23-05-2025 (Important News Clippings)

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23 May 2025
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Date: 23-05-25

Our Smart Cities Are Dumbing Down

ET Editorials

It’s easy to launch a flashy new project. Way harder to keep it going. Despite grand makeovers and dutifully media-covered inaugurations, most cities have, to put it euphemistically, ‘maintenance issues’. And as each monsoon reminds us, even socalled ‘smart cities’. This week, Bengaluru and Pune, both ostensibly ‘smart’, were waterlogged after just a round of premonsoon showers, proof that smartness lies not in tech but in the dull discipline of upkeep.

In 2014, GoI announced 100 smart cities envisioned to use technology as the backbone to pre-empt and solve everyday challenges — from traffic snarls to urban flooding. But somewhere along the way, the goal shifted. Smart Cities Mission (SCM) became confined to renovating and retrofitting existing cities and providing basic facilities, such as housing, clean water, power and transport. Over the past decade, roughly 8,000 projects worth ₹1.64 lakh cr were sanctioned under SCM. The mission ended on March 31, but without clear answers about the future of SPVs, including integrated command and control centres (ICCCs), the nerve centre of these smart cities. These were set up in all 100 smart cities to enable real-time, data-driven decision-making.

To ensure continued maintenance of smart city assets, the parliamentary standing committee on housing and urban affairs rightly recommended that the ministry of housing and urban affairs (MoHUA) frame guidelines for SPVs to keep operating beyond the mission’s end. But there has been no movement on this. Public money doesn’t just need to be spent, it needs to work. Without a culture of upkeep and performance tracking, we’ll keep rebuilding the same cities and assets every decade. This is as unsmart as it can get.


Date: 23-05-25

जीनोम एडिटिंग कृषि के क्षेत्र में नई क्रांति

संपादकीय

दुनिया में पहली बार भारत के कृषि वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग (न कि जेनेटिक मॉडिफिकेशन – जीएम) के जरिए चावल की दो नई किस्में तैयार की हैं। इन्हें कम पानी, खाद की जरूरत होगी। ये बदलते मौसम के प्रति प्रतिरोधी गुणवत्ता वाली होंगी और उत्पादन 30% तक अधिक होगा। फसल भी 20 दिन पहले तैयार हो जाएगी। जीनोम एडिटिंग में उसी प्लांट में मौजूद जींस में एडिटिंग के जरिए डीएनए सीक्वेंसिंग बदली जाती है। डीआरआर 100 या कमला और पूसा डीएसटी राइस- 1 नामक दोनों बीज देश के चावल उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकेंगे। कृषि मंत्री ने माइनस 5 और प्लस 10 का नारा दिया है। इसके तहत पांच मिलियन हेक्टेयर कम क्षेत्र में दस मिलियन टन ज्यादा चावल उगाने का संकल्प है। खाली हुए पांच मिलियन रकबे को दलहन और तिलहन के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश होगी। किसानों को अत्यधिक पानी की खपत वाली चावल की खेती से दलहन और तिलहन की ओर ले जाने की कोशिशें बेअसर रहीं। गेहूं और चावल की खेती पर तिलहन और दलहन की तुलना में प्राकृतिक मार कम पड़ती है। एमएसपी के कारण उत्पाद बेचने में भी दिक्कत नहीं होती । बहरहाल जीनोम एडिटिंग का अन्य फसलों के बीजों पर भी प्रयोग होने लगे तो किसान अपनी लाभकारी उपज के प्रति आश्वस्त हो सकेगा। भारत में कृषि उत्पादकता और दुग्ध उत्पादन आज भी काफी कम है।


Date: 23-05-25

राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के नए सिद्धांत

प्रकाश सिंह, ( लेखक सीमा सुरक्षा बल एवं उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक रहे हैं )

आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर द्वारा एक नया मानक स्थापित किया। आतंकवाद की जघन्य घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। 2001 में संसद पर हमला हुआ था और 2008 में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने मुंबई में भयंकर नरसंहार किया था। इन बड़ी घटनाओं के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कोई सैन्य कार्रवाई नहीं की।

इसके विपरीत मोदी सरकार के समय 2016 में उड़ी में आतंकी हमले के बाद सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक की गई और 2019 में पुलवामा में भीषण आतंकी हमले के बाद हमारे लड़ाकू विमानों में पाकिस्तान के बालाकोट में बमबारी की। ऐसा प्रतीत होता है कि ये कठोर कदम भी पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए पर्याप्त नहीं थे। इसीलिए पहलगाम में भीषण आतंकी हमले के जवाब में भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर किया भारतीय सेना ने पहले आतंकियों के नौ बड़े अड्डों को तबाह किया, फिर पाकिस्तानी सेना की उकसावे वाली कार्रवाई पर उसके कई प्रमुख एयरबेस ध्वस्त किए।

भारतीय सैन्य बलों ने अपने पराक्रम से यह दिखा दिया कि वह पाकिस्तान से कहीं आगे हैं। पाकिस्तानी सेना को भारी नुकसान पहुंचा कर भारत ने दुनिया को भी यह बताया कि हम पड़ोसी देश को पस्त करने की क्षमता रखते हैं। ऑपरेशन सिंदूर ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में कुछ नए सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। पहला, यह कि यदि आतंकी हमला होता है तो उसे ‘एक्ट आफ वार’ मानकर जवाबी कार्रवाई की जाएगी। दूसरा, यह कि हम परमाणु ब्लैकमेलिंग से प्रभावित नहीं होंगे और तीसरा यह कि आतंक पर प्रहार करने में आतंकियों और उनके संरक्षकों में कोई फर्क नहीं करेंगे। पाकिस्तान को बता दिया गया कि आतंक और वार्ता साथ-साथ नहीं चल सकते और न ही आतंक और व्यापार। पानी और खून भी एक साथ नहीं बह सकते। यह संदेश पाकिस्तान के साथ-साथ सारी दुनिया के लिए भी है।

नए सुरक्षा सिद्धांतों पर कायम रहने के साथ यह समय इस पर चिंतन करने का भी है कि सुरक्षा व्यवस्था में कमी-कमजोरी दूर करने के लिए शीघ्र आवश्यक कदम उठाए जाएं। हमें अपनी आंतरिक सुरक्षा को और सुदृढ़ करना पड़ेगा। आखिर ऐसा कैसे हुआ कि खुफिया विभाग को पहलगाम में आतंकियों की साजिश के बारे में कोई भनक नहीं मिल सकी? वहां समय रहते पुलिस की कोई टुकड़ी क्यों नहीं पहुंच सकी? इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कश्मीर में जन समर्थन प्राप्त करने के लिए हमें और क्या करना पड़ेगा? यह तथ्य है कि करीब 15 स्थानीय लोगों ने आतंकियों की मदद की।

भारत और पाकिस्तान के अघोषित युद्ध में अमेरिका की भूमिका निराशाजनक रही। शुरू में तो ऐसा लगा कि अमेरिका बीच में नहीं पड़ेगा, परंतु वह एकदम से कूद पड़ा और राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान में युद्ध विराम कराने का श्रेय भी लिया। भारत ने इसका खंडन कर सही किया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को जो कर्ज दिया, वह भी अमेरिका की सहमति के बिना नहीं हुआ होगा। यदि भविष्य में पाकिस्तान या चीन से युद्ध करना पड़ता है तो क्या हम अमेरिका पर निर्भर कर सकेंगे? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। रूस ने हमारा साथ दिया, परंतु यूक्रेन से लड़ाई के चलते उसके चीन से रिश्ते बहुत प्रगाढ़ हो गए हैं।

हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि तुर्किये और अजरबैजान पूरी तरह पाकिस्तान के समर्थन में खड़े हुए। जनता में इन दोनों देशों के प्रति आक्रोश है। संतोष का विषय है कि भारत सरकार ने आवश्यक कदम उठाना शुरू कर दिया है। हमें गांठ बांध लेना चाहिए कि जब तक सीमा संबंधी विवाद पर संतोषजनक समझौता नहीं हो जाता, तब तक हम चीन से व्यापारिक स्तर पर सामान्य संबंध नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से देश में एक ऐसी लाबी है, जिसे अपने मुनाफे की ज्यादा चिंता है। उसे देश की प्रतिष्ठा की चिंता नहीं।

ऑपरेशन सिंदूर अभी समाप्त नहीं हुआ है और होना भी नहीं चाहिए। आखिर बड़े आतंकी सरगना हाफिज सईद, मसूद अजहर, सलाहुद्दीन और अन्य अनेक अभी भी जीवित हैं। इन सभी ने भारत में आतंक की गंभीर घटनाएं की हैं, जिसके लिए उन्हें सजा मिलनी अभी बाकी है। भारत को ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाई फिर करनी पड़ सकती है। यह सोचना कि पाकिस्तान को जो चोट पहुंची, उससे वह अपनी हरकतों से बाज आएगा, गलत होगा। आतंक को पोषण देने वाला पाकिस्तान कुछ भी कर सकता है।

भारत को अपनी सामरिक शक्ति को और बढ़ाना होगा। हमारी वायुसेना के पास 42 स्क्वाड्रन होने चाहिए, अभी 31 हैं। एडवांस्ड मीडियम कांबैट एयरक्राफ्ट बनाने की योजना में विलंब हो रहा है। हमारे पास पांचवीं पीढ़ी के जेट फाइटर नहीं हैं, जबकि चीन उन्हें बना रहा है। चार दिनों की लड़ाई में पाकिस्तान ने ड्रोन के झुंड के झुंड भेजे।

हमने अधिकांश मार गिराए गए, लेकिन हमें रक्षा बजट के लिए और अधिक धनराशि आवंटित करनी पड़ेगी। अभी तक यह धनराशि हमारी जीडीपी का केवल 1.9 प्रतिशत है। इसे कम से कम 2.5 प्रतिशत तक ले जाना होगा। चीन प्रतिवर्ष रक्षा पर 314 अरब डालर खर्च करता है, जबकि भारत केवल 86.1 अरब डालर। जिहादी मानसिकता वाले पाकिस्तान और भारत विरोधी चीन के रुख को देखते हुए हमें एक महाशक्ति के रूप में उभरना ही होगा।


Date: 23-05-25

नक्सलवाद पर प्रहार

संपादकीय

देश में नक्सली हिंसा लंबे समय से एक जटिल समस्या रही है। इससे निपटने के लिए सरकार ने कई स्तर पर मोर्चेबंदी की है और वह अब भी जारी है। मगर सच यह है कि अब भी इस समस्या और इसकी जड़ों से पार पाना एक चुनौती है। हालांकि नक्सली हिंसा का सामना करने के क्रम में पिछले कुछ समय से सुरक्षा बलों को जैसी कामयाबी मिल रही है. उससे कहा जा सकता है कि सरकार इसे खत्म करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम कर रही है और इसी मुताबिक जमीनी स्तर पर भी कार्रवाई कर रही है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर बीजापूर-तेवाड़ा जिले के सीमावर्ती इलाकों में बुधवार को सुरक्षा बलों द्वारा सचाई नक्सलियों को मार गिराने की खबर आई। खुफिया जानकारी के बाद घेरेबंदी कर की गई इस कार्रवाई में शीर्ष माओवादी नेता नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू को भी मार गिराया गया। इसके अलावा, गुरुवार को राज्य के सुकमा जिले में भी नक्सल विरोधी अभियान के दौरान केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के एक कोबरा कमांडों की मौत हो गई और मुठभेड़ में एक नक्सली मारा गया।

जाहिर है देश भर में नक्सली हिंसा का सामना करने और इसे खत्म करने के लिए किए जाने वाले सरकारी दानों के लिहाज से ताजा कार्रवाई को एक बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जा रहा है। खासतौर पर इसलिए भी कि पिछले कुछ वर्षों से नक्सल विरोधी अभियान में तेजी के साथ छिटपुट स्तर पर नक्सलियों को या तो मार गिराने या फिर उनका समर्पण कराने में सरकार को लगातार सफलता मिल रही थी। मगर इस बार के मुठभेड़ को सरकार ज्यादा अहम इसलिए मान रही है कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के तीन दशकों के दौरान वह पहली बार है जब सुरक्षा बलों ने एक शीर्ष स्तर के किसी नेता को मारा है। ताजा अभियान के तहत हाल के दिनों में छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में जीवन नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया और चौरासी ने आत्मसमर्पण कर दिया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ इस वर्ष अब तक एक सौ अरसी से ज्यादा माओवादी मारे गए और कई सौ ने आत्मसमर्पण भी किया।

निश्चित तौर पर नक्सलवाद के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में इतनी बड़ी संख्या में नक्सलियों के मारे जाने, आत्मसमर्पण और उनकी गिरफ्तारी को प्रत्यक्ष नक्सली हिंसा को समाप्त करने की दिशा में अहम उपलब्धि माना जा सकता है। मगर इस समस्या की जड़ें सामाजिक आर्थिक कारणों में भी छिपी हैं। इसलिए प्रत्यक्ष कार्रवाई के साथ-साथ उनके समाधान का उन्हें दूर करने के लिए भी एक ईमानदार इच्छाशक्ति के साथ काम करने की जरूरत है। मसलन, नक्सली समूहों तक वित्तीय मदद और हथिवार पहुंचाने के रास्तों का माध्यमों को खत्म करने, नक्सल प्रभावित इलाकों में आम लोगों के बीच विश्वास पैदा करने, उन्हें बुनियादी और भूमि अधिकार देने, मुख्यधारा में लाने, ऋण माफ करने और गरीबी दूर करने के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक वंचनाओं से मुक्ति दिलाने जैसे अन्य पहलुओं पर भी स्थायी हल तलाशने की मंशा के साथ काम करने की जरूरत है। नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में चलाए गए अभियानों के बाद अब ऐसी संभावना भी जताई जाने लगी है कि यह समस्या अपने अंतिम चरण में है लेकिन अगर कुछ बड़ी कामयाबियों के आधार पर भी इस समस्या की जहाँ पर चोट करने को लेकर शिथिलता बरती गई तो शायद यह इसकी जटिलता की अनदेखी साबित होगी।


Date: 23-05-25

अंतिम चरण में माओवाद

संपादकीय

छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षाबलों ने सत्ताइस माओवादियों को मार गिराया। पुलिस के अनुसार ये माओवादी बस्तर के नारायणपुर, बीजापुर और दंतेवाड़ा जिलों की सीमा पर हुई मुठभेड़ में मारे गए। इसमें एक जवान शहीद हुआ, जबकि कई अन्य घायल हैं। पिछले कई दिनों से जारी अभियान के दौरान कई वरिष्ठ स्तर के माओवादी कैडर मारे गए, जिनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का महासचिव बसवराजू भी मारा गया। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘नस्लवाद की लड़ाई में एतिहासिक उपलब्धि। एक ऑपरेशन में सुरक्षा बलों ने 27 खूंखार माओवादियों को है। जिनमें बसवराजू भी शामिल है।’ शाह ने एजेंसियों की तारीफ करते हुए 54 नक्सलियों के गिरफ्तारी की बात भी की, परंतु विशेषज्ञों का दावा है, इसे माओवाद के खात्में के रूप में देखना जल्दबाजी होगा। भाजपा सरकार छत्तीसगढ़, बिहार, तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक नक्सलियों का सफाया करने के लिए कमर कस चुकी है। बीते पंद्रह महीनों में माओवादियों के खिलाफ चल रहे सघन ऑपरेशन में चार सौ से ज्यादा संदिग्ध नक्सलियों के मारे जाने का भी दावा किया जा रहा है। इससे पहले सुरक्षा बलों ने दावा किया था कि माओवादियों के 214 बंकर व ठिकाने नष्ट किए जा चुके हैं। जहां से भारी मात्रा में विस्फोटक भी बरामद किया गया। दरअसल, मौजूदा वक्त में यह आंदोलन अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। राज्य सरकार द्वारा शांति वार्ता की बात बार- बार की जा रही है। मगर साथ ही सुरक्षा बलों के ऑपरेशन भी तेज कर दिए जाते हैं। इसी साल जनवरी में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में हुए विस्फोट में आठ सुरक्षाकर्मी व एक आम आदमी मारा गया था। सरकार की कड़ाई के चलते नक्सलियों का संगठन जरूर कमजोर पड़ रहा है । उनको मिलने वाली आर्थिक मदद भी चरमराई है, मगर उनका ढांचा काफी मजबूत है। नौजवानों का नक्सलवाद के प्रति आकर्षण भी तेजी से कमजोर पड़ा है। अब उन्हें नई पीढ़ी के स्थानीय नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए राजी करना मुश्किल होता जा रहा है। जो पढ़-लिखकर कर नौकरियां तलाशते हैं और अपने जीवन स्तर को सुधारने के प्रति सजग हो रहे हैं। सरकार अपनी पीठ भले थपथपा ले, मगर नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ना इतना मामूली नहीं है, जिसे दो-चार ऑपरेशनों में निपटा दिया जाए।


Date: 23-05-25

शीर्ष अदालत का ऐतिहासिक निर्णय

रजनीश कपूर

मई 16, 2025 को सर्वोच्च अदालत ने एक 25 साल पुराने विवाद पर अंतिम फैसला सुनाया, जिसमें इस्कॉन बेंगलुरु को बेंगलुरु के प्रसिद्ध हरे कृष्ण मंदिर का स्वामित्व प्रदान किया गया, जबकि इस्कॉन मुंबई के इस संपत्ति पर दावे को खारिज कर दिया गया। आज यह फैसला उन हजारों भक्तों की जीत है जो श्रील प्रभुपाद को ही इस्कॉन का एकमात्र आचार्य मानते हैं। हम अपनी सारी संपत्तियां इस्कॉन मुंबई के हवाले करने को पहले दिन से तत्पर रहे हैं। हमारी केवल एक ही शर्त है कि इस्कॉन में केवल प्रभुपाद ही आचार्य माने जाएं बाकी उनके आदेशानुसार ‘ऋित्वक’ की भूमिका निभाएं।

1966 में न्यूयॉर्क में एक गौड़ीय वैष्णव संत श्रील प्रभुपाद द्वारा ‘इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस’ (इस्कॉन), की स्थापना की गई थी, जिसे आज पूरा विश्व ‘हरे कृष्ण आंदोलन’ के नाम से जानता है। इस्कॉन ने विश्व भर में भगवान कृष्ण की भक्ति और वैदिक संस्कृति को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। श्रील प्रभुपाद ने 9 जुलाई 1977 को एक लिखित निर्देश जारी किया था, जिसमें उन्होंने दीक्षा (शिष्य दीक्षा) के लिए एक ‘ऋित्वक’ प्रणाली की स्थापना की थी। इसके तहत, उनके द्वारा नियुक्त 11 वरिष्ठ शिष्य (‘ऋित्वक’) नये भक्तों को दीक्षा देने के लिए उनके प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेंगे और सभी भावी भक्त केवल श्रील प्रभुपाद के ही शिष्य होंगे। श्रील प्रभुपाद ने स्पष्ट किया था कि वे इस्कॉन के एकमात्र आचार्य बने रहेंगे और उनके बाद कोई भी शिष्य स्वयं को आचार्य या गुरु घोषित नहीं करेगा। 1977 में वृंदावन में श्रील प्रभुपाद की महासमाधि के बाद, उनके कुछ वरिष्ठ शिष्यों (मुख्य रूप से पश्चिमी) ने उनके निर्देशों की अवहेलना की और स्वयं को उत्तराधिकारी आचार्य घोषित कर लिया। उन्होंने स्वयं दीक्षा देना शुरू किया, भव्य जीवनशैली अपनाई और अपने लिए सम्मानजनक उपाधियां और गीत रचवाए, जो श्रील प्रभुपाद की सादगीपूर्ण जीवनशैली के विपरीत था। इस स्व-घोषित गुरु प्रणाली का विरोध करने वाले भक्तों को उत्पीड़न, मंदिरों से निष्कासन, और यहां तक कि हिंसा का सामना करना पड़ा। एक चरम मामले में, वर्जीनिया में एक भक्त सुलोचना दास की 1984 में हत्या कर दी गई। अंग्रेजी में छपी एक पुस्तक, ‘मंकी ऑन द स्टिक’ में इस हत्या में शामिल इस्कॉन के आज कुछ मशहूर नेतृत्व की ओर खुल कर लिखा गया है। नवम्बर 1998 में, इस्कॉन बेंगलुरु में देश- विदेश के अनेक वरिष्ठ भक्त जमा हुए और उन्होंने ‘इस्कॉन रिफार्म मूवमेंट’ की स्थापना की, जिसका लक्ष्य स्व-घोषित गुरु प्रणाली का विरोध करना था। इस समूह ने श्रील प्रभुपाद को इस्कॉन का एकमात्र आचार्य मानने और ‘ऋित्वक’ प्रणाली का पालन करने का संकल्प लिया। इस रुख के कारण, इस्कॉन मुंबई, जो स्व घोषित गुरुओं द्वारा नियंत्रित थी, ने इस्कॉन बेंगलुरु के भक्तों को संगठन से निष्कासित करने और उनके मंदिर पर नियंत्रण करने का असफल प्रयास किया। बाद में ‘इस्कॉन रिफार्म मूवमेंट’ की बैठकें कुआलालम्पुर और फ्लोरिडा जैसे शहरों में भी हुई। बेंगलुरु और मुंबई केंद्रों के बीच संपत्ति विवाद की शुरुआत 2000 हुई, जब इस्कॉन मुंबई ने बेंगलुरु के हरे कृष्ण हिल मंदिर पर नियंत्रण का कानूनी दावा किया। इस्कॉन बेंगलुरु 1978 में कर्नाटक सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत एक स्वतंत्र संस्था के रूप में पंजीकृत थी, जबकि इस्कॉन मुंबई 1860 के सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट और 1950 के बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के तहत पंजीकृत थी। इस्कॉन मुंबई ने दावा किया कि बेंगलुरु केंद्र केवल उनकी शाखा है और मंदिर की संपत्ति पर उनका अधिकार है । इस्कॉन की गुरु प्रणाली संगठन के इतिहास में एक विवादास्पद मुद्दा रही है। परंपरागत रूप से, गौड़ीय वैष्णव परंपरा में गुरु को परम आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त होता है, जो शास्त्रों और पूर्ववर्ती आचार्यों के अनुसार शिक्षण देता है।

भविष्य में अनाधिकृत लोग स्वयं को गुरु बता कर इस्कॉन के भक्तों को गुमराह न कर सकें इसलिए श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन में ‘ऋत्वक’ प्रणाली लागू की थी ताकि उनकी मृत्यु के बाद भी वे एकमात्र दीक्षा गुरु बने रहें। 1977 के बाद, इस्कॉन की गवर्निंग बॉडी कमीशन (जीबीसी) ने नई गुरु प्रणाली शुरू की, जिसमें वरिष्ठ भक्तों को ‘दीक्षा गुरु’ नियुक्त किया गया। यह प्रणाली ईसाइयों के वेटिकन मॉडल की तरह सहमति और मतदान पर आधारित थी, जिसे उन्होंने ‘लोकतांत्रिक’ कहा, जबकि भारत की सनातन परंपरा में गुरु का पद भगवान समान माना जाता है और ऐसा पद प्राप्त करने के लिए साधना और उस संप्रदाय की परंपरा के आचार्य का आदेश सर्वोपरि होता है। अपना प्रचार करके चुनाव में ज्यादा वोट पाकर गुरु बनना सनातन धर्म के मूल सिद्धांत का मजाक है। इस्कॉन के लाखों भक्तों को इस तथ्य का पता नहीं है इसलिए वे जीबीसी में होने वाले आंतरिक चुनाव जीतने वालों को ही अपना गुरु माने बैठे हैं। कोर्ट का फैसला इस्कॉन बेंगलुरु के लिए कानूनी जीत नहीं है, बल्कि प्रभुपाद ऋक प्रणाली और उनकी आध्यात्मिक विरासत को बनाए रखने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।