23-12-2023 (Important News Clippings)

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23 Dec 2023
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Date:23-12-23

सामूहिक कायरता के लिए सामूहिक दंड मिले

संपादकीय

कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक फैसले में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की जगह ‘बेटा पढ़ाओ’ (यानी सुसंस्कृत करो) अमल में लाने को कहा है। मुख्य न्यायाधीश वाली एक खंडपीठ उस घटना की सुनवाई कर रही थी, जिसमें राज्य की एक महिला को नग्न घुमाया गया और पूरा गांव इसे देखता रहा। कोर्ट ने लोगों की निष्क्रियता को ‘सामूहिक कायरता’ बताते हुए इस पर सामूहिक दंड का प्रावधान करने को कहा है। जब समाज के लोग ऐसी शर्मनाक घटना पर भी चुपचाप खड़े रहते हैं तो इसे अपराध उद्दीपन (उकसाना) मानकर पूरे गांव पर सामूहिक दंड लगाना चाहिए। कोर्ट का कहना था कि बेटी पढ़ाने से ज्यादा जरूरी हो गया है अपने बेटे को नैतिक शिक्षा देना ताकि वह महिलाओं का सम्मान करे । हाल के दौर में कई राज्यों में स्कूलों में लड़कियों के दाखिले तो बढ़े लेकिन उन्हें मारने और तेजाब फेंकने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। नतीजतन अभिभावक डर के मारे फिर लड़कियों को स्कूल कॉलेज भेजने से बचने लगे हैं। नैतिक शिक्षा देने वाली संस्थाएं खत्म हो रही हैं और मोबाइल पर हर वह तस्वीर उपलब्ध होने से जो बाल-किशोर मस्तिष्क को विषाक्त बनाती है, बच्चों का व्यक्तित्व बीमार और मानसिकता आपराधिक होने लगी है। यही कारण है किशोर वय के लड़के दुष्कर्म और हत्या में लिप्त पाए जा रहे हैं।


Date:23-12-23

सांसदों का निलंबन यानी लोगों की आवाज बंद कर देना!

डेरेक ओ ब्रायन, ( लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं )

इन पंक्तियों के लेखक को 14 दिसम्बर, 2023 को एक नोटिस प्रस्तुत करने, ‘संसद में राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर उल्लंघन’ पर गृह मंत्री से एक बयान देने की मांग करने और चर्चा का आग्रह करने के लिए संसद से निलंबित कर दिया गया था! तब से यह स्तम्भकार ‘मौन व्रत’ (साइलेंट प्रोटेस्ट) पर है! 9 दिनों तक स्वयं पर थोपे गए इस मौन के बाद यह स्तम्भकार की ओर से पहला बयान है। कोई टिप्पणी नहीं, सिर्फ तथ्य!

14 दिसम्बर को दोपहर बारह बजे पहले सांसद को निलंबित कर दिया गया। इन पंक्तियों के प्रेस में जाने तक 145 और सांसदों को संसद के दोनों सदनों से प्रतिबंधित कर दिया गया है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे समझने के लिए इस पर विचार करें- कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए1 और यूपीए2) की सरकार के 10 वर्षों के समूचे कार्यकाल में लगभग कुल 50 सांसदों को ही संसद से निलंबित किया गया था।

एक त्वरित गणना से पता चलता है कि लोकसभा से निलंबित हुए 100 संसद सदस्य 15 करोड़ से भी अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं राज्यसभा से निलंबित किए गए 46 सांसद लगभग 19 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे शब्दों में, 34 करोड़ लोगों (देश की लगभग 25 प्रतिशत आबादी) की आवाज दबा दी गई है!

146 निलंबित सांसदों की राज्यवार सूची और वे कितने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसे देखने पर पता चलता है कि असम से तीन सांसदों को निलंबित किया गया है, जो 83 लाख मतदाताओं के जनप्रतिनिधि हैं। बिहार के 3.7 करोड़ मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों को प्रतिबंधित किया गया है।

गोवा और हिमाचल प्रदेश राज्यों से एक-एक सांसद सस्पेंड हुए, वे क्रमश: 6 और 13 लाख मतदाताओं के प्रतिनिधि हैं। गुजरात के 1.2 करोड़ मतदाताओं के प्रतिनिधि तीन सांसद भी निलंबित कर दिए गए हैं।

जम्मू और कश्मीर से 40 लाख मतदाताओं के प्रतिनिधि तीन सांसद निलंबित हुए हैं।

इसी तरह झारखंड (50 लाख मतदाता), कर्नाटक (1.95 करोड़ मतदाता), केरल (4.4 करोड़ मतदाता), लक्षद्वीप (55 हजार मतदाता), मध्य प्रदेश (62 लाख मतदाता), महाराष्ट्र (2.3 करोड़ मतदाता), राजस्थान (2.2 करोड़ मतदाता) के सांसदों की आवाज भी अब खामोश करा दी गई है।

निलंबित होने वाले सांसदों में ओडिशा (14.3 लाख मतदाता), पुडुचेरी (9.7 लाख मतदाता), पंजाब (1.1 करोड़ मतदाता), तमिलनाडु (6 करोड़ मतदाता), उत्तर प्रदेश (1.5 करोड़ मतदाता), पश्चिम बंगाल (5.8 करोड़ मतदाता) के जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं।

इन सबकी आवाज अब संसद के जरिए देशवासियों तक नहीं पहुंच सकेगी!


Date:23-12-23

उत्तर दक्षिण को बांटने की घातक प्रवृत्ति

प्रणय कुमार, ( लेखक शिक्षाविद एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं )

हाल के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद कुछ दलों द्वारा उत्तर बनाम दक्षिण के बीच के कथित भेद को बढ़ावा एवं तूल देने का प्रयास किया गया। उत्तर-दक्षिण को बांटने की यह प्रवृत्ति नई नहीं है। निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु तमाम राजनीतिक दलों द्वारा समय-समय पर इस विभाजनकारी विषबेल को सींचने की कुचेष्टा की जाती रही है। इसे आर्य बनाम द्रविड़, मूल बनाम बाहरी, काली चमड़ी बनाम गोरी चमड़ी तथा हिंदी बनाम गैर-हिंदी विमर्श का ही विस्तार माना जा सकता है। मतगणना वाले दिन जैसे ही यह साफ हुआ कि कांग्रेस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हार रही और तेलंगाना में जीत रही, वैसे ही कांग्रेस नेता प्रवीण चक्रवर्ती ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘उत्तर-दक्षिण सीमा रेखा मोटी और स्पष्ट होती जा रही है।’ बाद में उन्होंने यह पोस्ट हटा दी। इसी दिन कार्ति चिदंबरम ने सिर्फ दो शब्द ‘द साउथ’ पोस्ट किए। आशय यह जताना था कि दक्षिण के मतदाता उत्तर की तुलना में अधिक सचेत, प्रगतिशील एवं परिपक्व हैं। हद तो तब हो गई, जब डीएमके सांसद डीएनवी सेंथिल कुमार ने संसद में कहा कि ‘इस देश के लोगों को सोचना चाहिए कि भाजपा की ताकत बस इतनी है कि वह मुख्य तौर पर गौमूत्र वाले राज्यों में ही जीत सकती है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘भाजपा दक्षिण भारत में नहीं आ सकती, क्योंकि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में हम बहुत मजबूत हैं।’ तेलंगाना के नवनियुक्त मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी द्वारा अपने डीएनए को बिहारी डीएनए से बेहतर बताने वाला बयान भी उत्तर-दक्षिण के बीच विभाजन पैदा करने की मंशा को ही दर्शाता है।

यह विडंबना ही है कि स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत पर सर्वाधिक अधिकार जताने तथा संपूर्ण देश में जानी-पहचानी जाने वाली कांग्रेस का स्वर आज क्षेत्रीय दलों-सा होता जा रहा है। यह देखकर सचमुच निराशा होती है कि जो कांग्रेस कभी जोड़ने की बात करती थी और एकता एवं अखंडता का दम भरती थी, उसे आज कभी मजहबी तुष्टीकरण तो कभी जातीय एवं क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार में अपना भविष्य दिखाई देता है। कांग्रेस के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों को यह याद रखना होगा कि इस देश की मूल प्रकृति और संस्कृति जुड़ने-जोड़ने की है। यहां ऊपरी तल पर दिखाई देने वाले भेदभावों के भीतर सांस्कृतिक एकता की अंतर्धारा सदा प्रवाहित रहती है। कदाचित जुड़ने-जोड़ने की इसी भावना के कारण दक्षिण में पैदा हुए आदिगुरु शंकराचार्य को संपूर्ण देश ने सिर-माथे बिठाया। सांस्कृतिक तल पर देश को जोड़ने के उनके सद्प्रयासों को व्यापक स्वीकृति एवं अभूतपूर्व सफलता मिली। कथित तौर पर प्रचारित उत्तर-दक्षिण के भेद में यदि आंशिक सत्यता भी होती तो दक्षिण के संतों-दार्शनिकों का उत्तर में समान रूप से लोकप्रिय और स्वीकृत हो पाना संभव नहीं होता। क्या यह सत्य नहीं कि कण्व, अगस्त्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, शंकराचार्य आदि ऋषि वैदिक संस्कृति के सर्वमान्य एवं सर्वकालिक आचार्यों, उन्नायकों एवं दार्शनिकों में सर्वप्रमुख थे? वर्तमान में भी सांस्कृतिक एकता के अनेक ऐसे सूत्रधार, व्याख्याकार, आस्था-केंद्र, प्रतीक-स्थल आदि मौजूद हैं, जिनकी राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता है। क्या श्रीश्री रविशंकर, सद्गुरु जग्गी वासुदेव, माता अमृतानंदमयी आदि की अखिल भारतीय स्वीकार्यता एवं अपील पर किसी को कोई संदेह हो सकता है? क्या इसमें भी कोई दो राय होगी कि सूचना, तकनीक एवं यातायात के बढ़ते साधनों ने आज देश-दुनिया के बीच की दूरी को कम करते हुए विश्वग्राम की संकल्पना को कुछ अर्थों में साकार किया है? क्या यह भी बताने की आवश्यकता है कि आज संपूर्ण देश के युवाओं में एक जैसी भावनाएं और आकांक्षाएं हैं। वे उत्तर-दक्षिण के संकुचित दायरों एवं संकीर्णताओं से परे राष्ट्र के नवनिर्माण और विकास में रचनात्मक और सार्थक भूमिका एवं भागीदारी चाहते हैं। वे एक ओर जहां सफलता के शिखर को छूना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने राष्ट्र को भी ऊंचाई पर देखना चाहते हैं। सच तो यह है कि कांग्रेस युवाओं की नब्ज टटोलने में भूल कर रही है।

भाजपा जहां काशी-तमिल संगमम, सौराष्ट्र-तमिल संगमम जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अपनी तमाम नीतियों-योजनाओं के माध्यम से विकसित भारत, समर्थ भारत, सशक्त भारत के साथ 2047 तक भावी भारत की चमकदार छवि प्रस्तुत कर रही है, वहीं कांग्रेस अभी भी ओबीसी आरक्षण, जातीय जनगणना, उत्तर-दक्षिण जैसे विभेदकारी मुद्दों और विमर्श के भरोसे वोट बटोरने की आस लगाए बैठी है। लोकमत की अवमानना करने या मतदाताओं की समझ पर सवाल उठाने के स्थान पर कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को यह सोचना होगा कि आज का भारत लिंग, जाति, भाषा, प्रांत और मजहब आदि से ऊपर उठकर विकसित विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है।

यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि क्या सचमुच भाजपा का जनाधार दक्षिण में नगण्य है? आंकड़े बताते हैं कि भाजपा दक्षिण में भी एक उभरती हुई राजनीतिक शक्ति है। 2018 के 6.98 प्रतिशत और महज एक सीट की तुलना में इस बार के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में उसका वोट प्रतिशत लगभग 14 और सीटों की संख्या बढ़कर आठ तक पहुंच गई। भाजपा को केवल उत्तर तक सीमित मानने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने कर्नाटक की 28 में से 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी। आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से कर्नाटक और तेलंगाना में उसे सिरे से खारिज करना जमीनी सच्चाई को नकारना है। के. अन्नामलाई को तमिलनाडु का प्रमुख बनाए जाने के बाद से भाजपा इस राज्य में भी लोकप्रिय हो रही है। याद रहे कि बीते दो विधानसभा चुनावों से कांग्रेस केरल और आंध्र प्रदेश तथा 1971 से तमिलनाडु की सत्ता से दूर है। तो क्या इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाए कि इन राज्यों के मतदाताओं का सोच संकुचित एवं पिछड़ा है? निःसंदेह ऐसा विभाजनकारी सोच एवं राजनीति उत्तर-दक्षिण समेत अंततः संपूर्ण देश के लिए घातक सिद्ध होगी।


Date:23-12-23

अनुशासन प्रक्रिया को व्यवस्थित बनाया जाए

एम एस साहू और सुमित अग्रवाल, ( लेखक राष्ट्रीय वि​धि विश्वविद्यालय दिल्ली के वि​शिष्ट प्राध्यापक और रेगस्ट्रीट लॉ एडवाइजर्स के पार्टनर हैं )

चॉइस इक्विटी ब्रोकिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया लिमिटेड के मामले में प्रतिभूति अपील पंचाट (एसएटी) ने बाजार अधोसंरचना संस्थान (एमआईआई) के एक फैसले को 6 नवंबर को पलट दिया जिसमें उसने एक कारोबारी सदस्य पर जुर्माना लगाया था। एसएटी ने कहा कि वह आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का सीधा उल्लंघन था क्योंकि उसे बिना कारण बताओ नोटिस या सुनवाई का अवसर दिए आदेश दे दिया गया था। उसने एमआईआई को निर्देश दिया कि वह अपने सदस्यों के खिलाफ दंड की कार्रवाई के लिए एक प्रक्रिया आरंभ करे। इसमें एमआईआई के लिए एक सबक है। उन सभी की निर्णय प्रक्रिया में कहीं न कहीं सुधार की गुंजाइश है। एमआईआई संस्थान हैं। उनकी तीन श्रेणियां हैं: एक्सचेंज (शेयर, कमोडिटी और मुद्रा), क्लियरिंग कॉर्पोरेशन और डिपॉजिटरी। वे बाजार को बुनियादी ढांचा मुहैया कराती हैं।

लाइसेंसशुदा उपयोगकर्ताओं के एक समूह की पहुंच एमआईआई के बुनियादी ढांचे तक होती है ताकि वे लेनदेन में निवेशकों की मदद कर सकें। कारोबारी सदस्य निवेशकों के लिए प्रतिभूतियों का कारोबार करते हैं और इसके लिए वे एक एक्सचेंज का इस्तेमाल करते हैं। डिपॉजिटरी प्रतिभागी निवेशकों की प्रतिभूतियों के स्वामित्व का रिकॉर्ड रखती हैं और इसके लिए डिपॉजिटरी की अधोसंरचना का इस्तेमाल किया जाता है। क्लियरिंग सदस्य निवेशकों के कारोबार का निपटान करते हैं और इस काम में क्लियरिंग कॉर्पोरेशन के बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल किया जाता है। वहीं इश्यूअर निवेशकों को प्रतिभूतियां जारी करते हैं। इसके लिए एक्सचेंजों और डिपॉजिटरी के बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल किया जाता है। एमआईआई इन उपयोगकर्ताओं के आचरण का नियमन करके निवेशकों और बाजार के हितों की रक्षा करते हैं।

इन एमआईआई में से स्टॉक एक्सचेंज तो सदियों से मौजूद हैं। लंबे समय से उन्होंने विशेष तौर पर प्रतिभूति बाजार और उनके उपयोगकर्ताओं का नियमन किया है। हाल के दशकों में उनका वर्चस्व कम हो गया क्योंकि उनकी वाणिज्यिक आकांक्षाओं और नियामकीय आदेश के बीच विवाद की स्थिति बनने लगी। इसके साथ ही सांविधिक नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) भी नए क्षेत्रों की तलाश कर रहा है। एमआईआई अब प्रमुख नियामक हैं। वे प्रमुख नियामक सेबी के विस्तार के रूप में काम करते हैं। नियामकीय भाषा में उन्हें सेबी का प्रतिनिधि माना जाता है जबकि संविधान के अनुच्छेद 12 के अधीन कानून उन्हें ‘राज्य’ मानता है। सेबी और एमआईआई दोनों की जवाबदेहियां एक समान हैं। मिसाल के तौर पर प्रतिभूतियों में निवेशकों के हितों का बचाव करना और प्रतिभूति बाजार का विकास तथा नियमन।

समय के साथ सेबी ने कई बेहतरीन संचालन व्यवहारों को अपना लिया। उसने अक्सर ऐसा स्वेच्छा से किया। उसने लोकतांत्रिक होने के क्रम में दशकों पहले नियम निर्माण के लिए स्वेच्छा से सार्वजनिक मशविरे की प्रक्रिया अपना ली थी। हालांकि कानून अंशधारकों के अधिकारों का उल्लंघन करने की उनकी क्षमता को देखते हुए शक्तियों के प्रयोग की कई उत्कृष्ट प्रथाओं को अनिवार्य करता है। उदाहरण के लिए केवल संचालन बोर्ड ही अर्द्ध विधायी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकता है। सेबी द्वारा शक्तियों के प्रयोग के लिए अनिवार्य ऐसी प्रथाएं एमआईआई पर भी लागू होनी चाहिए जब वे समान शक्तियों का प्रयोग करते हैं।

सन 1990 के दशक के आरंभ की चर्चाओं को याद कीजिए जो सेबी को मौद्रिक जुर्माना लगाने का अधिकार देने के संबंध में हो रही थीं क्योंकि अन्य विकल्प कारगर नहीं थे। उस समय यह सोचा ही नहीं जा सकता था कि सरकार के बाहर किसी एजेंसी को जुर्माना लगाने का अधिकार दिया जा सकता है। नियामकीय संचालन के क्षेत्र के अग्रणी लोगों के कुछ प्रयासों की बदौलत यह कुछ शर्तो के अधीन तैयार हुआ: (क) कानून में कई उल्लंघनों और संबंधित मौद्रिक जुर्मानों का उल्लेख है (ख) एक निर्णय प्रक्रिया के माध्यम से जुर्माने की राशि का निर्धारण, जुर्माने की राशि भारतीय समेकित नि​धि में जाती है (ग) एक अपील फोरम संबंधित निर्णय के खिलाफ अपीलों पर विचार करता है और (घ) विस्तृत निर्णय प्रक्रिया के लिए सांविधिक नियम। समय के साथ इस व्यवस्था का विभिन्न नियामकीय कानूनों में अनुकरण किया गया।

वर्ष 2023 की बात करें तो सेबी और एमआईआई दोनों के पास पारंपरिक निर्णय लेने के अधिकार हैं और वे कई तरह के जुर्माने लगा सकते हैं। जुर्माना शब्द में निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए दिए गए निर्देश शामिल हैं। ये निर्देश एसएटी द्वारा 15 दिसंबर को एडलवाइस कस्टोडियल सर्विसेज लिमिटेड बनाम एनएसई क्लियरिंग लिमिटेडएवं अन्य के मामले में दोहराए गए थे। इसमें मौद्रिक जुर्माना, यूजर के अधिकारों का निलंबन, निकासी या उन्हें समाप्त करना और पुनर्गठन के आदेश तक सभी शामिल हैं। एमआईआई हर वर्ष तकरीबन 10,000 उपयोगकर्ताओं या सूचीबद्ध कंपनियों के खिलाफ प्रक्रिया शुरू करता है जिसके अंत में कई तरह के निर्देश और जुर्माने सामने आते हैं। उनमें से सभी निर्णय प्रक्रिया या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार नहीं होते।

निर्णय प्राय: किसी व्यक्ति की निंदा करने या उसकी आजीविका छीनने वाले हो सकते हैं। ऐसे में दुनिया भर में विधिक ढांचा इस प्रकार तैयार होना चाहिए कि सही निष्कर्ष निकलें। सेबी और एमआईआई के निर्णय समान लक्ष्यों को लेकर होते हैं और उनके परिणाम भी एक जैसे होते हैं तथा वे सरकार की शाखाएं हैं इसलिए ऐसी कोई वजह नहीं है कि ऐसे निर्णय के लिए विधिक प्रावधान नहीं होने चाहिए। एमआईआई द्वारा मजबूत निर्णय के लिए जरूरी है:

(क) संबद्ध मौद्रिक जुर्मानों के साथ उल्लंघनों की एक सूची, उन उल्लंघनों को निर्देशित करना जो उपयोगकर्ता की पहुंच को निलंबित करना या रद्द करना या किसी जारीकर्ता के व्यापार/डीलिस्टिंग को निलंबित करना आवश्यक बनाते हैं।

(ख) एक निर्णय अधिकार जो अक्सर कोई वरिष्ठ अधिकारी होता है या अधिकारियों का पैनल होता है (एमआईआई का बोर्ड नहीं) तथा जो न्यायिक निर्णय में प्रशिक्षित हों और निर्णय संबंधी खोज प्रक्रिया से जुड़े न हों

(ग) जुर्माना वसूलने तथा भारतीय समेकित नि​धि में जमा करने की व्यवस्था
(घ) उल्लंघनों के निस्तारण के लिए एक संस्था और

(च) एक बाहरी अपीलीय प्राधिकार (एमआईआई का निदेशक मंडल नहीं) जो निर्णय संबंधी आदेशों से पीड़ितों की अपील पर विचार कर सके।

सेबी नियमन में व्यवस्था होनी चाहिए:

(क) कारण बताओ नोटिस जारी करने की जिसमें तथ्यों की जांच के बाद कथित गलत आचरण का ब्योरा हो जो कि एक उल्लंघन है और उल्लंघन स्थापित होने के बाद प्रस्तावित दिशा

(ख) एमआईआई के अधिकार वाली सभी प्रासंगिक सामग्रियों की आपूर्ति जो या तो आरोपों को स्थापित करे या उन्हें सीमित करे

(ग) आरोपित को यह अवसर कि वह लिखित रूप से या अधिकारी के समक्ष आरोपों का खंडन कर सके (घ) नोटिस को कम करने और आनुपातिकता के सिद्धांत पर विचार करते हुए कारण बताओ नोटिस का उचित आदेश द्वारा निपटान करना

(च) प्रत्येक निर्णय का सार्वजनिक रूप से प्रसार मसलन सेबी या एसएटी के आदेशों का

(छ) प्राधिकारियों और पक्षकारों द्वारा कारण बताओ नोटिस के निस्तारण तथा विभिन्न कामों के लिए समय सीमा। एमआईआई को लंबित सांविधिक प्रावधानों के बीच अपने आंतरिक नियमन में स्वेच्छा से न्यायिक अनुशासन लाना चाहिए।

वे जुर्मानों के निपटान के लिए एक विशेष एजेंसी के इस्तेमाल पर भी विचार कर सकते हैं। इससे इसे लेकर भरोसा बढ़ेगा और एमआईआई की संस्थागत वैधता बढ़ेगी।


Date:23-12-23

विवाद का अखाड़ा

संपादकीय

भारतीय कुश्ती महासंघ विवादों से बाहर नहीं निकल पा रहा। हालांकि लंबे इंतजार के बाद इसके पदाधिकारियों का चुनाव हो तो गया, मगर उसके अध्यक्ष पर पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के करीबी संजय सिंह के काबिज होने से एक नया विवाद शुरू हो गया है। इस जीत से निराश होकर साक्षी मलिक ने कुश्ती से संन्यास की घोषणा कर दी। पहलवान बजरंग पुनिया ने भी अपना पद्म श्री सम्मान लौटा दिया है। कहा जा रहा है कि संजय सिंह के जरिए कुश्ती महासंघ पर एक तरह से बृजभूषण शरण सिंह का ही कब्जा बना रहेगा। इसके संकेत भी चुनाव नतीजे आने के साथ ही मिलने शुरू हो गए थे। न केवल बृजभूषण शरण सिंह विजय जुलूस में शामिल हुए, बल्कि उनके घर के बाहर समर्थकों ने इस आशय का बैनर भी लगाया कि दबदबा बना रहेगा। गौरतलब है कि बृजभूषण शरण सिंह पर महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण का आरोप लगा था। इसे लेकर लंबे समय तक महिला खिलाड़ियों ने धरना-प्रदर्शन किया था। मगर खेल मंत्रालय का रवैया इस मामले में पक्षपातपूर्ण ही देखा गया था। तब अदालत के हस्तक्षेप से बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकी थी। फिर भी दिल्ली पुलिस जांच में कोताही बरतती देखी गई थी। अंतत: अदालत की सख्ती के बाद उनके खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल हो सका था।

जांचों से स्पष्ट है कि महिला खिलाड़ियों के प्रति बृजभूषण शरण सिंह का व्यवहार उचित नहीं था। इसलिए अदालत ने उनके और उनके परिवार के किसी सदस्य के महासंघ का चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। मगर संजय सिंह को चुनाव लड़ा कर एक तरह से बृजभूषण शरण सिंह ने फिर से महासंघ पर अपनी पकड़ बना ली है। ऐसे में खिलाड़ियों का भय, निराशा और आक्रोश समझा जा सकता है। खिलाड़ियों ने आंदोलन ही इस बात को लेकर छेड़ा था कि महासंघ को साफ-सुथरा और खिलाड़ियों के लिए अनुकूल वातावरण बनाया जा सके। मगर ऐसा हो न सका। सरकार का सकारात्मक रुख न होने की वजह से खिलाड़ियों ने पहले भी अपने पदक गंगा में विसर्जित करने का फैसला किया था। मगर उन्हें ऐसा करने से रोका और आश्वस्त किया गया था कि उनकी मांगें पूरी कराई जाएंगी। अब जब फिर से महासंघ पर बृजभूषण शरण सिंह की छाया बरकरार है, तो समझाना मुश्किल नहीं कि इन खिलाड़ियों के लिए उसमें रहना कितना मुश्किल होता।

दरअसल, यह स्थिति केवल कुश्ती महासंघ की नहीं है। हर खेल संघ में किसी न किसी तरह का विवाद देखा जा सकता है। इसलिए कि खेल संघों में राजनीतिक लोगों का प्रवेश रोका नहीं जा सका है। कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में उठे एक विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय ने लोढ़ा समिति की गठन किया था। उसने सुझाव दिया था कि बीसीसीआइ में खिलाड़ियों को ही पदाधिकारी बनाया जाना चाहिए और उनका एक पद पर कार्यकाल एक वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए। जब तक राजनीतिक लोगों को खेल संघों से दूर नहीं रखा जाएगा, तब तक इनमें अनियमितताओं को खत्म करना मुश्किल ही बना रहेगा। अगर बृजभूषण शरण सिंह जैसे लोगों का कुश्ती महासंघ में प्रवेश न हो पाता, तो शायद ऐसी स्थिति न आ पाती, जैसी इस समय है। जिन खिलाड़ियों ने विरोध में संन्यास लिया और अपना पद्म श्री लौटाया है, वे दुनिया में भारत का नाम ऊंचा कर चुके हैं। उनके आगे न खेल पाने से आखिरकार नुकसान देश का ही होगा।


Date:23-12-23

हरित ऊर्जा का बेहतर विकल्प हाइड्रोजन

रामानुज पाठक

इस वर्ष जनवरी में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को मंजूरी दी थी । हरित हाइड्रोजन में प्राकृतिक गैस सहित जीवाश्म ईंधन को ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रतिस्थापित करने की क्षमता है । हरित हाइड्रोजन मिशन में उर्वरक उत्पादन, पेट्रोलियम शोधन, स्टील, परिवहन आदि जैसे उद्योगों में हरित हाइड्रोजन के साथ भूरे हाइड्रोजन के प्रतिस्थापन की परिकल्पना की गई है, जिससे कार्बन उत्सर्जन और आयातित जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम होगी। इससे 2030 तक जीवाश्म ईंधन के आयात में एक लाख करोड़ रुपए तक की बचत होने का अनुमान है।

विद्युत अपघटन के माध्यम से एक किलोग्राम हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए लगभग दस लीटर अलवणीकृत पानी की आवश्यकता होती है। इस हिसाब से प्रतिवर्ष पांच एमएमटी हरित हाइड्रोजन उत्पादन के लिए लगभग पांच सौ लाख घनमीटर डिमिनरलाइज्ड (अलवणीकृत) पानी की आवश्यकता होगी। अधिकांश हरित हाइड्रोजन उत्पादन संयंत्र बंदरगाहों के पास स्थापित होने की उम्मीद है। हाइड्रोजन स्वच्छ, नवीकरणीय, कम उत्सर्जन वाला और उपयोग में सुरक्षित है। पानी को विद्युत अपघटित करके पानी से हाइड्रोजन निकाल सकते हैं। इसे ‘हरित’ बनाने के लिए बिजली नवीकरणीय स्रोतों से होनी चाहिए। ज्यादातर मामलों में, इस प्रक्रिया के लिए, सौर ऊर्जा का उपयोग किया जाता है।

हरित हाइड्रोजन मिशन में चार पद शामिल हैं। प्रथम पद हरित हाइड्रोजन संक्रमण के लिए रणनीतिक कौशल 17,490 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं, वहीं शुरुआती चरण के लिए 1486 करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया है। शोध और विकास के लिए 400 करोड़ रुपए। मिशन के अन्य घटकों के लिए 388 करोड़ आबंटित किए गए हैं। हाइड्रोजन संक्रमण के लिए रणनीतिक कौशल योजना के तहत हरित हाइड्रोजन और इलेक्ट्रोलाइजर (वैद्युत अपघट्य, जो जल से हाइड्रोजन और आक्सीजन मुक्त करता है) विनिर्माण परियोजनाओं के लिए बोलियां दिसंबर 2023 तक जमा की गई हैं। रणनीतिक हस्तक्षेप योजना के तहत भारत में हरित हाइड्रोजन के लिए साढ़े चार लाख टन की उत्पादन सुविधाएं स्थापित करने के लिए हरित हाइड्रोजन उत्पादकों के चयन के लिए अनुरोध भी बीते जुलाई माह में जारी किया गया था।

कुछ स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियां अब तक ऊर्जा परिवर्तन पर हावी रही हैं, जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और लिथियम आयन बैटरी इन प्रौद्योगिकियों के बड़े पैमाने पर निर्माण और तैनाती से उनकी लागत में गिरावट देखी गई है, 2010 और 2018 के बीच बैटरी की लागत में 84 फीसद सौर ऊर्जा के लिए 87 फीसद, तटवर्ती पवन ऊर्जा के लिए 47 फीसद और अपतटीय पवन ऊर्जा के लिए 32 फीसद की गिरावट आई है। इन प्रौद्योगिकियों का विकास और निर्माण बड़े पैमाने पर भारत के बाहर हुआ है। कंपनियों का झुकाव अमेरिका, यूरोप और चीन पर है। प्रौद्योगिकी नेतृत्वकर्ता बनने के लिए, इन देशों ने नवाचार श्रृंखला में पर्याप्त और उचित वित्तपोषण सुनिश्चित करके, सार्वजनिक और निजी दोनों वित्तीय व्यवस्था के साथ, प्राथमिकता वाली प्रौद्योगिकियों के लिए मजबूत आपूर्ति-उपयोग नीतियों को लागू किया है।

दुनिया अभूतपूर्व गति और पैमाने पर ऊर्जा के स्वच्छ, कम कार्बन स्रोतों की ओर संक्रमण के दौर से गुजर रही है। प्रौद्योगिकी वक्र में आगे रहना सभी देशों के लिए रणनीतिक महत्त्व का विषय है, लेकिन विशेष रूप से भारत के लिए, जो आने वाले दशकों में इन प्रौद्योगिकियों के लिए दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में से एक होगा। भारत को ऊर्जा परिवर्तन के लाभों को अधिकतम करने के लिए खुद को प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर स्थापित करने की जरूरत है। प्रौद्योगिकी निर्माता बनने की जरूरत है, न कि प्रौद्योगिकी क्रय करने वाला बनने की। हाइड्रोजन की शुरुआती मांग बाजारों में स्थापित होने के लिए ईंधन सेल, बिजली क्षेत्र में आपूर्ति और मांग को संतुलित करना और उद्योग में जीवाश्म ईंधन की जगह लेना शामिल है। भारत में हाइड्रोजन के उपयोग का संभावित पैमाना बहुत बड़ा है, जिसके 2050 तक तीन से दस गुना तक वृद्धि के अनुमान हैं।

अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजंसी द्वारा जारी ‘वर्ल्ड एजंसी ट्रांजिशन आउटलुक’ रपट के अनुसार वर्ष 2050 तक कुल ऊर्जा मिश्रण में हाइड्रोजन की हिस्सेदारी 12 फीसद तक हो जाएगी। एजंसी ने यह भी सुझाव दिया था कि उपयोग किए जाने वाले इस हाइड्रोजन का लगभग 66 फीसद हिस्सा प्राकृतिक गैस के बजाय जल से प्राप्त किया जाना चाहिए। स्वच्छ वैकल्पिक ईंधन विकल्प के लिए हाइड्रोजन पृथ्वी पर सबसे प्रचुर तत्त्वों में से एक है। यह ऊर्जा की अधिक मात्रा का वितरिण या संग्रहण कर सकता है। वर्तमान में पेट्रोलियम शोधन और उर्वरक उत्पादन में हाइड्रोजन का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है, जबकि परिवहन एवं अन्य उपयोगिताएं इसके लिए उभरते बाजार हैं। हाइड्रोजन और ईंधन सेल वितरित या संयुक्त ताप तथा शक्ति सहित विविध अनुप्रयोगों में उपयोग के लिए ऊर्जा प्रदान कर सकते हैं। अतिरिक्त ऊर्जा, अक्षय ऊर्जा भंडारण और इसे सक्षम करने के लिए, तंत्र चालित बिजली आदि के लिए इनका उपयोग किया जा सकता है। इनकी उच्च दक्षता और शून्य या लगभग शून्य उत्सर्जन संचालन के कारण हाइड्रोजन और ईंधन सेलों जैसे कई अनुप्रयोगों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की कम करने की क्षमता है।

इस समय दुनिया भर में कुल उत्पादित हाइड्रोजन का एक से डेढ़ फीसद हिस्सा ही हरित हाइड्रोजन का होता है। हरित हाइड्रोजन के अधिक उत्पादन के लिए इलेक्ट्रोलाइजर के निर्माण और संस्थापन को 0.3 गीगा वाट की वर्तमान क्षमता से वर्ष 2050 तक अभूतपूर्व दर से लगभग 5000 गीगावाट तक बढ़ाना आवश्यक है । भारत उर्वरक और रिफाइनरियों सहित औद्योगिक क्षेत्र में अमोनिया और मेथेनाल के उत्पादन हेतु प्रतिवर्ष लगभग 60 से 70 लाख टन हाइड्रोजन की खपत करता है। उद्योग की बढ़ती मांग और परिवहन और बिजली क्षेत्र के विस्तार के कारण यह हाइड्रोजन की खपत 2050 तक बढ़कर 280 से 300 लाख टन हो सकती है।

अभी हरित हाइड्रोजन उत्पादन लागत अधिक है, वर्ष 2030 तक हरित हाइड्रोजन की लागत हाइड्रोकार्बन ईंधन जैसे कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस आदि के समान ही हो जाएगी। उत्पादन और बिक्री बढ़ने पर कीमतों में और कमी आएगी। यह भी अनुमान लगाया गया है कि भारत की हाइड्रोजन की मांग वर्ष 2050 तक पांच से छह गुना बढ़ जाएगी। इसमें 80 फीसद भागीदारी हरित हाइड्रोजन की होगी। भारत अपने सस्ते नवीकरणीय ऊर्जा शुल्कों के कारण वर्ष 2030 तक हरित हाइड्रोजन का शुद्ध निर्यातक बन सकता है। वैसे भी पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत ने वर्ष 2005 के स्तर से वर्ष 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 33 से 35 फीसद तक कम करने की प्रतिबद्धता जाहिर की है। इससे भारत जीवाश्म ईंधन पर अपनी आयात निर्भरता को कम करेगा।

नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने देश में हाइड्रोजन पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करने के लिए एक मसौदा नीति भी जारी की है। इस उद्योग का प्रारंभिक चरण क्षेत्रीय ‘हब’ के निर्माण पर आधारित है, जो उच्च मूल्य वाले हरित उत्पादों और इंजीनियरिंग खरीद और निर्माण सेवाओं के निर्यात पर केंद्रित है। हरित हाइड्रोजन के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली आर्थिक स्थिरता व्यावसायिक रूप से हाइड्रोजन का उपयोग करने पर उद्योग द्वारा सामना की जाने वाली सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। ईंधन सेल तकनीक, जिसका उपयोग कारों में प्रयोग होने वाले हाइड्रोजन ईंधन को ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए किया जाता है, अब भी महंगे हैं। कारों में हाइड्रोजन ईंधन के लिए आवश्यक हाइड्रोजन स्टेशन का बुनियादी ढांचा अब भी व्यापक रूप से विकसित नहीं है। विकेंद्रीकृत हाइड्रोजन उत्पादन को एक इलेक्ट्रोलाइजर के लिए अक्षय ऊर्जा की खुली पहुंच के माध्यम से बढ़ावा दिया जाना चाहिए।


Date:23-12-23

इस सत्र का हासिल

संपादकीय

सतरहवीं लोकसभा, बल्कि संसद का शीतकालीन सत्र जिस तरह से संपन्न हुआ, वह सत्ता पक्ष और विपक्ष, किसी के लिए बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। वैसे तो हरेक सत्र से देश को एक सकारात्मक दिशा मिलने की अपेक्षा रहती है, मगर इस सत्र से खास उम्मीद थी, क्योंकि यह न सिर्फ नए संसद भवन का पहला पूर्णकालिक सत्र था, बल्कि यह लोकसभा अपने आखिरी पड़ाव पर है। इसका अगला सत्र बजट का होगा और उसके बाद तमाम सांसद आम चुनाव में चले जाएंगे। मगर दुर्योग से इसके हिस्से आजाद भारत के संसदीय इतिहास में सर्वाधिक सांसदों के निलंबन का नकारात्मक रिकॉर्ड तो दर्ज हुआ ही, यह संसद की सुरक्षा में सेंध की गंभीर चिंता भी छोड़ गया। निस्संदेह, सरकार इस सत्र में कई ऐतिहासिक विधेयकों को पारित कराने में सफल रही, खासकर आईपीसी, सीआरपीसी व साक्ष्य अधिनियम की जगह भारतीय न्याय संहिता को पारित किए जाने के लिए इसे भावी पीढ़ियां याद करेंगी। मगर इनके साथ यह तथ्य भी नत्थी होगा कि जब यह विधेयक दोनों सदनों से पारित हो रहा था, तब विपक्षी बेंचें लगभग खाली थीं। यह एक सुखद तस्वीर नहीं हो सकती।

संसद में गतिरोध या सत्ता पक्ष व विपक्ष में तनातनी कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह जीवंत लोकतंत्र का एक लाजिम पहलू है, मगर इसकी भी एक सीमा है और उसका ख्याल दोनों पक्षों को रखना पड़ता है। निस्संदेह, सदनों के संचालन में महती जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है और प्राय संसदीय कार्य मंत्री की काबिलियत ही बेहतर ‘फ्लोर मैनेजमेंट’ के आधार पर आंकी जाती है। मगर विडंबना यह है कि हाल के वर्षों में केंद्रीय विधायिका की बात हो या फिर राज्य विधायिकाओं की, संसदीय गतिरोधों के दौरान अक्सर विभागीय मंत्रियों की सक्रियता उभरकर सामने नहीं आती। संसदीय कार्य मंत्रियों को चूंकि सभी दलों के शीर्ष नेतृत्व के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, इसलिए वे अक्सर प्रतिपक्ष पर कटु राजनीतिक टिप्पणी करने से बचते हैं, मगर मौजूदा समय में ऐसी स्वस्थ परंपराएं अपना वजूद खो रही हैं, जिसका खामियाजा हमारे संसदीय लोकतंत्र को भुगतना पड़ सकता है।

विपक्षी सांसदों ने दोनों सदनों से अपने निलंबन के विरोध में शुक्रवार को जंतर-मंतर पर धरना दिया और केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की। मगर सवाल यह है कि इस सत्र को ऐतिहासिक बनाने के लिए क्या उन्होंने अपने श्रेष्ठ संसदीय आचरण का प्रदर्शन किया? विपक्ष की यह संसदीय जिम्मेदारी थी कि विभिन्न विधेयकों पर अपने विचारों से वह एक मुकम्मल कानून बनाने में संसद की मदद करता, मगर उसने मंत्री विशेष के बयान पर अड़कर रणनीतिक चूक की और सरकार के लिए रास्ता सुगम ही बनाया। फिर संसद के भीतर उसकी ओर से लगातार आसन को लक्षित किया जाता रहा और निलंबन के बाद संसद परिसर में जिस तरह से सभापति का निरादर किया गया, उसमें वह सत्ता पक्ष से किसी सौहार्द की अपेक्षा भी कैसे कर सकता था? इस पूरे सत्र के दौरान दोनों पक्षों से चूक हुई है और दोनों ने एक सुनहरा मौका गंवा दिया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आगामी आम चुनाव के मद्देनजर अपनी-अपनी पृष्ठभूमि तैयार करने में भूल गए कि दोनों को एक-दूसरे की आगे भी जरूरत पडे़गी। उनको नहीं भूलना चाहिए कि उनके आचरण पर भारतीयों की ही नहीं, बल्कि तमाम मुल्कों में लोकतंत्र की चाह रखने वाले लोगों की भी पैनी नजर रहती है।


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