10-09-2019 (Important News Clippings)

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10 Sep 2019
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Date:10-09-19

उपलब्धियां सौ दिन में न तो होती हैं, न अपेक्षित हैं

संपादकीय 

नोबेल पुरस्कार विजेता एवं दुनिया के प्रख्यात अर्थशास्त्री मिल्टन फ्राइडमैन ने कहा था ‘जनता जब तक इस अप्रिय सत्य से मुंह मोड़ती रहेगी कि सरकार की (विकास को लेकर) अपनी सीमाएं हैं, तब तक उससे राजनीतिक वर्ग झूठ बोलता रहेगा’। एक बार फिर मोदी सरकार-2 के 100 दिन पूरे हुए। सरकार की आदत है वादा करने और फिर उपलब्धियां गिनाने की। जितनी भी उपलब्धियां गिनाईं, वे संख्यात्मक न होकर भावनात्मक थीं। सरकार को तो यह देखना है कि गिरती जीडीपी वृद्धि दर को कैसे नियंत्रित किया जाए, कैसे कम होते रोजगार की स्थिति पर काबू पाया जाए। जनता को भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि कोई सरकार महज 100 दिन में जीडीपी संकट, जिसके मूल में वैश्विक आर्थिक मंदी है और जो लगातार कम होते निर्यात, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट और रोजगार के अवसर के संकुचन के कारण हैं, मात्र तीन महीने में कम करे। सरकार को भी इस तरह की जन-अपेक्षाएं बढ़ाने से बचना चाहिए और उपलब्धि को जनता द्वारा भोगे हुए यथार्थ के तराजू में तौलना चाहिए। चूंकि भारतीय प्रजातंत्र प्रतिद्वंद्वात्मक है, इसलिए यह तो माना जा सकता है कि राजनीतिक दल चुनाव के दौरान आस्मां से तारे तोड़ लाने का वादा करते हैं जैसे इंदिरा गांधी ने 1970-71 में गरीबी हटाने का किया था या मोदी ने 2014 के आम -चुनाव में कांकेर (छत्तीसगढ़) की जनसभा में हर गरीब की जेब में 15 लाख रुपए देने का किया था (देश से विदेश गए काले धन को लाकर)। विकास दो तरह के होते हैं एक वह जो अंतर-संरचनात्मक होता है जैसे सड़क, सिंचाई, बिजली, पिछड़े इलाकों में उद्योग आदि और दूसरा वह जो मात्र पैसे या सामान की राज्य अभिकरणों द्वारा डिलीवरी की रफ्तार बढ़ाकर किया जा सकता है जैसे उज्जवला योजना, सीधे नकद लाभ या अनाज का वितरण। जहां दूसरे किस्म के विकास छह माह के अच्छी नीयत से किए गए सरकार के प्रयासों से हासिल किए जा सकते हैं पहले किस्म के विकास में कम से कम एक दशक का समय चाहिए। रोजगार के बेहतर अवसर के लिए भी अपराध-मुक्त परिवेश और अंतर-संरचनात्मक ढांचा खड़ा करना पड़ता है। लिहाज़ा सरकार भी गणेश परिक्रमा पर ज्यादा भरोसा करती है बजाय जनता को स्वयं विकास का लाभ समझने देने का इंतजार करने के।


Date:10-09-19

पुख्ता उपाय कर मंदी से निपटा जाए

सरकार को चाहिए की वह खपत पर नियंत्रण करे और निवेश बढ़ाए। निवेश हेतु कर्ज लेना नुकसानदेह नहीं है।

डॉ. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक मोर्चे पर सुस्ती के बीच उससे निपटने के उपायों पर चर्चा और साथ ही अमल भी आवश्यक है। सरकार ने हाल में कुछ छोटे बैंकों का विलय कर बड़े सरकारी बैंक बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए ताकि उनकी क्षमता बढ़ सके। यह स्वागतयोग्य है, पर इससे आगे जाने की जरूरत है। पिछले दो वर्षों में सरकार ने 250 हजार करोड़ रुपये इन बैंकों में डालने की योजना बनाई है। इसकी तुलना में आज इन बैंकों की कुल बाजार हैसियत ही मात्र 230 हजार करोड़ रुपये है। यानी इनके पास पूंजी का मौजूदा स्तर नकारात्मक है।
सरकार ने दो वर्षों में जो पैसा इन बैंकों को दिया, उसे भी ये सहेजकर नहीं रख पाए हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर शेष सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दे। तब सरकार करीब 230 हजार करोड़ रुपये की भारी रकम अर्जित कर सकेगी। इस रकम का उपयोग सेवाओं के निर्यात बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। जैसे हर जिले में विदेशी भाषाओं को पढ़ाने के केंद्र बनाए जाएं। भारत के अध्यापकों को सब्सिडी देकर दुनिया भर के संस्थानों में पढ़ाने के लिए भेजा जाए, भारत में विदेशी भाषाओं की फिल्में बनाने जैसे दांव आजमाए जा सकते हैं। इससे सरकार को बैंकों में लगातार पूंजी डालने के सिरदर्द से मुक्ति मिलेगी और हमारे सेवा क्षेत्र का विकास होगा।

दूसरा उपाय, निवेश के लिए कर्ज लेने का है। राजग सरकार ने बीते पांच वर्षों में वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने में बड़ी सफलता हासिल की है। वर्ष 2013-14 में सरकार का वित्तीय घाटा 4.4 प्रतिशत था जो 2018-19 में 3.4 प्रतिशत रह गया। वित्तीय घाटा वह रकम होती है जो सरकार द्वारा बाजार से उधार लेकर खर्च की जाती है। वित्तीय घाटे में कटौती का अर्थ है कि सरकार अपने खर्चों पर नियंत्रण कर रही है और उधार कम ले रही है। यह अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए जरूरी भी है, अन्यथा महंगाई बढ़ती है और निवेशक निवेश करने से कतराते हैं, मगर इससे बढ़कर कदम उठाने होंगे। सरकार ने वित्तीय घाटे में जो कटौती हासिल की है उसमें तीन चौथाई हिस्सा पूंजी खर्चों में कटौती का है और एक चौथाई हिस्सा सरकार की खपत में कटौती का। सरकार ने अपनी खपत को स्थिर बनाए रखा और पूंजी निवेश कम कर दिया-ठीक वैसे ही जैसे दुकानदार ने घर में एयर कंडीशनर लगाए रखा और दुकान से हटा दिया। सरकार के खर्चों की दिशा का अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ता है। सरकार की खपत में कर्मियों को दिया जाने वाला वेतन प्रमुख होता है। यदि सरकार कर्मियों को बढ़ा-चढ़ाकर वेतन देती है तो इसका अधिकांश हिस्सा सोना खरीदने में, विदेशों में निवेश करने में, विदेशी पर्यटन में अथवा विदेशी माल खरीदने में व्यय हो जाता है और यह रकम देश से बाहर चली जाती है यानी हमारी अर्थव्यवस्था के गुब्बारे से हवा निकल जाती है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह सरकारी खपत पर नियंत्रण करे और निवेश बढ़ाए। निवेश करने के लिए कर्ज लेना नुकसानदेह नहीं होता, क्योंकि उद्यमी कर्ज लेकर दुकान लगाता है। समस्या तब होती है जब कर्ज लेकर खपत की जाती है। इसलिए सरकार को इस समय दो काम करने चाहिए। एक, सरकारी खपत को फ्रीज कर देना चाहिए। सरकारी कर्मियों के वेतन भी फ्रीज कर देने चाहिए। दूसरा, निवेश करने के लिए विशेष प्रकोष्ठ बनाकर निवेश बढ़ाना चाहिए। तीसरे उपाय के तहत आयात कर बढ़ाया जाए।

सरकार ने छोटे उद्योगों को कर्ज मुहैया कराने के लिए कई कदम उठाए हैं। जीएसटी में रिटर्न भरना भी सरल किया गया है। इन कदमों का स्वागत है, लेकिन सिर्फ इतने से ही बात नहीं बनेगी। छोटे उद्योगों की समस्या है कि चीन से आ रहे माल के सामने वे टिक नहीं पा रहे हैं। चीन में श्रमिकों को रखने और निकालने की छूट है जिससे श्रमिक कड़ी मेहनत करते हैं और भारतीय श्रमिक की तुलना में दो गुना उत्पादन करते हैं। इसलिए चीन का माल हमसे सस्ता पड़ता है। छोटे उद्योगों को बचाने के लिए जरूरी है कि चीन से आयात होने वाले सामान पर आयात कर बढ़ाया जाए जोकि मुख्य रूप से छोटे उद्योगों द्वारा बनाए जाते हैं। इससे छोटे उद्योगों को बड़ा सहारा मिलेगा। इनके द्वारा अधिक श्रमिकों को रोजगार दिया जाएगा और बाजार में मांग बढ़ेगी और मंदी टूट जाएगी।

चौथा उपाय यह हो सकता है कि छोटे उद्योगों को जीएसटी में छूट दी जाए। इन उद्योगों की एक समस्या यह है कि कंपाउंडिंग स्कीम में उनके द्वारा अपने इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है। इस कारण बड़े उद्योग के लिए यह लाभप्रद होता है कि वह दूसरे बड़े उद्योग से माल खरीदे न कि दूसरे छोटे उद्योग से। यदि एक बड़ा उद्योग दूसरे बड़े उद्योग से माल खरीदता है तो बेचने वाले बड़े उद्योग द्वारा अपने इनपुट पर दिए गए जीएसटी का सेटऑफ खरीदने वाले बड़े उद्योग को मिल जाता है, लेकिन यदि वही बड़ा उद्योग वही माल किसी छोटे उद्योग से खरीदता है तो बेचने वाले छोटे उद्योग द्वारा अपने इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का सेटऑफ खरीदने वाले बड़े उद्योग को नहीं मिलता है। इसलिए बड़े उद्योगों की प्रवृत्ति बनी है कि वे दूसरे बड़े उद्योगों से ही माल खरीदें। इस समस्या का उपाय है कि छोटे उद्योगों द्वारा इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का उन्हें नकद रिफंड दिया जाए। तब ही कंपोजीशन स्कीम के अंतर्गत उन्हें लाभ होगा।

पांचवां उपाय सरकारी शिक्षा के निजीकरण के रूप में किया जा सकता है। सरकार ने उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थाओं में ईमानदार व्यक्तियों को शीर्ष पदों पर नियुक्त किया है। यह स्वागतयोग्य है, लेकिन इन संस्थाओं में सामान्य अध्यापक अथवा वैज्ञानिक की प्रवृत्ति में इससे तनिक भी अंतर नहीं आया है। सामान्य अध्यापकों को वेतन मिलना सुनिश्चित है, भले ही वे पढ़ाएं या न पढ़ाएं। यहां कोचिंग का सहारा है। यह व्यवस्था केवल शीर्ष पर ईमानदार व्यक्तियों की नियुक्ति से ही नहीं सुधरेगी। इसके लिए जरूरी है कि सरकार समूचे सरकारी शिक्षातंत्र का निजीकरण कर दे और अर्जित रकम तथा हर वर्ष व्यय होने वाली रकम से देश के सभी युवाओं को मुफ्त वाउचर बांटे जिससे वे अपने मनचाही शैक्षणिक संस्था में प्रवेश ले सकें। तभी संस्थानों में होड़ शुरू होगी कि अधिक से अधिक वाउचर इकट्ठा करें। इससे कॉलेजों का स्तर सुधरेगा। इस कदम का विशेष प्रभाव सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा। आने वाले समय में मैन्यूफैक्चरिंग में रोजगार कम बनेंगे और सेवा क्षेत्र में ज्यादा अवसर बढ़ेंगे। यदि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था सुचारू रूप से चलने लगे तो हमारे युवा ऑनलाइन ट्यूशन, अनुवाद, स्वास्थ्य पर्यटन इत्यादि तमाम क्षेत्रों में विश्व को सेवा प्रदान कर सकेंगे और मंदी को मात दी जा सकेगी। यदि उपरोक्त कदमों को लागू कर दिया जाए तो महज एक साल में हमारी आर्थिक विकास दर दस प्रतिशत के आसपास पहुंच सकती है।


Date:09-09-19

देशों के सहयोग से ही होगा मरुस्थल समस्या का हल

सुनीता नारायण

संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण-रोधी समझौता (सीसीडी) को हमने रियो डि जनेरियो की सौतेली संतान कहा। इसकी वजह यह है कि यह एक उपेक्षित एवं बेहद अवांछित समझौता था जिस पर वर्ष 1992 में रियो सम्मेलन के दौरान दस्तखत हुए थे। अफ्रीकी एवं अन्य विकासशील देशों की इच्छा की वजह से इस समझौते पर सहमति बनी थी। असल में यह एक रिश्वत थी जिसे एक समझौते का रूप दिया गया था और समृद्ध देश इसे समझने या भरोसा करने को तैयार नहीं थे। रियो सम्मेलन का मुख्य एजेंडा जलवायु परिवर्तन था। उसके बाद जैव-विविधता संरक्षण का मुद्दा था जो दक्षिणी गोलाद्र्ध के देशों के लिए अहम था। फिर वनों के क्षरण का मसला था जिसके लिए समझौते का प्रस्ताव रखे जाने पर विकासशील देशों ने अपने संसाधनों पर अतिक्रमण की कोशिश बताते हुए कड़ा विरोध किया था। इस कड़वाहट भरे माहौल में मरुस्थलीकरण समझौता अस्तित्व में आया।

इस समझौते के करीब तीन दशक बाद जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को महसूस करने लगी है, प्रजातियों के विलुप्त होने को लेकर जारी जंग हारने लगी है और विनाशकारी मौसमी बदलावों के खौफनाक अंजाम देखने लगी है, तब मरुस्थलीकरण के भुला दिए गए समझौते को भी अपनी सौतेली छवि से निजात पानी होगी। यह एक वैश्विक समझौता है जो हमारे वर्तमान और भविष्य को बना या बिगाड़ सकता है। सच यह है कि अपने प्राकृतिक संसाधनों- खासकर भूमि एवं जल, को संभालना हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय बन चुका है क्योंकि आज इन संसाधनों पर बड़ा जोखिम मंडरा रहा है। कुप्रबंधन के साथ ही अजीबोगरीब मौसमी घटनाएं भी इसे गंभीर बना रही हैं। आज करोड़ों लोगों पर खतरा मंडराने लगा है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हम जमीन एवं पानी का अपना प्रबंधन बेहतर कर सकते हैं तो हम जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों को भी कम कर सकते हैं। हम निर्धनतम लोगों के लिए पूंजी निर्माण करने के साथ ही उनकी आजीविका को भी सुधार सकते हैं। और ऐसा कर हम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर सकते हैं। पौधे लगाने से कार्बन डाईऑक्साइड पर लगाम लगेगी, मृदा स्वास्थ्य में सुधार से भी कार्बन डाईऑक्साइड पर काबू पाने में मदद मिलेगी और सबसे अहम बात, खेती एवं खानपान की आदतों में बदलाव करने से धरती को गर्म करने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा रहा है। लिहाजा, इस समझौते को सौतेले बच्चे के बजाय मां-बाप के हाथों में सौंपने की जरूरत है।

रियो सम्मेलन में उत्तरी गोलाद्र्ध के देशों का कहना था कि उनका इस मुद्दे से क्या लेना-देना है? मरुस्थलीकरण एक वैश्विक मुद्दा नहीं है लिहाजा इस पर एक अंतरराष्ट्रीय समझौता भला क्यों होना चाहिए? रियो में मरुस्थलीकरण समझौते की वकालत करने वाले अफ्रीकी देशों का कहना था कि रेगिस्तानी इलाका बढऩे से उनके उत्पादों की कीमतें गिर रही हैं जिससे उनके जमीन के भाव कम होने लगे हैं। यह मरुस्थलीकरण एवं भूमि अपकर्ष को बढ़ावा देता है।

आज मरुस्थलीकरण के वैश्विक मुद्दा होने को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए। इसके लिए देशों के बीच सहयोग की जरूरत है। सच है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दिखने अभी बस शुरू ही हुए हैं। तापमान के लगातार बढ़ते जाने और इस चक्र के बेकाबू हो जाने पर ये प्रभाव और घातक होने लगेंगे। यह भी साफ है कि आज दुनिया में गरीब लोग इस ‘मानव-निर्मित’ त्रासदी के सबसे बड़े शिकार हैं। रेतीले तूफान में किसी धनी शख्स की जान नहीं जाती है। इसी तरह चक्रवाती तूफान की चपेट में आने पर किसी धनवान की आजीविका खतरे में नहीं पड़ती है। लेकिन सच यह है कि ऐसा अजीब मौसम इसका पूर्वाभास देता है कि भविष्य में हमारे लिए क्या छिपा हुआ है? यह बदलाव एकरेखीय नहीं है और न ही इसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। यह एक झटके की तरह आएगा और हम उसके लिए तैयार भी नहीं होंगे। न तो विकासशील देश और न ही विकसित देश। जलवायु परिवर्तन का असर सब पर एक जैसा होगा, उसमें कोई भेद नहीं होगा।

यह भी साफ है कि इस विनाशकारी बदलावों के चलते आपदाओं की संख्या बढ़ जाएगी क्योंकि अजीब एवं असामान्य मौसम की आवृत्ति एवं तीव्रता भी बढ़ेगी। ऐसा होने पर गरीब और भी अधिक गरीब होता जाएगा। समाज के हाशिये पर मौजूद लोग वंचित होने पर अपनी जमीनों से दूर जाने के लिए बाध्य होंगे ताकि वे जिंदा रहने के लिए आजीविका कमा सकें। उनके पास दूसरे देश या दूसरे शहर तक विस्थापन के अलावा कोई चारा नहीं रह जाएगा। यह दोहरा जोखिम गरीबों की पहले से ही खराब हालत को और बिगाड़ देगी और शरणार्थियों की संख्या बढऩे से हमारी दुनिया अधिक असुरक्षित एवं हिंसक होती जाएगी। यह विनाशकारी बदलाव का ऐसा चक्र जिससे हमें लडऩा ही होगा। इस तरह मरुस्थलीकरण का संबंध हमारे वैश्वीकृत विश्व से है क्योंकि सभी एक दूसरे से जुड़े और एक दूसरे पर निर्भर हैं।

यही हमारे लिए एक अवसर भी है। यह समझौता मरुस्थलीकरण के बारे में न होकर मरुस्थलीकरण से जंग के बारे में है। हम जिस भी तरीके से मरुस्थलीकरण, भूमि अपकर्ष या पानी की कमी का सामना कर सकते हैं, उस तरीके से हम आजीविका में सुधार और जलवायु परिवर्तन का खतरा कम कर पाएंगे। भूमि एवं पानी जैसे संसाधनों के संयमित इस्तेमाल का एजेंडा जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष के केंद्र में है। यह लोगों की हालत बेहतर बनाने के लिए स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के केंद्र में है। गरीबी से जंग और इंसानी वजूद को बचाए रखने की जंग जीतने के लिए ऐसा करना ही होगा। मरुस्थलीकरण पर लगाम लगाने का संयुक्त राष्ट्र समझौता इसी बारे में है। ऐसे वैश्विक नेतृत्व की उम्मीद कीजिए जो इस बदलाव का वाहक बन सके।


 

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