27-12-2022 (Important News Clippings)

Afeias
27 Dec 2022
A+ A-

To Download Click Here.


Date:27-12-22

नवीनता का सुख

डॉ विजय अग्रवाल, ( आध्यत्मिक विषयों के अध्येता )

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है। वे अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्यागकर नवीन देह धारण करता है। यदि आत्मा जैसा अविनाशी तत्व नवीनता की आवश्यकता से परे नहीं है, तो फिर इस विनाशी भौतिक शरीर के लिए नयेपन की अनिवार्यता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। श्रीकृष्ण के इस कथन से सुख की प्राप्ति का यह एक सरल-सा सूत्र तो हमारे हाथ आता ही है कि ‘नवीनतम अपने आप में ही सुखद होता है।’ चूंकि जड़ता से, स्थिरता से ऊब की दुर्गंध उठने लगती हैं, इसलिए जरूरी है कि चेतन हुआ जाए, गतिशील हुआ जाए। इससे कुछ तो बदलेगा और यह बदलाव सुख देगा।

हमारे पास इस नवीनता को धारण करने के दो मुख्य उपाय होते हैं। पहला है- दैनिक जीवन में निरंतर वस्तुओं एवं घटनाओं में नवीनता का एहसास करना। क्या आपने गीत गाता चल फिल्म का यह गीत सुना है- ‘मैं वही, दर्पण वही, न जाने ये क्या हो गया कि सब कुछ लागे नया-नया…’ । कभी न कभी आपको भी ऐसी प्रतीति अवश्य हुई होगी। यदि आप प्रतिदिन, एक पल के लिए ही सही, इस एहसास को ला सकें, तो यह आपके पूरे दिन को सुख की अनुभूति से भर देगा ।

वस्तुतः सुख भौतिक वस्तुओं पर आश्रित नहीं होता है। यह भौतिक वस्तुओं के प्रति हमारी प्रतीति पर आधारित हैं। आप जो नये वर्ष का उत्सव मनाएंगे, उसमें दिनांक के अतिरिक्त और क्या नवीन है ? ऐसा तो प्रतिदिन ही होता है, फिर चाहे वह दिन, सप्ताह और मास के रूप में ही क्यों न हो। यह एक जनवरी के प्रति मात्र आपकी प्रतीति ही हैं, जो इसे ‘नव’ बना रही है। यदि ‘नव वर्ष’ हो सकता है, तो ‘नव दिवस’ क्यों नहीं?

अब दूसरा उपाय | इसके लिए मैं आपके सामने दो स्थितियां प्रस्तुत कर रहा हूं। इनसे जुड़े प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की थोड़ी माथापच्ची करें। स्थिति नंबर एक कुएं में पानी भरा हुआ है। मैं उससे पानी निकालकर अपने घर लाया। अगले दिन जब मैं उसी पानी का इस्तेमाल सुबह पूजा के लिए कर रहा था, तब मेरी दादी ने कहा- ‘नहीं, पूजा के लिए कुएं से ताजा पानी लाओ। यह बासी हो गया है।’ जबकि कुएं का पानी तो न जाने कितने दिनों का बासी पानी है। ऐसा क्यों? स्थिति नंबर दो- आपके पैर का नंबर 11 है, लेकिन किसी ने आपको नौ नंबर का महंगा जूता उपहार में दे दिया। पहनने पर वह काटता है। अब आप इस जूते का क्या करेंगे? पहले प्रश्न का उत्तर है कि कुएं का पानी इसलिए हमेशा ताजा बना रहता है, क्योंकि वह अपने मूल स्रोत से जुड़ा रहता है। हमारी संस्कृति चेतना का मूल स्त्रोत हैं। चूंकि लोक मानस इससे जुड़ा रहता हैं, इसलिए वह हमेशा नये के सुख में रहता है। दूसरे प्रश्न का उत्तर हैं- ‘संकीर्णता’। यदि संकीर्ण जूता पैर को काट सकता हैं, तो संकीर्ण सोच के बारे में आपके क्या विचार हैं? हमारा दर्शन ‘आ नो भद्रा कृतवी यंतु विश्वतः’ का दर्शन रहा है। अच्छे विचार चारों और से आने दो। यदि कमरे में हवा और रौशनी आती रहेगी, तो ताजगी बनी रहेगी।

यह बात हमारी चेतना के साथ भी है । आइए, कुछ इसी तरह के प्रयासों के साथ नये वर्ष 2023 की शुरुआत करते हैं।


Date:27-12-22

वैश्विक नेतृत्व के लिए तैयार भारत

जीएन वाजपेयी, ( लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चैयरमैन हैं )

जी-20 इन दिनों चर्चा में है। दिसंबर में ही भारत ने इस वैश्विक समूह की कमान संभाली है। अध्यक्षता संभालने के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के मंत्र का आह्वान किया। उन्होंने इसके पीछे की संकल्पना का भी उल्लेख किया, ‘कोई विकसित दुनिया और कोई तीसरी दुनिया नहीं’ और ‘एक विश्व’ कहने का यही आशय है कि समूची मानवता ‘एक परिवार’ के रूप में साझा समृद्धि करे और अशक्त पक्ष को ‘एक भविष्य’ के लिए सहारा देकर सशक्त बनाया जाए। ये सभी बातें तो प्रशंसनीय हैं, लेकिन वास्तविक राजनीतिक प्रकृति को देखते हुए सवाल उनके फलदायी होने को लेकर जुड़ा है। भूराजनीतिक हलचल, दक्षिणपंथी राजनीति, उद्दंड तानाशाही और आर्थिक राष्ट्रवाद जैसी दुर्दांत चुनौतियां इस राह में कुछ बड़े अवरोध के रूप में दिखती हैं। साथ ही, रूस-यूक्रेन युद्ध, कोविड महामारी का काला साया, जलवायु आपदाएं और भूमंडलीकरण से प्रत्येक स्तर पर विचलन से उपजी बेलगाम महंगाई, ब्याज दरों में तेजी का सिलसिला और निरंतर बढ़ती आर्थिक दुश्वारियां स्थिति को और बिगाड़ने वाली हैं। संप्रति विश्व समुदाय के लिए गंभीर चुनौतियां हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में राजनीतिक विमर्श भी आर्थिक वृद्धि के प्रति उदासीनता को दर्शाने वाला है।

यहां कुछ तथ्यों की पड़ताल उपयोगी होगी। पिछली सदी के नौवें दशक के मध्य से 2007 के बीच की अवधि को ‘व्यापक समभाव’ का दौर माना जाता है, जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं वृद्धि की ओर उन्मुख हो रही थीं, जिसमें करोड़ों लोगों को भयावह गरीबी और अभावग्रस्तता के दुष्चक्र से बाहर निकाला गया। व्यापक भूराजनीतिक शांति, संयमित राजनीतिक नेतृत्व, कम मुद्रास्फीति, निचली ब्याज दरें, भूमंडलीकरण की गहरी होती पैठ और पूंजी के मुक्त प्रवाह जैसे पहलुओं ने इसमें प्रभावी भूमिका निभाई। डेविड रिकार्डो का तुलनात्मक लाभ सिद्धांत साकार होता दिखने के साथ ही आर्थिक वृद्धि पर भी सार्वभौमिक ध्यान केंद्रित था। दुर्भाग्यवश, ये पहलू अब कमजोर पड़ रहे हैं और दुनिया भर में आर्थिक मुश्किलें एवं असमानता बढ़ती दिख रही है।

विकसित देशों में कामकाजी आबादी, विस्थापन और महिलाओं की व्यापक भागीदारी के साथ ही तकनीकी उन्नयन ने कुल कारक उत्पादकता यानी टीएफपी की वृद्धि में अहम योगदान दिया। टीएफपी कामकाजी आबादी के ज्ञान में आए परिवर्तन और तकनीकी प्रगति के प्रभाव का आकलन करता है। इसके माध्यम से किसी आर्थिक प्रणाली में दीर्घकालिक उत्पादन पर इन परिवर्तनों के प्रभावों के आकलन का प्रयास होता है। फिलहाल जननांकीय स्थिति प्रतिकूल हो रही है, विस्थापन को रोका जा रहा है और महिलाओं की भागीदारी चरम पर पहुंच गई है। कोविड ने काम को लेकर हिचक बढ़ाई है। तकनीकी सुधार अपनी एक सीमा में ही योगदान कर पा रहे हैं। स्मरण रहे कि विकासशील देशों को आउटसोर्सिंग, पूंजी के पर्याप्त प्रवाह और तकनीकी विकास की साझेदारी से लाभ पहुंचा। वहीं, समग्र वैश्विक अर्थव्यवस्था भूराजनीतिक शांति, नरम मुद्रास्फीति, निम्न ब्याज दरों और सस्ते श्रम, ऊर्जा, धातुओं और खनिजों की आपूर्ति से लाभान्वित हुई।

जब आर्थिक वृद्धि और लोगों की बेहतरी पर खतरा मंडरा रहा हो तो पारंपरिक संवादों और परिचर्चाओं की सार्थकता संदिग्ध होने लगती है। एक ऐसे दौर में जब दुनिया कुछ इसी प्रकार की परिस्थितियों से दो-चार हो, तब विकसित विश्व और तीसरी दुनिया के देशों को ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के सूत्र में पिरोने वाला भारत का विचार और प्रासंगिक हो गया है। ऐसे में सभी बैठकों के मूल में यही बात होनी चाहिए कि हम सभी एक ही नाव पर तैर रहे हैं और नैया पार लगने पर सभी को सहयोग का बराबर लाभ मिलेगा। स्पष्ट है कि आर्थिक राष्ट्रवाद से आर्थिकी के स्तंभों को आघात नहीं पहुंचना चाहिए। इसके बजाय उसे आर्थिकी से जुड़े जोखिमों को दूर कर उसे सशक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ऐसे में समय की आवश्यकता है कि सामाजिक असंतोष और आर्थिक गतिरोध को रोकते हुए लोगों, पूंजी और वस्तुओं एवं सेवाओं की मुक्त आवाजाही के साथ ही तकनीकी साझेदारी का सिलसिला कायम रहना चाहिए।

दुनिया के किसी भी हिस्से में छिड़ा कोई संघर्ष पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सक्षम हैं। रूस-यूक्रेन टकराव इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का यह उद्गार कि ‘यह युद्ध का युग नहीं’ को लेकर वैश्विक सहमति बने, जो न केवल इस युद्ध पर तत्काल विराम लगाए, बल्कि भविष्य के किसी भी टकराव को रोकने से लिए ढांचे को और सशक्त बनाए। इस समय दक्षिणपंथी राजनीति, आर्थिक राष्ट्रवाद, भूराजनीतिक टकराव, हठधर्मी नेतृत्व और संवाद एवं सहयोग के प्रति अनिच्छा जैसे पहलू असमानता और अभाव जैसी स्थितियों को एक बड़ी हद तक प्रभावित कर रहे हैं। आर्थिक वृद्धि के कुछ उत्तोलक भी असमानता एवं अभाव की स्थिति निर्मित करने में योगदान करते हैं। ऐसे में स्थिति को सुधारने के लिए आवश्यक कदम निश्चित रूप से उठाए जाने चाहिए।

पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति पृथ्वी और यहां जीवन एवं आजीविका की निरंतरता के समक्ष बड़ी चुनौती है। पर्यावरण की स्थिति में गिरावट किसी भौगोलिक क्षेत्र की आर्थिकी एवं आर्थिक समृद्धि पर निर्भर करती है। जहां पर्यावरणीय विध्वंस को रोकने की जिम्मेदारी और जवाबदेही तो सार्वभौमिक है, किंतु उसकी कीमत हैसियत के हिसाब से साझा की जानी चाहिए। इस दृष्टि से सीओपी-27 के शर्म अल-शेख सम्मेलन में जलवायु क्षरण की क्षतिपूर्ति निधि की प्रतिबद्धता को मूर्त रूप देना भी महत्वपूर्ण होगा।

अब भारत के बौद्धिक वर्ग को भी जी-20 के नेतृत्व के लिए विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों की रूपरेखा खींचकर इन आवश्यक मुद्दों पर सहमति निर्माण में महती योगदान देना चाहिए। मौजूदा मानव जाति स्वास्थ्य, संपदा और जीवन की गुणवत्ता के अप्रत्याशित चक्र में जी रही है। यह उसका दायित्व है कि वह आने वाली पीढ़ियों को बेहतर जीवन गुणवत्ता की विरासत-सौगात सौंपे।


Date:27-12-22

जजों की नियुक्ति के लिए सशक्त प्रणाली जरूरी

वरुण गांधी, ( युवा नेता और सांसद )

फरवरी 1970 में, केरल में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसमें केरल सरकार द्वारा मठ की सम्पत्ति के प्रबंधन पर प्रतिबंध के प्रयासों को चुनौती दी गई थी। तीन साल बाद इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7-6 बहुमत से संविधान के मूल संरचनात्मक सिद्धांत को रेखांकित किया। इसमें खास तौर पर संविधान के प्रमुख सिद्धांतों और इसकी मूल संरचना में संशोधन की संसद की हैसियत पर प्रतिबंधों को नए सिरे से रेखांकित किया गया। दिलचस्प है कि जब आपातकाल घोषित किया गया तो सुप्रीम कोर्ट भी नए न्यायाधीशों के साथ ढेर हो गया था। ए.एन.राय को राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इस नियुक्ति में तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता खारिज की गई थी। गौरतलब है कि राय ने केशवानंद मामले में फैसले पर दस्तखत नहीं किए थे। उनके नेतृत्व में 13 न्यायाधीशों की पीठ के साथ ऐतिहासिक फैसले पर दोबारा गौर किया गया। मामले की सुनवाई दो दिनों तक चली। यह बात भी सामने आई कि वास्तव में कोई समीक्षा याचिका दायर नहीं की गई थी। महज एक मौखिक अनुरोध पर यह समीक्षा सुनवाई हुई। जाहिर है एक अनुचित प्रक्रिया अपनाई गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश ने एकतरफा बेंच को भंग कर दिया। केंद्र के पास एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका होने के बावजूद संविधान की बुनियादी संरचना का सिद्धांत बमुश्किल बच पाया। इस ऐतिहासिक फैसले ने देश में निरंकुशता और लोकतंत्र के बीच संतुलन साधने में मदद की।

हाल में संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217(1) की व्याख्या को लेकर केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराव सामने आया है। अनुच्छेद 124(2) इस बात पर प्रकाश डालता है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों (विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश) और राज्यों के उच्च न्यायालयों के परामर्श के बाद की जाएगी। इसी तरह उच्च न्यायालयों के लिए अनुच्छेद 217(1) इस बात पर प्रकाश डालता है कि उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा। अनेक मामलों में न्यायिक व्याख्या ने न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को और साफ किया तथा न्यायाधीशों की सिफारिश के लिए एक कॉलेजियम प्रणाली पर जोर दिया। वर्तमान में केंद्र कॉलेजियम प्रणाली द्वारा की गई सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, जबकि यदि कोई सिफारिश दोहराई जाती है तो सरकार उसे मानने को बाध्य थी। हाल में यह आम सहमति गतिरोध में बदल गई। केंद्र ने कॉलेजियम द्वारा दोहराई सिफारिशों को रोक दिया। 22 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने दूसरे न्यायाधीशों के मामले में तय समयसीमा का पालन नहीं करने के लिए सरकार की खिंचाई की। कानून व कार्मिक संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने भी न्याय विभाग से असहमति उजागर की है कि रिक्तियों को भरने का समय नहीं बताया जा सकता है।

स्वतंत्र न्यायपालिका और केंद्र के बीच इस ऐतिहासिक टकराव का एकमुश्त असर भारत की न्यायिक प्रणाली में गिरावट है। अगस्त 2022 में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की 1,108 में से तकरीबन 381 रिक्तियां थीं। निचली अदालतों में 24,631 में से तकरीबन 5,342 सीटें खाली थीं, जो इसकी क्षमता का 20 फीसद हैं। अदालतों में अगस्त 2022 तक लगभग चार करोड़ मामले लंबित हैं। न्यायिक सुधार लम्बे समय से लम्बित हैं। चुनिंदा देशों में राजनीतिक संस्थानों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। इटली में संवैधानिक न्यायालय में नियुक्तियां राष्ट्रपति, विधायिका और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती हैं। वहां प्रत्येक इकाई को पांच न्यायाधीशों को नामित करने की अनुमति है। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है और फिर बहुमत से सीनेट द्वारा अनुमोदित किया जाता है। जर्मन संवैधानिक न्यायालय को संसद द्वारा नियुक्त किया जाता है। यह एक पक्षपातपूर्ण न्यायपालिका को जन्म दे सकता है।

इसके अलावा न्यायिक चुनावों का उपयोग न्यायपालिका की जवाबदेही बढ़ाने के लिए भी किया गया है। मसलन, अमेरिका में स्टेट सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक नियुक्तियों के लिए राज्य चुनावों का उपयोग कर रहे हैं। हालांकि यह न्यायाधीशों को लोकलुभावन फैसले देने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है और न्याय व्यवस्था को विशेष रुचि समूह अपने प्रभाव में ले सकते हैं। इसका मतलब गतिरोध भी हो सकता है।

खासतौर पर गठबंधन सरकार वाले किसी लोकतंत्र के लिए यह उचित नहीं है। अन्य देशों ने न्यायिक परिषदों के साथ प्रयोग किया है। इराक में न्यायाधीश एक न्यायिक संस्थान के स्नातक हैं। वहां आवेदकों को परीक्षा से गुजरना पड़ता है। अमेरिका में राज्यपाल योग्यता आयोग द्वारा प्रदान की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। हाल ही में केंद्र ने न्यायिक नियुक्तियों को न्यायिक आयोग के माध्यम से संचालित करने पर जोर दिया है। गौरतलब है कि 16 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी अधिनियम (2014) को 4:1 के बहुमत से रद्द कर दिया। यह रेखांकित किया गया कि यह कॉलेजियम प्रणाली में अधिक पारदर्शिता के लिए खुला है। इस बात पर बहस की पूरी गुंजाइश है कि क्या न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक सशक्त सचिवालय की आवश्यकता है। एक खास झुकाव वाली न्यायपालिका से हमें बचना चाहिए।


Date:27-12-22

प्रकृति को बचाने के लिए हमें अपनी प्रवृति सुधारना होगी

डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )

संयुक्त राष्ट्र की बायोडायवर्सिटी कांफ्रेस पिछले हफ्ते मॉन्ट्रियल, कनाडा में संपन्न हुई। इसमें कई तथाकथित महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। ये कहा गया कि हमें कम समय में ज्यादा काम करना है, क्योंकि परिस्थितियां विपरीत हैं और यह माना जा रहा है कि 2030 तक दुनिया के क से कम 30% तटीय इलाके और समुद्री क्षेत्रों के संरक्षण की कोशिश होनी चाहिए। क्योंकि आज हम मात्र 17% भूमि और 8 प्रतिशत समुद्री क्षेत्रों का संरक्षण की कोशिश में जुटे हैं। वैसे हम पहले भी कई तरह के लक्ष्यों का वादा कर चुके है।

सत्य यह है कि इस तरह की गोष्ठियों से व्यावहारिक कुछ नहीं निकलता। इस बार भी जैवविविधता को लेकर काफी चर्चाएं हुई हैं और मान कर चला गया है कि सभी स्रोतों से 200 अरब डालर जुटाएं और विकासशील देशों को सालाना 30 अरब डॉलर देने की बात को दोहराया गया है। इसमें इकोसिस्टम के सभी हिस्सों को प्राथमिकता दी जाए और ये भी कहा गया है कि खेती-बाड़ी में जो छूट लंबे समय से दी गई है, उसे कम किया जाए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 80 के दशक में युनाइटेड नेशन ने ‘मैन एंड बायोस्फियर’ नाम की योजना चलाई थी, जिसके बाद दुनिया भर में कई बायोस्फियर पार्क नेशनल पार्क सेंचुरीज बने। इन्हें हर तरह के वन्य जीव और पेड़ पौधों के बचाने व संरक्षित करने की कोशिश माना गया था। लेकिन, आज भी उनके हालात अच्छे नहीं कहे जा सकते।

पृथ्वी का तापक्रम लगातार बढ़ रहा है और साथ ही हवा, पानी, मिट्टी की गुणवत्ता भी गिरती जा रही है। इसका अगर कोई समाधान छुपा है तो वो इसी समझ पर होगा कि कम से कम प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी समझौते हों वो एक बात है, लेकिन ज्यादा बड़ा समाधान आंतरिक उपायों से ही हो पाएगा। यह भी स्वीकार लेना चाहिए कि नई दिल्ली की हवा न्यूयॉर्क में बैठकर ठीक नहीं की जा सकती है। इसके लिए आंतरिक प्रयत्न ज्यादा महत्वपूर्ण और बेहतर परिणाम दे पाएंगे। हवा, मिट्टी, जंगल पानी के हालात से तो हम परिचित ही हैं। और जहां तक जैवविविधता का सवाल है तो 10 लाख प्रजातियां पहले ही खतरे में जा चुकी हैं और 1 लाख करीबन खत्म ही हो चुकी हैं तो ऐसे में फिर जैवविविधता को लेकर चिंतन और बातचीत में हम किस परिणाम पर पहुंचेंगे, क्योंकि पैसे या डॉलर से या एक बड़े इस तरह के अंतरराष्ट्रीय प्रयत्नों से हम न जैवविविधता को बचा पाएंगे और ना ही जीवन के अमूल्य संसाधनों को।

इसका अगर कहीं कोई समाधान छुपा है, तो वो अपने देश में बाकी बचे जंगलों, तालाबों, नदियों के संरक्षण से ही संभव है। यह भी जानना आवश्यक है कि जितना ज्यादा पानी होगा, जितना ज्यादा वन होंगे, बेहतर मिट्टी होगी। ये स्वयं भी जलवायु परिवर्तन में और तापक्रम स्थिर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यह सवाल इसलिए बार- बार है कि हम इस तरह की अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों से क्या पा रहे हैं? और पिछले लगातार दशकों से होने वाली गोष्ठियां किस बेहतर परिणाम की तरफ हमें ले जा चुकी हैं? क्योंकि प्रकृति और पारिस्थितिकी दुनिया भर में अगर लगातार गिरती चली जा रही हो तो सवाल इस तरह के अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों के प्रति खड़ा होना ही चाहिए। प्रकृति को बचाना है तो अपनी प्रवृति को पहले सुधारना होगा। हमें अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना चाहिए, विलासिताओं को त्याग कर ही शायद हम प्रकृति संरक्षक के बड़े वाहक बन सकते हैं।


Date:27-12-22

पूरी तरह अंतरसंबद्ध है हमारी पारि​स्थितिकी

श्याम सरन, ( लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं )

संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन के पक्षकारों का 15वां सम्मेलन (कॉप15) मॉन्ट्रियल में गत 19 दिसंबर को संपन्न हुआ। इस आयोजन में वै​श्विक जैव विविधता प्रारूप को अपनाया गया जो यह लक्ष्य तय करता है कि 2030 तक कम से कम 30 प्रतिशत क्षेत्रीय, आंतरिक जल और वै​श्विक समुद्रों का प्रबंधन संर​क्षित क्षेत्र के रूप में किया जाएगा। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन लक्ष्यों को राष्ट्रीय लक्ष्यों में कैसे बदला जाएगा या फिर राष्ट्रीय सीमाओं और दायरे के बाहर आने वाले समुद्रों का प्रबंधन कैसे होगा? रासायनिक पोषकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर एक अहम लक्ष्य है जो भारत जैसे देशों के लिए सीधे तौर पर प्रासंगिक है।

रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाले उत्सर्जन को 2030 तक आधा करने तथा जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल को एक तिहाई करने का लक्ष्य है। भारतीय पर्यावरण मंत्री पहले ही इस प्रावधान को लेकर आप​त्ति जता चुके हैं। एक और लक्ष्य है जो काफी अ​धिक महत्त्वाकांक्षी साबित हो सकता है और वह है 2030 तक प्लास्टिक कचरे को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य। इसके लिए धनरा​शि जुटाना हमेशा की तरह एक समस्या है। खासतौर पर ऐसे समय में जबकि वै​श्विक अर्थव्यवस्था गहरी मु​श्किलों से दो-चार है।

इस बात का भी जिक्र किया गया है कि सभी संभव स्रोतों से वित्तीय संसाधन जुटाए जाएंगे ताकि सालाना कम से कम 200 अरब डॉलर की रा​शि जुटाई जा सके। इसमें नए, अतिरिक्त और प्रभावी वित्तीय संसाधन शामिल होंगे और विकासशील देशों को मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता से सालाना 10 अरब डॉलर का इजाफा किया जा सकता है। मैं इसकी व्याख्या विकासशील देशों को सालाना 10 अरब डॉलर की राशि की आश्व​स्ति के रूप में कर रहा हूं जो काफी कम धनरा​शि होगी।

एक उल्लेख यह भी है कि सालाना 500 अरब डॉलर की अतिरिक्त रा​शि उन सब्सिडी को खत्म करके भी जुटाई जाएगी जो जैव विविधता के लिए नुकसानदेह हैं लेकिन यह सभी देशों पर लागू होगी। यह स्पष्ट है कि इस प्रारूप में तय लक्ष्यों को हासिल करने के​ लिए जरूरी संसाधन सभी पक्षों को जुटाने होंगे और वह भी बिना साझा लेकिन बंटी हुई जिम्मेदारी तथा संबंधित क्षमताओं का सिद्धांत लागू किए हुए। इस प्रारूप का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि कम से कम इसके माध्यम से सभी पक्षों ने एक इरादा जताया है लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इसके ​लिए जरूरी पैमाने पर संसाधन जुटाए जा सकेंगे।

बैठक के एजेंडे में एक अहम मुद्दा जेनेटिक संसाधनों और जेनेटिक संसाधनों की डिजिटल सीक्वेंस सूचना तथा जेनेटिक संसाधनों के वा​णि​ज्यिक लाभ से जुड़े पारंपरिक ज्ञान से संबं​धित है। उदाहरण के लिए औष​धीय उत्पादों के विकास में इनका इस्तेमाल।

प्रारूप के लक्ष्यों में से एक है यह सुनिश्चित करना कि ऐसी उपयोगिता से हासिल होने वाले लाभ साझा और समतापूर्ण ढंग से बांटे जाएं और इस दौरान स्वदेशी लोग और समुदाय भी इसमें शामिल हों। एक सहमति इस बात पर बनी कि ऐसी व्यवस्था बने जिसके माध्यम से जेनेटिक संसाधनों और उनके उपयोगकर्ताओं से संबं​धित डिजिटल सीक्वेंसिंग सूचना (जीएसआई) के जरिये हासिल होने वाले लाभों को समतापूर्ण ढंग से साझा भी किया जा सकेगा। इसके लिए एक बहुपक्षीय फंड की स्थापना की जाएगी। इस पहल को तुर्की में 2024 में आयोजित अगली कॉप में अंतिम रूप दिया जाएगा।

यह बात विकासशील देशों के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है जिनके यहां जैव विविधता बहुत संपन्न है और उनकी कीमती और दुर्लभ औष​धीय जड़ी-बूटियों का विकसित देश लंबे समय से अपने वाणि​ज्यिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। बदले में उन देशों को कुछ नहीं मिलता। हालांकि औद्योगिक बौद्धिक संपदा को पेटेंट आदि के माध्यम से सुर​क्षित करने पर जोर दिया गया लेकिन विकासशील देशों से थोक में जेनेटिक संसाधन लिए गए। उनमें से कई तो इस बात से भी अन​भिज्ञ थे कि वे क्या गंवा रहे हैं। जीएसआई के लिए एक बहुपक्षीय सुविधा केंद्र बनने से ऐसे संसाधनों की रक्षा करने में मदद मिलेगी और फायदों के समतापूर्ण बंटवारे के साथ उनका वा​णि​ज्यिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा।

प्रारूप में जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी के बीच के जरूरी संबंध को स्पष्ट किया जाना था। अब यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन एक बड़े और गंभीर पारि​स्थितिकी संकट का केवल एक घटक है।

जलवायु परिवर्तन और पारि​स्थितिकी में आ रही गिरावट के बीच मजबूत संबंध है। समुद्र कार्बन अवशोषण का सबसे बड़ा जरिया हैं। परंतु प्ला​स्टिक तथा अन्य हानिकारक कचरे को समुद्र में डालने से समुद्र की कार्बन अवशोषण की क्षमता काफी हद तक प्रभावित हो रही है। धरती के वन भी कार्बन अवशोषण में अहम भूमिका निभाते हैं। वनों के नष्ट होने से उनकी यह क्षमता भी कमजोर पड़ रही है। समुद्र में मौजूद प्ला​स्टिक समुद्री जीवों के लिए एक बड़ा खतरा बन रहा है। मछलियां सूक्ष्म प्ला​स्टिक कणों को खा रही हैं जो उनके माध्यम से इंसानी शरीर में भी पहुंच रहा है। समुद्रों की तापवृद्धि का असर भी समुद्र की पारि​स्थितिकी पर पड़ रहा है।

प्रारूप के मुताबिक वि​भिन्न जीव चौंकाने वाली गति से खत्म हो रहे हैं और यही वजह है कि उसने यह लक्ष्य तय किया है​ कि इंसानों के कारण जीव प्रजातियों के नष्ट होने पर नियंत्रण किया जाए। सन 2050 तक इसकी दर में 10 गुना कमी करने का लक्ष्य है। ऐसे लक्ष्यों का हासिल होना इस बात पर निर्भर करता है कि अन्य मोर्चों पर किस प्रकार के कदम उठाए जाते हैं। उदाहरण के लिए वनों में ऐसे जीवों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट होने से रोकना ऐसा ही एक कदम है। अत्य​धिक मछली मारना तथा समुद्री सतह से छेड़छाड़ को रोकना होगा ताकि समुद्री प्रजातियों को नष्ट होने से रोका जा सके।

एक पर्यावरणविद की मानें तो जैव विविधता को अगर दार्शनिक नजरिये से देखा जाए तो इसका संबंध उस ज्ञान से है जो लाखों वर्षों के दौरान जीवों की उत्पत्ति से सीखा गया है। इसका संबंध इस बात से भी है कि पृथ्वी के निरंतर बदलते माहौल और पर्यावरण में कैसे बचा रहा जा सके। इस नजरिये से देखें तो इस समय मनुष्य जैव विविधता को बहुत तेजी से नष्ट कर रहा है। हमारी वै​श्विक चर्चाओं में भी इस विषय पर अ​धिक बात नहीं होती है। अब समय आ गया है कि धरती की पा​रि​स्थितिकी की परस्पर संबद्ध व्यवस्था पर नजर डाली जाए। इसके लिए एक व्यापक दृ​ष्टिकोण अपनाना होगा। हमें एक ऐसे वै​श्विक सम्मेलन पर नजर डालनी होगी जहां इस नजरिये को लेकर बातचीत हो सके।


Date:27-12-22

विरासत का हिसाब

संपादकीय

देश का अभिलेखागार उसकी विरासत और विकास तथा इतिहास में आए उतार चढ़ावों का जीवंत दस्तावेज होता है। यह उसके समृद्ध इतिहास और आर्थिक विकास को भी परिलक्षित करता है। अभिलेखागार के दस्तावेज एक झलक में ही किसी खास वक्त का पन्ना हमारे सामने खोल देते हैं। यह कितने अफसोस की बात है कि भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार (एनएआई) 1962‚ 1965 और 1971 के युद्धों और हरित क्रांति के रिकार्ड़ से वंचित है। एनएआई के महानिदेशक के वक्तव्य से यह जानकारी उजागर हुई है। उनका कहना है कि कई केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों ने अपने रिकॉर्ड़ उसके साथ साझा ही नहीं किए जिस कारण यह निराशाजनक स्थिति पैदा हुई है। भारत सरकार और उसके संगठनों के रिकॉर्ड़ रखने की जिम्मेदारी एनएआई के ही पास है और यही उनका संरक्षण करता है। इसे वर्गीकृत दस्तावेज प्राप्त नहीं होते। रिकॉर्ड़ प्रबंधन किसी सरकार के बेहतर शासन का एक आवश्यक पहल होता है। इसके महत्व को जानते हुए भी अनेक मंत्रालयों का रुख लापरवाही भरा रहा हैऔर उन्होंने आजादी के बाद से एनएआई के साथ अपने रिकॉर्ड़ साझा ही नहीं किए हैं। देश में 151 मंत्रालय और विभाग हैं‚ जबकि एनएआई के पास 36 मंत्रालयों और विभागों समेत केवल 64 एजेंसियों का रिकॉर्ड़ है। एनआईए महानिदेशक की मानें तो स्थिति इतनी विकट है कि लगता है जैसे आजादी के बाद के अपने इतिहास के एक बड़े हिस्से को हम लगभग खो चुके हैं। रक्षा मंत्रालय ने आजादी के बाद से इस साल की शुरुआत तक 476 फाइलें भेजी थीं। 1960 तक की 20,000 फाइल को इस वर्ष स्थानांतरित किया गया है। राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखने के लिए फाइलों की रिकॉर्डिंग और छंटाई का काम हर तिमाही में किया जाना चाहिए। अभिलेखों का मूल्यांकन और एनएआई को स्थानांतरण के लिए उनकी समीक्षा करना तथा उनकी पहचान करना शासन का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जिन देशों का इतिहास उपलब्धियों से भरा होता है उनके अभिलेखागार बहुत समृद्ध होते हैं। इसलिए यह वक्त की जरूरत होने के साथ ही साथ भविष्य के लिए भी जरूरी है कि राष्ट्रीय अभिलेखागार के लिए दस्तावेजों की छंटाई और वर्गीकरण का कार्य तत्परता और पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से नियमित और लघु अंतराल पर हो। अगर ऐसा होगा तभी हमारी गौरवशाली अतीत को संरक्षित किया जा सकता है।


Date:27-12-22

नजर रखे भारत

संपादकीय

हिमालयी राष्ट्र नेपाल में रविवार को हुए दिलचस्प घटनाक्रम में सीपीएन–एमसी के नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड़’ एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सत्तासीन हुए। राष्ट्रपति विद्या भंड़ारी के प्रचंड़ को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के साथ ही आम चुनाव के बाद सरकार बनाने को लेकर जारी अनिश्चितता नाटकीयता के साथ समाप्त हो गई। 68 साल के प्रचंड़ तीसरी बार नेपाल का नेतृत्व संभालेंगे। नेपाल के सियासी गलियारे में अब तक यही माना जाता रहा था कि नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ही दोबारा प्रधानमंत्री बनेंगे‚ मगर प्रचंड़ ने अचानक से दांव चलते हुए पासा पलट दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री प्रचंड़ को बधाई दी। बहरहाल‚ भारत पड़ोसी देश के ताजा सियासी घटनाक्रम पर नजर बनाए हुए है। प्रचंड़ चीन के करीबी माने जाते हैं और पूर्व में भी उन्होंने भारत की नेपाल को लेकर बनाई गई नीतियों का पुरजोर विरोध भी किया था। के.पी. शर्मा ओली जिनके साथ प्रचंड़ सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचे हैं‚ उनकी विचारधारा भी चीन समर्थक मानी जाती है। लिहाजा‚ भारत को ताजा राजनीतिक घटनाक्रम और वहां सत्तारूढ़ हुए प्रधानमंत्री और उसके गठबंधन दल पर खासी सतर्कता बरतने की जरूरत है। यह तथ्य जगजाहिर है कि नेपाल के साथ हाल के वर्षों में भारत के संबंध थोड़े कड़वाहट भरे रहे हैं। नेपाल के साथ रिश्ते अब पहले की तरह नहीं रहे हैं। चीन की चालाकियों से नावाकिफ नेपाल के हुक्मरानों ने भारत के खिलाफ पिछले कुछ वर्षों में जमकर बयानबाजी की है। खासतौर पर लिंपियाधुरा‚ लिपुलेख और कालापानी को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद का साया और ज्यादा गहराया है। वहीं‚ नेपाल का नया नक्शा जारी करने के ऐलान के बाद पूर्व प्रधानमंत्री ओली ने भारत पर ‘सिंहमेव जयते’ का तंज कसा। दरअसल‚ वर्ष 2015 में नेपाल के संविधान में बदलाव करने के बाद से भारत और नेपाल के बीच रिश्ते और ज्यादा तल्ख हो गए। मधेसियों के साथ विवाद और हिंसक संघर्ष के बाद से दोनों देशों के बीच संबंधों में पुराना भरोसा नहीं लौट पाया है। एक बार फिर प्रचंड़ के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस छोटे मगर बेहद संवेदनशील देश की गतिविधियों पर भारत को करीब से निगाह रखनी होगी क्योंकि प्रचंड़ और ओली का अतीत भारत विरोधी और चीन के करीबी की रही है।


Date:27-12-22

Archive-Nirbhar India

Ministries must share records with National Archives, which must also get more proactive

TOI Editorials

Insofar as record-keeping is central to modern nation-building, revelations about the poor state of the National Archives of India are quite concerning. NAI is the central repository of government’s non-classified records but it is riddled with big gaps, including in seminal national events such as the 1962, 1965 and 1971 wars and the Green Revolution. Repeated requests to different ministries to transfer non-current files to NAI have fallen on deaf ears. Historian T Raychaudhuri had underlined six decades ago that NAI’s public records can facilitate smooth working of the country’s administration in the same way as memory oils man’s day-to-day life. But an institutional culture of secrecy has put paid to this potential.

India is a far cry from the US where records are automatically declassified after 25 years. NAI is not even seeking timely declassification. Its problem is that the defence ministry has not shared any files since 1960, while multiple other departments including agriculture, rural development, and food and consumer affairs have not shared anything ever. The NAI director general has correctly said that what is at stake is nothing less than “losing a large part of our history since Independence”.

The British Library is a much smarter resource to study colonial India, but we should at least have atmanirbharta in the postcolonial period. This is not of concern for historians alone. NAI provided invaluable information for the building of the Central Vista. Its cartographic treasures can be similarly useful in foreign policy. A look at older government orders can help improve the newer ones. The beginning has to be a clear directive to all ministries to share files with NAI. State-level archives have to be likewise strengthened. However, archive administrators must also step up strongly. The invitation to reading rooms and online curated tours on the UK’s National Archives home page itself is indicative of its energetic citizen outreach. In India both the moth-balled and bhadralok stereotypes of libraries need to be corrected. Because only a public that feels invested in record-keeping puts pressure on government to improve it.


Date:27-12-22

How to improve historical thinking

It is essential that citizens are equipped with tools of historical thinking in order to be able to effectively participate in a democracy

Vikram Vincent

Acommon claim by activists is that the ‘other side’ of the political spectrum is distorting history. At the 400th birth anniversary celebration of Ahom Army General Lachit Borphukan, Union Home Minister Amit Shah said, “I often hear that our history has been distorted… Maybe it’s true. But who has stopped us now from presenting a glorious history to the world?”

Reforms in textbooks

Along the lines of what Mr. Shah said, the Parliamentary Standing Committee on Education, Women, Children, Youth and Sports, headed by Vinay P. Sahasrabuddhe, presented the ‘Reforms in Content and Design of School Textbooks’ to both Houses of Parliament on November 30, 2021. The circular by the Committee stated three objectives: removing references to unhistorical facts and distortions about our national heroes from textbooks; ensuring equal or proportionate references to all periods of Indian history; and highlighting the role of great historic women heroes. Post consultations, the Committee brought out 25 suggestions that related to improvement of engagement of children for learning, content of the textbooks, representation of women in history during the Indian freedom struggle along with changing the way women are traditionally represented in textbooks, use of EdTech in content delivery, promotion of scientific temper, innovation, communication, collaboration, creativity, and critical thinking. The report also focused on the need for textbooks to promote national integration, unity and constitutional values. While acknowledging the importance of the suggestions, it is equally important to observe the class and caste composition of the Committee and the fact that it did not have a single woman member.

On July 14, 2021, the Indian History Congress (IHC) released a scathing criticism of the circular. It said: “The critique of the existing textbooks implicit in the ‘Reforms’ being contemplated is not emerging from any expert body of nationally and internationally recognised historians but from a political position favoured by non-academic votaries of prejudice. The implicit critique is in fact the same as that argued in a Report brought out recently by the Public Policy Research Centre. This is reminiscent of the effort made in 2001-2002 to make deletions from existing NCERT textbooks and… replace them with books written by those with chauvinistic and communal bias. That effort too was preceded by a publication The Enemies of Indianisation: The Children of Marx, Macaulay and Madrasa edited by Dina Nath Batra, General Secretary of the RSS-run Vidya Bharati.” The IHC release contested the three objectives of the circular by providing around 11 pages of tabular data detailing the distribution of content in existing history textbooks. The IHC continued, “School textbooks written for the NCERT by some of the tallest scholars in the country… were actually removed, and in their place books with a clear sectarian, majoritarian bias were introduced in 2002… The textbooks of the NCERT, with the brief exception of the books brought out in 2002, have always been authored by eminent scholars in the field of Indian history…. The books brought out in 2002 were severely critiqued in a publication of the IHC… Under widespread public criticism the books had to be withdrawn.”

In December 2019, at the IHC conference at Kannur University, there was an alleged altercation between Kerala Governor Arif Mohammed Khan and historian Irfan Habib. The 81st session of the Indian History Congress will take place at Madras Christian College, Chennai (December 27-29, 2022). This will be closely watched.

Is it possible to accurately recreate the past? Are the data sufficient to make causal claims? Is it possible to uphold the values of the past in its entirety or is there a possibility to reinterpret the past based on the lens we wear? Is there a scientific process involved in the study of history or is it simply static content meant for memorisation? These and other questions were answered by Professor Gary Nash and his colleagues in History on Trial: Culture Wars and the Teaching of the Past, relating to the preparation of the National History Standards in the U.S. Perhaps there are lessons to be learned from those experiences.

Tools of historical thinking

Should citizens be able to evaluate the quality of history in their textbooks? How will they do this? Is it even necessary? If the source of India’s sovereignty are the people of India, it is essential that citizens are equipped with tools of historical thinking in order to be able to effectively participate in a democracy. An analysis of the history textbooks across education boards shows that the engagement in historical thinking is abysmally low. There are various frameworks that have been proven to develop strong historical thinking such as the SCIM-C (Summarising, Contextualising, Inferring, Monitoring, and Corroborating) or ARCH (Assessment Center for History) or the Historical Thinking Standards articulated by Gary Nash et al. In the third, students engaged in activities draw upon skills in five types of historical thinking: chronological thinking; historical comprehension; historical analysis and interpretation; historical research capabilities; historical issues — analysis and decision-making.

How much work will it take to improve the history curriculum of various State boards? Perhaps, the Delhi government was wise when the Delhi Board of School Education signed an agreement with the International Baccalaureate to adopt the latter’s global curriculum framework in government schools. Even the poorest aspire for the best possible education.


Subscribe Our Newsletter