02-12-2023 (Important News Clippings)

Afeias
02 Dec 2023
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Date:02-12-23

Finding funds

The ‘loss and damage’ fund is finally online but more needs to be done

Editorial

A healthy loss and damage (L&D) fund, a three-decade-old demand, is a fundamental expression of climate justice. The L&D fund is a corpus of money and technologies that will be replenished by developed countries and used by the rest to respond to the more unavoidable effects of climate change. On the first day of the COP28 climate talks under way in the United Arab Emirates (UAE), representatives of the member-states agreed to operationalise the L&D fund. The announcement was dearly won: at the end of the COP27 talks in Egypt last year, member-states agreed to launch such a fund, thanks largely to the steadfast efforts of the G-77 bloc of countries plus China, led by Pakistan. Four meetings of the Transitional Committee (TC) were to follow to determine how its money would be disbursed. But the issues in the TC-4 meeting, which spilled over into an ad hoc TC-5 meeting as well, highlight how the newly operationalised fund, while signalling optimism at COP28 and a diplomatic victory for its Emirati president, has crucial issues.

First, it will be hosted by the World Bank for an interim period of four years and will be overseen by an independent secretariat. The Bank is expected to charge a significant overhead fee. Developing countries resisted this proposition at first before yielding at the TC-5 meeting, in exchange for some concessions. Second, while some countries have committed amounts to the fund — from $10 million by Japan to $100 million each by Germany and the UAE — whether they will be periodically replenished is not clear. The committed amounts are also insufficient, totalling $450 million (for now) against an actual demand of several billion dollars. This shortfall, though it is premature to deem it so, comes against the backdrop of developed countries missing their 2020 deadline to mobilise a promised $100 billion in climate finance and managing to deliver only $89.6 billion in 2021. Next, the contributions are voluntary even as every country has been invited to contribute. Finally, the World Bank will have to meet some conditions on managing the fund, including a degree of transparency it has not brooked so far, and submit a report to the Parties to the Paris Agreement. If its stewardship is determined to be unsuitable, the fund can ‘exit’ the World Bank. The L&D fund’s contents need to be easily accessible to those who need it most, in timely fashion, sans pedantic bureaucratic hurdles, and in sufficient quantities. As things stand, there is little guarantee that any of these requirements will be met. While the L&D fund is finally online, a lot more needs to be done.


Date:02-12-23

कैसे बचेगा निजता का मौलिक अधिकार?

संपादकीय

कानून की एजेंसियां आरोपियों, यहां तक की पत्रकारों के घरों से जांच के नाम पर डिजिटल उपकरण जैसे लैपटॉप, मोबाइल, पेन ड्राइव जब्त कर लेती हैं। ये एजेंसियां उनकी वित्तीय, वैयक्तिक और व्यावसायिक निजता तक छीन लेती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को बताया कि निजता का अधिकार इसी कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने वर्ष 2017 में मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 21 (जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का अंग माना है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पर्सनल डिजिटल डिवाइस जब्त करने को लेकर गाइडलाइन बनाने को कहा है और यह भी ताकीद की है कि इनमें पत्रकारों के व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखा जाए। उधर एआई के प्रयोग से हमारी निजता मिनटों में खत्म हो रही है, अपराध को भी बढ़ावा मिल रहा है। हाल ही में डीपफेक से बनाई एक अभिनेत्री की तस्वीर वायरल हुई थी। एआई का जन-कल्याण में खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और उत्पादन के अन्य प्रयासों में बड़ा योगदान होने जा रहा है लेकिन इसके गलत प्रयोग के विनाशकारी असर से बचने के तरीके तलाशने होंगे। वैसे भी हर नई टेक्नोलॉजी दोधारी तलवार होती है। सजग समाज उसके दुष्परिणाम से बचते हुए उसे अंगीकार करता है। सरकार को भी ऐसे उपकरण जब्त करने में निजता का ध्यान रखना होगा।


Date:02-12-23

विवादों में राज्यपाल

संपादकीय

यह ठीक नहीं कि विभिन्न राज्य सरकारों और वहां के राज्यपालों के बीच विवाद थमते नहीं दिख रहे हैं। गत दिवस सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और वहां के राज्यपाल आरएन रवि के बीच विवाद पर यह टिप्पणी की कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल को लंबित विधेयकों के मामले को मिल-बैठ कर सुलझाना चाहिए। देखना है कि दोनों के बीच मेल-मुलाकात से विवाद सुलझता है या नहीं? तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच विधेयकों को मंजूरी देने के अलावा अन्य अनेक मामलों को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं। अतीत में तमिलनाडु सरकार राज्यपाल के तौर-तरीकों से कुपित होकर उन्हें हटाने तक की मांग कर चुकी है। एक समय ऐसी ही मांग बंगाल सरकार ने भी की थी। किसी राज्य सरकार का राज्यपाल से विवाद का यह पहला मामला नहीं। इस तरह के विवाद रह-रहकर न केवल सामने आते रहते हैं, बल्कि वे उच्चतम न्यायालय तक भी पहुंचते रहते हैं। कुछ दिनों पहले केरल सरकार राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। उसका आरोप था कि राज्यपाल आठ विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं। चूंकि ये विधेयक लगभग दो वर्ष से लंबित थे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल किया था कि आखिर राज्यपाल इतने समय तक क्या करते रहे? इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही टिप्पणी की थी कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री आपस में बात कर मामले को सुलझाएं।

राज्यपालों की ओर से विधेयकों को रोककर रखने की शिकायत अन्य राज्य सरकारें भी कर चुकी हैं। पंजाब सरकार और वहां के राज्यपाल के बीच तो विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर भी विवाद छिड़ चुका है। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। इसी तरह कुछ और राज्य सरकारें अपने यहां के राज्यपालों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी हैं। आम तौर पर राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच विवाद उन्हीं राज्यों में पनप रहे हैं, जहां गैर भाजपा सरकारें हैं। इसके पहले जब केंद्र में संप्रग सरकार थी, तब भाजपा शासित राज्य सरकारों को अपने राज्यपालों से कोई न कोई शिकायत रहती थी। इसमें संदेह नहीं कि किसी विधेयक को स्वीकृत या अस्वीकृत करना राज्यपालों का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का उपयोग करते समय यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि उनकी ओर से राज्य सरकारों के कामकाज और विशेष रूप से कानून बनाने के उनके अधिकार में बाधा डाली जा रही है। इसका कोई औचित्य नहीं कि राज्यपाल विधानसभाओं से पारित विधेयकों को वर्षों तक रोक कर बैठे रहें। यदि राज्यपालों को किसी विधेयक में खामी दिखती है या फिर यह नजर आता है कि वह संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है तो उन्हें इसका उल्लेख करते हुए ही उसे वापस करना चाहिए। राज्य सरकारों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे राज्यपालों की उचित आपत्तियों का सही तरह संज्ञान लें। राज्यपाल पद की गरिमा बनी रहे, इसके लिए खुद राज्यपालों और राज्य सरकारों को भी सजग रहना चाहिए।


Date:02-12-23

बेलगाम होती रेवड़ी संस्कृति

ए. सूर्यप्रकाश, ( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के एक्जिट पोल मिले-जुले संकेत ही दे रहे हैं। रविवार को नतीजे भी आ जाएंगे और तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाएगी। इन चुनावों के परिणाम चाहे जो रहें, लेकिन ये भारतीय राजनीति के इतिहास में रेवड़ियों की बारिश वाले चुनाव के रूप में याद रखे जाएंगे। किसी भी दल ने मुफ्तखोरी वाली योजनाओं की पेशकश करने में कोई संकोच नहीं किया। राजनीतिक दलों ने ये घोषणाएं करते हुए सरकारी खजाने की कोई चिंता भी नहीं की। इन चुनावों में चुनावी लोकलुभावनवाद एक अलग ही स्तर पर पहुंच गया। मुफ्तखोरी वाली योजनाओं के देश की आर्थिकी पर गहरे दुष्प्रभाव होंगे। इसके बावजूद इस रुझान पर विराम लगाने का साहस राजनीतिक दल नहीं कर पा रहे हैं। इस चलन पर कोई रोक लगाने के मामले में चुनाव आयोग के हाथ भी बंधे हुए हैं। ऐसे में आखिरी उम्मीद उच्चतम न्यायालय से है, जिसके समक्ष चुनावी रेवड़ियों को रोकने से जुड़ी दो याचिकाएं विचाराधीन हैं।

चुनावी रेवड़ियों को लेकर राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार ने काफी पहले ही सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया था। गहलोत ने चुनावों में भी मतदाताओं को सात गारंटियां दीं। इनमें गृहलक्ष्मी योजना के अंतर्गत परिवार की मुखिया महिला को सालाना 10,000 रुपये की राशि, एक करोड़ परिवारों को 500 रुपये में एलपीजी सिलेंडर, सरकारी कालेजों के विद्यार्थियों को लैपटाप या टैबलेट, प्राकृतिक आपदा से हुई क्षति में प्रति परिवार को 15 लाख रुपये का बीमा, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा और चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा का दायरा 25 लाख रुपये से बढ़ाकर 50 लाख करना। गहलोत के इस दांव की भाजपा ने अपने हिसाब से काट निकाली। भाजपा ने गरीब परिवार की लड़कियों को मुफ्त शिक्षा, छात्राओं को स्कूटी, 450 रुपये की रियायती दरों पर एलपीजी सिलेंडर, किसानों को सालाना 12,000 रुपये की मदद, कालेज छात्रों को 1,200 रुपये मासिक का परिवहन भत्ता और दिव्यांगों एवं वरिष्ठ नागरिकों को 1,500 रुपये की मासिक पेंशन जैसे वादे किए।

मध्य प्रदेश में भाजपा दो दशकों से अधिक की अपनी सत्ता को लेकर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की ऊब से जूझ रही थी। इस स्थिति को बदलने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उपहारों की पोटली खोल दी। इस साल उन्होंने महिलाओं के लिए लाड़ली बहना योजना आरंभ की। शुरुआत हर महीने एक हजार की राशि से हुई। जब कांग्रेस ने 1,500 रुपये मासिक की ऐसी ही योजना का वादा किया तो शिवराज सरकार ने 1,250 रुपये महीना देना शुरू कर दिया। शिवराज ने इसे 3,000 रुपये प्रति महीने तक ले जाने का वादा किया है। मतदाताओं को लुभाने की इन दोनों दलों की यह मुहिम किसी नीलामी प्रक्रिया जैसी बन गई। जब कांग्रेस ने 500 रुपये में सिलेंडर का वादा किया तो शिवराज ने कहा कि वह 450 में ही सिलेंडर उपलब्ध कराएंगे। यहां कांग्रेस ने 100 यूनिट बिजली मुफ्त और उसके बाद की 100 यूनिट आधे दाम में देने के साथ ही छात्रों को मासिक भत्ते का वादा किया।

तेलंगाना का रुख करें तो राज्य पर तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज का बोझ बताया जा रहा है। पिछले दस वर्षों के दौरान राज्य पर कर्ज 300 प्रतिशत बढ़ा है। इसके बावजूद मतदाताओं को लुभाने के लिए लोकलुभावन वादे किए गए। सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस ने हर शादी में ‘सरकारी शगुन’ के तौर पर एक लाख रुपये देने का एलान किया। अलग-अलग समुदाय के हिसाब से इसका नाम भी ‘कल्याण लक्ष्मी’ और ‘शादी मुबारक’ रखा गया। इसके अतिरिक्त 15 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा, बीड़ी बनाने वालों को 5,000 रुपये का मानदेय और गरीब घरों की महिलाओं को 3,000 रुपये के अतिरिक्त किसानों के लिए कर्जमाफी का वादा किया। बीआरएस को मात देने के लिए कांग्रेस ने भी कोई कोर-कसर शेष नहीं रखी। उसने कर्नाटक की तर्ज पर यहां भी कुछ गारंटियां दीं। बीआरएस के ‘सरकारी शगुन’ की हवा निकालने के लिए कांग्रेस ने ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय की दुल्हन को 1.60 लाख रुपये की राशि और हिंदू वधू को एक लाख रुपये की राशि के साथ ही एक तोला सोना देने का वादा किया। सरकारी शगुन में भी आखिर अंतर क्यों? असल में इसके माध्यम से भी समुदायों की सांस्कृतिक विविधताओं का लाभ उठाना है। मानो इतना ही काफी नहीं। कांग्रेस ने 18 साल से अधिक की छात्राओं के लिए इलेक्ट्रिक स्कूटी, आटो रिक्शा चालकों को सालाना 12,000 रुपये, विधवाओं के लिए 6,000 रुपये मासिक की पेंशन और किसानों को तीन लाख रुपये तक का ब्याज मुक्त कर्ज देने का भी वादा किया। भाजपा भी पीछे नहीं रही। उसने भी तमाम रेवड़ियों के साथ गरीब परिवारों को साल में चार सिलेंडर मुफ्त देने के साथ ही डीजल एवं पेट्रोल पर वैट घटाने का वादा किया।

रेवड़ियों के मामले में छत्तीसगढ़ में अपेक्षाकृत संयम दिखा। यहां निवर्तमान सरकार ने युवाओं को 2,500 रुपये का मासिक भत्ता और लड़कियों को शादी के दौरान 25,000 से 50,000 रुपये के अनुदान का वादा किया। चुनावी राज्यों में मिजोरम ही इकलौता ऐसा रहा, जहां रेवड़ियों की कोई चर्चा नहीं थी। रेवड़ी संस्कृति की शुरुआत यूं तो तमिलनाडु से हुई, जहां द्रविड़ पार्टियों विशेषकर अन्नाद्रमुक ने मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रेशर कुकर से लेकर टेलीविजन सेट तक दिए। कालांतर में आम आदमी पार्टी ने इस रेवड़ी संस्कृति को नया आयाम देते हुए पहले दिल्ली और फिर पंजाब में सरकार बनाई, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस ‘पांच गारंटियों’ के जरिये इसे एक अलग ही स्तर पर ले गई। पंजाब में आप के हाथों मिली करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस ने चुनावी रेवड़ियों का एक नया तानाबाना बुना। इस चुनावी विसंगति को आखिर कौन दूर करेगा? अफसोस की बात है कि चुनाव आयोग केवल मूकदर्शक बनकर रह गया है। चूंकि राजनीतिक दलों में रेवड़ियों को लेकर परस्पर होड़ है इसलिए केवल न्यायिक हस्तक्षेप से ही कोई उम्मीद बची है। अदालत ने सवाल उठाया है कि वह इस इस मामले में क्या कर सकती है? उसे समय रहते हुए कोई सार्थक हस्तक्षेप करना होगा, अन्यथा कहीं स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से बाहर न हो जाए। तब लोकतंत्र महज एक मखौल बनकर रह जाएगा।


Date:02-12-23

जलवायु की फिक्र

संपादकीय

दुनिया भर में बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले कई वर्ष से लगातार चिंता जताई जा रही है। अब इसकी वजहें स्पष्ट हैं। मगर मुश्किल यह है कि जब भी उन वजहों को दूर करने की बात आती है, तो विकसित देश अपनी भूमिका को कम करके पेश करते हैं। और इसके हल के लिए उठाए जाने वाले कदमों को लागू करने की जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोप देते हैं। जबकि समूची धरती पर जलवायु संकट जिस स्तर तक गहरा हो चुका है, उसमें मुख्य रूप से विकसित देशों की जिम्मेदारी रही है। इसके बावजूद इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित हर बैठक या सम्मेलन में तीसरी दुनिया के या विकासशील देशों ने समस्या के समाधान को लेकर अपेक्षित गंभीरता दिखाई है, उसमें अपनी ओर से हर संभव योगदान किया है। इसी को इंगित करते हुए प्रधानमंत्री ने विकास देशों को अपेक्षित जलवायु वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी संबंधी हस्तांतरण सुनिश्चित करने का आह्वान करते हुए कहा कि इस पर गौर किया जाना चाहिए कि इन देशों ने जलवायु संकट बढ़ाने में कोई योगदान नहीं किया है, इसके बावजूद वे इसके समाधान का हिस्सा बनने के इच्छुक हैं।

दरअसल, सीओपी28 में भाग लेने दुबई गए प्रधानमंत्री ने एक तरह से जलवायु संकट पर विकासशील देशों के सामूहिक रुख को प्रतिनिधि स्वर दिया है। सच यह है कि बढ़ते तापमान और उसकी वजह से पैदा होने वाली पर्यावरणीय समस्या के पीछे विकसित देशों की ही भूमिका ज्यादा है। खासकर कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को लेकर दुनिया भर में विशेष उपायों को अपनाने या लागू करने पर जोर दिया जाता है। इस समस्या के बढ़ने में अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारी न होने के बावजूद कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर जब भी कोई मानक तय किया गया, उस पर अमल के लिए विकासशील देशों ने अपनी ओर से हर संभव उपाय किए, सरोकार जताया, जबकि विकसित देशों ने अलग-अलग कारण बता कर इसमें भागीदारी निभाने को लेकर टालमटोल ही किया। कई बार ऐसे मौके आए जब विकासशील देशों को आर्थिक सहायता मुहैया कराने के मामले में पर्यावरण असंतुलन की कसौटी बनाया गया। इसे रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने भी कहा कि जलवायु वित्तपोषण पर प्रगति इस मसले पर जरूरी कार्रवाई पर बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के अनुरूप दिखनी चाहिए।

यह किसी से छिपा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन एक सामूहिक चुनौती है, जिससे निपटने के लिए एकीकृत वैश्विक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। जहां तक भारत का सवाल है, नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता और संरक्षण, वनीकरण जैसे कई क्षेत्रों में भारत की उपलब्धियां इसकी प्रतिबद्धता का सबूत हैं। यह सब दरअसल जलवायु संकट या बढ़ते तापमान की समस्या को दूर करने के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य से उठाए गए कदम हैं। भारत के अलावा भी विकासशील देशों ने अपनी सीमा में इस मसले पर योगदान दिया है, ताकि इस वैश्विक चिंता से निपटने में मदद मिल सके। हालांकि यह समझना मुश्किल है कि बढ़ते तापमान को एक सबसे बड़े संकट के रूप में पेश करने वाले विकसित देश अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने या कम करने को लेकर ईमानदार पहल क्यों नहीं करते। जरूरत इस बात की है कि जिन विकासशील देशों में इस समस्या के हल को लेकर अपेक्षित गंभीरता दर्शायी जा रही है, उन्हें वित्तीय सहायता मुहैया कराई जाए। मगर जलवायु संकट में कमी तब तक संभव नहीं है, जब तक विकसित देश इस दिशा में जरूरी इच्छाशक्ति के साथ काम न करें।


Date:02-12-23

मुफ्त खाद्यान्न योजना

संपादकीय

सरकार ने 81.35 करोड़ गरीबों को हर महीने पांच किलो खाद्यान्न मुफ्त देने की योजना को पांच सालों के लिए बढ़ा दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इस संबंध में फैसला लिया गया। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना द्वारा लाभार्थियों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए लक्षित आबादी तक खाद्यान्न किफायती रूप से मुहैया कराया जा रहा है। 2020 में कोरोना महामारी के बाद चालू की गई इस योजना की अवधि दिसम्बर में समाप्त होने वाली थी। यह योजना मोदी की जनहितकारी योजनाओं में प्राथमिकता पर रही है, जिसका बड़ी आबादी लाभ उठा रही है। अपराधों से जुड़े मामलों में त्वरित न्याय देने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों को भी अगले तीन साल तक जारी रखने की मंजूरी दे दी गई है। 2019 में चालू की गई यह योजना एक साल के लिए थी, जिसे बाद में दो साल के लिए बढ़ाया गया था। इस योजना को विधिवत जारी रखने के प्रयास होने चाहिए, टुकड़ों-टुकड़ों में इसे बढ़ाने का लाभ नहीं नजर आता यौन अपराधों को रोक पाने में व्यवस्था के नाकाम रहने को देखते हुए विशेष अदालतों के महत्त्व को समझना होगा। रही बात मुफ्त अनाज वितरण की तो गरीबों और जरूरतमंदों के हितों में चलाई जा रहीं योजनाओं पर अमल करना सरकार की जिम्मेदारी है। मगर इससे लोगों में बड़ी संख्या में मुफ्तखोरी की लत बढ़ने से इनकार नहीं किया जा सकता। हमारे भंडारों में रखा खाद्यान्न कई दफा खराब होने की खबरें आती रहती हैं। उनका इससे बेहतर इस्तेमाल नहीं हो सकता कि हम हर पेट को रोटी की सुविधा दें। हालांकि कहने को यह मदद है क्योंकि पांच किलो अन्न में कोई भी महीना नहीं बिता सकता। उस पर बिचौलियों द्वारा हो रही हेराफेरी को भी पूरी तरह नहीं रोका जा सकता। सबसे निचली पायदान पर खड़े नागरिकों के अधिकारों को वाजिब तौर पर पूरा करना सरकारों की जिम्मेदारी होने के बावजूद सरकारी खजाने पर सिर्फ इसी योजना से 11.80 लाख करोड़ रुपये के भार को संतुलित करना भी उसका ही काम है। हर हाथ को रोजगार और हर पेट को खाना देने वाली सोच का स्वागत होना चाहिए। परंतु इससे देश की आर्थिक हालत खोखली न होने पाए जिसे कड़ी मशक्कत के बाद थोड़ा ढर्रे पर लाया जा सका है।


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