
26-12-2022 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:26-12-22
Administering Change
GoI periodically gets rid of dodgy bureaucrats. That’s good. But systemic reforms are needed.
TOI Editorials
The forced retirement of 10 senior department of telecom officials, some with doubtful integrity, is high-visibility action, signalling the right message of intolerance to corruption. Since 2014, GoI has retired around 400 officers for lack of integrity or non-performance. Most were Group A and Group B officers. Telecom and Railways minister Ashwini Vaishnaw had approved similar disciplinary action on 40 Railways officers earlier. But with nearly 90,000 Group A and 2.9 lakh Group B employees in position in central services according to the Seventh Pay Commission, such episodic disciplinary action will not solve a systemic problem.
Too many mid-career and senior officers have integrity and/or performance deficits and GoI must find ways to identify and offload them following due process alongside recruiting meritorious replacements. Everyone enters the system young and there are equal opportunities to progress ahead. But the assured promotion system irrespective of performance, too many departments performing no significant functions, and the corrupt nexuses that form over a long career being close to netas and moneyed interests, all combine to ruin many officers. This is where the National Programme for Civil Services Capacity Building, approved in April 2021, aiming to reshape post-recruitment training mechanisms and GoI’s HR policies, is important.
Mid-career appraisals to weed out inept officers will have to proceed concurrently with greater public service recruitment. Lateral hiring hasn’t taken off with recruits struggling for acceptance and direction. Only 4% of India’s workforce comprise public servants. Compare this to 22. 5% in the UK, 13. 5% in the US and 28% in China. State governments must also reform public employment policies. After all, combined employment of states is much more than GoI and state bureaucracy’s interface with the ordinary citizen is much larger. Centre and states, with their 444 central PSUs and 1,136 state PSUs, should also pursue disinvestment more vigorously, and use part of the proceeds to reform administration. An efficient bureaucracy is key to India’s economic acceleration.
Bajra Dal, A Push In The Right Direction
ET Editorials
India’s push for millets and the UN’s recognition of its importance have implications beyond agriculture and food security. Higher nutrition value apart, millets are food crops most suitable for a warming planet. As a major producer, India must use the year-long attention to create new markets, mainstream production, and create pathways for farmers to increase their earnings.
In 2021, India with the support of 72 countries piloted the proposal in the UN to declare 2023 as the International Year of Millets. This recognition will raise the profile of bajra, drawing on its high nutritional value and low-environmental footprints. Millets require much less water and fertilisers. They are drought-resistant and can grow in temperatures as high as 46°C. Their nutritional value, and that they are grown in 130 countries including India, the US, China, Argentina, Nigeria and Sudan, gives it an edge over other grains especially with supply disruptions due to Covid and the war in Ukraine. As a major producer, with 41% of global production, India should be able to leverage the increased interest among foreign buyers. Despite steady growth in production, in 2021-22, production was at 15. 92 million metric tonnes, a 27% increase over the previous year, only 1% of harvested millets were exported.
GoI and agriculture agencies need to work with farmers or farm producer organisations to tap this emerging market. India must focus its efforts on introducing standards, increased R&D for improving strains of millets and use. This will help increase export potential. Millets also provide an avenue for collaborative action. India’s proposal for G20 to set up the International Millet Initiative for Research and Awareness is a good move.
A welcome move
The Centre’s taking up the burden for free food grain distribution in 2023 will provide relief to States.
Editorial
While the expenditure numbers on food distribution and subsidy provisions seem fiscally expensive, the schemes have provided distress relief to the most needy, helped the Government control its food buffer stocks better, and also reduced wastage of procured food grains at a time when procurement figures for rice and wheat by the Food Corporation of India remain high. The PDS and the PMGKY have not only enabled basic food security but have also acted as income transfers for the poor by allowing them to buy other commodities that they could not have afforded if not for the benefits. There is, of course, the question of whether targeted distribution, including the identification of priority households and the “poorest of the poor”, has really helped the benefits reaching the deserving with concerns about diversion of foodgrains. But as rights activists have argued, the more robust solution could be a universalisation of the PDS, which has already worked well in a few States such as Tamil Nadu, as the scheme would be availed by anyone in need instead of a flawed targeting system.
भूखे को भोजन
संपादकीय
हर कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी होती है कि उसका कोई भी नागरिक भूखा न सोए। अव्वल तो हर नागरिक के पास कोई न कोई ऐसा काम होना चाहिए, जिससे वह खुद अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। मगर यह आदर्श स्थिति शायद किसी भी देश में नहीं है। इसलिए जो लोग खुद अपने भोजन का प्रबंध कर पाने में अक्षम हैं, उन्हें भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों पर आ जाती है। इसी दायित्व का निर्वाह करने के मकसद से भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू किया गया था। अब सरकार की सांविधानिक बाध्यता है कि वह किसी को भूखे पेट न सोने दे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए खाद्य सुरक्षा योजना के तहत हर गरीब व्यक्ति को हर महीने पांच किलो अनाज उपलब्ध कराया जाता रहा है। अत्यंत गरीब परिवारों को अंत्योदय योजना के तहत प्रति परिवार पैंतीस किलो अनाज उपलब्ध कराया जाता है। खाद्यान्न सुरक्षा योजना के तहत चावल, गेहूं और मोटे अनाज के लिए क्रमश: तीन, दो और एक रुपए प्रति किलो पर भुगतान करना होता है, जबकि अंत्योदय योजना में अनाज मुफ्त दिया जाता है। कोरोना काल में केंद्र ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत इन दोनों योजनाओं के अतिरिक्त पांच किलो अनाज मुफ्त उपलब्ध कराना शुरू किया था, जो सात चरणों में बढ़ते हुए इस महीने खत्म हो रही है।
अब केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना को आगे न बढ़ा कर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना और अंत्योदय योजना के तहत मिलने वाले अनाज के वितरण की अवधि एक साल और बढ़ा दी है। इस अनाज के लिए भुगतान नहीं करना पड़ेगा। यानी मुफ्त राशन उपलब्ध होगा। सरकार का कहना है कि करीब इक्यासी करोड़ तीस लाख लोगों को इस योजना का लाभ मिलेगा और इस पर करीब दो लाख करोड़ रुपए का खर्च आएगा, जिसे सरकार वहन करेगी। निस्संदेह इससे गरीबों को बड़ी राहत मिलेगी। दरअसल, कोरोना के बाद बंदी के चलते बहुत सारे लोग बेरोजगार हो गए और बहुतों का काम-धंधा बंद हो गया। ऐसे में बहुत तेजी से गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई। उनके सामने दो वक्त के भोजन का संकट पैदा हो गया। उन्हें भोजन पहुंचाना सरकार का सांविधानिक कर्तव्य है। मगर यह सवाल फिर भी बना हुआ है कि इस तरह इतनी बड़ी आबादी को सरकार कब तक मुफ्त राशन उपलब्ध कराती रह सकती है। जिस देश की आधे से अधिक आबादी मुफ्त के राशन पर निर्भर हो और दो तिहाई आबादी को पोषणयुक्त भोजन उपलब्ध कराने की चुनौती हो, उसे लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
पिछले कई सालों से लगातार भारत विश्व भुखमरी सूचकांक में पायदान-दर-पायदान नीचे खिसक रहा है। अगले साल आबादी के पैमाने पर हम दुनिया का सबसे बड़ा देश बनने जा रहे हैं। इस तरह भोजन और पोषण संबंधी चुनौतियां उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं। उत्पादन के मामले में भी पिछड़ रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता स्वाभाविक है। विशेषज्ञ लगातार सुझाव देते रहे हैं कि इस समस्या से पार पाने का यही तरीका है कि हर हाथ को काम मिले। मगर इस पहलू पर सफलता कठिन बनी हुई है। गरीबी और भुखमरी हर चुनाव में मुद्दा बनती है, राजनीतिक दल इनके जरिए गरीबों का भावनात्मक दोहन करने का भी प्रयास करते हैं, मगर हकीकत यही है कि हर साल ये समस्याएं बढ़ रही हैं। इनके समाधान के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।
हर जगह दी है दस्तक
आनन्द माधव
हम डिजिटल युग में रह रहे हैं। इंटरनेट से जीना आसान हो गया है। मोबाइल की एक क्लिक पर पूरी दुनिया हाजिर है। आज कोई भी व्यक्ति या देश साइबरस्पेस से खुद को अलग नहीं कर सकता, लेकिन हम असुरक्षित भी होते जा रहे हैं। कोई भी हमारे व्यक्तिगत जीवन में ताकझांक कर सकता है। बिना कुछ किए बैंक खाते में डाका डाल सकता है। हैकिंग, ट्रोलिंग, बुल्लिंग, हेट स्पीच, पोर्न की लत आम बात हो गई है। बैंक फ्रॉड से लेकर मैलवेयर से लेकर रोमांस स्कैम तक, साइबर क्राइम हर जगह है। साइबर अपराध मात्र आर्थिक अपराध तक ही सीमित नहीं है, यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा भी बन गया है। साइबर अपराधी युवाओं का ब्रेन वॉश कर उनको अपने ही देश के विरुद्ध अपराध करने को भड़काता है। हेट स्पीच के माध्यम से समाज में विभेद पैदा करता है। एनसीआरबी 2020 के रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष 50 हजार से भी अधिक साइबर क्राइम के केस भारत में रजिस्टर्ड हुए। साइबर अपराध मात्र भारत की समस्या नहीं है, लगभग हर देश की समस्या है। फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशनम की 2021 की इंटरनेट क्राइम रिपोर्ट के अनुसार साइबर क्राइम के कारण 7 बिलियन का नुकसान हुआ, जो 2019 में रिपोर्ट किए गए नुकसान से लगभग दोगुना है।
ब्रिटिश जालसाजों ने टैक्स धोखाधड़ी करने के लिए ग्राहकों कि संवेदनशील जानकारी को ऑनलाइन टारगेट किया है। ब्राजील के मैलवेयर डवलपर्स ने देश में उनके नाम जारी किए गए इलेक्ट्रॉनिक चालानों में हेर-फेर किया है। आर्थिक रूप से प्रेरित खतरे वाले कर्ताओं ने ऑस्ट्रेलियाई सेवानिवृत्ति खातों को टारगेट किया। साइबर अपराध राष्ट्रीय सुरक्षा को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करता है, जिसमें संगठित अपराध और शत्रुतापूर्ण राष्ट्र राज्यों को अवैध लाभ प्राप्त करने और लूटने के लिए उपजाऊ जमीन उपलब्ध कराना, घरों, उद्योगों और सरकारी की आर्थिक स्थिरता को खतरा पैदा, आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को पंगु बना देना । कोस्टारिका के सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के खिलाफ राष्ट्रव्यापी कोंटी रैंसमवेयर हमले और देश की बाद की आपातकालीन घोषणा, एक और स्पष्ट उदाहरण है। भारत में अब तक कोई डाटा प्रोटेक्शन एक्ट नहीं है। भारत सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम, 2008 के अंतर्गत सीईआरटी इन को राष्ट्रीय एजेंसी के रूप में कार्य करने के लिए नामित किया है, जिसकी स्थापना 2004 में हुई है। 2018 में डाटा प्रोटेक्शन एक्ट का प्रारूप तैयार किया गया और 2020 में इसे सदन में पेश किया गया। लेकिन इसे फिर वापस ले लिया गया था। अब पुनः ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल, 2022’ को आम जनता के सुझाव के लिए इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला गया है। वित्तीय अपराध या फ्रॉड को रोकने के लिए या रक्षा एवं गृह विभाग के महत्त्वपूर्ण डाटा को सुरक्षित रखने के लिए हमें बहुपरत सुरक्षा (आतंरिक एवं बाह्य) की जरूरत है, लेकिन इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि साइबर सुरक्षा के मामले में भारत विश्व में निचले पायदान के देशों के साथ खड़ा है। इसके कई कारण हैं। सबसे पहले तो साइबरस्पेस की महत्ता समझने के बाद भी इस मद में बहुत ही कम बजट करना । दूसरा, साइबर अपराध के बारे में न तो लोगों की समुचित समझ है, और न ही इसके लिए व्यापक प्रचार-प्रसार ही किया जा रहा है।
हमारे सरकारी प्रतिष्ठान कमजोर है क्योंकि -क) हम अपने डिजिटल इकोसिस्टम एवं सरकारी प्रतिष्ठान अपने डिजिटल डाटाबेस को सुरक्षित करने के लिए न्यूनतम राशि खर्च करते हैं, ख ) ऐप/नेटवर्क और ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग करने के लिए पायरेसी / गैर- लाइसेंस / मुक्त उपयोग पर निर्भर हैं, ग) हमारी सरकार ने प्रदाताओं / ऑपरेटरों और उपयोगकर्ताओं के लिए लक्ष्मण रेखा की रूपरेखा नहीं बनाई है, घ) हम अपने डाटा से समझौता किए जाने के बारे में कम से कम चिंतित हैं। साइबर अपराध से लड़ने के लिए उचित बजट एवं सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है, साथ ही मजबूत डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट भी जरूरी है, तभी हम साइबर अपराधी से लड़ने के लिए तैयार हो पाएंगे एवं राष्ट्र पर साइबर हमले रोकने में सक्षम होंगे।
मोटे अनाजों की पैदावार से समृद्ध होंगे छोटे किसान
अनिल बलूनी, ( सांसद और मीडिया प्रभारी, भाजपा )
जब से केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई है और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से सरकार का हर कदम गांव, गरीब और किसान के कल्याण के प्रति समर्पित रहा है। किसान शुरू से ही प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में सबसे ऊपर रहे हैं। उन्होंने किसानों के कल्याण और उनकी आमदनी को दोगुना करने के उद्देश्य से कई परिवर्तनकारी योजनाएं शुरू की। इसी दिशा में छोटे और गरीब किसानों के सशक्तिकरण की दिशा में एक और कदम उठाते हुए उन्होंने अब मिलेट्स, यानी मोटे अनाज को बढ़ावा देने का बीड़ा उठाया है। मिलेट्स को महत्व दिलाने के लिए 2018 को उन्होंने ‘मोटा अनाज वर्ष’ घोषित किया था। साथ ही, मोटे अनाज को देश के पोषण मिशन अभियान में भी शामिल किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों के बल पर ही संयुक्त राष्ट्र साल 2023 को ‘अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष’ के रूप में मना रहा है। मिलेट्स को हर थाली में पहुंचाने के अभियान से सबसे अधिक फायदा देश के छोटे व गरीब किसानों को होगा। यह उनकी तकदीर बदलने और आय बढ़ाने में व्यापक रूप से लाभकारी सिद्ध होगा।
मोटे अनाज सदियों से हमारे नियमित भोजन का हिस्सा रहे हैं। हालांकि, 20वीं सदी में चावल और गेहूं की लोकप्रियता ने इनकी लोकप्रियता को कम कर दिया था, लेकिन अब ये अनाज तेजी से लोगों की पसंद बन रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री के भोजन में मिलेट्स नियमित रूप से शामिल रहते हैं। 2023 को मिलेट्स वर्ष की पहचान देने की पहल के तहत 20 दिसंबर को सरकार ने सांसदों के लिए एक लंच का आयोजन भी किया था, जिसमें मोटे अनाज से बने भोजन मीनू का हिस्सा थे। अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष में यह तय किया गया है कि भारत की अध्यक्षता में देश में होने वाली जी-20 की बैठकों में मिलेट्स के व्यंजन भी परोसे जाएंगे। प्रधानमंत्री अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोटे अनाजों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए जन-आंदोलन चलाने की बार-बार बात करते हैं। भारत में जब कोई विदेशी मेहमान अथवा राष्ट्राध्यक्ष आते हैं, तो प्रधानमंत्री की कोशिश रहती है कि उन्हें परोसे जाने वाले व्यंजनों में मिलेट्स से बने व्यंजन भी शामिल हों। यह प्रयोग काफी सफल रहा है।
मिलेट्स खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण हैं। पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की समस्या लगातार बढ़ रही है। भूजल का स्तर भी तेजी से नीचे गिरता जा रहा है। ऐसे में, यह समय की मांग है कि ऐसे फसलों को बढ़ावा मिले, जो पोषक तत्वों से भरपूर हों और जिन्हें उगाने में पानी की खपत भी कम हो। साथ ही, मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बनी रहे। मोटे अनाज गेहूं और चावल पर देश की निर्भरता कम करने में भी सहायक होंगे। ये प्रधानमंत्री के प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के अभियान में भी मददगार सिद्ध होंगे, क्योंकि इन फसलों में कीड़े कम लगते हैं, जिससे किसानों पर कीटनाशकों का दबाव कम होता है। इस तरह से किसानों की उत्पादन-लागत भी कम होगी।
मिलेट्स सुपर फूड्स होते हैं, क्योंकि इनमें मिनरल्स, फाइबर्स और पोषक तत्व अपेक्षाकृत काफी अधिक मात्रा में होते हैं। ऐसे में, देश में आठ करोड़ मधुमेह के मरीजों और लगभग 35 लाख कुपोषित बच्चों के लिए ये अनाज काफी फायदेमंद साबित होंगे। अगर आप सुबह की शुरुआत मिलेट्स से करते हैं, तो कई बीमारियों से बच सकते हैं। इसके सेवन से मोटापा, पाचन की समस्या, कोलेस्ट्रॉल और मधुमेह संबंधी दिक्कतें कम होती हैं। यही वजह है कि इन अनाजों को थाली में जगह देना अनिवार्य हो गया है। भारत ने 2021-22 में इससे पिछले वर्ष की तुलना में बाजरा उत्पादन में 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराई है। वैश्विक उत्पादन में लगभग 41 प्रतिशत की अनुमानित हिस्सेदारी के साथ भारत दुनिया में बाजरा के अग्रणी उत्पादकों में से एक है। सरकार के प्रयासों से मोटे अनाजों के उपयोगी प्रसंस्करण और फसल चक्र के बेहतर इस्तेमाल के साथ इसे खाद्य सामग्री का अहम अंग बनाने में मदद मिलेगी। आजादी के अमृत काल में हमें मोटे अनाज को अधिक से अधिक अपनाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि आत्मनिर्भर भारत, स्वस्थ भारत, स्वस्थ मिट्टी और खुशहाल किसान का सपना साकार हो सके।