
24-05-2025 (Important News Clippings)
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Alas, India is No Pedestrian Country
ET Editorials
India is no country for pedestrians. Between 2019 and 2023, nearly 8 lakh people died in road accidents, 1.5 lakh of them were pedestrians, according to the Transportation Research and Injury Prevention Centre-IIT-Delhi’s ‘India Status Report on Road Safety’ released recently. That’s nearly 1 in 5 fatalities, pointing to a glaring gap in urban infrastructure. States are dragging their feet on providing even basic footpaths.
As our cities expand and densify, footpaths must stop being treated as an afterthought. They need to be wide, continuous, well-lit, unobstructed and maintained. Maharashtra leads the pack with 73% coverage in urban areas. But that figure reveals little about usability. Across cities, footpaths are broken, cluttered with spillover shops, or swallowed by parked vehicles — or even moving ones. Pedestrian safety is not just about reducing accidents. It’s about creating inclusive, breathable cities. Developed nations build around people, not cars. Walkable neighbourhoods allow access to schools, markets, clinics and workplaces within a 15-min stroll. That means cleaner air, better health, less snarly traffic and even healthier citizens.
Comfortably populated streets discourage crime, making cities safer, particularly for women, children and the elderly. Encouraging walking boosts local businesses and brings life to public spaces. Unfortunately, in India, walking is still viewed as either a compulsion, or an activity reserved for hill stations and foreign lands, or inside one’s building society compound. This mindset must change. Pedestrian infrastructure isn’t a luxury but a marker of development and democracy. A viksit India means walking outdoors being a comfortable, even pleasurable, experience for all.
Date: 24-05-25
Permanent damage
Trump administration’s attack on Harvard will have long-term impact
Editorial
Civic life in the United States stands on multiple, strong and independent institutions in different fields. These institutions, whether constitutionality mandated or not, have a continuity, life and standing of their own, beyond particular individuals. They enable diversity and pluralism, and provide protection against arbitrary decisions by those in power. Ironically enough, U.S. President Donald Trump is intent on damaging its oldest and wealthiest educational institution — Harvard. After harassing the institution with investigations, orders to turn over records, and freezing funds and grants running to hundreds of millions of dollars, the U.S. government has said that Harvard cannot enrol foreign students in 2025-26. Some 6,800 international students, including more than 750 from India, constitute more than 27% of its current student strength. They will have to transfer to other institutions within the U.S. or leave, as per the government, which does not want any new international student there in 2025-26 either. The U.S. government has said that the student visa programme is a privilege that it has granted and Harvard “relies heavily” on foreign students to “build and maintain their substantial endowment”, which is said to run to over $55 billion. And it sees foreign student visas and tax-exempt status as weapons in its arsenal against Harvard.
Across the world, the authoritarian’s playbook for pluralistic societies is to identify an enemy against whom a campaign is unleashed based on real and imagined grievances. The campaign keeps the “enemy” in a state of disarray, even turmoil, with long-term damage and a chilling effect. Though sullied by unsavoury links, from the Salem witch trials to Enron, Harvard attracts some of the brightest talent from across the world and trains them for leadership roles in their chosen fields. It represents liberalism and knowledge creation that advances globalisation. Mr. Trump’s working and middle class support base looks at Harvard as one among elitist vehicles of globalisation that have excluded them while promoting affirmative action for minorities, especially African-Americans. While lineage and family background of prospective students are a factor for Harvard, an extensive scholarship programme seeks to balance that. Harvard has said that it will go to court against the government’s move just as it sued the Trump administration for freezing government funds. While the courts may well stay the ban, the damage has been done not just to Harvard but also to the image of American higher education and democratic principles. It is damage that cannot be easily remedied.
Date: 24-05-25
हम अपनी सुरक्षा को दुनिया के भरोसे नहीं छोड़ सकते
पवन के. वर्मा, ( पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक )
जीवन की तरह कूटनीति में भी जो अनकहा रह जाता है, वह कहे जितना ही मुखर होता है। जब ट्रम्प ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद संघर्ष-विराम की घोषणा- जाहिराना तौर पर श्रेय लेने की गरज से- की, तो आतंकवाद के केंद्र के रूप में पाकिस्तान की भूमिका पर उनकी चुप्पी बहुत मुखर थी। भला अमेरिका यह कैसे भूल सकता है कि वह मानव इतिहास में सबसे घातक इस्लामिक आतंकवादी हमले का शिकार हुआ था, जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन-टॉवर को नष्ट कर दिया गया था और पेंटागन पर भी हमला किया गया था।
अल-कायदा के ओसामा बिन लादेन की सरपरस्ती में हुए उस हमले में 2977 अमेरिकी मारे गए थे, हजारों घायल हुए थे, 10 अरब डॉलर से अधिक की सम्पत्ति नष्ट हो गई थी और 430,000 लोगों की नौकरी चली गई थी। उसके बाद से 9/11 को 2000 और अकाल-मृत्युओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, और टॉक्सिक-एक्स्पोजर के कारण उस हादसे से जीवित बचे लोगों में भी कैंसर का खतरा 30% बढ़ गया है।
अमेरिका को लादेन को खोजकर मारने में दस साल लगे और उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। और लादेन कहां मिला? एबटाबाद में पाकिस्तान की हुकूमत द्वारा मुहैया कराए एक कड़ी सुरक्षा वाले घर में, जहां वह परिवार के साथ मजे से रह रहा था। यह भवन पाकिस्तान की सैन्य अकादमी से कुछ ही दूरी पर था। अगर यह आतंकवाद से पाकिस्तानी-तंत्र की मिलीभगत का खुलासा नहीं करता तो और क्या करता है?
आज भी पाकिस्तान में दर्जनों ऐसे आतंकवादी समूह और व्यक्ति हैं, जिन पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाया है। इनमें मसूद अजहर के नेतृत्व वाला जैश-ए-मोहम्मद भी शामिल है। मसूद 2019 से ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादियों की सूची में शामिल है। लश्कर-ए-तैयबा और हाफिज सईद के नेतृत्व वाला उसका प्रमुख संगठन जमात-उद-दावा भी अमेरिका, ईयू, रूस और भारत द्वारा आतंकवादी संगठन के रूप में नामजद है। 2008 के मुंबई हमले के पीछे जिस जाकिर रहमान लखी का दिमाग था, वह यूएन सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध-सूची में शुमार है। हिज्बुल मुजाहिदीन का लीडर सैयद सलाहुद्दीन और 1993 मुंबई धमाकों के लिए जिम्मेदार दाऊद इब्राहिम को भी अमेरिका ने वैश्विक आतंकवादी घोषित किया है।
आतंकवाद के प्रायोजकों पर अमेरिकी सरकार की एक अधिकृत सूची पाकिस्तान को आतंक की ऐसी ‘सुरक्षित पनाहगाह’ बताती है, जहां आतंकवादी और उनके समूह हुकूमत की मदद से दहशतगर्दी को अंजाम देने की योजनाएं बना सकते हैं, धन जुटा सकते हैं, भर्तियां कर सकते हैं, रंगरूटों को प्रशिक्षित कर सकते हैं और वारदातों को अंजाम दे सकते हैं। लेकिन अमेरिका और यूएन ने जिन आतंकवादियों को प्रतिबंधित किया है, वे पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं।
इस सबके बावजूद ट्रम्प ने संघर्ष-विराम की घोषणा करते हुए भारत और पाकिस्तान को एक साथ कैसे जोड़ दिया? उन्हें पता था कि ऑपरेशन सिंदूर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित पहलगाम हमले के प्रतिशोध के रूप में शुरू किया गया था। एक ऐसा देश- जिसने खुद पाकिस्तान में पनाह लेने वाले लादेन को खोजकर मार गिराया था- उसी का राष्ट्रपति सीजफायर के बाद पाकिस्तान प्रायोजित अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की निंदा किए बिना भारत और पाकिस्तान दोनों को उनके बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय के लिए कैसे बधाई दे सकता है?
दशकों से पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ने जवाबदेही से बचते हुए रियायतें पाने के लिए अपनी भू-राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाने की कला में महारत हासिल की है। लेकिन भारत को इन दोहरे मानदंडों का कड़ा विरोध करना होगा। दुनिया ने पाकिस्तान की हकीकत से न केवल आंखें मूंद ली हैं, बल्कि आईएमएफ ने एक बार फिर इस आतंकवादी देश को पुरस्कृत भी किया।
लेकिन भारत के पास इस तरह से अतीत को भूलने की सुविधा नहीं है। हमारे लिए पाकिस्तान में मौजूद आतंकवाद का बुनियादी ढांचा एक अस्तित्वगत खतरा है। यह हमारे लिए भू-राजनीतिक सौदेबाजी का साधन मात्र नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का साहसिक प्रयास था। इसके माध्यम से हमने संदेश दिया कि निष्क्रिय सहिष्णुता का युग समाप्त हो गया है। लेकिन जहां भारत ने निर्णायक रूप से कार्रवाई की, वहीं इस पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया बहुत लुंज-पुंज थी। आतंकवादियों को पनाह देने में पाकिस्तान की भूमिका की स्पष्ट निंदा करने से दुनिया ने जैसी कोताही बरती, वह इस संगीन हकीकत को उजागर करती है कि हम अपनी सुरक्षा को दुनिया के भरोसे नहीं छोड़ सकते। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हमें ही लड़नी होगी।
Date: 24-05-25
खात्मे के कगार पर माओवादी
आरके विज, ( लेखक माओवादियों के खिलाफ चले अभियानों का नेतृत्व करने के साथ छत्तीसगढ़ के डीजीपी रहे हैं )
हाल में सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ इलाके में माओवादियों के सबसे बड़े सरगना केशव राव उर्फ बसव राजू सहित कुल 27 माओवादियों को मार गिराया। कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) के राजू का मारा जाना जहां सुरक्षा बलों के लिए महत्वपूर्ण सफलता है, वहीं माओवादियों के लिए बड़ा झटका है। अपने संगठन का महासचिव होने के नाते राजू अपनी सुरक्षा के लिए पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की एक टुकड़ी हमेशा साथ रखता था। इसके अलावा वह जहां भी जाता था, वहां की माओवादी इकाइयां उसकी सुरक्षा में लगी रहतीं। वैसे तो माओवाद के खिलाफ पिछले एक-डेढ़ साल से सुरक्षा बलों को लगातार बड़ी सफलताएं मिल रही है, परंतु हालिया सफलता ने आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बने माओवाद के बचे-खुचे अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं।
माओवाद के संभावित खात्मे के बीच अतीत के पन्ने पलटें तो 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन के उभार और सरकारों द्वारा 1970 तक उसे नियंत्रित करने के बाद जब भाकपा-माले के संस्थापक चारु मजूमदार की मृत्यु हुई तो पार्टी कई टुकड़ों में बंट गई। आपातकाल में इन सभी पर पाबंदी लगा दी गई। आपातकाल हटने के बाद सशस्त्र विद्रोह पर यकीन करने वाले जो नक्सली नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रेरणा लेते थे, उन्होंने चीन के माओ को अपना प्रेरणास्रोत मान लिया और वे फिर से संगठित होने लगे। उन्होंने मजूमदार द्वारा अपनाई गई ‘पहले शहरों पर आक्रमण’ वाली नीति त्याग दी, परंतु सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से सत्ता हथियाने की नीति जारी रखते हुए दीर्घकालिक युद्ध का रास्ता अपनाया। माओवादियों ने अपनी तथाकथित क्रांति को पिछड़े हुए ऐसे इलाकों से शुरू करने का निर्णय लिया, जहां गुरिल्ला लड़ाई के लिए अनुकूल हालात हों। इसकी शुरुआत आंध्र से की। इसी के साथ अविभाजित मध्य प्रदेश के दंडकारण्य क्षेत्र को सुरक्षित मानकर उसे अपनी आधार भूमि बनाने का लक्ष्य रखा। 1992 में दंडकारण्य को गुरिल्ला जोन घोषित कर गणपति ने कमान अपने हाथ में ले ली। 1995 में इस इलाके में पृथक दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी गठित की गई और बसव राजू को माओवादियों के सेंट्रल मिलिट्री कमीशन का प्रमुख बनाया गया। करीब 2010 तक माओवाद प्रभावित क्षेत्र का विस्तार होता गया। सुरक्षा बलों पर कई बड़े हमले हुए और तमाम निर्दोष लोग भी मारे गए। भारत सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार लगातार सुरक्षा संसाधनों को मजबूत करने में लगी रही। सुरक्षा बलों की संख्या में बढ़ोतरी की गई। धीरे-धीरे सुरक्षा-बल माओवादियों पर प्रभावी रूप से हावी होने लगे।
2004 में जब आंध्र सरकार और माओवादियों के बीच शांति वार्ता चल रही थी, तभी ‘कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (एमएल), पीपुल्स वार और ‘माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर आफ इंडिया’ विलय कर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवाद) नाम से नया संगठन खड़ा रहे थे। दरअसल माओवादी शांति वार्ता की आड़ में स्वयं को संगठित एवं मजबूत कर रहे थे। शांति-वार्ता करना एक रणनीतिक दांव था। इसीलिए अब जब माओवादियों की स्थिति कमजोर हो चली है और वे बार-बार शांति वार्ता का अनुरोध कर रहे हैं, तो यही लगता है कि वे कुछ समय मांग कर अपने को नए सिरे से संगठित करना चाहते हैं, क्योंकि वे हथियार छोड़ने की बात कभी नहीं करते। इसीलिए उनकी शांति-वार्ता की मांग पर भरोसा करना कठिन हो रहा है।
केंद्र सरकार ने अगले साल मार्च तक माओवाद को पूर्णत: समाप्त करने का लक्ष्य तय किया हुआ है। माओवादियों के समक्ष अब दो ही विकल्प शेष हैं। पहला, यह कि बसव राजू के स्थान पर किसी अन्य को महासचिव नियुक्त कर जीती न जा सकने वाली लड़ाई जारी रखें या फिर हथियार डाल दें। अभी उनके संगठन के कथित सेंट्रल मिलिट्री कमीशन का सरगना थिपपरी तिरुपति उर्फ देवजी है और सेंट्रल रीजनल ब्यूरो का सचिव वेणुगोपाल राव उर्फ भूपति उर्फ सोनू है। वेणुगोपाल पूर्व में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी का सचिव भी रह चुका है। आसार यही हैं कि इनमें से ही किसी को कमान सौंपी जाएगी। अगस्त 2024 में माओवादियों के पोलित ब्यूरो ने यह तय किया था कि वह अस्थायी रूप से पीछे हटने (टैक्टिकल रिट्रीट) की नीति अपनाएगा। इसके जरिये माओवादी अपने काडर को बचाने के लिए सुरक्षात्मक रवैया अपनाएंगे और सुरक्षा-बलों के घेरे से बचने की कोशिश करेंगे। हालांकि उन्होंने यह भी तय किया था कि जहां भी सुरक्षा बल कमजोर होंगे, उन पर आक्रमण किया जाएगा। उन्होंने ऐसा किया भी और सुरक्षा-बलों को नुकसान पहुंचाया। चूंकि अब माओवादी कमजोर पड़ गए हैं और अपनी लड़ाई जीत नहीं सकते, इसलिए बेहतर यही होगा कि वे बिना शर्त हथियार छोड़कर लड़ाई बंद करें और मुख्यधारा में आ जाएं। इसके अलावा उनके पास कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं है। यदि वे हथियार डालते हैं तो भी सरकारों को उनकी विचारधारा से लड़ाई जारी रखनी होगी।
माओवादियों ने गुरिल्ला लड़ाई के लिए ऐसे इलाके चुने, जो तुलनात्मक रूप से पिछड़े थे और शासन-प्रशासन की पहुंच वहां कमजोर थी। फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारें विकास की कई योजनाएं इन इलाकों में चला रही हैं। विगत चार दशकों में माओवादियों ने इन इलाकों में विकास के कार्य लगातार बाधित किए, क्योंकि उनका असल लक्ष्य जन संगठनों के माध्यम से बंदूक के बल पर सत्ता हथियाना है, न कि पिछड़े इलाकों में विकास और व्यवस्था बेहतर करना। उनका मकसद केवल सरकार से लड़ाई कर राजनीतिक सत्ता हासिल करना है। चूंकि वे हिंसा का रास्ता अपनाने वाली खतरनाक विचारधारा से लैस हैं, इसलिए उनका विरोध विचार के स्तर पर भी किया जाना आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को कम करने के प्रयासों को गति दी जाए ताकि आदिवासियों, गरीबों, वंचितों के हित की नकली आड़ लेकर माओवादी या ऐसे ही अन्य तत्वों को हिंसा के रास्ते पर चलने का बहाना न मिल सके।
Date: 24-05-25
दूसरे विश्व युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था
श्याम सरन, ( लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं )
चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग 7 से 10 मई तक मॉस्को की महत्त्वपूर्ण यात्रा पर थे। 2012 में पद संभालने के बाद से यह उनकी 11वीं रूस यात्रा थी। वह विक्ट्री डे यानी विजय दिवस की 80वीं वर्षगांठ पर आयोजित समारोह के मुख्य अतिथि थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ और चीन समेत मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के हाथों नाजी जर्मनी तथा शाही जापान की हार को याद करने के लिए विजय दिवस मनाया जाता है। शी 10 वर्ष पहले भी मॉस्को में ऐसे ही आयोजन में शामिल हुए थे मगर इस वर्ष उनकी शिरकत खास थी क्योंकि वह तो मुख्य अतिथि थे ही, चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की एक टुकड़ी ने भी लाल चौक पर विक्ट्री परेड में हिस्सा लिया।
यह यात्रा और इसके इर्दगिर्द बने माहौल को दोनों देशों के बीच करीबी रिश्तों की पुष्टि के प्रतीक को दोहराए जाने के रूप में देखा जा सकता है। इस यात्रा का एक प्रभावशाली पहलू और भी था। यात्रा के दौरान 20 से अधिक द्विपक्षीय सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए और एक विस्तृत संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया। इस यात्रा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा नहीं मिली क्योंकि अमेरिका और चीन के टैरिफ समझौते की खबर ने इसे ढक लिया। दोनों देश एक दूसरे पर लागू भारी टैरिफ कम करे पर राजी हो गए। टैरिफ में कमी आरंभ में तीन महीने के लिए लागू रहेगी और इस बीच अधिक मजबूत द्विपक्षीय समझौते के लिए बातचीत जारी रहेगी। इस घटनाक्रम को अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की हार और चीन की जीत के रूप में देखा गया।
यह यात्रा तब हुई, जब भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई छिड़ी हुई थी। दोनों देश एक दूसरे पर मिसाइल और ड्रोन से हमले कर रहे थे। कुछ खबरों में दावा किया गया कि इस लड़ाई में पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध चीन द्वारा दिए गए विमानों और गोला-बारूद का इस्तेमाल किया और उन्हें भारत के राफेल लड़ाकू विमानों के बेड़े के सामने कथित रूप से कामयाबी भी मिली। इस बात ने उच्च गुणवत्ता वाले आधुनिक हथियार निर्माता के रूप में चीन की साख और बढ़ा दी। भारत के रूस निर्मित एस-400 विमानभेदी रक्षा तंत्र और ब्रह्मोस मिसाइल की कामयाबी की भी खबरें आईं। अभी भी इन दावों और प्रतिदावों की पुष्टि की कोई विश्वसनीय सूचना नहीं है। मगर चीन का कद बढ़ा है और पश्चिमी मीडिया के कुछ हिस्सों ने भी उसे उच्च तकनीक वाली शक्ति बताया है। शी की मॉस्को यात्रा को भूराजनीतिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
शी ने रूस यात्रा के पहले एक रूसी समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख में जो विचार प्रकट किए और उन्होंने तथा रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने यात्रा के अंत में एक संवाददाता सम्मेलन में जो विचार प्रकट किए, उनका बारीकी से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। ये विचार दोनों नेताओं की आश्वस्ति और विश्वास को दर्शाते हैं। दोनों नेताओं का मानना है कि ट्रंप की अनिश्चित घरेलू और बाहरी नीतियों के बीच उनके पास एक ऐतिहासिक अवसर है कि वे एक गैर पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम कर सकें जो उनके हितों के अधिक अनुकूल हो। वे यह भी मानते हैं कि इस अवसर का लाभ वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी किया जा सकता है और ब्रिक्स तथा शांघाई सहयोग संगठन को अधिक मजबूत तथा विस्तारित किया जा सकता है। इसका बदलते भूराजनीतिक परिदृश्य में भारत की स्थिति पर गहरा असर होगा।
रूस और चीन किस तरह विश्व व्यवस्था को नया आकार दे रहे हैं? पहला, वे दावा करते हैं कि वे दूसरे विश्वयुद्ध के अहम विजेता हैं और उन्होंने फासीवाद और जापानी साम्राज्यवाद को हराने में पश्चिम और अमेरिका की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका दावा है कि युद्ध के बाद बनी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में उनकी छाप है और वे संयुक्त राष्ट्र के सह-संस्थापक और यूएन चार्टर के वास्तुकार हैं। उनका आरोप है कि अमेरिका का यह दावा झूठा है कि विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था उसकी देन है और अब वह उसे नष्ट करने की धमकी दे रहा है। चीन और रूस अब युद्ध और उसके बाद की स्थिति को लेकर ‘सही नजरिया’ पेश कर रहे हैं और उनके मुताबिक यह उनकी अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही है कि वे उस व्यवस्था का बचाव करें जिसके निर्माण में उनकी अहम भूमिका है। शी ने कहा कि दोनों देशों को युद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बरकरार रखना चाहिए।
दूसरा, महाशक्ति के रूप में चीन और रूस की खास जिम्मेदारी है। शी ने कहा, ‘एकतरफा प्रतिकूल माहौल, धौंस पट्टी और सत्ता की राजनीति के समक्ष चीन, संयुक्त राष्ट् सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में प्रमुख देशों की विशिष्ट जिम्मेदारियों को निभाने के लिए रूस के साथ मिलकर काम कर रहा है। दोनों पक्षों को एक साथ मिलकर चीन और रूस की मैत्री और साझा विश्वास को क्षति पहुंचाने या सीमित करने के किसी भी प्रयास का प्रतिरोध करना चाहिए।’ यह पुतिन को स्पष्ट संदेश है कि वे ट्रंप के झांसे में न आएं।
तीसरा, रूस-चीन साझेदारी दोनों नेताओं के व्यक्तिगत रिश्तों से संचालित है और यही इसकी कमजोरी भी साबित हो सकता है। इस पर पुतिन ने कहा कि वह और चीनी राष्ट्रपति ‘व्यक्तिगत रूप से चीन और रूस की साझेदारी के सभी पहलुओं पर नियंत्रण रखते हैं और हम इस सहयोग को द्विपक्षीय मुद़दों के आधार पर और अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर आगे बढ़ाने के लिए जो संभव होगा करेंगे।’ शी ने इसे नहीं दोहराया। ऐसा करना किसी चीनी नेता के लिए ठीक भी नहीं होगा लेकिन दोनों नेताओं के बीच दुर्लभ रिश्ता है।
चौथा, इसमें संदेह नहीं कि अमेरिका द्वारा रूस को चीन से दूर करने की कोशिश हकीकत से दूर है। रूस, चीन पर बहुत हद तक निर्भर है। चीन ने पश्चिम के प्रतिबंधों के बीच उसकी मदद की थी। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। चीन जहां उत्तर में अपनी सीमाओं पर मित्र राष्ट्र की मौजूदगी से राहत लेते हुए दक्षिण में विस्तार पर ध्यान दे सकता है। हालांकि विश्लेषक इस बात को पूरी तरह नहीं समझ सके हैं।
भारत के लिए इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं? उम्मीद है कि रूस, चीन के साथ और अधिक जुड़ेगा और चाहेगा कि रूस भारत का ज्यादा ख्याल नहीं रख। अमेरिका और पश्चिम के देशों के साथ भारत की सैन्य साझेदारी का प्रभाव कमजोर पड़ सकता है क्योंकि चीन उनके बराबर सैन्य क्षमताओं के साथ टक्कर की सैन्य शक्ति बन रहा है।
भारत और पाकिस्तान के बीच समग्र शक्ति का अंतर जहां बढ़ता जाएगा, वहीं चीन पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं को बेहतर बनाने को लेकर प्रतिबद्ध नजर आ रहा है। ऐसे में पाकिस्तान इस क्षेत्र में भारत के बराबर बना रहेगा। नियंत्रण रेखा के आरपार हालिया सैन्य संघर्ष इस बात को जाहिर करता है। हमें अपने राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी लक्ष्यों की समीक्षा करते हुए उनका नए सिरे से निर्धारण करना होगा।
Date: 24-05-25
आधुनिकता की आग में जलते शहर
योगेश कुमार गोयल
उत्तर भारत में इस दिनों मौसम की मार ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। पिछले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में पारा रिकॉर्ड तोड़ स्तर तक पहुंच चुका है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार बांदा, प्रयागराज, चुरू, श्रीगंगानगर, फिरोजाबाद और आगरा में तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच चुका है। राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में तो ‘फील्स लाइक’ तापमान 50 डिग्री तक महसूस किया गया है। यह स्थिति केवल मौसम का असामान्य रूप नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन की चेतावनी है, जो अब भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को गहराई से प्रभावित कर रही है।
दिल्ली स्थित जलवायु एवं ऊर्जा नीति संस्थान ‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर’ (सीईईडब्ल्यू) की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट ‘हाउ एक्सट्रीम हीट इज इंपैक्टिंग इंडिया’ के नवीनतम आंकड़ों ने भारत में ताप संकट की भयावहता को रेखांकित किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत के लगभग 57 प्रतिशत जिले, जहां देश की लगभग 76 प्रतिशत आबादी निवास करती है, अब ‘उच्च’ से ‘बहुत उच्च’ ताप जोखिम वाली श्रेणियों में आ चुके हैं। 734 जिलों के 40 वर्षो के जलवायु और सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के आधार पर तैयार किए गए इस अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि 417 जिले अब स्थायी रूप से उच्च ताप संकट में हैं। रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि यदि यही प्रवृत्ति जारी रही तो भारत 2030 तक लगभग 3.5 करोड़ पूर्णकालिक रोजगार खो सकता है और जीडीपी में 4.5 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। पिछले वर्ष 1 मार्च से 18 जून के बीच हीटस्ट्रोक के 40 हजार से अधिक मामले सामने आए थे और 110 से अधिक मौतें दर्ज हुई थी। उत्तर भारत में वर्तमान में हीटवेव की स्थिति ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के पिलानी, गंगानगर और चुरू में तापमान 47 डिग्री से ऊपर पहुंच चुका है, वहीं उत्तर प्रदेश के प्रयागराज और बांदा में भी तापमान 46 डिग्री से ज्यादा दर्ज किया जा चुका है। दिल्ली में भी तापमान 44 डिग्री को पार कर गया है। यह स्थिति अब केवल दिन की गर्मी तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि विभिन्न रिपोटरे से स्पष्ट होता है कि रात के तापमान में भी खतरनाक वृद्धि हो रही है। पिछले एक दशक में देश के प्रमुख शहरों में बहुत गर्म रातों की संख्या तेजी से बढ़ी है। मुंबई में हर वर्ष औसतन 15, बेंगलुरु में 11, भोपाल और जयपुर में 7-7, दिल्ली में 6 और चेन्नई में 4 अतिरिक्त गर्म रातें दर्ज की गई हैं। यह परिघटना इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि जब रात में शरीर को ठंडा होने का मौका नहीं मिलता तो गर्मी से संबंधित बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। शहरीकरण की बेतहाशा गति और हरे क्षेत्रों में कटौती ने ‘अर्बन हीट आइलैंड इफैक्ट’ को बढ़ावा दिया है, जिससे महानगरों में तापमान तेजी से बढ़ रहा है। सीईईडब्ल्यू का लक्ष्य है कि वर्ष 2027 तक 300 से अधिक जिलों में स्थानीय हीट एक्शन प्लान तैयार किए जाएं। इन योजनाओं में ‘प्री-अलर्ट सिस्टम’, ‘हीट इंश्योरेंस’, ‘वर्किंग ऑवर मॉडिफिकेशन’ जैसे प्रावधान भी जोड़े जाने चाहिए। बहरहाल, जलवायु परिवर्तन की चुनौती अब केवल पर्यावरणीय नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक संकट का रूप ले चुकी है। अत्यधिक तापमान से बच्चों की पढ़ाई, महिलाओं का स्वास्थ्य, श्रमिकों की उत्पादकता और सामान्य जन की जीवन गुणवत्ता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। गरीब परिवारों के पास न तो पंखे हैं, न कूलर और न ही पर्याप्त पानी, जिससे वे गर्मी में काम करने पर विवश हैं और अकाल मृत्यु का शिकार हो रहे हैं।
दीर्घकालिक दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि भारत को जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए हर स्तर पर ठोस रणनीति अपनानी होगी। ऊर्जा नीति में बदलाव, सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, प्रदूषण नियंत्रण, जल संरक्षण, शहरी नियोजन में हरियाली का विस्तार और कमजोर वगरे के लिए शीतलन तकनीकों की सब्सिडी जैसे कदम अनिवार्य हैं। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को जलवायु न्याय के लिए सशक्त स्वर में अपनी बात रखनी होगी ताकि विकासशील देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए आवश्यक वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्राप्त हो सके। ताप संकट की भयावहता एक स्पष्ट चेतावनी है कि अब अनदेखी का समय समाप्त हो चुका है। जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की नहीं, वर्तमान की सच्चाई है और इससे लड़ने के लिए वैज्ञानिक, सामाजिक और नीतिगत स्तर पर समन्वित और ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। यदि हम अभी भी नहीं चेते तो आने वाले वर्षो में गर्मी का यह संकट न केवल बढ़ेगा बल्कि मानव अस्तित्व पर ही संकट गहराता जाएगा।