11-09-2019 (Important News Clippings)

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11 Sep 2019
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Date:11-09-19

सुविचारित योजनाओं की ही घोषणा की जाए तो बेहतर

संपादकीय

बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने और फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण प्रतिरोधी कन्वेंशन में शामिल देशों के 14वें सम्मलेन में भारत की ‘जीरो बजट’ खेती की योजना का संकल्प दोहराया। लेकिन देश के लब्ध-प्रतिष्ठित दर्जनों कृषि वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पंजाब सिंह के नेतृत्व में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद व भारतीय कृषि शोध परिषद (आईसीएआर) महानिदेशक त्रिलोचन मोहापात्रा की मौजूदगी में एक गोष्ठी में इसे खारिज करते हुए इस योजना से अनाज उत्पादन और उत्पादकता के भारी नुकसान की चेतावनी भी दी है। इन वैज्ञानिकों ने कहा कि जो पद्धति इस खेती में अपनाने की योजना है उसके बारे में न तो कोई प्रामाणिक आंकड़ा है, न ही उसे वैज्ञानिक कसौटी पर कसा गया है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे के तहत बनी यह योजना इस सिद्धांत पर आधारित है कि पौधों को फोटो-सिंथेसिस के लिए जरूरी नाइट्रोजन, कार्बन डाई ऑक्साइड, धूप और पानी प्रकृति मुफ्त में देती है केवल उसे हासिल करने का तरीका मालूम होना चाहिए शेष दो प्रतिशत पोषण माइक्रोबैक्टीरिया (जीवाणु) को जड़ों के भीतर सक्रिय करने से मिल सकता है जो देशी गाय के मूत्र, गोबर, गुड़, दाल आदि के घोल के छिड़काव से मिल सकेगा, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन जरूर है, लेकिन यह पौधों को उपलब्ध नहीं होती (या पौधे उसे लेकर एमिनो एसिड में बदलकर प्रोटीन की तरह अपने लिए भोज्य नहीं बना सकते हैं) जब तक उसे अमोनिया या यूरिया के रूप में न दिया जाए। हालांकि, दुनिया में मशहूर वनस्पतिशास्त्री वेस जैक्सन ने करंज नामक अनाज को कुछ इसी तरह के सिद्धांत पर पिछले 60 साल से प्रचलित करना चाहा है, लेकिन भारत में जीरो बजट खेती की अवधारणा का जन्मदाता महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर को माना जाता है। वे इस कॉन्फ्रेंस में नहीं आ पाए। पालेकर की जीरो बजट खेती सफल होने की एक और शर्त यह है कि इसमें प्रयुक्त होने वाला गोबर और मूत्र केवल काली कपिला गाय का होना चाहिए। क्या देश में खेती की नीति काली कपिला गाय के गोबर-मूत्र के आधार पर बनाने और उसे पूरी दुनिया को बताने से भारतीय नेतृत्व की तर्क क्षमता और वैज्ञानिक सोच पर प्रश्न-चिह्न नहीं खड़ा करेगा? योजनाओं को बगैर वैज्ञानिक और व्यावहारिक पुष्टि के घोषित करना नुकसान पहुंचा सकता है।


Date:11-09-19

गरीबों के लिए हुआ सार्वजनिक सेवाओं में बदलाव

नरेन्द्र सिंह तोमर, (केंद्रीय ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री हैं)

सार्वजनिक सेवाओं की सुविधाजनक, आसान और विश्वसनीय प्रणाली तैयार करने का कार्य असर इस आधार पर छोड़ दिया जाता है कि यह सब निजी क्षेत्र कर लेगा योंकि सार्वजनिक व्यवस्थाओं से गुणवाापूर्ण सेवाओं की प्रदायगी कराना कठिन ही नहीं, लगभग असंभव है। भारत जैसे विशाल देश में सर्वाधिक वंचित परिवारों तक जरूरी सेवाओं की समता और न्याय आधारित प्रदायगी अनिवार्य रूप से लाभार्थियों के साक्ष्य- आधारित चयन, भलीभांति किए गए अनुसंधान के आधार पर नीतिगत उपायों, (जिनमें समय पर सुधारात्मक कार्यों का प्रावधान हो), सूचना – प्रौद्योगिकी से जुडे संसाधनों की उपलब्धरता और उनके पूर्ण उपयोग के जरिए मानवीय हस्तवक्षेप को कम से कम करने, और अन्य के साथ-साथ संघीय संरचना में काम करने वाली विभिन्न एजेंसियों के साथ ठोस तालमेल पर निर्भर करती है। बुनियादी ढांचागत कमियों, विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रों और देश के कई दुर्गम भूभागों में दूर-दूर बसी विरल आबादी को ध्यान में रखते हुए यह कार्य और भी जरूरी हो जाता है। वास्तव में इतने बड़े पैमाने पर अपेक्षित सेवाओं की संकल्पना, योजना तैयार करना और सेवाएं प्रदान करना गैर-सरकारी एजेंसियों के लिए असंभव है। हालांकि निजी क्षेत्र और स्थानीय/राज्य स्तरों पर कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां यां प्राप्त हुई हैं। तथापि, ‘सबका साथ सबका विकास के व्यापक फ्रेमवर्क में ‘सभी के लिए आवास, ‘सभी के लिए स्वास्थ्य, ‘सभी के लिए शिक्षा, ‘सभी के लिए रोजगार जैसे महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति और ‘नए भारत का स्वप्न साकार करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं की पर्याप्त व्यवस्था बहुत जरूरी है, ताकि अखिल भारतीय आधार पर कार्यक्रमों की आयोजना, विापोषण, कार्यान्वीयन और निगरानी के साथ उनमें समय-समय पर अपेक्षित बदलाव किए जा सकें। इस संबंध में निम्नलिखित गतिविधियां आवश्यपक और महत्वआपूर्ण हैं

परिवारों में अभाव की स्थिति के निर्धारण के लिए अखिल भारतीय स्तर पर अचूक सर्वेक्षण की आयोजना और संचालन तथा स्थाीनीय सरकारों से उस सर्वेक्षण की पुनरीक्षा कराना; पिछले अनुभवों और सर्वोाम राष्ट्रीर एवं वैश्विक पद्धतियों से सीख लेते हुए कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करना, ताकि आवश्यकतानुसार कार्यक्रम सुनिश्चित किए जा सकें; भली-भांति तैयार किए गए कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त विा-पोषण की व्यवस्था करना; अनुभवों से सीख लेते हुए प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर तालमेल बनाना तथा कार्यान्वयन के दौरान तत्कालीन सुधारात्मक उपाय करना। पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण विकास के क्षेत्र में चलाए गए ग्राम स्वराज अभियान जैसे कार्यक्रम पूरी तरह पारदर्शी रहे हैं। वास्तव में ये कार्यक्रम समुदाय के प्रति पूरी जवाबदेही के साथ अपेक्षित परिणाम हासिल करने के लिए भरोसेमंद सार्वजनिक सेवा प्रणाली तैयार करने के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। गौरतलब है कि हमारी यह यात्रा जुलाई, 2015 में सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित जनगणना (एसईसीसी) 2011 के आंकड़ों को अंतिम रूप दिए जाने के साथ शुरू हुई। गरीबों के लिए चलाए जाने वाले लोक कल्याण कार्यक्रमों में अभावग्रस्त परिवारों का सटीक और उद्देश्य-परक निर्धारण किया जाना आवश्यक था। गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की वर्ष 2002 में तैयार की गई बीपीएल सूची ग्राम प्रधान का विशेषाधिकार बन चुकी थी और इसमें गरीब असर छूट जाते थे।

एसईसीसी के तहत अभाव के पैरामीटरों की पहचान करना आसान है। आंकड़े एकत्रित किए जाने के समय लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि एसईसीसी का इस्तेमाल या और किस तरह होगा। इसके आधार पर तैयार की गई रिपोर्टें वास्तविकता के बहुत नजदीक हैं।

परिवारों की गरीबी के पैरामीटरों को तैयार किए जाने के बाद ग्राम सभा के माध्यम से पुष्टि की प्रक्रिया ने इस डाटाबेस में समुदाय आधारित सुधार का अवसर दिया। एलपीजी कनेशन के लिए उज्ज्वला, बिजली के नि:शुल्क कनेशेन के लिए सौभाग्य, मकान की व्यवस्था के लिए प्रधान मंत्री आवास योजना-ग्रामीण (पीएमएवाई-जी), अस्पताल में चिकित्सीय सहायता के लिए आयुष्मान भारत जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत लाभार्थियों का चयन एसईसीसी के अभाव संबंधी मानदंडों के आधार पर किया गया। यह डाटाबेस धर्म, जाति और वर्ग निरपेक्ष है। यह गरीबी के विभिन्न आयामों को दर्शाने वाले अभाव संबंधी पैरामीटरों पर आधारित है जिनका सत्यासपन आसानी से किया जा सकता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत राज्यों के श्रम बजटों के निर्धारण तथा दीन दयाल अंत्योदय योजना – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के अंतर्गत महिला स्व-सहायता समूहों (एसएचजी) के गठन में सभी अभावग्रस्त परिवारों के समावेशन के लिए एसईसीसी के आंकड़ों का उपयोग किया गया। गरीबी के सटीक निर्धारण, आंकड़ों में सुधार और उन्हें अद्यतन बनाने में ग्राम सभाओं की भागीदारी से आधार, आईटी/डीबीटी, परिसम्पतियों की जियो-टैगिंग, कार्यक्रमों के लिए राज्यों में एक नोडल खाते, पंचायतों को धनराशि खर्च करने का अधिकार दिए जाने किंतु नकद राशि न देने, सार्वजनिक विा प्रबंधन प्रणाली (पीएफएमएस) जैसे प्रशासनिक और विाीय प्रबंधन सुधारों को अपनाया जा सका। इसके परिणामस्वरूप लीकेज की स्थिति में बड़ा बदलाव आया। गरीबों के जन-धन खाते और अन्य खाते भी बिना बिचौलियों के प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम बन गए। इससे व्यवस्था में काफी सुधार हुआ। मनरेगा जैसे कार्यक्रमों से गरीबों के खातों में धनराशि के अंतरण, टिकाऊ परिसंपाियों के सृजन और आजीविका सुरक्षा सहित प्रमुख सुधारों को बढ़ावा मिला। हमने मनरेगा के अंतर्गत लीकेज पर पूरी तरह अंकुश लगाने और गुणवाापूर्ण परिसम्पतियों के सृजन के लिए साक्ष्यों का सहारा लिया। मनरेगा के लिए विश्वसनीय सार्वजनिक व्यवस्था तैयार करना एक महत्वपूर्ण कदम है। यह वही कार्यक्रम है जिसमें वर्ष 2007 से 2013 के दौरान कराए गए अध्ययनों में बड़े पैमाने पर लीकेज का पता चला था।


Date:10-09-19

जमीन का जीवन

संपादकीय

पिछले कुछ दशकों के दौरान हमारे देश में खेती के लगातार घाटे का सौदा होने की समस्या पहले ही गंभीर होती गई है। इससे इतर एक बड़ी मुश्किल यह खड़ी हो गई है कि तेजी से शहरीकरण और ग्रामीण इलाकों में भी रिहाइशी इलाकों के विस्तार की वजह से जिस तरह खेती-योग्य जमीन का रकबा सिकुड़ रहा है, उसमें यह चिंता स्वाभाविक है कि आने वाले वक्त में अनाज उत्पादन की स्थिति क्या होगी! हालांकि देश में खेती के लायक जमीन की कमी नहीं है, लेकिन सच यह है कि इसमें एक बड़ा भूभाग बंजर है और उसकी कोई उपयोगिता नहीं है, बल्कि जमीन के बंजर होने का एक गंभीर असर पानी की उपलब्धता और उसके संरक्षण की कोशिशों पर भी पड़ता है।

आमतौर पर आर्थिक गतिविधियों की चर्चा और उनके आंकड़ों से विकास की रफ्तार का अंदाजा परोसने के क्रम में भूमि के बंजर होने और उससे पैदा होने वाली समस्याओं का आकलन पीछे छूट जाता है। जबकि अनाज उत्पादन से लेकर पानी और पेड़-पौधों तक का संरक्षण आर्थिक चक्र के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। ऐसे में प्रधानमंत्री ने बंजर जमीन की समस्याओं को लेकर चिंता जाहिर की है।

गौरतलब है कि सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के ताजा सम्मेलन (यूएनसीसीडी) की एक सभा में कहा कि 2015 और 2017 के दौरान भारत में पेड़ और जंगल के दायरे में करीब आठ लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और इससे बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में बड़ी मदद मिलेगी। इसके अलावा, उन्होंने यह घोषणा भी की कि अब से लेकर सन 2030 तक भारत अपनी जमीन को उपजाऊ बनाने के मकसद से खेती के कुल रकबे का भी विस्तार करेगा और उसे 2.1 करोड़ हेक्टेयर से बढ़ा कर 2.6 करोड़ हेक्टेयर करेगा।

जाहिर है, यह न केवल देश में भूमि की उपयोगिता के मद्देनजर बेहद अहम घोषणा है, बल्कि इससे जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और भूमि क्षरण जैसे मामलों में भी चुनौतियों का सामना करने के लिए एक ठोस भूमिका बनेगी। एक अहम चिंता यह भी है कि पिछले कुछ दशकों में प्लास्टिक के बेतहाशा उपयोग ने सही-सलामत जमीन को भी लगभग बंजर बना दिया है। इसी के मद्देनजर सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने इस पर भी चिंता जताई कि अगर प्लास्टिक के बढ़ते इस्तेमाल को नहीं रोका गया तो भूक्षरण का एक अन्य स्वरूप सामने आएगा और नतीजे में जमीन की उत्पादकता को फिर से हासिल करना संभव नहीं रह पाएगा।

करीब दो साल पहले आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत की लगभग तीस फीसद जमीन खराब या बंजर होने की कगार पर है। यानी इस दिशा में जताई जाने वाली चिंता से आगे अगर ठोस पहल नहीं की जाती है तो आने वाले वक्त में समूचे देश को एक बड़े संकट से दो-चार होना पड़ सकता है। तकनीक के विकास और विस्तार से बंजर जमीन को खेती योग्य या पेड़-पौधे लगाने के लायक बनाया जा सकता है।

मगर दूसरी ओर विकास का हवाला देकर अगर वन क्षेत्र की संरक्षित भूमि की अहमियत को नजरअंदाज किया जाता है और खनन या दूसरी वजहों से पेड़ों को काटने को मंजूरी दी जाती है तो उसके असर का आकलन भी कर लिया जाना चाहिए। यों भी, जब बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की दिशा में कारगर पहलकदमी होती है तो वह जल संकट को दूर करने में भी मददगार साबित होगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि हाल के वर्षों में भारत सहित दुनिया के कई देश जिस तरह पानी की कमी की चपेट में आए हैं, वह भविष्य को लेकर एक गंभीर चेतावनी है


Date:10-09-19

Forging the steel frame

The 60-year-old Mussoorie Academy deserves some credit for producing officers who have contributed to nation-building

Amitabha Bhattacharya, [Retired IAS officer who had worked in the private sector and with the UNDP]

The Lal Bahadur Shastri National Academy of Administration was simply called the Academy of Administration when it was set up in 1959 in Mussoorie. It signalled a resolve to systematically train members of the higher civil services in order to equip them to be the change agents of a resurgent India. The two All-India Services, the Indian Administrative Service (IAS) and the Indian Police Service, instituted earlier under a specific provision of the Constitution, as also other Services attracted some of the finest minds from the university system. The IAS motto, ‘Yogah Karmasu Kaushalam (proficiency in action is yoga)’, and the Academy song, ‘Hao Dharomete Dheer, Hao Karomete Bir (Be firm in your faith, courageous in action)’, symbolised the nation’s expectation from them. The majestic Himalayan peaks viewed from the campus constantly reminded the recruits to strive for strength, rectitude and excellence.

The Academy introduced in 1960 a common Foundation Course (FC) in order to “instil a shared understanding of government and build camaraderie among the civil services”. It is the professional training institution for the IAS, and continues to conduct an FC for various All-India and Central Services.

Keeping with the times

In the last six decades, there have been transformational changes in the country. There have also been failures and inadequacies. Consequently, to meet with the myriad challenges, the civil servants have also had to constantly upgrade themselves. How is the Academy coping with the changing times?

Fortunately, the Academy has been steered in critical junctures by sagacious administrators such as A.N. Jha, P.S. Appu, B.N. Yugandhar and N.C. Saxena. While the content and methodology of training have changed to meet the demands of time, the pattern introduced in 1969 — of district training being sandwiched between institutional exposures at the Academy — has remained broadly unaltered. On successful completion, IAS trainees are now awarded an M.A. degree in Public Management by the Jawaharlal Nehru University, New Delhi. Besides, the Academy also conducts mid-career training programmes for officers, in keeping with their varying job requirements from policy implementation towards policy formulation. The Academy now houses five national research centres on rural studies, disaster management, gender, public systems management, and leadership development and competency assessment. Pursuant to the Kargil Review Committee recommendations, a joint civil-military programme on national security was introduced in 2001.

Some limitations

Even the best of training has its limitations. Nevertheless, the Academy has been engaging itself steadfastly with this onerous task. However, how much of its effort gets reflected in the performance of officers remains a moot question. The correlation between the training imparted in Mussoorie and the quality of public services in the heat and dust of Indian polity should be unquestionable. Second, there has been no serious attempt to record the experiences of the trainees/officers at the field/secretariat levels and publish them in scholarly journals, enabling others to benefit from such exposures. The Academy journal, The Administrator, does not seem to have any discernible impact on the academic discourse on the various facets of our governance. Are the days of scholar-administrators gone? Third, what have been the outputs of the five national centres? How does such research inform the training curriculum? Has the Academy realised its potential to emerge as the main think tank for civil service reforms?

Civil servants are aware that the public sometimes resent the bureaucracy, often for valid reasons. Politicians criticise the bureaucracy as blocking the course of development. These days, Ministers are not always willing to accept responsibility for their own decisions. The reputation of officers is being unduly tarnished all the time. Shouldn’t the Academy help build a national consensus on these contentious issues?

The challenge lies in how civil servants maintain their integrity and efficiency while serving in a system that deals with power play and corruption. Fortunately, there are umpteen instances of civil servants playing their role neutrally and resolutely. Idealism as a virtue may be on the wane, but has not vanished altogether.

In defending and expanding the constitutional values and in adhering to the spirit of various progressive legislation, the IAS and other Services have played a significant role in nation-building. Despite our ‘uncertain glory’, if one looks at the trajectory of independent India and compares it with that of our immediate neighbours, our higher bureaucracy appears to be a defining difference. The Academy in Mussoorie deserves some credit for that.


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