोक लगाने की भी मांग शामिल थी। डब्लूएफआइ के चुनाव के बाद जिस तरह आनन-फानन में फैसले लिए जाने लगे, उसने पहलवानों की आपत्तियों से जुड़ी कड़ियों की पुष्टि की। अब देर से सही, सरकार ने अगर इस मसले पर स्पष्ट कार्रवाई की है, तो इसे दुरुस्त कदम कहा जा सकता है।


Date:26-12-23

देर आयद दुरुस्त आयद

संपादकीय

आखिर खेल मंत्रालय ने कुश्ती संघ को निलंबित कर दिया। संजय सिंह के कुश्ती संघ का अध्यक्ष बनते ही ओलंपिक पदक विजेता पहलवान साक्षी मलिक ने कुश्ती छोड़ने का ऐलान कर दिया था। उनके साथ ही बजरंग पूनिया ने पद्मश्री लौटा दिया। हरियाणा के पैराएथलीट वीरेंद्र सिंह ने भी पद्मश्री लौटाने का एलान कर दिया। सरकार ने नियमों की अवहेलना के चलते संघ को निलंबित किया है। नवनिर्वाचित निकाय पर पहलवानों को तैयारी के लिए पर्याप्त समय दिए बगैर राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के आयोजन की आनन-फानन घोषणा कर दी थी। जो बृजभूषण के संसदीय क्षेत्र गोंडा (उप्र) में होने थे। बहरहाल, संघ को समाप्त ना कर केवल अगले आदेश तक निलंबित किया गया है। मगर इसे पहलवानों की जीत के तौर पर देखा जा रहा है। जो लंबे समय से कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह के खिलाफ अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। सिंह पर पहलवानों के यौन शोषण का आरोप है। आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले पूनिया ने कहा हमारे ऊपर इल्जाम लगाए गए। हमारी बहन-बेटियों के साथ अत्याचार हुआ। इंडियन ओलंपिक एसोशिएसन को कुश्ती संघ चलाने के लिए पैनल बनाने का केंद्र ने निर्देश दिया है। देर से ही सही मगर खेल मंत्रालय ने स्वीकारा कि नवनिर्वाचित निकाय खेल संहिता की अनदेखी करते हुए पूर्व पदाधिकारियों के नियंत्रण में है। सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम देर से ही सही पर समूचे खेल जगत व खेलप्रेमियों के लिए स्वागत योग्य रहा। खेलों में राजनीति के लिए कोई जगह होनी भी नहीं चाहिए। यह केवल खेल अधिकारियों के लिए नहीं है, यह बात खिलाड़ियों पर भी लागू होती है। राजनीतिक दलों से नजदीकियां रखना बुरी बात नहीं है, मगर खुलेआम किसी दल विशेष का मोहरा बनना खिलाड़ियों के भविष्य के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता । जातियों या खास इलाकों के मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए राजनीतिक दल जो दांव-पेच इस्तेमाल करते हैं, उनसे प्रतिभावान खिलाड़ियों को दूर ही रहना चाहिए। हालांकि यदि पहलवान इस तरह का आक्रोश ना जताते तो समूचे कुश्ती संघ का राजनीतिकरण यूं ही चलता रहता और अधिकारियों पर कोई अंकुश न नजर आता। सबसे अहम बात है कि इस पूरे प्रकरण से खिलाड़ियों के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ता। सरकार की जिम्मेदारी है कि विश्व पटल पर देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों की भावनाओं की अनदेखी ना हो।


Date:26-12-23

खट्टी -मीठी यादें देकर बीत रहा यह साल

विभूति नारायण राय, ( पूर्व आईपीएस )

हस्बे मामूल 2023 का सूरज भी डूब रहा है और रिवायत के ही अनुरूप उसका लेखा-जोखा भी होगा। हर जाने वाला वर्ष कुछ खट्टी-मीठी यादें छोड़ जाता है, सो इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस बार जाने वाला साल भी हमारे अनुभव संसार में ऐसे तमाम अनुभव जोड़कर व्यतीत हो रहा है, जिनमें से कुछ ने मनुष्यता को समृद्ध किया है और बहुतों को हम भविष्य में कभी दोहराना नहीं चाहेंगे ।

यह वर्ष दो त्रासद युद्धों का साक्षी रहा है। एक बड़ी मानवीय त्रासदी रूस-यूक्रेन युद्ध तो इसे विरासत में मिला। नाटो और यूरोपीय यूनियन की सदस्यता का लालच देकर अमेरिका समेत पश्चिमी दुनिया ने यूक्रेन को युद्ध में घसीट तो लिया, मगर जब रूस ने उस पर हमला किया, तो कोई उसकी तरफ से लड़ने नहीं आया और एक महाबली के सामने सींकिया पहलवान की तरह उसे रिंग में अकेला छोड़ दिया गया। यह अलग बात है कि इस बड़े पहलवान ने भी जितनी आसान कुश्ती समझी थी, उतनी यह निकली नहीं। छोटा अपने कद से ऊपर उछल-उछलकर जो पंच मार रहा है, उससे बड़े का हुलिया बिगड़ रहा है। इस युद्ध में कई मुकाम तो ऐसे आए, जब सवाल उठने लगे कि कहीं रूस यूक्रेन में अफगानिस्तान तो नहीं दोहरा रहा है।

साल खत्म होते-होते तीन अब्राहमिकल धर्मों के आस्था के केंद्र येरुशलम के ईद-गिर्द एक दूसरी त्रासदी घटित हुई । 75 साल से सुलगने वाली और बीच-बीच में अपनी लपटों से झुलसा देने वाली फलस्तीनी समस्या ने एक बार फिर जॉर्डन नदी और मेडिटरेनियन महासागर के बीच की धरती को दावानल-सा अपने आगोश में जकड़ लिया है । 7 अक्तूबर की अलसुबह गाजा पट्टी में सक्रिय हमास ने सबको चौंकाते हुए इजरायल पर एक साथ हजारों मिसाइलें दागीं। बीच की सुरक्षा तारबंदी को तहस-नहस करते हुए उसके हजार से अधिक लड़ाके इजरायली गांवों में घुस गए और उन्होंने 1,500 से अधिक स्त्रियों और पुरुषों को, जिनमें बच्चे तथा बूढ़े भी बड़ी संख्या में थे, मार डाला। ढाई सौ से भी अधिक इजरायली और विदेशी नागरिकों का अपहरण कर गाजा ले जाया गया। यह एक रहस्य ही है कि पिछले मौकों पर इजरायल की प्रतिक्रिया से भली-भांति वाकिफ अल हमास के नेतृत्व ने ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाया होगा? इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने घोषित किया कि युद्ध शुरू तो हमास ने किया है, पर उसे खत्म हम करेंगे। हो भी यही रहा है। ध्वंस और क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए इजरायल बच्चों और औरतों समेत बीस हजार से ज्यादा नागरिकों को मारने के अलावा लगभग सारे अस्पतालों तथा आधे गाजा को खंडहर में तब्दील कर चुका है। अपनी घोषणा के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र महासभा और दुनिया भर के प्रतिनिधि संगठनों की अपील के बावजूद नेतन्याहू अपनी जिद पर टिके हुए हैं कि युद्ध वही खत्म करेंगे और इस साल उनका युद्ध-विराम का कोई इरादा नहीं लग रहा है ।

आईएमएफ की उपप्रधान गीता गोपीनाथन ने दुनिया के बुरी तरह से बंट जाने के फलस्वरूप एक नए शीतयुद्ध और फलस्वरूप वैश्विक अर्थव्यवस्था में खतरनाक हद तक होने वाली गिरावट की चेतावनी दी है। इस साल यह बंटवारा हर क्षेत्र में दिखा। सोवियत संघ के पतन के बाद और कुछ वर्षों पूर्व तक एकध्रुवीय लगने वाली दुनिया में रूस, चीन, उत्तरी कोरिया और ईरान समेत कई देशों का एक दूसरा ध्रुव भी उभर आया है और यूक्रेन या फलस्तीन संघर्ष के दौरान यह विभाजन बड़ा स्पष्ट दिखने लगा है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और जाते-जाते यह वर्ष आने वाली भयानक आशंकाओं की तरफ इशारा करता गया है ।

पूरी दुनिया में दक्षिण के उभार ने ‘प्रवसन’ और ‘इस्लामोफोबिया’ जैसे शब्दों को राजनीतिक विमर्श का जरूरी हिस्सा बना दिया है। इटली, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और स्कैंडिनेवियाई देशों में प्रवासियों, खास तौर से मुस्लिम शरणार्थियों को आसानी से वीजा न दिए जाने की मांगों’वाली बहसें तेज हो गई हैं। इस वैचारिक विभाजन का एक उदाहरण इस रूप में भी आया कि हॉर्वर्ड , एमआईटी और पेंसिल्वेनिया जैसे दुनिया के नामी विश्वविद्यालयों के मुखिया अमेरिकी सीनेट के कठघरे में खड़े किए गए कि उनके संस्थानों में कुछ छात्रों ने फलस्तीन युद्ध के खिलाफ निकले जुलूसों में यहूदियों के नरसंहार की खुलेआम वकालत की थी।’

यह वर्ष ‘डीपफेक’ और ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के भयावह नतीजों और अनगिनत कल्याणकारी संभावनाओं की तरफ इशारा करने के चलते भी अगले सालों में याद किया जाएगा।

साल 2023 में देश में भी क्षैतिज विभाजन बड़ा स्पष्ट दिखने लगा है। लोग या तो भक्त हैं या विरोधी, बीच का भूरा रंग धूमिल हो गया है। अगले साल होने वाले आम चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और पांच राज्यों में उसका सेमीफाइनल खेला जा चुका है। फाइनल का कुछ-कुछ पूर्वाभास भी होने लगा है, मगर काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि विरोधी दलों का गठबंधन कितनी मजबूती से चुनावी जमीन पर अपने पैर जमा पाएगा। संसदीय इतिहास में नए कीर्तिमान के रूप में ज्यादातर विपक्ष को निलंबित करके सत्ता पक्ष अपना काम-काज चलाता रहा। अपने नए घर में स्थापित संसद ने वर्ष खत्म होते-होते 1860 के दशक में बने फौजदारी कानूनों के स्थान पर नई संहिताएं बनाई हैं, जो काफी हद तक पुरानी बोतल में नई शराब की तरह हैं। आने वाला समय उनका सही मूल्यांकन करेगा।

गनीमत है कि इस साल अर्थव्यवस्था कमोबेश ठीक पटरी पर रही। आधारभूत संरचनाओं पर बढे़ खर्च ने छह प्रतिशत से अधिक जीडीपी वृद्धि के साथ भारत को बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज बढ़ने वाली बनाए रखा। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कुछ खास उल्लेखनीय नहीं घटा। एजेंडे के साथ बनी कुछ प्रॉपेगैंडा फिल्मों ने पैसा भले कमाया हो, पर किसी बड़ी रचनात्मक उपलब्धि के रूप में शायद ही किसी को याद किया जाएगा। साहित्य अकादेमी जरूर इस वर्ष हिंदी का सम्मान खामोशी से रचनारत महत्वपूर्ण लेखक संजीव को देकर बदनामी के दाग को कुछ हद तक धोने में सफल हुई है।

अगले वर्ष के पहले माह में ही उस परिसर का उद्घाटन होगा, जो धार्मिक आस्था से अधिक एक बड़े समुदाय के लिए विजय का प्रतीक बना दिया गया है। जब अयोध्या में राममंदिर का उद्घाटन होगा, तब सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि भारतीय समाज में हार-जीत के इस प्रतीक को क्या पिछला भुलाकर आगे बढ़ने के संकल्प में तब्दील किया जा सकता है ?


Date:26-12-23

ज्यादा जरूरतमंद जिलों में नजर आने लगा बदलाव

अशोक भगत, ( समाजसेवी )

देश के पिछड़े इलाकों का तेज विकास जरूरी है और अगर ऐसे इलाकों को लक्ष्य बनाकर काम किया जा रहा है, तो यह स्वागतयोग्य है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आग्रह पर शुरू की गई आकांक्षी जिला योजना इन दिनों चर्चा में है। माओवादी उग्रवाद उन्मूलन को ध्यान में रखकर इस योजना को तैयार किया गया था। उल्लेखनीय है कि विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने भी इस योजना की सराहना की है। यूएनडीपी की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले उपेक्षित और माओवादी चरमपंथ से प्रभावित दूरदराज के जिलों का ‘आकांक्षी जिला कार्यक्रम’ के तहत पिछले वर्षों में अच्छा विकास हुआ है। यही नहीं, यूएनडीपी ने अपनी रिपोर्ट में इस योजना को स्थानीय क्षेत्र विकास के लिए बेहद सफल मॉडल बताया है। साथ ही, यह भी कहा है कि जिन देशों में क्षेत्रीय भेदभाव है, वहां यह मॉडल उपयोगी साबित हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बाद इस व्यापक योजना पर चर्चा ज्यादा तेज हुई है। आकांक्षी जिला योजना की शुरुआत प्रधानमंत्री ने 14 अप्रैल, 2018 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर से की थी। यह क्षेत्र नक्सल प्रभावित है और यहां विकास की रफ्तार अपेक्षाकृत कम है। इस योजना के तहत देश के 27 राज्यों के कुल 112 जिलों को जोड़ा गया। ये देश के ऐसे जिले हैं, जहां सामाजिक-आर्थिक संकेतकों का बुरा हाल है, जहां करीब 25 करोड़ लोग रहते हैं। देश के विकास के लिए इन जिलों का विकास बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान देने की बात है कि विकास के अभाव में इन जिलों में असामाजिक और देश विरोधी शक्तियां भी फल-फूल रही थीं।

बहरहाल, इस योजना को सफल बनाने के लिए कई कार्यक्रमों और अनेक विभागों को एक साथ लाया गया है। इसके तहत एक मानक मापदंड तय किया गया, जिसमें स्वास्थ्य एवं पोषण, शिक्षा, कृषि एवं जल संसाधन, बुनियादी ढांचा, कौशल विकास एवं आर्थिक समावेशन आदि को शामिल किया गया है। यदि हम झारखंड की बात करें, कुल 24 में से 19 जिले इस योजना के अंतर्गत शामिल किए गए हैं। नीति आयोग ने इन जिलों में से खासकर पाकुड़, चतरा और गुमला पर विशेष ध्यान देने की बात कही। ध्यान रहे, हजारीबाग, रामगढ़, चतरा, गुमला, रांची तथा पलामू के कार्यों की सराहना नीति आयोग ने भी की है। बिहार के भी 12 जिले इसमें शामिल हैं, मगर अभी इन जिलों में काम की ज्यादा सराहना नहीं हो रही है।

इस योजना को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इस योजना की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल चंदौली और सोनभद्र का कायाकल्प होता दिख रहा है। झारखंड के सिमडेगा, मध्य प्रदेश के राजगढ़, बिहार के जमुई आदि जिलों में योजना का प्रभाव साफ-साफ दिखने लगा है। सफलता को देखते हुए उम्मीद है कि आने वाले दिनों में सरकार देश के 329 जिलों के 500 आकांक्षी प्रखंडों में इसको लागू कर सकती है।

आज यह परखना महत्वपूर्ण है कि योजना के तहत कैसे काम हो रहा है? गुमला जिले में कृषि के क्षेत्र में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सूक्ष्म सिंचाई योजना का बड़े पैमाने पर जिले में फैलाव हुआ है, जिससे नगदी फसलों का अच्छादन बढ़ा है। मनरेगा के तहत जलाशयों का जीर्णोद्धार व निर्माण कार्य कराया गया, जिससे जल भंडारण के साथ फसल आच्छादन में भी वृद्धि हुई है। ‘किसान दो फसल या बहु-फसल की ओर बढ़ रहे हैं। फसल सघनता 112 से बढ़कर 128 प्रतिशत हो गई है।’

किसान टिकाऊ ‘कृषि को अपनाने लगे हैं। जमीनी स्तर पर देखें, तो पिछड़े जिलों में सोयाबीन, मूंगफली, अदरक, मक्का, आलू व मटर की खेती बड़े पैमाने पर होने लगी है। रासायनिक खादों के उपयोग में कमी आई है और जैविक खादों का प्रचलन बढ़ा है। उत्पादन या खाद्यान्न की गुणवत्ता बढ़ी है, इसके साथ ही किसानों की कमाई में इजाफा हुआ है, जिससे साफ-सफाई और शिक्षा में भी सुधार दिख रहा है। जब यह योजना सही काम करती दिख रही है, तब इसकी कमियों को दूर करने की दिशा में भी तेजी से काम करना चाहिए।


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