23-09-2019 (Important News Clippings)
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Date:23-09-19
उद्योग जगत निभाए अपनी जिम्मेदारी
संजय गुप्त, (लेखक दैनिक जागरण के समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)
देश में मंदी की आहट के बीच जब उद्योगपतियों में निराशा का भाव घर कर रहा था तब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की घोषणा करके न केवल उद्योग जगत को हर्षोल्लास से भर दिया, बल्कि पूरी दुनिया को चौंका दिया। यह वह कदम है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था अगले पांच वर्ष में पांच ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को हासिल कर सकती है और साथ ही भारत तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था वाला देश बना रह सकता है। भारत में विदेशी निवेश की राह में सबसे बड़ा रोड़ा कॉरपोरेट टैक्स की ऊंची दर थी। जो निवेश चीन या अन्य पूर्वी एशियाई देशों में होता था वह अब नई दरों के कारण भारत की ओर आकर्षित होगा।
इस फैसले ने मोदी शासन के मेक इन इंडिया और स्टार्टअप को भी बल प्रदान किया है, क्योंकि एक अक्टूबर 2019 के बाद स्थापित होने वाली मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों पर सेस और सरचार्ज मिलाकर अब 17.01 फीसद कॉरपोरेट टैक्स ही लगेगा। यह अभी तक 29.12 प्रतिशत था। 2014 के आम बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था के लिए जो रोडमैप दिया था उसमें टैक्स दरें कम कर उन्हें दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में प्रतिस्पर्धी बनाने की बात की गई थी। बावजूद इसके किसी को उम्मीद नहीं थी कि जो घोषणा बजट में नहीं की गई वह चालू वित्त वर्ष के बीच में ही कर दी जाएगी।
मोदी सरकार के दोबारा सत्ता में आने के बाद से ही अर्थव्यवस्था में मंदी के संकेत मिल रहे थे। पहले फिसलता हुआ ऑटोमोबाइल उद्योग और फिर जीडीपी के गिरते हुए आंकड़े आर्थिक सुस्ती को ही बयान कर रहे थे। हालांकि पिछले तीन सप्ताह से अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए सरकार की ओर से कई घोषणाएं की गईं, लेकिन माहौल नहीं बदल रहा था। अब इस तगड़ी खुराक से स्थिति पूरी तरह परिवर्तित हो गई है।
भारत ही नहीं, दुनिया भर के निवेशकों ने इसका स्वागत किया है। इसे बीते 20 वर्षों का सबसे बड़ा फैसला करार दिया जा रहा है। खुद प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती को ऐतिहासिक कदम करार देते हुए कहा कि उनकी सरकार भारत को व्यापार के लिए बेहतर स्थान वाला देश बनाने और समाज के सभी वर्गों के लिए अवसरों को बेहतर करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है। चूंकि यह फैसला रोजगार के नए अवसर भी पैदा करने वाला है इसलिए उसने सबकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं। ध्यान रहे कि जब रोजगार के अवसर बढ़ते हैैं तो मांग को भी बल मिलता है। यह फैसला इसका परिचायक है कि प्रधानमंत्री देश की आर्थिक उन्नति को लेकर प्रतिबद्ध हैं। अपनी इसी प्रतिबद्धता के तहत वह हरसंभव उपाय कर रहे हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि सरकार के जिस कदम का उद्योग जगत के साथ आर्थिक मामलों के लगभग सभी विशेषज्ञ स्वागत कर रहे हैं उस पर राहुल गांधी तंज कसना जरूरी समझ रहे हैैं। उन्होंने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती के फैसले को प्रधानमंत्री के ह्यूस्टन में होने वाले कार्यक्रम से जोड़ते हुए कहा कि कोई भी इवेंट उस आर्थिक संकट को छिपा नहीं सकता, जिसमें हाउडी मोदी ने भारत को डाल दिया है।
राहुल गांधी के इसी तंज को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस के एक अन्य नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि सरकार ने अमीरों को फायदा पहुंचाया और गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया। साफ है कि वह गरीबों के बहाने वामपंथी दलों वाली राजनीति कर रहे हैैं। उन्हें यह याद होना चाहिए कि आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने अपने पहले संबोधन में यही कहा था कि देश में अब दो ही जातियां रह गई हैं-एक गरीब और दूसरे, गरीबी दूर करने वाले। क्या कांग्रेस यह नहीं जानती कि उद्योग-धंधों के विकास से ही गरीबी दूर करने का काम सही तरह से हो सकता है?
इस पर हैरत नहीं कि कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की घोषणा होते ही शेयर बाजार में जबरदस्त उछाल आई। इस दौरान ऑटो कंपनियों के शेयरों में भी खासी तेजी आई और रुपया भी मजबूत हुआ। हालांकि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने वाले इस फैसले से सरकारी खजाने पर डेढ़ लाख करोड़ रुपये का बोझ आएगा, लेकिन इससे राजकोषीय घाटा मामूली रूप से ही बढ़ने का अंदेशा है। हाल में रिजर्व बैंक ने अपने रिजर्व से सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये दिए हैं। यह राशि नई घोषणाओं की मद में बढ़ रहे खर्च में समायोजित होगी।
जब यह तय माना जा रहा है कि कॉरपोरेट टैक्स की दरों में कटौती से मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विसेज क्षेत्र में तेजी आएगी तब सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार को भी अपनी प्राथमिकता में शामिल करना होगा। अभी देश के जीडीपी में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का योगदान 15-17 प्रतिशत है, जबकि 65-70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है। चूंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने में केवल सब्सिडी और डीबीटी ही पर्याप्त नहीं इसलिए कृषि क्षेत्र में भारी निवेश के साथ अन्य आवश्यक कदम भी उठाने होंगे। इसलिए और भी, क्योंकि मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया हुआ है।
कॉरपोरेट टैक्स कटौती का फैसला करके सरकार ने उद्योगपतियों का मनोबल तो बढ़ाया ही है, आयकर के ई-असेसमेंट की योजना शुरू करने की घोषणा कर कारोबारियों के सिर पर लटकती टैक्स टेररिज्म की तलवार को भी हटाया है। इसके तहत अब किसी को भी आयकर अधिकारी के सामने व्यक्तिगत तौर पर पेश नहीं होना पड़ेगा। अब यह आवश्यक है कि उद्योग जगत अपनी उत्पादकता बढ़ाने और अपने उत्पादों को विश्वस्तरीय बनाने के लिए सक्रिय हो।
अभी भारतीय उत्पाद कई मायनों में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में कमजोर साबित होते हैं। इसी कारण चीनी उत्पाद भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं। चूंकि कॉरपोरेट टैक्स में कटौती का फैसला अप्रैल से प्रभावी होगा इसलिए घरेलू कंपनियों को बहुत लाभ होने जा रहा है। उन्हें इस पैसे का इस्तेमाल रिसर्च और डेवलपमेंट पर करना चाहिए ताकि उनके उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर हो सके। अगर हमारी कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पद्र्धा में खरा उतरना है तो उन्हें अपने उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर करनी ही होगी।
इसी तरह अब जब सरकार ने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व पर किए जाने वाले खर्च का दायरा बढ़ा दिया है तो फिर अनुसंधान को भी गति मिलनी चाहिए। ध्यान रहे कि अनुसंधान किसी भी राष्ट्र की आर्थिक वृद्धि की नींव बनते हैैं। मोदी सरकार कॉरपोरेट जगत को रियायतें देने के साथ ही कारोबारी माहौल को और सुगम बनाने के लिए सक्रिय है। ऐसे में उद्योग जगत को एकजुट होकर अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आगे आना होगा। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन अतीत में यह देखने में आया है कि उद्योगपति अपनी हर समस्या के लिए सरकार को कोसने लगते हैं। उद्योग क्षेत्र को इस मन:स्थिति से उबरना होगा और नई सोच के साथ देश की अर्थव्यवस्था को सशक्त करने में जुटना होगा।
Date:23-09-19
कर कटौती के बाद
संपादकीय
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को कॉर्पोरेट कर दर में कमी कर सबको चौंका दिया। किसी तरह की रियायत नहीं ले रहीं भारतीय कंपनियां अब 22 फीसदी कर चुका सकती हैं। बड़ी कंपनियों के लिए अधिभार और उपकर समेत प्रभावी दर को 34.94 प्रतिशत से कम करके 25.17 प्रतिशत किया गया है। इसके अलावा जो कंपनियां अक्टूबर में या उसके बाद विनिर्माण क्षेत्र में आ रही हैं और 31 मार्च, 2023 तक उत्पादन शुरू कर रही हैं, उनके पास विकल्प होगा कि वे 17.01 फीसदी की प्रभावी कॉर्पोरेट कर दर चुकाएं।
सरकार ने शेयरों की पुनर्खरीद करने वालों के लिए भी राहत बढ़ाई और पूंजीगत लाभ पर बढ़ा हुआ अधिभार वापस लिया लेकिन कॉर्पोरेट कर दर में कमी बीते कई वर्षों में प्रत्यक्ष कर में किया गया सबसे बड़ा सुधार है। इसके कई लाभ हैं। मिसाल के तौर पर इससे रुझान में भारी सुधार होगा। शेयर बाजार में बीते एक दशक की सबसे बड़ी तेजी के रूप में हम इसका उदाहरण भी देख चुके हैं। बाजार को अब यकीन है कि सरकार साहसी आर्थिक निर्णय ले सकती है। दूसरा, कर दर कम होने से कंपनियों के पास नकदी ज्यादा होगी और निवेश बढ़ेगा। तीसरा, दरों में कमी से इतर यह प्रत्यक्ष कर ढांचे को सहज और सुसंगत बनाने की दिशा में उठाया गया एक कदम भी है। चौथा, कराधान की प्रतिस्पर्धी दर देश को निवेश केंद्र के रूप में आकर्षक बनाएगी। खासतौर पर तब जबकि कंपनियां चीन से बाहर जा रही हैं। उदाहरण के लिए वियतनाम और थाईलैंड में कर दर 20 फीसदी है जबकि इंडोनेशिया में यह 25 फीसदी है।
बड़ा सवाल यह है कि कॉर्पोरेट कर दर में कमी निकट भविष्य में आर्थिक गतिविधियों में सुधार लाएगी या नहीं। कर कटौती के कारण करीब 1.45 लाख करोड़ रुपये की राजस्व हानि होगी। निकट भविष्य में कम कर दर के कारण कंपनियों को कीमत कम करने और एक हद तक मांग बहाल करने में मदद मिलेगी। हालांकि अगली कुछ तिमाहियों तक वृद्धि में सुधार होता नहीं दिखता। देखना होगा कि सरकार राजकोषीय प्रभाव का प्रबंधन कैसे करती है। अधिकांश अर्थशास्त्री मानते हैं कि कॉर्पोरेट कर कटौती से राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4 फीसदी तक पहुंच जाएगा। कर संग्रह में वृद्धि नहीं हो रही है और अब राजस्व लक्ष्य हासिल करना असंभव है। कर कटौती ने राजकोषीय स्थिति को जटिल बना दिया है। बॉन्ड बाजार का व्यवहार तो यही बता रहा है। कम कर संग्रह के कारण राज्यों के हिस्से पर भी असर होगा और वे भी दबाव महसूस करेंगे।
ऐसे में केंद्र और राज्य दोनों के राजकोषीय घाटे में इजाफा संभव है। सरकार तंत्र में जमा राशि का इस्तेमाल करेगी और ब्याज दरों के साथ-साथ निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों पर इसका असर होगा। माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक अक्टूबर में नीतिगत दरों में कटौती करेगा, उच्च सरकारी घाटे के कारण पारेषण बाधित होगा। बॉन्ड प्रतिफल को खुले बाजार की गतिविधियों के जरिये नियंत्रित करने की कोशिश भी मुद्रास्फीति को लक्षित करने की दृष्टि से असंगत होगा। चूंकि बजट के आंकड़े प्रासंगिकता खो चुके हैं, इसलिए सरकार अगर राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का नया ढांचा पेश करे तो बेहतर होगा। इससे तंत्र में भरोसा कायम करने में मदद मिलेगी। मौद्रिक नीति समिति को भी इससे बेहतर कदम उठाने में मदद मिलेगी। तमाम राजकोषीय आशंकाओं से इतर सरकार को कर कटौती के निर्णय के साथ-साथ अन्य ढांचागत सुधारों को भी अंजाम देना चाहिए। मिसाल के तौर पर भूमि एवं श्रम सुधार। ऐसा करके ही कारोबारी सुगमता बढ़ाई जा सकेगी और देश को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकेगा।
Date:23-09-19
संवैधानिक अदालत बन गया उच्चतम न्यायालय
एम जे एंटनी
पिछले कुछ हफ्तों ने सर्वोच्च न्यायालय को एक तरह से संवैधानिक अदालत बना दिया है। मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में पांच न्यायाधीशों का एक पीठ अदालत संख्या 1 में अयोध्या मामले पर सुनवाई कर रहा है और जल्दी ही इस पर फैसला आने की उम्मीद है। अगले महीने एक अन्य पीठ जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म किए जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगा। अगर इस तरह एक के बाद एक संवैधानिक रूप से संवेदनशील मामलों का निपटारा होता रहा हो तो सर्वोच्च न्यायालय की इमारत के गलियारों में पड़ी सैकड़ों अलमारियों में रखी फाइलें गायब हो जाएंगी।
संवेदनशील मामलों पर सुनवाई में आई इस तेजी की वजह राजनीतिक माहौल हो सकता है लेकिन कुछ लोग यह इशारा भी करते हैं कि मुख्य न्यायाधीश नवंबर में सेवानिवृत्त हो रहे हैं। जो भी कारण हो, भविष्य में संवैधानिक मामलों की छोटी सुनवाई ही आदर्श होनी चाहिए। अयोध्या मामले ने दिखा दिया है कि जटिल मामलों का तय समयसीमा के भीतर फैसला करना संभव है। इस मामले में आठ भाषाओं में मौजूद करीब 20,000 पृष्ठïों का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। फिर भी इस मामले का दो महीने में पटाक्षेप हो जाएगा। इसके उलट केशवानंद भारती मामले में सात महीने का समय लगा और तीन न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में हरेक में चार महीने का समय लगा। अमेरिका के उच्चतम न्यायालय में हरेक पक्ष को केवल आधे घंटे का समय मिलता है और उसके बाद लाल बत्ती जलती है।
मौजूदा न्यायाधीशों के पास कंप्यूटर की सुविधा है और साथ ही तेजी से फैसला सुनाने के लिए प्रशिक्षुओं से भी मदद मिलती है। आने वाले दिनों में इसमें कृत्रिम मेधा का भी सहारा लिया जाएगा। सिद्घांत रूप में ही सही, सर्वोच्च न्यायालय में एक शोध प्रकोष्ठï भी है। इसलिए संवैधानिक मामलों में उतना समय नहीं लगना चाहिए जितना पुराने समय में लगता था। जब 1958 में सर्वोच्च न्यायालय को मौजूदा इमारत में हस्तांतरित किया गया था तो एक कक्ष में केवल आठ न्यायाधीश ही बैठा करते थे। वे संवैधानिक मामलों में बिना समय गंवाए फैसला देते थे। अब न्यायाधीशों के मंजूर पदों की संख्या बढ़कर 34 पहुंच चुकी है और उनमें से 30 न्यायाधीश 14 कक्षों में बैठते हैं। यह संविधान पीठ के कुछ पुराने मामलों को निपटाने का अभूतपूर्व मौका है।
हालांकि यह काम कतई आसान नहीं है। 250 से अधिक संवैधानिक मामलों को पांच न्यायाधीशों के पीठों को सौंपा गया है। इनमें से कुछ 1992 से ही अंतिम सुनवाई के लिए तैयार हैं। इनमें बेहद जटिल सवाल जुड़े हैं जैसे 1975 में आपातकाल के दिनों में हुए संवैधानिक संशोधनों के बाद संपत्ति का अधिकार और औद्योगिक विवाद अधिनियम में उद्योग की परिभाषा। ग्यारह मामले सात न्यायाधीशों के पीठों के हवाले किए गए। इनमें विधायिका को मिले विशेषाधिकार बनाम मीडिया की आजादी का मामला शामिल है। नौ न्यायाधीशों के पीठों को 132 मामलों पर फैसले देने हैं। इस तरह संविधान पीठ का हर समय काम करना जरूरी है। न्यायाधीशों की मौजूदा संख्या को देखते हुए यह असंभव नहीं है।
कई न्यायविदों की दलील है कि सर्वोच्च न्यायालय को केवल कानून की व्याख्या से जुड़े सवालों पर ही सुनवाई करनी चाहिए। पिछले कुछ हफ्तों में जो फैसले आए हैं उनमें से अधिकांश बंटवारे, प्रोन्नति, किराये या सामान्य अपराधों से जुड़े हैं। इनका फैसला कोई अपील अदालत भी कर सकती थी और इनका बोझ सर्वोच्च न्यायालय पर नहीं डाला जाना चाहिए। इसके लिए कुछ संवैधानिक संशोधनों की जरूरत होगी। हालांकि मौजूदा परिस्थितियों में यह नामुमकिन नहीं है। आखिर हमारे संविधान में 125 बार बदलाव किया जा चुका है और यह लोकतांत्रिक दुनिया में सबसे ज्यादा संशोधनों वाला संविधान है।
उच्चतम न्यायालय से अलग अपील अदालत गठित करने का एक फायदा यह है कि ऐसी अदालतों को देश के विभिन्न हिस्सों में गठित किया जा सकता है। दक्षिण और पूर्वोत्तर के लोगों की शिकायत रही है कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील करना बेहद खर्चीला और थकाऊ है। कई लोग अपील करने के अपने अधिकार को केवल इसीलिए छोड़ देते हैं क्योंकि दिल्ली से इन राज्यों की दूरी बहुत ज्यादा है। कई विधि आयोग इसकी सिफारिश कर चुके हैं लेकिन न्यायाधीश लगातार इसका विरोध करते रहे हैं। उनकी दलील है कि ऐसा करने से सर्वोच्च न्यायालय का एकात्मक चरित्र खत्म हो जाएगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय से अपील पर सुनवाई का अधिकार लेने और उसे केवल संवैधानिक सवालों पर सुनवाई तक सीमित रखने से उसके कामकाज में सुधार आएगा। इससे न्यायालय का सम्मान भी बढ़ेगा। इन सुधारों में अड़ंगा लगाने के बजाय न्यायाधीशों को खुद ही इन पर पहल करनी चाहिए। इस बीच, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में एक स्थायी संविधान पीठ स्थापित करना चाहिए, तब नहीं जब राजनीतिक दबाव असहनीय हो जाता है।
Date:22-09-19
Will judiciary enter the political arena too? All eyes on UK verdict
Swapan Dasgupta
One of the frequent charges levelled by the opponents of the Narendra Modi government is the destruction of institutions. Having won a majority in the Lok Sabha for the second time in succession, the government is being charged with reducing the Parliament to a rubber stamp. It is being accused of manipulating the media to ensure the dominance of a particular narrative and the suppression of awkward questions. Finally, there are fingers pointing to a supposedly compliant judiciary.
The first two charges are seasonal. Any air of uncertainty over the passage of a Bill in the Rajya Sabha — where the government has to negotiate issue-based majorities — nullifies the belief that Parliament is a showpiece. Likewise, the government is frequently at odds with the media over the latest piece of outrage.
However, the situation keeps changing from headline to headline. In any event, there is media and there is media. Some are traditionally supportive of authority and others see themselves in a permanently oppositional role.
It is the final charge of having ‘managed’ the judiciary that warrants attention. Ever since the Indian Constitution incorporated judicial review, the relationship between the executive and the judiciary has been tense. This was even so at the time of Jawaharlal Nehru, showcased as the model democrat. The very first amendment to the Constitution was triggered by the Nehru government’s exasperation with the courts for blocking its ‘progressive’ anti-zamindari legislation. The ruling establishment then felt that rarefied judges were wedded to the status quo and unable to appreciate popular sentiment.
The belief that the judiciary, apart from being independent, is duty bound to clip the wings of the executive has long enjoyed intellectual sanction. What has changed in recent times is the parallel belief that the judiciary is the ultimate authority and that governance has to be conducted by permanently second-guessing the judges. With the weakening of the opposition after 2014, the doctrine that the judiciary is the final arbiter of politics has also taken root, especially when twinned with judicial activism.
The opposition, especially when the parliamentary numbers are ranged against it, has been inclined to bank on the judiciary to veto the government. A perusal of India’s parliamentary proceedings would reveal the tendency of many opposition MPs — usually lawyers — to reduce political debates to legal proceedings by quoting court judgments. The implicit suggestion is that a legal precedent is somehow sacrosanct and that the legislature is bound by this.
This is not merely an Indian phenomenon. The UK is the home of the principle of parliamentary sovereignty. Politics and the rule of law have operated in autonomous spheres. There are also conventions governing the relationship between the executive and Parliament. The furore over Brexit has, however, created new complications and there is now a possibility that the courts could enter the political arena.
When Prime Minister Boris Johnson prorogued Parliament for some three weeks, he was exercising his executive privilege. This was not the first time Parliament was prorogued for a longer mid-session period but it was definitely a rare occasion when the executive had lost its parliamentary majority, without either the possibility of an alternative government or a snap general election. Johnson was accused of avoiding scrutiny and debate.
Inevitably, references were made to the courts and the result has been two conflicting judgments. The first, by a Scottish court held that the executive decision was illegal; and the second by an English high court ruled that it was beyond its competence to pronounce on politics. The matter is now before the Supreme Court which will soon deliver its judgment.
The judgment is certain to have some bearing on how a parliamentary democracy — and India has modelled itself in a large measure on Westminster — sees the relationship between executive and legislature and the jurisdiction of the courts. If the Supreme Court upholds the English verdict, it will be indicating its unwillingness to be a referee on explicitly political matters. Upholding the Scottish judgment on the other hand will temper the doctrine of parliamentary sovereignty by injecting the principle of judicial review. In effect, the Supreme Court will be ruling on its own powers.
India, no doubt, sets its own norms of governance but this verdict will cast its shadow. In Britain, too, the issue ultimately centres on trying to find a judicial route to overturn a Brexit sanctioned by the expression of popular will.
Date:21-09-19
तालिबान की हिंसा
संपादकीय
अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, तालिबान की हिंसा का ग्राफ भी उतनी ही रफ्तार से बढ़ रहा है। पिछले कई दिनों से शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा हो जब आत्मघाती हमलों से अफगानिस्तान के शहर दहल नहीं रहे हों। अस्पताल, सरकारी इमारतें, पुलिस और सुरक्षा बलों के ठिकाने, यहां तक कि अमेरिकी दूतावास तक पर तालिबान के हमले यह संदेश दे रहे हैं कि इस देश की सत्ता पर फिर से कब्जे के लिए वह पूरी ताकत के साथ लड़ेगा। दूसरी ओर तालिबान को सबक सिखाने के लिए अमेरिकी सेना के हमले भी जारी हैं। दो दिन पहले एक अमेरिकी ड्रोन के हमले में बीस से ज्यादा बेगुनाह मारे गए। अमेरिका और तालिबान को इस बात से तनिक चिंता नहीं है कि इन दोनों के झगड़े में निर्दोष अफगान जनता बुरी तरह पिस रही है।
हाल में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता टूटने के बाद तो हालात बेकाबू हो गए हैं। तालिबान ने और ज्यादा उग्र रूप धारण कर लिया है। ऐसे में सवाल है कि इस हिंसा के बीच अगले हफ्ते राष्ट्रपति चुनाव कैसे होंगे। अफगानिस्तान के हालात पर चिंता जाहिर करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा है कि सभी अफगान नागरिकों को ‘भय और हिंसा मुक्त’ जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन यह कैसे सुनिश्चित हो, इसके उपाय इस वैश्विक निकाय के पास भी नहीं हैं।
अफगानिस्तान में इस वक्त हिंसा का जो दौर चल रहा है उसने पूरे देश को फिर उसी स्थिति में ला खड़ा किया है जो दो दशक पहले बनी हुई थी। इन हालात के लिए क्या तालिबान दोषी है या फिर अमेरिका या अफगानिस्तान की मौजूदासरकार, यह सवाल फिलहाल दब-सा गया है। अगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप शांति वार्ता तोड़ने जैसा कठोर कदम नहीं उठाते तो शायद आज हालात इतने नहीं बिगड़ते। लेकिन एक अमेरिकी सैनिक की मौत के मामले पर अमेरिका ने पूरे अफगानिस्तान को हिंसा की आग में झोंक डाला।
हालांकि पिछले साल अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान को एक राजनीतिक पार्टी की मान्यता देते हुए जेल में बंद उसके लड़ाकों को रिहा करने का बड़ा फैसला लिया था। तालिबान के साथ शांति वार्ता की दिशा में यह बड़ा कदम था। इस बीच कतर में शांति वार्ता के दौर तो चलते रहे लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला था। बाद में मास्को में हुई शांति वार्ता में अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई भी शामिल हुए, लेकिन तब इसमें अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया। तालिबान की शर्त थी कि चुनाव रद्द होने पर ही वह अमेरिका के साथ समझौता करेगा। इस तरह वार्ता राजनीति और अहम की लड़ाई में उलझती रही। तालिबान का अड़ियल रवैया भी इसका एक बड़ा कारण रहा, जिसकी कीमत आज अफगानिस्तान युद्ध के मैदान के रूप में चुका रहा है।
इस वक्त सबसे बड़ी प्राथमिकता अफगान नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना होनी चाहिए। यह काम अफगानिस्तान की सरकार, तालिबान और अमेरिका को ही करना है। इसके लिए जरूरी है कि तीनों अपना हठ छोड़ें और खासतौर से अमेरिका अफगानिस्तान में अपने हितों को छोड़े। शांति वार्ता रद्द होने से अफगानिस्तान की सरकार खुश है। दूसरी ओर तालिबान अब अमेरिका को सबक सिखाने पर तुला है। इसीलिए उसने शांति वार्ता टूटने के बाद और ज्यादा अमेरिकियों पर हमले की धमकी दी है। जाहिर है, आने वाले दिन अफगानिस्तान के लिए और संकट भरे होंगे।