25-02-2019 (Important News Clippings)
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Date:25-02-19
डेटा संरक्षण पर जोर
संपादकीय
समूची नई पीढ़ी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाली नई ई-कॉमर्स नीति का मसौदा शनिवार को जारी किया गया। यह नीति समूचे औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि के बजाय डेटा की निजता और भारतीय कारोबारों को बढ़ावा देने पर अधिक केंद्रित है। भारतीय डेटा पर भारत के अधिकार को लेकर इतना अधिक जोर दिया गया है कि इससे ई-कॉमर्स से जुड़ा प्राथमिक लक्ष्य दूर रह सकता है। यात्रा एवं पर्यटन को छोड़ दें तो देश में ई-कॉमर्स क्षेत्र का कुल कारोबार 40 अरब डॉलर का है और सन 2026 तक इसके बढ़कर 200 अरब डॉलर का हो जाने की संभावना है। 860 अरब डॉलर के खुदरा कारोबार में ई-कॉमर्स की बाजार हिस्सेदारी अभी एक अंक में है और इसमें वृद्धि की भरपूर संभावना मौजूद है। सरकार को इस क्षेत्र के संबद्ध पक्षकारों से चर्चा करके ई-कॉमर्स क्षेत्र की जरूरतों और चुनौतियों को समझना चाहिए, बजाय कि सीमित लक्ष्यों वाली नीति को अंतिम रूप देने के। इसमें दो राय नहीं कि डेटा का संरक्षण और निजता नीति निर्माताओं के लिए अहम हैं लेकिन जैसा कि मसौदे में कहा गया इसके लिए डेटा संरक्षण विधेयक पहले ही प्रक्रियाधीन है।
डेटा, जिसे तेल जैसा नया अहम संसाधन कहा जा रहा है, के अलावा मसौदा बुनियादी विकास, ई-कॉमर्स बाजार, नियामकीय मसलों, देश में डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और ई-कॉमर्स के जरिये निर्यात बढ़ाने जैसी बातों पर ध्यान देता है। चूंकि ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश के मानक अभी अद्यतन किए गए और ऑनलाइन खुदरा कंपनियों में ढांचागत बदलाव की आवश्यकता आ पड़ी इसलिए नीति के मसौदे में ऐसी कुछ बातें खासतौर पर दोहराई गई हैं जिनका संबंध वैश्विक और भारतीय कंपनियों के लिए समान अवसर मुहैया कराने से है। मसौदे में कहा गया है कि यह सरकार का दायित्व है कि देश की विकास आकांक्षाएं पूरी हों तथा बाजार भी विफलता और विसंगति से बचा रहे। कहा गया है कि इस क्षेत्र में चुनिंदा कंपनियों का दबदबा है और आधार तथा भीम जैसी देसी पहल और मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी मौजूदा सरकार की पहलों का उल्लेख किया गया है। रोजगार निर्माण, डेटा संरक्षण और भारतीय कारोबारों की सहायता के विचार गलत नहीं हैं लेकिन सरकार को यह समझना होगा खुदरा कारोबार जिसमें भौतिक और ऑनलाइन कारोबार, एकल ब्रांड और बहु ब्रांड, बी2सी और बी2बी, भारतीय और विदेशी कारोबार आदि शामिल हैं, यह अपने आप में एक बड़ा परिदृश्य है। ऐसे में ई-कॉमर्स को डेटा केंद्रित डिजिटल कारोबार तक सीमित करना सही नहीं है। यह मसौदा लंबे समय से तैयार हो रहा था और लोकसभा चुनाव के ऐन पहले यह सामने आया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या समय रहते नई नीति तैयार हो सकेगी।
मसौदे में यह स्वीकार किया गया है कि कोई कानूनी ढांचा ऐसा नहीं है जो डेटा के आवागमन को रोक सके। इसके साथ ही नीति कहती है कि देश के भीतर बड़े पैमाने पर तैयार डेटा के बिना देसी कंपनियों द्वारा उच्च मूल्य के डिजिटल उत्पाद तैयार करने की संभावना बहुत कम है। यह भी कहा गया है कि रोजगार निर्माण के लिए डेटा पर नियंत्रण अहम है। नीति में कहा गया है कि देश और देश के नागरिकों के हित में डेटा का मुद्रीकरण होना चाहिए। भारत में कार्यालय और स्थानीय प्रतिनिधि की मौजूदगी अनिवार्य बनाकर यह नीति चीन समेत कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में ई-कॉमर्स जारी रखने को मुश्किल बनाती है। चीनी कंपनियां नियमों का फायदा उठाकर तोहफे के रूप में वस्तुएं भारत भेज रही थीं लेकिन नए प्रावधान इस पर रोक लगाते हैं। यह नीति फेसबुक और गूगल जैसे बड़े सेवा प्रदाताओं को भी दंडित करने का प्रावधान कर रही है, जिसे ये कंपनियां शायद ही भारत में नए उत्पाद जारी करें। डेटा प्रवाह को नियंत्रित करने का सुझाव कागज पर बेहतर नजर आ रहा है लेकिन वह भी अव्यावहारिक है।
Date:24-02-19
राजनीति का साम्प्रदायिक खेल
अग्निशेखर
सब जानते हैं कि देश का विभाजन मुख्य रूप से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ, लेकिन कम लोग जानते हैं कि कश्मीरी अलगाववाद उसी विभाजन की अधूरी रह गई लड़ाई का हिस्सा है। ऐसा वरिष्ठ अलगाववादी और तहरीक-ए-हुर्रियत के कश्मीरी नेता सैयद अलीशाह गिलानी कई बार बोल चुके हैं। आप उनके इन उद्घोषों को अनसुना न करें-हम पाकिस्तानी हैं, पाकिस्तान हमारा है’ या ‘‘यहां सेक्युलरइज्म नहीं चलेगा, नैशनलिज्म नहीं चलेगा, समाजवाद नहीं चलेगा..यहां सिर्फ और सिर्फ इस्लाम चलेगा’। इन्हीं साहब का यह भी कहना है-‘‘यह लड़ाई आजादीबराए इस्लाम’ है यानी यह आजादी की लड़ाई इस्लाम के लिए है। एक यही नेता हैं, कश्मीर में जो साफगोई से बात करते हैं। बाकी सब घूमा-फिरा कर बात करके गुमराह करने वाले शातिर लोग हैं। अन्य अलगाववादी कश्मीर को विवादित बताएंगे। जनमत-संग्रह कराने या राष्ट्र संघ का प्रस्ताव लागू कराने की मांग से इसे जोड़कर भारत राष्ट्र पर वादाखिलाफी का आरोप लगाएंगे। नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी आदि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टयिां इसके विलय को भारतीय संविधान की धारा 370 और आजकल 35-ए की शर्त (?) के साथ जोड़कर दलीलें देंगे। नेशनल कान्फ्रेंस आटोनॉमी की बहाली और पीडीपी सेल्फ रूल, विसैन्यीकरण आदि की मांग से अवगत कराएगी।
परंतु आपको समझने में देर नहीं लगेगी कि सारी राजनीति मुस्लिम बहुल अस्मिता केंद्रित है, जिसे चालू मुहावरे में ‘‘कश्मीरियत’ कहकर पेश किया जाता है। यह कश्मीरियत अतीत बन चुकी एक दिवंगत अवधारणा है।रहस्यवादी संत कवि अहद जरगर, स्वछ काल्र से लेकर महजूर और दीनानाथ नादिम तक का कश्मीर आज वहां नहीं है। कभी महजूर ने अपनी एक कविता में दंगे फसाद छोड़कर आपसी सौहार्द की वकालत करते हुए हिंदू को शक्कर और मुसलमान को दूध की तरह परस्पर घुल-मिलकर शरबत की तरह रहने की बात की थी। यह अलग कि उन्हीं महजूर का यह अंतर्विरोधी काव्यांश ‘‘ज़ुव जान वंदहा हा हिन्दोस्तानस, दिल छुम पाकिस्तानस सीथ’ अर्थात जी जान न्योछावर हिन्दुस्तान पर/दिल मेरा है पाकिस्तान के साथ’ भी समाज में समानांतर चलता रहा। आज वहां अब्दुल अहद आजाद जैसा कोई कवि नहीं जिसने बआवाज बुलंद कहा था-‘‘गीता की मुझे खता बताओ, ओकुरआन वाले!’ यह ऐसा ही भावबोध हुआ करता था जो कभी कश्मीर के जनजीवन का पायदान हुआ करता था। इसे अपवादों के बावजूद आप कश्मीरियत कह सकते थे। आज वही कश्मीरियत ढकोसला है। इस्लामियत का मुखौटा है। महजूर के कथित शक्कर से आज वहां सबको परहेज है। कश्मीरी पंड़ितों से विहीन कर दिया गया कश्मीर आज ‘‘मुस्लिम कश्मीर’ में बदल दिया गया है। इसे ‘‘इस्लामी राज्य’ में बदलने में संबंधित लोग आमादा हैं।
इसमें धारा 370 ने खाद-पानी मुहैया किया है। कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत के हवाले देने वाले राजनीतिक निहितार्थ के लोग हैं। अलगाववाद के नाम पर कश्मीर में चल रहे जिहादी आतंकवाद की दृष्टि से देखें तो आज कश्मीर लगभग सीरिया में बदल कर गजवाए-हिन्द परगामजन है। इसकी नजर अब हिंदू बहुल जम्मू प्रांत को रौंदकर आगे निकल दिल्ली के लालकिले पर है। उनका तराना है : ‘‘जाग उठो अहलेकश्मीर/हाथों में लेकर श्मशीर/बदलो जम्मू की तकदीर/जागो जागो सुबह हुई।’ कश्मीरी अलगाववादियों के इस तथाकथित आजादी के तराने में जम्मू की तकदीर बदलने का स्पष्ट आह्वान है, जिसके निहितार्थ जम्मू-कश्मीर की अलगाववादी राजनीति के पंडित अच्छी तरह से समझते हैं। हालांकि मुस्लिम बहुल कश्मीर के बाहर हिंदू बहुल जम्मू प्रांत की आबादी के अनुपात के चलते उसके दबाव को कम करने का प्रशासनिक खेल शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने साठ के दशक से ही खेलने के संकेत देने शुरू किए थे यानी जम्मू प्रांत के कश्मीर घाटी से लगते मुस्लिम बहुल पहाड़ी क्षेत्रों को ‘‘ग्रेटर कश्मीर’ से जोड़कर देखना। उनका इशारा डोडा, किश्तवाड़, रामबन, पुंछ, राजौरी की तरफ था। इसीलिए उन्होंने जम्मू को ‘‘ढाई जिला’ वाला प्रांत कहना शुरू किया जो आज योजनाबद्ध तरीके से लगभग बन भी चुका है। आज मुस्लिम बहुल डोडा जिला के अंतर्गत आने वाले इलाके को ‘‘चिनाब वैैली’ और बाकी जगहों को ‘‘पीर पंचाल जोन’ कहा जाने लगा है अर्थात समूचा जम्मू अब तीन क्षेत्रों में बांट दिए जाने की कगार पर है।
देखा जाए तो डोडा भू-भाग को चिनाब वैली कहना हास्यास्पद है। पता नहीं कि उसे किस परिभाषा के अंतर्गत वैली (घाटी) कहा जा रहा है। हाल में तो विगत सत्तर वर्ष से वंचित रखे गए लद्दाख को गवर्नरराज में मिले स्वतंत्र प्रशासनिक मंडल का स्वागत करने की जगह ‘‘चिनाब वैली’ और ‘‘पीर पंचाल रेंज’ को जम्मू से अलग कर मंडल का दरजा दिए जाने की मांग की गई। इसी दूरगामी साम्प्रदायिक राजनीति के चलते आज जम्मू अपने को चारों ओर से समुदाय विशेष से घिरा पा रहा है, और इसके विरुद्ध बोलने लगा है। हाल के वर्षो में जम्मू इलाके में अट्ठारह लाख से ज्यादा सरकारी भूमि रोशनी एक्ट के तहत गुप्त रूप से समुदाय विशेष को देकर जम्मू की पारंपरिक पहचान पर हमला बोल दिया गया है। यह तो भला हो सामाजिक कार्यकर्ता और वकील अंकुर शर्मा का जिनने आरटीआई ठोक कर इसका भंड़ाफोड़ किया और इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगवाई। इतना ही नहीं, म्यांमार से चले आए चालीस हजार से ज्यादा (कुछ के अनुसार एक लाख के करीब) समय के सताए रोहिंग्या मुसलमान और बांग्लादेशी मुस्लिम बांग्लादेश से कोलकाता के रास्ते सात-आठ राज्यों को लांघ कर कैसे सीधे जम्मू पहुंच कर यहां चुपचाप बसाए गए, लोग इससे आशंकित हैं। कश्मीर को इस मोड़ तक पहुंचाने वाले बाहरी-भीतरी अनगिनत कारणों में एक बुनियादी और बड़ा कारण है कश्मीर की राजनीति का ‘‘मुस्लिम राष्ट्रवादी’ गुप्त एजेंडा, जिस पर हमारे देश में बोलने का चलन नहीं है। लोग यहां हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद, हिंदू साम्प्रदायिकता, भगवा आतंकवाद पर तो रात-दिन चिल्ला-चिल्ला कर भर्त्सना करते मिलेंगे पर उसी अनुपात और तेवर के साथ शायद ही कोई बुद्धिजीवी, वामपंथी विचारक, विश्लेषक, कवि, लेखक, पत्रकार मिलेगा जो भूले से भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता, पाकिस्तानपरस्ती, मुस्लिम राष्ट्रवाद और अलगाववाद पर बोला हो या बोलने के लिए तैयार हो।
निंदा, विरोध, भर्त्सना के लिए साम्प्रदायिकता या उससे प्रेरित हिंसा का चुनाव करने और दूसरे वर्ग की साम्प्रदायिकता और उससे प्रेरित अलगाववाद तथा आतंकवाद पर चुप्पी लगाए बैठने से ऐसी पूर्वाग्रहजनित सोच ने इस देश का भला नहीं किया है।क्या किसी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने बलात विस्थापित कर दिए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर मुंह खोला ? नहीं। उदाहरण के लिए जैसे 14 फरवरी को पुलवामा हमले के बाद देश के कई राज्यों में कश्मीरी छात्रों के साथ हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं, धमकियों की निंदा करना, उनकी यथाउचित सहायता और सौहार्द की अपील करना तो सब नागरिकों का नैसर्गिक कर्तव्य है, क्या किसी अपील में ऐसे कश्मीरी छात्रों से, जिन्होंने जम्मू सहित अनेक जगहों पर खुशी का इजहार किया तथा ‘‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे गुंजाए, यह नसीहत नजर आई कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए? क्या यह शांति और समरसता का माहौल बनाए रखने के लिए आवश्यक नहीं ? देश में ऐसा बौद्धिक माहौल तैयार किया गया है कि आप किसी साम्प्रदायिक घटना पर सहज प्रतिक्रिया व्यक्त करने से डरने लगते हैं कि कहीं प्रतिक्रियावादी न कहलाएं। इस तरह के प्रतिक्रियावादी-दर्शन की सैद्धांतिकी में खोट है क्योंकि‘‘बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता’ के प्रचलित सिद्धांत ने अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को एक कवच प्रदान किया है।
Date:24-02-19
ग्रामीण महिलाओं की दशा
रवि शंकर
महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है। विकासशील देशों में इनकी भूमिका और महत्त्वपूर्ण है। पूरी दुनिया में कृषि क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं का अहम योगदान है। वे परिवार, समाज, समुदाय की सार्थक अंग हैं। जो समाज के स्वरूप को सशक्त रूप से प्रभावित करती हैं। क्योंकि महिलाएं राष्ट्र के विकास में पुरुषों के बराबर ही महत्त्व रखती हैं। हमारे देश की सत्तर प्रतिशत आबादी आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। उनमें से अधिकांश कृषि कार्यों पर निर्भर हैं। यही वजह है कि ग्रामीण महिलाएं गृहकार्य तथा बच्चों को संभालने के साथ-साथ खेती के कामों में भी हाथ बंटाती हैं। गौरतलब है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं का योगदान मात्र सत्रह प्रतिशत है, जो कि वैश्विक औसत सैंतीस प्रतिशत के आधे से भी कम है। फिर भी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर महिलाओं का श्रम में योगदान बढ़ जाए तो भारत की विकास दर दहाई की संख्या में होगी। इससे गरीबी को तेजी से कम किया जा सकता है।
भारत के कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की साठ से अस्सी प्रतिशत हिस्सेदारी ग्रामीण महिलाओं की है। जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़ों पर गौर करें तो कृषि क्षेत्र में कुल श्रम में ग्रामीण महिलाओं का योगदान तिरालीस प्रतिशत है, वहीं कुछ विकसित देशों में यह आंकड़ा सत्तर से अस्सी प्रतिशत है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और डीआरडब्ल्यूए के नौ राज्यों में किए गए एक शोध से पता चलता है कि प्रमुख फसलों की पैदावार में महिलाओं की भागीदारी पचहत्तर प्रतिशत तक रही है। इतना ही नहीं, बागवानी में यह आंकड़ा उन्यासी प्रतिशत और फसल कटाई के बाद के कार्यों में इक्यावन प्रतिशत तक है। पशुपालन में महिलाओं की भागीदारी अट्ठावन प्रतिशत और मछली उत्पादन में पंचानबे प्रतिशत तक है। यानी कहा जा सकता है कि विकासशील देशों में खेती का तकरीबन आधा काम महिलाओं द्वारा किया जाता है और इस मामले में भारत अपवाद नहीं है। फिर भी कृषि विकास के लिए रणनीतियां मुख्य रूप से पुरुषों को केंद्र में रख कर बनाई जाती हैं। बमुश्किल पांच फीसद संसाधन महिलाओं को ध्यान में रख कर खर्च किए जाते हैं और इस दिशा में कोशिशें भी नहीं होतीं। इससे कृषि उत्पादन को भी भारी नुकसान होता है।
खाद्य एवं कृषि संगठन के एक अध्ययन के मुताबिक अगर महिलाओं को पुरुषों के बराबर परिसंपत्तियां, कच्चा माल और सेवा जैसे संसाधन मिलें, तो समस्त विकासशील देशों में कृषि उत्पादन ढाई से चार फीसद तक बढ़ सकता है। इससे भूखे लोगों की तादाद को बारह से सत्रह फीसद तक कम किया जा सकता है। इससे लोगों की आमदनी भी बढ़ती, जिससे जीवन स्तर और जीवन सुरक्षा में भी इजाफा होता। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार पुरुषों का रोजगार के लिए गांवों से शहरों की तरफ पलायन होने के कारण कृषि कार्य में महिलाओ की भूमिका बढ़ रही है। इसलिए महिलाओं की कृषि कार्य में हिस्सेदारी बढ़ी है। वहीं आज की वर्तमान चुनौती जैसे कि जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण रोकने और प्रबंधन में महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। महिलाएं कृषि में बहुआयामी भूमिका निभाती आ रही हैं। बुवाई से लेकर रोपाई, निराई, सिंचाई, उर्वरक डालना, पौध संरक्षण, कटाई, भंडारण आदि सभी प्रक्रियाओं से वे जुड़ी हुई हैं। इसके अलावा वे कृषि संबंधी अन्य धंधों जैसे, मवेशी पालन, चारे का संग्रह, दुग्ध और कृषि से जुड़ी सहायक गतिविधियों जैसे मधुमक्खी पालन, मशरूम उत्पादन, सूकर पालन, बकरी पालन, मुर्गी पालन आदि में भी सक्रिय रहती हैं। साफ है, अगर महिलाओं को अच्छा अवसर तथा सुविधा मिले तो वे देश की कृषि को द्वितीय हरित क्रांति की तरफ ले जाने के साथ देश के विकास का परिदृश्य भी बदल सकती हैं।
एक ओर जहां शहरी महिलाएं स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों, कारखानों आदि में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर देश के विकास में संलग्न हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण महिलाएं खेत-खलिहानों में काम करके देश के आर्थिक विकास में अपना अमूल्य योगदान देती रहीं है। इसके बावजूद समाज में महिलाएं पुरुष से हेय समझी जाती हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि महिला पुरुष की तुलना में अपने अधिकारों के संदर्भ में सदा उपेक्षित रही हैं, इसीलिए हर समाज में महिलाओं के साथ शोषण, अन्याय और अत्याचार होता रहा है। खासकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं और भी अधिक उपेक्षित हैं। देश की कुल आबादी की लगभग सत्तर प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जो घोर अशिक्षा, अंधविश्वास और रूढ़ियों से ग्रस्त हैं। देश के विकास में ग्रामीण भारत की महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। अगर भारत में महिला वर्ग की आधी से ज्यादा इस आबादी का विकास नहीं हुआ, तो देश और समाज का विकास नहीं हो सकता।
यह ठीक है कि महिला सशक्तिकरण के मामले में भारत की स्थिति कई मायनों में बेहद अनूठी है। यहां ग्राम पंचायतों में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। विधानसभाओं और संसद में भी यही व्यवस्था करने की तैयारी है। फिर भी यह राजनीतिक सशक्तिकरण सामान्य तौर पर ग्रामीण महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में पर्याप्त बदलाव नहीं ला पाया है। यही वजह है कि कृषि उद्यम में महिलाओं की भागीदारी होने के बावजूद उन्हें समाज और राज्य से उतना सम्मान नहीं मिलता, जिसकी वे हकदार हैं। हर दृष्टि से वे उपेक्षा की शिकार हैं। यों कहें, ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक ढांचे में अब भी पुरुषों का दबदबा है। स्वास्थ्य एवं पोषण सबसे बड़ी चिंताएं हैं। महिलाएं ही पूरे घर के लिए खाना बनाती हैं, पर वे अमूमन भूखी रह जाती हैं। भारत में महिलाओं में कुपोषण के मामले तकरीबन उतने ही ज्यादा हैं, जितने कुछ अफ्रीकी देशों में खाद्य संकट के मामले हैं। बराबर कृषि कार्य के लिए उन्हें पुरुषों को दी जाने वाली मजदूरी की तुलना में कम मेहनताना दिया जाता है। जमीन का मालिकाना हक भी सामान्य तौर पर पुरुषों के नाम होता है। खेती से जुड़े अधिकतर फैसले पुरुषों द्वारा लिए जाते हैं। यह बात गौर करने लायक है कि संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी है कि स्त्री को उसके किए गए हर कार्य के लिए यह बताया जाता है कि उसका श्रम, ‘श्रम’ नहीं, घरेलू सहयोग मात्र है और यही कारण है कि अधिकतर महिलाएं जो कृषिकार्य में संलग्न हैं, खुद भी मानती हैं कि वे कोई कार्य नहीं करतीं।
भारत के गांवों को बचाने के लिए खेती को बचाना आवश्यक है, और खेती बचाने के लिए महिलाओं को साधन संपन्न बनाना भी उतना ही आवश्यक है। सरकारी नियमों के हिसाब से अभी किसान केवल वही माने जाते हैं, जिनके नाम से जमीन होती है, ऐसे में कितनी ही महिलाएं किसान के रूप में पहचानी जाने से वंचित रह जाती हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि अगर महिला किसानों को कृषि कार्य में समान अधिकार हासिल होगा, तो उत्पादन में चालीस फीसद तक की बढ़ोतरी हो सकती है। साथ ही, वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनेंगी और समाज को भी आगे ले जा सकेंगी। कहा जाता है कि जब आप गांव में एक महिला को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त तथा समृद्ध बनाते हैं तो वह महिला न केवल अपने परिवार को, अपने गांव को, बल्कि अपने देश को सुदृढ़ बनाती है। यही मूल कारण बनता है देश के विकास और अर्थव्यवस्था में सुधार का। ऐसे में जरूरत है दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की।