24-05-2024 (Important News Clippings)

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24 May 2024
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Date: 24-05-24

It’s Also the Journey, Not Just Destination

Tourism within India has to get more comfortable

TOI Editorials

Fuelled by economic growth and rising disposable incomes, the number of Indians holidaying abroad has skyrocketed. They are travelling not just to Paris, Lisbon or Tokyo but are increasingly choosing offbeat places and luxury locales. According to Mastercard Economics Institute’s Travel Trends 2024: Breaking Boundaries, more Indians are travelling, especially internationally, than at any time in history. In the first three months of 2024, 97 mn people travelled through Indian airports. Reaching this figure would have taken a whole year to achieve about a decade ago. Annual data for remittances reveals a significant rise in overseas travel spending, which reached $17 bn in FY24, an increase of more than 24.5% over the $13.6 bn in the previous year. In comparison, India’s inbound tourism earnings in 2023 were $28.07 bn.

But domestic travel is sluggish. India’s ranking in the World Economic Forum’s Travel and Tourism Development Index (TTDI) 2024, which reflects each country’s ability to develop and sustain its travel and tourism industry, has slipped 10 places to 39 since 2019. India scored high on price competitiveness and availability of cultural and natural resources, underscoring its potential as a tourism hotspot in the same ranking. The destinations are fab. It’s the journeys that can be Dantean. This has to drastically change.

Attracting high-end tourists, both domestic and international, won’t be easy in a competitive landscape unless gaps, such as poor security, poor infra, air connectivity, lack of hotels across budgets and patchy services, are addressed. In a letter to the PM last year, the Indian Association of Tour Operators outlined a few more reasons for the decline in inbound travel: withdrawal of incentives to tour operators on their forex earnings and lack of marketing funds. While initiatives like showcasing India during the G20 summit last year and Lakshadweep’s brand building have been cheer-worthy, they are not enough. Stakeholders need to iron out the problems to make India a pleasurable, comfortable and incredible place to explore and enjoy.


Date: 24-05-24

Powerful symbolic

The recognition of Palestine by more nations is an indictment of Israel

Editorial

The announcement by Ireland, Norway, and Spain, of their intent to formally recognise the state of Palestine, next week, is one more important sign of the changing tide of international opinion that Israel Prime Minister Benjamin Netanyahu cannot afford to ignore. In just the past month, in the UN General Assembly, 143 countries, including India, passed a resolution calling for the recognition of the Palestinian state by the UN Security Council, where the U.S. has vetoed such a move. Earlier this week, the International Criminal Court Prosecutor moved applications for arrest warrants for Mr. Netanyahu and Defence Minister Yoav Gallant for operations after October 7 in Gaza as well as the Hamas leadership for the terror attack that killed 1,200 in Israel, terming these as “war crimes”. On May 24, the International Court of Justice will pronounce another verdict in the petition by South Africa calling for additional measures in the prosecution of Israel for “genocide”. The latest decision by the three countries, that have been vocal in their criticism of Israel — they join eight EU members that have already recognised Palestinian statehood — may not materially change the situation on the ground. But it is meant to be what the Irish Taoiseach Simon Harris referred to as an “act of powerful political and symbolic value” to Israel, especially as it essays what could be the “final assault” on Rafah. While practically every country has condemned Hamas’s terror attacks, Mr. Harris said it would be a mistake to ignore the legitimate Palestinian government in the West Bank, saying that “Hamas is not the Palestinian people”. Norway’s Prime Minister Jonas Gahr Støre said that the move aimed to support “moderate forces that are on a retreating front in a protracted and cruel conflict”. Spain’s action followed its denial of port facilities to a Danish-flagged ship with explosive material from India meant for Israel, which it said was a firm policy now. Israel’s response, however, has been to recall its envoys and summon the envoys of all three countries for a dressing down.

In the immediate future, the multiple messages of near-global consensus are meant to push Israel’s government to rethink its plans for Rafah, to stop more civilian losses, and to allow humanitarian aid free access into Gaza. But in the longer term, they are meant to remind Mr. Netanyahu that even if he has disassociated himself from the “two-state solution”, this is something the world believes is the road map to peace. By turning deaf to these messages, Mr. Netanyahu is only furthering his isolation, especially from an international community that came out in full sympathy on October 7, but has grown increasingly horrified by the military campaign since then.


Date: 24-05-24

आर्थिक भविष्य का प्रवेश द्वार चाबहार

डॉ सुरजीत सिंह, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

चुनावी सरगर्मी के बीच मोदी सरकार ने विकास प्रतिबद्धताओं को प्राथमिकता देते हुए गत दिनों चाबहार बंदरगाह के प्रबंधन एवं परिचालन के लिए समझौता किया। ईरान में स्थित चाबहार पहला ऐसा बंदरगाह है, जो विदेशी धरती पर होने के बावजूद भारतीय नियंत्रण में रहेगा। यह समझौता वैश्विक भू-राजनीति में ही भारत को बढ़त नहीं दिलाएगा, बल्कि विदेश व्यापार और निवेश को बढ़ाने के लिए एक नई पृष्ठभूमि भी तैयार करेगा। चाबहार बंदरगाह के परिचालन से एक तरफ पाकिस्तान के अस्थिर व्यापार मार्गों पर निर्भरता कम होगी तो दूसरी ओर भारत के व्यापार को नई ऊंचाइयां मिलने से सतत विकास को भी बढ़ावा मिलेगा।

वर्ष 2002 में पहली बार तत्कालीन ईरानी राष्ट्रपति सैयद मोहम्मद खातमी एवं भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा रणनीतिक सहयोग को बढ़ाने के लिए चाबहार बंदरगाह को बनाने पर सहमति व्यक्त की गई थी। भारत के लिए इसके दो स्पष्ट उद्देश्य थे। पहला, चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना एवं दूसरा, पाकिस्तान के व्यापार मार्गों के विकल्प की तलाश करना। इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति 2016 में मोदी सरकार में हुई जब चाबहार में शहीद बेहिश्ती टर्मिनल को विकसित करने के लिए भारत ने ईरान और अफगानिस्तान के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया।

चाबहार बंदरगाह विकसित करने में भारत के निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसके कारण 2019 में भारत को चाबहार बंदरगाह के प्रयोग का अधिकार मिल गया, जिसका भारत को प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण कराना होता था। हालांकि इसके कारण भारत स्थायी तौर पर कोई आर्थिक रणनीति बनाने एवं उसके प्रयोग के लिए आश्वस्त नहीं था। यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीतिक सफलता ही है कि अब इस समझौते का नवीनीकरण प्रत्येक 10 साल बाद होगा। इस संदर्भ में भारत अब व्यापार की दीर्घकालिक नीतियों को क्रियान्वित कर सकेगा। चाबहार बंदरगाह में भारत के निवेश से अरब देशों में यह संदेश भी गया है कि भारत एक बदलता हुआ बड़ा निवेशक देश है, जो आधारिक संरचना का निर्माण करने में भी सक्षम है।

भारत के सभी बंदरगाहों से चाबहार बंदरगाह तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। इससे आगे सड़क एवं रेलवे ट्रैक द्वारा कैस्पियन सागर से होते हुए रूस और उससे आगे यूरोपीय देशों तक पहुंचने का विकल्प मिलता है। इस बंदरगाह के माध्यम से ईरान के प्रमुख शहर तेहरान से गुजरने वाले अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे से भी आसानी से जुड़ सकते हैं। मध्य एशिया के लैंडलाक देशों के लिए 7,200 किमी लंबा यह कारिडोर हिंद महासागर तक पहुंचने का सुरक्षित एवं सुगम मार्ग है। यह एक बहुदेशीय परिवहन मार्ग है, जिसके द्वारा तुर्किए, इस्तांबुल, बुल्गारिया, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान से आगे चीन तक पहुंचा जा सकता है। वास्तव में चाबहार बंदरगाह का व्यापार मार्ग सिल्क रूट का विकल्प भी देता है, जो स्वेज नहर की तुलना में 40 प्रतिशत दूरी कम करता है। इससे होने वाले व्यापार में न केवल 15 दिन का कम समय लगेगा, बल्कि 30 प्रतिशत सस्ता होने से प्रतिस्पर्धात्मक लाभ भी भारत को मिलेगा। इस मार्ग का प्रयोग कर भारत अपनी व्यापार क्षमता को बढ़ाने के साथ-साथ इस क्षेत्र के देशों के साथ आर्थिक संबंधों को भी मजबूत कर सकता है। इस जुड़ाव से भारत के लिए व्यापार के नए रास्ते खुलेंगे और पूरे क्षेत्र में आपूर्ति शृंखला मजबूत होगी। मध्य एशिया के संसाधन-संपन्न नए बाजारों तक भारत की पहुंच भी बनेगी। ईरान सहित मध्य एशिया के देशों से हमारा व्यापार आनुपातिक रूप से बहुत कम होता है। तुर्कमेनिस्तान से प्राकृतिक गैस, कजाखस्तान से यूरेनियम सहित यह क्षेत्र जीवाश्म ईंधन और जल विद्युत के माध्यम से भारत की ऊर्जा सुरक्षा में योगदान कर सकता है और कई महत्वपूर्ण खनिजों और धातुओं की आवश्यकता को पूरा कर सकता है। भारत भी दवा, मांस, यांत्रिक उपकरण, प्रसाधन सामग्री, गारमेंट्स, रसायन, कीटनाशक दवाएं, इंजीनियरिंग उत्पाद, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा पर्यटन और आइटी आदि के निर्यात को बढ़ा सकता है। इन क्षेत्रों में भारत रुपये में व्यापार को बढ़ावा देकर अंतरराष्ट्रीय स्वीकृत मुद्राओं पर निर्भरता कम कर सकता है।

चाबहार बंदरगाह से ईरान को भी लाभ होगा, जो पहले से ही अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों को झेल रहा है। भारत क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान करते हुए अफगानिस्तान को विभिन्न तरह की सहायता पहुंचाने के लिए इसी बंदरगाह का उपयोग करता है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण बदलती परिस्थितियों में भारत का रूस से तेल आयात काफी बढ़ा है। भारत ने अमेरिकी दबाव को न मानते हुए रूस से होने वाले तेल आयात से 25 से 30 अरब डालर बचाए हैं। चाबहार बंदरगाह समझौते के बाद रूस और भारत के व्यापार में और बढ़ोतरी होगी। चाबहार बंदरगाह द्वारा हिंद महासागर क्षेत्र में भारत का सामरिक प्रभाव बढ़ने से भू-राजनीतिक स्थिति भी मजबूत होगी।

बदलते समय में आर्थिकी अब राजनीति पर भारी पड़ रही है। चीन भी भारत के साथ व्यापारिक संबंधों को सुधारने का प्रयास कर रहा है। इसे देखते हुए अमेरिका भी कठोर रुख अपनाकर भारत की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहेगा। अब मध्य एशियाई एवं यूरोपीय देशों के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए एक उपयुक्त लाजिस्टिक्स नीति को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिससे इन देशों एवं भारत के बीच संबंध और मजबूत हो सकें। कुल मिलाकर चाबहार सिर्फ एक बंदरगाह नहीं है, यह एक ऐसे भविष्य का प्रवेश द्वार है, जो भारत की आर्थिक क्षमता को बल देने के साथ उसके अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को मजबूत करेगा। इससे क्षेत्रीय समृद्धि और आर्थिक विकास के एक नए युग की शुरुआत होगी।


Date: 24-05-24

राजकोष के लिए हो लाभांश का उपयोग

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने बुधवार को ऐलान किया कि उसके बोर्ड ने भारत सरकार को डिविडेंड (Dividend) के तौर पर दी जाने वाली राशि तय कर ली है। इसके बाद आया 2.11 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा चौंकाने वाला है। केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा इस साल पेश वित्त वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट में रिजर्व बैंक से डिविडेंड के रूप में सिर्फ 1.02 लाख करोड़ रुपये मिलने का अनुमान लगाया गया था। इस तरह सरकार के लिए मौजूदा वित्त वर्ष में यह 1.09 लाख करोड़ रुपये के अप्रत्याशित लाभ जैसा है। यह इसके बावजूद है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड ने आकस्मिक जोखिम बफर को बढ़ाकर बहीखाते के 6.5 फीसदी तक करने का फैसला किया है जो कि कुछ साल पहले घोषित दिशानिर्देशों के तहत उच्चतम स्तर है। ऐसा उच्च धन हस्तांतरण सतह पर तो सुरक्षित लगता है। फिलहाल भारत की व्यापक आर्थिक स्थिरता को लेकर कोई वास्तविक चिंता भी नहीं है।

अतिरिक्त लाभांश से निश्चित रूप से अगली सरकार के लिए काम थोड़ा आसान हो जाएगा। जब जुलाई महीने में पूर्ण बजट पेश होगा तो यह उम्मीद है कि वित्त मंत्रालय इस अवसर का इस्तेमाल अपनी राजकोषीय मजबूती की प्रक्रिया को तेज करने के लिए करेगा। सरकार के वित्त व्यवस्था पर अब भी कोरोना महामारी के कुछ प्रभाव दिख जाते हैं। महामारी आने से पहले राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 4.6 फीसदी था जो किसी भी लिहाज से ‘सामान्य समय’ के लिए काफी ज्यादा है। महामारी के वर्ष में जीडीपी में कमी और कुछ असाधारण कदम उठाने की मजबूरी की वजह से यह बढ़कर जीडीपी के 9 फीसदी से ज्यादा हो गया। हालांकि वित्त वर्ष 2024-25 के बजट अनुमान में यह अब भी 5 फीसदी से ज्यादा है।

इसलिए समझदारी इसी में है कि रिजर्व बैंक के इस धन हस्तांतरण का, जो कि जीडीपी के 0.3 फीसदी तक हो सकता है, इस्तेमाल राजकोषीय घाटे को 5 फीसदी से नीचे लाने के लिए किया जाए। मौजूदा वित्त वर्ष में सरकार की सकल बाजार उधारी 14.13 लाख करोड़ रुपये तय की गई है और शुद्ध बाजार उधारी 11.75 लाख करोड़ रुपये होगी। अगर इस आंकड़े में कुछ कमी होती है इससे कर्ज प्रबंधन में मदद मिलेगी और सरकारी प्रतिभूतियों की यील्ड में गिरावट आएगी जो कि स्वागत योग्य बात होगी।

हालांकि, राजकोषीय टिकाऊपन के बड़े सवाल का समाधान होना चाहिए। सरकार लगातार केंद्रीय बैंक से हस्तांतरण या सार्वजनिक उद्यमों से मिलने वाले लाभांश पर निर्भर नहीं रह सकती। समुचित राजकोषीय प्रबंधन के लिए जरूरत इस बात की है कि सरकार देश में कर-जीडीपी अनुपात को बढ़ाए। यह वस्तु एवं सेवा कर (GST) को सुव्यवस्थित करने से हो सकता है। तो जीएसटी परिषद में जीएसटी दरों और स्लैब को वाजिब बनाने के लिए अगली सरकार को तत्काल कदम बढ़ाने होंगे। अपरिपक्व तरीके से दरों में कटौती और कई स्लैब होने के कारण जीएसटी प्रणाली का प्रदर्शन कमजोर रहा है। प्रत्यक्ष कर सुधार के विचार पर भी नए सिरे से विचार होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) लाने की योजना में खास प्रगति नहीं हो पाई। व्यय की बात करें तो सरकार ने ऊंची उधारी के दम पर पूंजीगत व्यय को बढ़ावा दिया है। लेकिन इस तरीके को बनाए रखने की भी एक सीमा है क्योंकि सरकार के आम बजट का घाटा और सार्वजनिक ऋण काफी ऊंचा है। इसके लिए ज्यादा उपयुक्त तरीका यह होगा कि मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र का विनिवेश किया जाए। अब जबकि एयर इंडिया की सफल तरीके से बिक्री हो चुकी है, थोक में निजीकरण को वापस लाना होगा। अगले पांच वर्षों में सरकार के लिए यह अच्छा रहेगा कि विनिवेश पर जोर दिया जाए। रिजर्व बैंक के धन हस्तांतरण का तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि वित्त मंत्रालय के राजकोषीय गणित को सरल बनाया जाए लेकिन दीर्घकालिक प्राथमिकताएं पहले जैसी ही रहेंगी।


Date: 24-05-24

मनरेगा से जुड़ी समस्याएं और उनका समाधान

ए के भट्टाचार्य

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MANREGA ) समीक्षा के चरण से गुजरती प्रतीत हो रही है। समाचार माध्यमों में प्रकाशित खबरों के अनुसार मनरेगा में बड़े बदलाव भी किए जा सकते हैं। वर्ष 2005 में संसद में एक विधेयक पारित कर तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार ने इस योजना की शुरुआत की थी। मनरेगा में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार एक निश्चित पारिश्रमिक पर सुनिश्चित करने का प्रावधान है।

पिछले कई वर्षों में मनरेगा के सफल होने पर संदेह जताने के साथ ही इस पर सवाल भी खड़े हुए हैं। हालांकि, इन तमाम किंतु-परंतु के बावजूद मनरेगा ने संकट के समय अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। विशेषकर, कोविड-19 महामारी के दौरान इस योजना से ग्रामीण श्रमिकों को रोजगार पाने में काफी सहायता मिली। मनरेगा कोष (MANREGA Fund) का इस्तेमाल और भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव के बीच सीधा संबंध दिखा है। तालिका में यह स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है कि मनरेगा की शुरुआत के दो वर्षों बाद ही देश की आर्थिक वृद्धि कम होकर 2008-09 में 3.1 प्रतिशत रह गई। वैश्विक वित्तीय संकट इसका एक बड़ा कारण रहा था। वित्त वर्ष 2007-08 में देश की आर्थिक वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत थी परंतु इसकी धार कुंद पड़ गई। बाद के वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सुधार अवश्य हुआ परंतु देश में रोजगार की उपलब्धता पर गहरी चोट पड़ी। इसका परिणाम यह हुआ कि मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग और आवंटित रकम दोनों में भारी बढ़ोतरी हुई।

कोविड-19 महामारी के समय भी ऐसा देखा गया। कोविड से बिगड़ी परिस्थितियों के बीच नीति निर्धारक अर्थव्यवस्था को संभालने की जद्दोजहद कर रहे थे और इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की यह योजना एक ताकतवर माध्यम बन गई। वर्ष 2020-21 में मनरेगा के अंतर्गत रोजगार खोजने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई।

यह बात भी विचारणीय है कि मनरेगा की शुरुआत के बाद जब वैश्विक वित्तीय संकट या कोविड से प्रभावित वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था कराह रही थी तब इस योजना के लिए वित्तीय आवंटन बढ़कर केंद्र सरकार के कुल का 3 प्रतिशत (सकल घरेलू उत्पाद का 0.5 प्रतिशत) से अधिक हो गया। अब स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि अगर मनरेगा आर्थिक चुनौतियों के समय मददगार साबित हुई है तो फिर इसकी समीक्षा या इसमें बदलाव की आवश्यकता क्यों आन पड़ी है? जैसा तालिका में दर्शाया गया है, देश में आर्थिक चुनौतियां कम होती हैं तो सरकार के खजाने पर बोझ भी कम हो जाता है और रोजगार तलाशने वाले लोगों की संख्या घट जाती है। उदाहरण के लिए वर्ष 2023-24 में केंद्र सरकार के कुल व्यय में मनरेगा का हिस्सा मात्र 1.9 प्रतिशत था। वर्ष 2014-15 और इससे भी पहले 2006-07 में मनरेगा का केंद्रीय व्यय में लगभग इतना ही हिस्सा रहा था। उन वर्षों में रोजगार की मांग कम थी और अर्थव्यवस्था चुस्त-दुरुस्त थी।

संकट के वर्ष गुजरने के बाद भी लोग नौकरियों की तलाश में भटकते हैं तो यह इस बात का सीधा संकेत है कि अर्थव्यवस्था, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र के लिए हालात अनुकूल नहीं हैं। इसी तरह, मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग नीति निर्धारकों को यह संकेत भी देती है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक दबाव कहीं न कहीं से गुजर रहे हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में मांग को ताकत देने में ग्रामीण क्षेत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, ऐसा आभास हो रहा है कि मनरेगा को लेकर सरकार कुछ चिंतित है, इसलिए दो विशेष कारणों से वह इसकी समीक्षा करना चाहती है। पहला कारण तो यह है कि मनरेगा उन योजनाओं में एक है जिनमें केंद्र सरकार पूरा वित्तीय दायित्व उठाती है मगर इनके तहत होने वाले कार्य की निगरानी राज्य सरकारें करती हैं। तर्क दिया जा रहा है कि अगर राज्य मनरेगा में वित्तीय अंशदान दें तो इसके तहत संपादित कार्य की गुणवत्ता में काफी सुधार होगा। इसके सकारात्मक प्रभाव यह होंगे कि अधिक उत्पादकता वाली एवं उपयोगी संसाधन तैयार होंगे।

कुछ राज्य मनरेगा के प्रावधानों का अपने विशेष हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह मनरेगा की समीक्षा का दूसरा कारण है। मनरेगा का ढांचा मांग आधारित है जिसमें परियोजनाओं पर रकम उसी स्थिति में खर्च की जानी चाहिए जब परेशान श्रमिक रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे होते हैं। जिन परियोजनाओं के क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों का है उनके लिए मनरेगा की रकम का उपयोग नहीं होना चाहिए। राज्य सरकारों को अपने बजट से इन परियोजनाओं को आगे बढ़ाना चाहिए। वर्तमान स्थिति में निगरानी के अभाव में मनरेगा के कोष का दूसरे मदों में इस्तेमाल हो रहा होगा। खबरों के अनुसार उन राज्यों में ऐसा अधिक हो रहा है जहां पारिश्रमिक तुलनात्मक रूप से अधिक है। ऐसे राज्य मनरेगा की रकम अपनी कल्याणकारी योजनाओं को पूरा करने में खपा रहे होंगे।

एक और रुझान सामने आ रहा है जो चिंता का कारण हो सकता है। पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े कह रहे हैं कि वर्ष 2018 से 2020 के बीच पश्चिम बंगाल ने मनरेगा के अंतर्गत आवंटित रकम का सर्वाधिक इस्तेमाल किया था। इसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक रहे। इतना ही नहीं, वर्ष 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार केंद्र द्वारा मनरेगा पर किए गए कुल व्यय में पांच दक्षिणी राज्यों-आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना- की हिस्सेदारी एक तिहाई से अधिक रही। वर्ष 2022-23 और 2023-24 में पश्चिम बंगाल को मनरेगा अधिनियम, 2005 के प्रावधान 27 के अंतर्गत रकम रोक दी गई। केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए राज्य को रकम से वंचित किया गया था। अतः स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि अगर नियमों का पालन नहीं करने वाले राज्यों को रकम से वंचित किया जा सकता है तो मनरेगा कोष का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए निगरानी तंत्र को मजबूत क्यों नहीं बनाया जा सकता? मनरेगा के संचालन में राज्यों को वित्तीय अंशदान देने के लिए कहना आसान है मगर इससे योजना के बेजा इस्तेमाल से उठने वाली चिंता एवं समस्याएं दूर नहीं होंगी। अगर प्रत्येक राज्य को उनके यहां मनरेगा के संचालन पर होने वाले व्यय में 20 या 40 प्रतिशत हिस्सा देने के लिए कहा जाए तो इससे केंद्र पर राजकोषीय बोझ अवश्य कम होगा परंतु मनरेगा कोष के अनुचित इस्तेमाल की समस्या दूर नहीं होगी। किसी भी सूरत में, अगर राज्यों को मनरेगा के बजट में योगदान देने के लिए कहा जाता है तो इससे संबंधित कानून में संशोधन की आवश्यकता होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार संकट दूर करने में काम आने वाले तात्कालिक उपायों में मनरेगा भी एक है। सरकार को केवल स्वयं पर वित्तीय बोझ कम करने में उलझने के बजाय साझा निगरानी व्यवस्था के माध्यम से इसके क्रियान्वयन से जुड़ी दिक्कतों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए।


Date: 24-05-24

संघर्ष के बीच

संपादकीय

जिस दौर में इजराइल और हमास के बीच का संघर्ष अपने सबसे तीखे चरण में चल रहा है, उसमें तीन यूरोपीय देशों की ओर से फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देने की घोषणा अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से एक बेहद अहम घटनाक्रम है। माना जाता है कि चूंकि अमेरिका इजराइल के साथ आमतौर पर खड़ा दिखता है, इसलिए इसका असर यूरोप पर भी होता रहा है। यही वजह है कि ज्यादातर यूरोपीय देश फिलिस्तीन के खिलाफ इजराइल के आक्रामक रवैये के बावजूद या तो चुप रहने या फिर नरम रुख अख्तियार करने का रास्ता अपनाते हैं। ऐसे में स्पेन, नार्वे और आयरलैंड की ओर से फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देने की घोषणा निश्चित रूप से नए समीकरण खड़े कर सकता है। इस फैसले से इजराइल का परेशान होना स्वाभाविक है, क्योंकि फिलहाल उसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन की जरूरत महसूस हो रही है। यही वजह है कि उसने इन तीनों देशों के रुख को आतंकवाद को पुरस्कृत करना बताते हुए वहां से अपने राजदूतों को वापस बुला लिया है।

इस मसले पर नार्वे ने साफ कहा कि अरब शांति योजना के लिए फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देना जरूरी है। स्पेन और आयरलैंड ने भी इस कदम का उद्देश्य इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को द्वि-राष्ट्र समाधान के जरिए हल करने में मदद करना बताया है। गौरतलब है कि इजराइल पर हमास के हमले के बाद वैश्विक स्तर पर इजराइल के प्रति सहानुभूति का रुख सामने आया था। मगर उसके बाद इजराइल के बेलगाम हमले और उसमें पैंतीस हजार से ज्यादा फिलिस्तीनी आम लोगों के मारे जाने के बाद अब उसके प्रति समर्थन में तेजी से कमी आ रही है। ऐसे में इजराइल का पक्ष लेने के बजाय अगर स्पेन, नार्वे और आयरलैंड ने फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देना तय किया है तो यह एक तरह से इजराइल के रवैये पर सवाल उठाना भी है। हालांकि इससे वैश्विक स्तर पर स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वीकार किए जाने के मामले में फिलिस्तीन की राह के रोड़े खत्म नहीं हुए हैं, लेकिन इतना तय है कि स्पेन, नार्वे और आयरलैंड के ताजा रुख से यूरोप के कुछ अन्य देशों पर भी फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने का दबाव बढ़ेगा।


Date: 24-05-24

भारी पड़ती कुदरत की मार

अनिरुद्ध गौड़

दुबई में पिछले महीने भयंकर आंधी-तूफान भारी बारिश और बाढ़ से हालात संभाल भी नहीं थे कि इस महीने की शुरुआत में दूसरी बार हुई ओलावृष्टि और भारी बारिश ने हालात और बिगाड़ दिए। दुबई में बारह घंटे में बीस मिमी और अयुधायी में चौबीस घंटे में चौतीस मिमी बारिश हुई, जो अप्रैल-मई में होने वाली बारिश से चार गुना ज्यादा है। शेष और शोधकर्ता इन देशों में चरम वर्षा के पीछे जलवायु परिवर्तन को कारण बता रहे हैं। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि यह शोध का विषय है।

प्राकृतिक तूफान से दुबई का हाल ऐसा हुआ कि 15 और 16 अप्रैल की वर्षों से दुबई में भयानक बाढ़ जैसे हालात हो गए। आंधी-तूफान से ऊंची इमारतों की बालकनी में रखे सामान उड़ गए लोगों की कारे जहां-तहां दूब गई माल घर और बड़े-बड़े दरों की इमारतों में पानी घुस गया। दुनिया का बेहद व्यस्त दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जलमग्न हो गया। समाम अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द करनी पड़ी और हवाई जहाजों को पार्क करने के लिए जलमग्न हवाई अड्डे पर ऊंचाई वाली जगहे तलाशनी पढ़ी। यहाँ कभी इतना पानी नहीं बरसा, इसलिए जल निकासी व्यवस्था भी इसके लिए तैयार नहीं थी।

पृथ्वी पर 71 फीसद पानी और 29 फीसद जमीन है। इस 29 फीसद जमीन पर एक तिहाई भाग ठंडा और गर्म रेगिस्तान है। अस्य का उपोष्णकटिबंधीय रेगिस्तान 23.3 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इसका अधिकतर भाग सऊदी अरब में है, जबकि बड़ा भाग गार्डन, इराक, कुवैत कतर, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान और यमन तक फैला हुआ है। रेगिस्तान में पूरे वर्ष में 250 मिमी से भी कम औसत वर्षा होती है। दुनिया के लोग खाड़ी के रेगिस्तानी देशों में इतनी बड़ी पारिश की तबाही का मंजर देख कर हैरान हैं। क्या यह जलवायु परिवर्तन का असर है या कुदरत के काम में मानव की दखलंदाजी है?

भयानक आंधी-तूफान से सऊदी अरब, बहरीन, कतार, ओमान में स्याही मच गई, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में भारी वर्षा और तूफान से स्थिति गंभीर हो गई। राजधानी अबुधावी सहित आधुनिक शहर दुबई में चारों तरफ पानी भर गया। सभी गतिविधियां रुक गई। ओमान में तूफान और भारी बारिश का कहर हुआ, अनेक लोग मरे, तो बाढ़ से नदियां उफन गई, जिनकी जद में कई शहर आ गए। इसी दौरान पाकिस्तान के बलूचिस्तान और सहित अफगानिस्तान के इलाकों में भी भारी बारिश की वजह से लोग शाहिमाम कर उठे।

संयुक्त अरब अमीरात अपने रेगिस्तानी शहरों को हरा-भरा करने और घटते भूजल स्तर को सुधारने के लिए अक्सर वर्ष में कई बार “क्लाउड सीटिंग’ से वर्षा कराता है। इससे तीस से पैंतीस फीसद अधिक बारिश हो जाती है। हालांकि यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इस घटना से पहले कृत्रिम बारिश के कितने प्रयास हुए, लेकिन दुबई में इस तरह की भारी वर्षा कभी नहीं हुई।

कृत्रिम बारिश की विधि विज्ञान ने ईजाद कर ली है। चीन में जब 2022 में ओलंपिक खेल हुए तो खबर थी कि बेजिंग में उद्घाटन से पहले बादलों में क्लाउड सीटिंग कर पहले ही वर्षा कर उन्हें हल्का कर दिया गया, ताकि उद्घाटन के दिन बदल न बरसे दुबई में राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केंद्र (एनसीएम) कृत्रिम बारिश कराने के लिए हवाई वान के जरिए रसायन का छिड़काव कर क्लाउड सीटिंग करता रहता है मगर इस तकनीक में अभी यह कहना मुश्किल है कि किस प्रयास से कितनी अधिक बारिश होगी। पर इतना तो जरूर है कि मौसम में बदलाव लाने की कोशिश प्रकृति से छेड़छाड़ का दुस्साहस है।

अटकले लगाई जा रही है कि दुबई में क्लाउड सीटिंग ने इस भारी वर्षा में योगदान दिया है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि आंधी- तूफान और बारिश के पूर्वानुमान की सूचना देने वाली दुबई की व्यवस्था और एजेंसियों ने पहले ही भारी आंधी-तूफान और बारिश की चेतावनी दे दी थी। प्रश्न है कि फिर ओमान और बहरीन ने तो क्लाउड सीडिंग नहीं की थी, फिर यहां क्यों भारी बारिश हुई। समझा जा रहा है कि समुद्री इलाके में भारी दबाव के चलते सयाही की बारिश हुई है। प्रश्न है कि आखिर खाड़ी देशों में इस तरह आंधी-तूफान और बारिश क्यों हो रही है. जयकि यहां आमतौर पर इन दिनों बारिश नहीं होती। विशेषज्ञों का मानना है कि मध्यपूर्व में मौसम बदलने के पीछे की वजह दक्षिण पश्चिम की ओर से आया कम दबाव है और इसी वजह से बने बादलों ने मध्यपूर्व के इन देशों में कहर ढाया।

पिछले पचहत्तर वर्षों में दुबई में इतनी भारी बारिश नहीं हुई है। दो दिन में डेढ़-दो साल में होने वाली बारिश के बराबर पानी बरस गया। ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ की एक खबर में दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के मौसम संबंधी आंकड़े बताते हैं कि उस दिन सोमवार को देर रात से सुबह तक लगभग 20 मिलीमीटर बारिश हुई। फिर मंगलवार सुबह शुरू हुई बारिश ने चौबीस घंटे में 142 मिलीमीटर (5.59 इंच) वारिश कर दी। जयकि यहाँ पूरे वर्ष में कुल 94.7 मिलीमीटर (3.73 इंच) बारिश होती है।

वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी और मौसम के बदलावों को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने 1992 में चिंता जताई थी। फिर 1992 में रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में इसका खाका तैयार किया गया। इस सम्मेलन के उप-महासचिव रहे नितिन देसाई ने एक पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में बताया कि उस समय अमेरिका जैसे कई देश इस बात को लेकर संशय में थे कि क्या वाकई इंसानों की वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी प्रकोष्ठ की पहली रपट में तो खुले तौर पर इसे जिम्मेदार नहीं माना गया था, लेकिन 2001 में अपनी तीसरी रपट में उसने यह बात स्वीकार की थी कि इंसानों की वजह से भी जलवायु परिवर्तन हो रहा है। आज तो इस यात पर आम सहमति भी है।

समुद्र तल बढ़ रहा है, वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री से ऊपर जा रहा है सदी के मौसम में गर्मी और गर्मी के मौसम में सर्दी, तापमान ऊपर- नीचे कई इलाके सूखा झेल रहे हैं, जो वनों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं रेगिस्तानी इलाकों में भारी वर्षा और स्याही की चरम मौसमी घटनाएं जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है जो घटनाएं पिछले पचहत्तर वर्ष में न हुई हो और एकाएक हो जाएं, तो यह बहुत चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र की ‘काप 28’ जलवायु वार्ता में, जो संयुक्त अरब अमीरात में ही हुई, बढ़ते तापमान और ‘ग्लोबल वार्मिंग की चिंताओं से निपटने के लिए रणनीति बनाई गई अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने भी कहा है कि अगर दुनिया ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखना चाहती है तो जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को समाप्त करना होगा। यानी सभी देशों को अपनी पर्यावरणीय योजनाओं को बताने और उनके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की जरूरत है। नहीं तो दुबई जैसी घटनाएं आम हो जाएंगी।


Date: 24-05-24

चुनाव आयोग से अपेक्षा

संपादकीय

चुनाव आयोग से अपेक्षाएं बढ़ी हैं, तो शिकायतों का भी अंबार लगने लगा है। इसी कड़ी में आयोग के ताजा हलफनामे को देखा जा सकता है। चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि आयोग के लिए फॉर्म 17सी के आधार पर मतदान संबंधी आंकड़ों के रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने का कोई कानूनी आदेश नहीं है। आयोग मानता है कि इन आंकड़ों का खुलासा अतिसंवेदनशील हो सकता है। चुनाव आयोग ने यह हलफनामा ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’, यानी एडीआर और ‘कॉमन कॉज’ द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में दायर किया है। याचिका में मौजूदा लोकसभा चुनावों में मतदान डाटा के तत्काल प्रकाशन की मांग की गई है और चुनाव आयोग शायद इसके लिए तैयार नहीं है। ध्यान रहे, यह देश अपनी तमाम सांविधानिक संस्थाओं से ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता की अपेक्षा करता है। सहजता से अगर देखें, तो कोई संस्था जब अपने आंकड़ों की गोपनीयता के प्रति ज्यादा आग्रह दिखाती है, तब बहुत से संवेदनशील लोग चिंतित हो जाते हैं। पारदर्शिता से ही विश्वसनीयता का विकास होता है और आयोग को यथासंभव जल्दी के साथ मतदान संबंधी आंकड़ों को सार्वजनिक करना चाहिए।

हां, तकनीकी रूप से चुनाव आयोग सही है। आंकड़ों को सबके लिए सार्वजनिक करना उसका कानूनी कर्तव्य नहीं है। बाध्यता नहीं है कि आयोग फॉर्म 17सी के तहत दर्ज प्रामाणिक आंकड़ों को सबसे साझा करे। दरअसल, चुनाव आयोग आंकड़ों की खान है और वह अपने तमाम आंकड़ों को उजागर करता रहा है। उसे इस मोरचे पर किसी भी तरह की हिचक से बचना चाहिए। संविधान रचने वालों ने सांविधानिक संस्थाओं से यही उम्मीद की थी कि जैसे-जैसे देश के लोगों को जरूरत होगी, ये संस्थाएं अपने को समय के अनुरूप बदलेंगी। हर बात के लिए लिखित कानून का इंतजार या कानून के अभाव का हवाला अनुचित है। अगर आयोग ने समय के साथ अपनी किसी नीति में परिवर्तन किया है, तो उसके बारे में भी लोगों को पता होना चाहिए। मात्र तकनीकी आधार पर सूचनाओं के प्रसार को नहीं रोका जा सकता। यह कहना नैतिक रूप से ठीक नहीं है कि उम्मीदवार या उसके पोलिंग एजेंट के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को फॉर्म 17सी की सूचनाएं प्रदान करने का कोई कानूनी आदेश नहीं है।

इस समग्र मामले को पूरी गंभीरता और साफगोई से देखना चाहिए। वैसे तो चुनाव आयोग मतदान के आंकडे़ जारी कर रहा है, पर जारी करने में देरी हो रही है और इसी देरी से संदेहों को बल मिल रहा है। अनेक लोग सवाल उठा रहे हैं। एक विश्लेषण के अनुसार, 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले चार चरण के लिए हुए चुनाव में मतदान आंकड़ों में 1.07 करोड़ वोटों का अंतर लगता है। आशंका है कि प्रति सीट औसतन 28,000 वोटों की वृद्धि हो रही है। ये वोट किधर जा रहे हैं, इससे किसे लाभ होगा, इसकी चिंता अगर कुछ चुनाव विशेषज्ञों को हो रही है, तो आश्चर्य नहीं। चुनाव आयोग को अपने ठोस और अकाट्य जवाब के साथ सामने आना चाहिए। तकनीकी बहानों के पीछे ज्यादा समय तक छिपा नहीं जा सकता, क्योंकि अंतत: आज के समय में आंकड़ों को छिपाना असंभव है। छिपाए गए आंकडे़ देर-सबेर सामने आएंगे, तब इससे आयोग की ही प्रतिष्ठा प्रभावित होगी। अत: आयोग को अपने वर्तमान ही नहीं, भविष्य को भी संदेहों से परे बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए।


Date: 24-05-24

सड़क पर सबके काम आए अच्छा कानून

कमलेश जैन, ( अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)

पुणे में एक नाबालिग के शराब पीकर दो नौजवानों को रौंदने की घटना कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाती है। इस पूरी घटना में पुलिस-प्रशासन के साथ-साथ किशोर न्याय बोर्ड के रवैये पर भी सवाल उठ रहे हैं, जो बिल्कुल स्वाभाविक हैं। दरअसल, शनिवार-रविवार की रात 17 वर्ष का एक किशोर शराब के नशे में अपने पिता की पोर्श कार करीब 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ा रहा था और उसने एक बाइक को पीछे से टक्कर मार दी, जिससे बाइक पर सवार दो युवा इंजीनियरों की मौत हो गई। लोगों ने आरोपी को पुलिस के हवाले किया और पुलिस उसे लेकर किशोर न्याय बोर्ड पहुंची, लेकिन वहां उसे न सिर्फ बड़ी आसानी से जमानत मिल गई, बल्कि 300 शब्दों में ‘सड़क दुर्घटना’ पर एक निबंध लिखने को भी उसे कहा गया। इसकी विशेषकर सोशल मीडिया में तेज प्रतिक्रिया हुई और किशोर न्याय बोर्ड की लानत-मलामत शुरू हो गई। नतीजतन, बोर्र्ड ने न सिर्फ अपना फैसला बदला, बल्कि 5 जून तक किशोर को बाल सुधार गृह में भेज दिया। हालांकि, यह अब तक स्पष्ट नहीं किया गया है कि उस किशोर को बालिग की तरह सजा दी जाएगी या नाबालिग की तरह रियायत?

यह जानकारी देश के संभवत: बहुत कम लोगों को है कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में साल 2021 में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए थे, जिसे 1 सितंबर, 2022 को लागू कर दिया गया है। यहां इसकी धारा 18 का जिक्र आवश्यक है, जिसमें पहले यह प्रावधान था कि जिनकी उम्र 18 साल से कम है, उनके द्वारा यदि कोई ‘छोटा’ या ‘गंभीर’ अपराध किया जाता है, तो उसका निस्तारण किशोर न्याय बोर्ड करेगा। मगर 2021 के संशोधन में न सिर्फ इसमें ‘जघन्य अपराध’ को शामिल किया गया, बल्कि उम्र सीमा घटाकर 16 साल की गई। यानी, अपराध की गंभीरता को देखते हुए आरोपी को बालिग माना जा सकता है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत उस पर मुकदमा भी चलाया जा सकता है। जाहिर है, कानूनी संशोधनों के मुताबिक इस किशोर को भी उम्र और अपराध की प्रकृति के मुताबिक बालिग समझा जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं किया गया। वैसे कानून यह भी है कि वह 16 वर्ष से कम भी होता, तब भी इतना गंभीर अपराध करके वह बाल सुधार गृह नहीं, जेल जाता या सजा पाता।

अफसोस की बात यही है कि यह कानून 1 सितंबर, 2022 से भारत में लागू है, फिर भी इसकी जानकारी कम लोगों को है। साधारण व्यक्ति की बात छोड़िए, इस मामले में तो यही जान पड़ता है कि संबंधित अधिकारीगण और किशोर न्याय बोर्ड भी आंखें मूंदे हुए है। यहां आरोपी को अपने परिवार के रसूख का फायदा मिलता भी दिखता है। इतना गंभीर अपराध करने के बाद भी यदि आरोपी को तुरंत जमानत मिल गई, तो यह बात कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था पर सवाल उठाती है। यह भी संकेत है कि आरोपी के परिजनों के दबाव में उसे राहत दी गई थी। उल्लेखनीय यह है कि किशोर न्याय अधिनियम में ‘छोटे’, ‘गंभीर’ और ‘जघन्य’ अपराधों की श्रेणियां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शिल्पा मित्तल बनाम दिल्ली के मामले में साल 2020 में दी गई टिप्पणी के बाद बांटी गई थीं, जिसमें कहा गया था कि किशोर न्याय अधिनियम में अपराध की चौथी श्रेणी ‘जघन्य अपराध’ के लिए प्रावधान नहीं किए गए हैं, जिसमें अपराध के लिए अधिकतम सजा सात वर्ष है, किंतु न्यूनतम सजा नहीं है।

स्पष्ट है, किशोर न्याय बोर्ड को इस कानून की जानकारी होनी चाहिए थी और इस मामले को नियमित अदालत में कार्रवाई के लिए भेजना चाहिए था। उसका कर्तव्य आरोपी को सही मार्ग दिखाना है, इसलिए उसकी यह अनभिज्ञता दुखद है। पीड़ित परिवार चाहे, तो उच्च न्यायालय जाकर इंसाफ की गुहार लगा सकता है। इस मामले में पुलिस चाहती, तो काफी कुछ कर सकती थी। ऐसे मामलों को रोकने के लिए उसके पास कई शक्तियां हैं। मसलन, पुलिस किसी को भी, बिना कारण भी, गिरफ्तार कर सकती है, जिसने किसी पुलिस अफसर के सामने एक गैर-जमानतीय अपराध किया हो। इतना ही नहीं, यदि किसी के खिलाफ वाजिब शिकायत की गई है या उसके खिलाफ कोई विश्वसनीय रिपोर्ट आई है या ऐसी कोई गैर-जमानतीय अपराध का संदेह उस पर हो, जिसमें सजा सात वर्ष या इससे ज्यादा हो, तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है।

देश के परिवहन कानून को भी काफी सख्त बनाया गया है। अब तो तेज गति या लापरवाही से गाड़ी चलाने के परिणामस्वरूप किसी अन्य व्यक्ति को चोट लगने या मृत्यु होने के मामले में धारा 279 और धारा 304-ए (लापरवाही से मौत का कारण बनना), धारा 337 (किसी के जीवन या व्यक्तिगत सुरक्षा को खतरे में डालने वाले कार्य से चोट पहुंचाना) या धारा 338 (दूसरों के जीवन या व्यक्तिगत सुरक्षा को खतरे में डालकर गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत दोषी को दंडित किया जा सकता है। इनमें 10 वर्ष तक की सजा हो सकती है। जाहिर है, कानून के पालन में चूक हुई है। पुलिस अधिकारियों को नए कानूनों की जानकारी के लिए प्रशिक्षण देना अनिवार्य है। उनमें यह समझ भी विकसित करनी होगी कि किस अपराध में किस धारा के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए? यदि पुलिस-प्रशासन रसूखदारों की परवाह किए बिना, आम आदमी के हित में कानून का पालन करेंगे, तो देश बहुत हद तक अपराध से मुक्त हो सकता है।

इसी तरह, ड्राइविंग लाइसेंस को जारी करने की प्रक्रिया में भी सुधार जरूरी है। खास गाड़ियों के लिए सोच-विचारकर ड्राइविंग लाइसेंस जारी होना चाहिए। अच्छी बात है कि नाबालिगों के गाड़ी चलाने के मामले में उनके माता-पिता को गिरफ्तार कर सजा का प्रावधान किया गया है, जिसका कड़ाई से पालन जरूर किया जाना चाहिए। अपने देश में शराब पीकर गाड़ी चलाना, बिना नंबर प्लेट की गाड़ी चलाना या मोबाइल चलाते हुए गाड़ी चलाना आदि भी कानूनन अपराध हैं।

असल में, अपने देश में कानून तो कई हैं, लेकिन उनका पालन सुनिश्चित नहीं हो पाता है। इसी अनदेखी की वजह से कानून की अवहेलना होती है और इसे लागू करने वाली एजेंसियां अथवा अधिकारीगण सुस्त जान पड़ते हैं। विडंबना यह है कि न्यायालय आदेश देने में तो तत्परता दिखाते हैं, लेकिन उस आदेश को लागू करवाने के मामले में उनके हाथ बंधे दिखते हैं। हमें यह तस्वीर भी बदलनी चाहिए।


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