22-11-2023 (Important News Clippings)

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22 Nov 2023
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Date:22-11-23

Be Vocal Against Parochial in India

ET Editorials

Last week, Punjab and Haryana High Court quashed the Haryana State Employment of Local Candidates Act, 2020, which mandated 75% reservation for ‘locals’ with a monthly salary of less than ₹30,000 in private sector jobs. This is a welcome move, and serves as a signal for all states that could be considering playing such a cynical and self-throttling political card. The court ruling was on expected lines, since the Haryana law flouts constitutional provisions and goes against evidence that shows migration has solid economic benefits for both migrants-hosting states as well as migrants themselves.

According to the 2011 census, about 210 million people migrated in the preceding decade within India. Under the Haryana law, ‘locals’ are defined as permanent residents or living in the state for at least 15 years. This automatically bars employment for those residing in other parts of India. The Act undermines constitutionally guaranteed rights and equality of law irrespective of place of birth (Article 14) and free movement of all citizens (Article 19) within India. It contradicts sustained efforts to ease inter-state migration through measures like ‘One Nation, One Ration Card’, not to mention GST’s rationale of creating a unified market. The 2014 Charu Khurana vs Union of India case — a trade union debarred a worker as she had not lived in Maharashtra for at least five years — established that the domicile card cannot be used to bar employment.

The free movement of people allows businesses to hire the best and most competitive talent. Shutting the door to ‘outside’ talent could force companies to move out. The law was never in Haryana’s interest. Instead of approaching the Supreme Court, the state government should junk the law.


Date:22-11-23

Parochial law

States need to implement labour rights uniformly and not rely on protectionism

Editorial

The Punjab and Haryana High Court has done the right thing by quashing the Haryana State Employment of Local Candidates Act, 2020 that provides for 75% reservation to State domiciles in the private sector in jobs that provide a monthly salary of less than ₹30,000. The court stated that it was beyond the purview of the State to legislate on the issue and restrict private employers from recruiting people from the open market. It also held that the Act was violative of equality guaranteed under Article 14 and freedom under Article 19 of the Constitution. The court said that by allotting 75% reservation for “locals”, the Act militates against the rights of citizens of the rest of the country, and that such acts could lead to other States coming up with similar enactments, in effect putting up “artificial walls” throughout India. It argued that the Act was imposing unreasonable restrictions on workers’ right to move freely throughout the territory of India. The court termed the requirements on private employers stipulated in the Act as akin to those under “Inspector Raj”.

Other States such as Andhra Pradesh and Jharkhand have also enacted similar legislation. The Andhra Pradesh High Court observed that the State’s Bill, passed in 2019, “may be unconstitutional”, but it is yet to hear the case on merits. Workers move to other States seeking job opportunities that are relevant to their skills and abilities. If States build walls and impose restrictions that prevent job seekers from other States from accessing opportunities, citizens of poorer States will have to eke out a living within their own regions. This will affect the economy of the entire country. While legislation that seeks to reserve blue collar jobs for locals is problematic and unconstitutional, there is a reason why there is resentment among locals in better-off States over their jobs being taken up by “migrant” workers and which has compelled their governments to come up with knee-jerk protectionist measures. There are more than a few private employers who exploit the migrant labour market as such workers tend to work long hours for low wages with little or no social protection and benefits. This creates a segmentation of the labour market with low-wage migrant workers on the one side and local workers with better bargaining power on the other. If States are truly concerned about protecting workers’ rights, they should ensure that migrant workers in all establishments enjoy basic labour rights that are legally due to them, thereby creating a level playing field for all workers. This will also be a curb on exploitative practices by employers. Protectionism in the labour market is not the answer.


Date:22-11-23

एआई के खतरों को लेकर हमें तैयारी करनी होगी

संपादकीय

इस माह की शुरुआत में लंदन के ब्लेचली पार्क में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ एक इंटरव्यू में एलोन मस्क ने कहा कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) दुनिया के इतिहास में सबसे विध्वंसक ताकत होगी, जिसके प्रयोग के बाद लोगों के पास काम नहीं होगा । लोग केवल अपने सुख के लिए काम करेंगे। मस्क जैसे सफल उद्यमी के कथन को हलके में नहीं लिया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षा आदि के क्षेत्र में इसके अतुलनीय लाभ भी होंगे और यूनिवर्सल बेसिक इनकम की जगह यूनिवर्सल बेसिक हाई इनकम दौर होगा, लेकिन दुष्परिणाम भी दिखाई देंगे। भारत, अमेरिका, ईयू और चीन सहित 28 देशों ने सर्वसहमति से ‘ब्लेचली घोषणा पत्र” पर हस्ताक्षर कर मस्क की चिंता को स्वीकारा। ब्रिटेन ने एआई के प्रभावों को समझने और उनसे बचने की रूपरेखा पर अध्ययन के लिए एक संस्था बनाने की घोषणा की। मस्क का अंदेशा भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण होना चाहिए। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि इस निम्न प्रति व्यक्ति आय वाले देश में एआई का प्रयोग कहीं कामगारों और अन्य पेशेवरों को आजीविका से वंचित न करे। लेकिन अगर इसके प्रयोग से किसानों को यह पता चलता है कि किस खेत में कौन-सी खाद और कितना पानी कब डालना है या सुदूर गांव की गरीब बालिका को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिलती है, लोगों को बीमारी के पहले उसके होने का और निदान का पता चलता है तो इस तकनीकी को विध्वंसक ताकत नहीं विज्ञान का वरदान भी माना जा सकता है। अगर परमाणु भौतिकी बम बना सकती है तो स्वच्छ ऊर्जा भी दे सकती है, इलाज में भी कारगर हो सकती है। भारत में काम कम करने वाली तकनीकी नहीं चाहिए पर ज्ञान बढ़ाकर अधिक उत्पादकता देने वाली तकनीकी का स्वागत हो ।


Date:22-11-23

सरकारें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से डर रही हैं

अंशुमान तिवारी, ( मनी 9 के एडिटर )

सरकारों पर एआई का खौफ इस कदर तारी है कि इजराइल-हमास युद्ध के धमाकों के बीच नवंबर के पहले सप्ताह 28 देशों के मुखिया, बड़े नेता और तकनीकी दिग्गज ब्रिटेन के ब्लेचली पार्क में आ जुटे। भीतरी राजनीतिक उठापटक के बीच ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने बैठक की मेजबानी की। यहां अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, यूरोपीय कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर और एलोन मस्क भी थे। यह तो पता है कि सरकारें विज्ञान की इस नई खोज यानी दिमाग वाली मशीनों से बुरी तरह डरी हैं लेकिन इसे कानून में बांधने की कवायद इतनी तेजी से होगी, यह आश्चर्यजनक है। लंदन से करीब 70 किमी दूर मौजूद ब्लेचली पार्क बड़ी रोमांचक जगह है। जिस एआई को काबू करने की कोशिश में सरकारों के मुखिया पसीना छोड़ रहे हैं, उसकी जमीन इसी जगह बनी थी। कहते हैं हिटलर की हार एक गणितज्ञ की वजह से हुई थी, जिसका नाम था एलन ट्यूरिंग। इसी पार्क के कोडब्रेकिंग सेंटर में ट्यूरिंग ने नाजी संचार की ताकत यानी एनिग्मा कोड को तोड़ने की मशीन बनाई थी। इसके बाद तीन साल में हिटलर हार गया।

यह ट्यूरिंग ही थे, जिन्होंने पहली बार एआई की राह दिखाई। 1950 में उनका शोध पत्र आया, जिसमें मशीनों की बुद्धिमत्ता तय करने के लिए ट्यूरिंग टेस्ट का आविष्कार शामिल था। इसी ब्लेचली पार्क में एक घोषणापत्र जारी हुआ, जिसका लब्बोलुआब था इससे पहले कि एआई हमें गुलाम बना ले, इसे अपने काबू में करना होगा!

खौफ की वजह : इस साल की शुरुआत में एआई वैज्ञानिकों ने सरकारों को एक खत लिखा था, जिसमें कहा था कि एआई बेहद खतरनाक है, इससे निजता और लोकतंत्र चौपट हो जाएंगे। समाज में झूठ फैलाने और मशीनों को भेदभाव के लिए तैयार किया जाएगा। रूस और यूक्रेन और इजराइल हमास युद्ध में एआई के इस्तेमाल से डर कई गुना बढ़ गया है। रूस और अरब दोनों ही युद्धों में निजी सेनाएं लड़ रही हैं। रूस में वैगनर ने यूक्रेन पर धावा बोला तो इधर अरब में हमास, हिजबुल्ला और हूती हैं। इनके पास तकनीकें पहुंचते देर नहीं लगेगी।

काबू करने की जद्दोजहद : बीते सौ वर्षों के इतिहास में किसी नई तकनीक को लेकर इतना खौफ कभी नहीं देखा गया। ब्लेचली पार्क की बैठक तक विश्व की तीन प्रमुख ताकतें कानून बनाने के निर्णायक कदम उठा चुकी थीं। विभाजित राजनीति के कारण अमेरिका में कानून नहीं बना, मगर राष्ट्रपति जो बाइडन इस कदर डरे हैं कि उन्होंने अक्टूबर में राष्ट्रपति के अधिकारों के तहत एक बड़ा ऑर्डर जारी कर दिया। इस आदेश के बाद अमेरिका में एआई के प्रत्येक कदम की पड़ताल के अब तक के सबसे व्यापक नियम बनेंगे। कंपनियों को अपने शोध की जानकारी देना होगी । इस ऑर्डर में निजता, सुरक्षा, फेक न्यूज सबके लिए नियम शामिल हैं।

यूरोपीय समुदाय ने एआई पर शिकंजा कसने के लिए अप्रैल 2021 में काम शुरू किया था। ईयू एक व्यापक कानून बनाना चाहता है, जिसमें एआई के सभी पहलू समेटे जा सकें और एआई सिस्टम पर काम करने वालों की जिम्मेदारी तय की जा सके। अलबत्ता चीन ने एआई के व्यापक कानून-नियम बनाकर एआई डेवलपमेंट और गवनेंस में अगुवाई कर ली है। 2017 में चीन ने एआई डेवलपमेंट प्लान के तहत 2030 तक एआई में बड़ी ताकत बनने का लक्ष्य तय किया है। 2021 में साइबरस्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ने एल्गोरिदमिक रिकमंडेशन के नियम तय कर दिए, जो एआई सिस्टम का बुनियादी संचालन है। 2022 में डीप सिंथेसिस तकनीकों पर रेगुलेशन बन गए। 2023 में चैटजीपीटी या बार्ड जैसी जनरेटिव एआई प्रणालियों के लिए व्यापक नियम बना दिए गए हैं। कोई नहीं चाहता कि इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना- तकनीक का अगुआ चीन एआई गवर्नेस के नियम तय करे, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो फिर कंपनियां इन्हीं के तहत उत्पाद और सेवाएं बनाएंगी। यही वजह थी कि बाइडन को एग्जीक्यूटिव ऑर्डर जारी करना पड़ा। यूरोप -और ब्रिटेन इस कदर हिल गए कि आनन-फानन में 28 देशों का सम्मेलन बुलाया गया। पर भारत में डीपफेक पर सियासी चिंताओं के अलावा कानून को लेकर सक्रियता नहीं दिखती।

इनसे हो पाएगा? : क्या दुनिया की सरकारें सच में एआई को नियंत्रित कर पाएंगी? दो बड़े सवाल हैं। पहला, अमेरिका ने इस बैठक से पहले जारी कार्यकारी आदेश में खासतौर पर अमेरिकी मूल्यों पर आधारित एआई की शर्त रखी थी। सहमति की कोशिशों के बीच ब्रिटेन और ईयू भी अपने अलग कानून बना रहे हैं। चीन अपने नियम- पैमाने पहले ही तय कर चुका है। एआई पर काम करने वाली कंपनियां बहुराष्ट्रीय हैं। 2026 तक एआई आधारित उत्पाद सेवाओं का बाजार 300 अरब डॉलर से ऊपर होगा। बकौल ब्लूमबर्ग, 2030 तक जनरेटिव एआई में 1.3 ट्रिलियन डॉलर का निवेश होगा। दुनिया का हर देश इस निवेश को अपने यहां चाहेगा, इसलिए सामूहिक अंतरराष्ट्रीय नियमन पर सहमति मुश्किल है। दूसरा, एआई की गहराई और विस्तार को करीब से जानने वाले बेधड़क कहते हैं कि बीते दो दशक में सूचना तकनीक कंपनियों पर कोई सख्त नियम नहीं लगाए गए, इसलिए उनके सर्वर प्रयोगशालाओं के भीतर क्या है यह किसी को पता नहीं है। यह कनेक्टेड दुनिया है, जिसमें बहुत-से सिस्टम अलग-अलग देशों में हैं, उनका नियमन होगा कैसे? सरकारों के पास इन सिस्टम को समझने की क्षमता कहां है। एआई की मॉनिटरिंग के लिए वही लोग चाहिए जो उसे बना – चला रहे हैं। खौफ भरपूर है और जद्दोजहद खासी पेचीदा है।


Date:22-11-23

डीपफेक के खिलाफ कम नहीं हैं कानून की उलझनें

विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील, ‘साइबर कानूनों से समृद्ध भारत’ पुस्तक के लेखक )

फेक और डीपफेक को कुछेक पौराणिक उदाहरणों से समझा जा सकता है। रामायण में मारीच ने स्वर्णमृग का रूप धारण किया था, वह फेक था। इंद्र ने दूसरे व्यक्ति गौतम ऋषि का वेश धारण करके अहिल्या के साथ छल किया था, वह डीपफेक था। युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को अश्वत्थामा के वध का जो अर्धसत्य बोला था, उसे फेक न्यूज माना जा सकता है। नए जमाने में औद्योगिक क्रांति और प्रिंटर आने के बाद झूठ और फरेब पर रोक लगाने के लिए कॉपीराइट के साथ आईपीसी में अनेक कानूनी प्रावधान किए गए। इंटरनेट और मोबाइल आने के बाद झूठी खबरों का डिजिटल कारोबार सबसे बड़ा बाजार बन गया है। भारत में 2020 में आईटी कानून बने थे। उसके बाद डिजिटल क्रांति के चरणों के बावजूद जरूरी कानूनी बदलाव नहीं होने से डीपफेक जैसे संकट बढ़ रहे हैं। इससे जुड़े 6 पहलुओं की समझ जरूरी है :

1. अनुमानों के अनुसार सोशल मीडिया में एक-तिहाई से ज्यादा खाते बेनामी, गलत और फर्जी तरीके से सक्रिय हैं। इनसे झूठ के साथ साइबर अपराधों का कारोबार रक्तबीज की तरह बढ़ रहा है। ऐसे फर्जी यूजर्स की सक्रियता से डिजिटल कंपनियों को बड़ा मुनाफा होता है, इसलिए वे उन पर ठोस कारवाई नहीं करतीं।

2. आम जनता से जुड़े साइबर अपराध के मामलों में पुलिस सामान्यतः एफआईआर नहीं करती। दबाव के बाद मामला दर्ज भी हो जाए तो शिकायतकर्ता को ही हैरान किया जाता है। लेकिन रश्मिका मंदाना के वीआईपी मामले में दिल्ली पुलिस ने स्वयं ही एफआईआर दर्ज करके जांच शुरू की है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी के गरबा खेलते हुए फेक वीडियो से जुड़े अपराधियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने की मीडिया में रिपोर्ट नहीं है। फिल्म जगत और पार्टियों के आईटी सेल द्वारा प्रायोजित झूठ के कारोबार को बढ़ाने वाले संगठित नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई नहीं होने से चीजें बदतर हो रही हैं।

3. अधिकांश लोग सोशल मीडिया में अपनी फोटो और वीडियो शेयर करते हैं। डिजिटल कम्पनियां गैर-कानूनी तौर पर इस डाटा की चोरी कर रही हैं। इसके गैरकानूनी इस्तेमाल और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से डीपफेक फोटो, ऑडियो और वीडियो का निर्माण और सर्कुलेशन सम्भव हो रहा है। चाकू, कट्टा और बंदूक जैसे अनेक हथियार रखने के लिए कानून बने हुए हैं, लेकिन डीपफेक के लिए इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर और ऐप्स के नियमन की भारत में कोई व्यवस्था नहीं है।

4. डीपफेक का कारोबार डाटा के गैर-कानूनी इस्तेमाल पर आधारित है। गैर-व्यक्तिगत डाटा के कारोबार के खिलाफ तो भारत में कोई कानून ही नहीं बना। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 7 साल बाद व्यक्तिगत डाटा के कारोबार को रोकने के लिए संसद से कानून बना । राष्ट्रपति की मंजूरी के बावजूद कानून और उससे जुड़े नियमों को अभी तक लागू नहीं किया गया है। आईटी एक्ट की जगह डिजिटल इंडिया कानून लाने की कई सालों से सिर्फ चर्चा हो रही है। इन जरूरी मुद्दों पर कानून लागू करने के बजाय डीपफेक पर शोर मचाना मूल विषय को भटकाने की तरह है।

5. डीपफेक से निपटने के लिए आईटी मंत्री ने सोशल मीडिया कंपनियों के साथ बैठक बुलाई है। पिछले साल लागू किए गए आईटी रूल्स के अनुसार विदेशी कंपनियों के भारत स्थित शिकायत, नोडल और कंप्लायंस अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की गई है। मीटिंग करने के बजाय शिकायत निवारण के संस्थागत तंत्र के इस्तेमाल की जरूरत है। इससे वीआईपी लोगों के साथ आम जनता को भी बड़ी राहत मिलेगी।

6. सरकार ने धमकी दी है कि अगर सोशल मीडिया कंपनियों ने डीपफेक सामग्री के खिलाफ कार्रवाई नहीं की तो सेफ – हार्बर की कानूनी सुरक्षा खत्म कर दी जाएगी। इंटरनेट कंपनियों को पोस्टमैन की तरह मानते हुए उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कानूनी सुरक्षा मिली है। भारत में आईटी एक्ट की धारा 79 के तहत इंटरनेट, डिजिटल, सोशल मीडिया, वेबसाइट्स और ऐप्स को सेफ हार्बर का कानूनी कवच मिला है। सोशल मीडिया में नग्नता, नफरती और आतंकी सामग्री की भरमार होने के बावजूद कंपनियां कार्रवाई नहीं करतीं। ट्विटर और टेलीग्राफ के खिलाफ सख्ती बरतते हुए सरकार ने सेफ हार्बर सहूलियत हटाने की घुड़की दी थी।

हकीकत यह है कि इंटरनेट की दुनिया और कारोबार में अगर सेफ हार्बर की कानूनी सुरक्षा खत्म हो गई तो डिजिटल अर्थव्यवस्था का तिलिस्म ढह जाएगा।


Date:22-11-23

आय में असामनता का चक्रव्यूह

जयंती लाल भंडारी

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रपट में कहा गया है कि यद्यपि भारत में गरीबी 2015-2016 के मुकाबले 2019- 2021 के दौरान 25 फीसद से घटकर 15 फीसद पर आ गई है, लेकिन आप की असमानता बढ़ी हुई है। हालांकि भारत में प्रतिव्यक्ति आय वर्ष 2000 में जहां करीब 37 हजार रुपए थी, वहीं वर्ष 2022 में बढ़कर करीब दो लाख रुपए हो गई है, लेकिन अब भी भारत दुनिया के उन प्रमुख दस देशों में शामिल है, जहां बीते बीस वर्षों में लोगों की आय में असमानता बढ़ी है। स्थिति यह है कि भारत के दस फीसद अमीर लोगों के पास देश की आधी संपत्ति है जिस तरह भारत में सरकार अस्सी करोड़ से ज्यादा लोगों को हर महीने मुफ्त खाद्यान्न दे रही है, उससे भी जाहिर होता है कि भारत में आय की असमानता काफी गहरी है।

ऐसे में निश्चित रूप से भारत में गरीबों के सशक्तीकरण के लिए निशुल्क खाद्यान्न की जरूरत बनी हुई है। पिछले पांच वर्षों में तेरह करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं और देश के बाकी गरीब लोगों को गरीबी से बाहर निकालने की दिशा में देश आगे बढ़ रहा है। हाल ही में केंद्र सरकार ने अस्सी करोड़ से अधिक पात्र लोगों को निशुल्क खाद्यान्न वितरण की योजना आगामी पांच वर्षों तक के लिए बढ़ा दी। गौरतलब है कि भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) 10 सितंबर, 2013 को अधिसूचित हुआ। इसका उद्देश्य नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए वहनीय मूल्यों पर गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न की पांच किलोग्राम मात्रा उपलब्ध कराना है। इसके तहत राशन कार्ड धारकों को चावल तीन रुपए, गेहूं दो रुपए और मोटे अनाज एक रुपए किलो की दर पर देने की शुरुआत की गई। कोरोना महामारी के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत मुफ्त अनाज दिया गया। अब वर्ष 2028 तक एक बार फिर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत आने वाली देश की दो तिहाई आबादी को मुफ्त देने की पहल दुनिया भर में रेखांकित की जा रही है।

यह कोई छोटी बात नहीं है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष सहित दुनिया के विभिन्न सामाजिक सुरक्षा के वैश्विक संगठनों घरा भारत की खाद्य सुरक्षा की जोरदार सराहना की गई है। आइएमएफ द्वारा पिछले दिनों प्रकाशित अध्ययन में कोविड की पहली लहर 2020-21 के प्रभावों को भी शामिल करते हुए कहा गया है कि सरकार के पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त खाद्यान्न कार्यक्रम ने कोविड – 19 की वजह से लगाई गई पूर्णचंदी के प्रभावों की गरीबों पर मार को कम करने में अहम भूमिका निभाई है और इससे अत्यधिक गरीबी में भी कमी आई है। आइएमएफ के अध्ययन में कहा गया है कि खाद्य राचसी कार्यक्रम कोविड – 19 से प्रभावित वित्त वर्ष 2020-21 को छोड़कर अन्य वर्षो में गरीबी घटाने में सफल रहा है। दुनिया के अर्थ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोविड-19 के बीच भारत में खाद्यान्न के ऐतिहासिक स्तर पर पहुंचे सुरक्षित खाद्यान्न भंडारों के कारण ही देश के अस्सी करोड़ लोगों को लगातार मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध होने के कारण गरीबी के दलदल में फंसने से बच गए।

गौरतलब है कि डिजिटल माध्यम से लाभार्थियों को भुगतान के प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर डीबीटी) से भी गरीबों का सशक्तीकरण हुआ है। सरकार ने वर्ष 2014 से लेकर अब तक डीबीटी के जरिए करीब 29 लाख करोड़ रुपए से अधिक राशि सीधे लाभान्वितों तक पहुंचाई है। दुनिया भर में रेखांकित हो रहा है कि गरीबों के सशक्तीकरण में करीब 47 करोड़ से अधिक जनधन खातों, करीब 134 करोड़ आधार कार्ड तथा 118 करोड़ से अधिक मोबाइल उपभोक्ताओं की शक्ति वाले बेमिसाल डिजिटल ढांचे की असाधारण भूमिका रही है।

निश्चित रूप से देश में लगातार बढ़ता खाद्यान्न उत्पादन भारत की खाद्य सुरक्षा को मजबूती प्रदान करता दिखाई दे रहा है मगर देश में खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ बढ़ती जनसंख्या के लिए अधिक खाद्यान्न की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2023 में भारत 142.86 करोड़ लोगों की आबादी के साथ चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। चूंकि खाद्यान्न के केंद्रीय पूल में सालाना 780 से 800 लाख टन गेहूं और चावल की खरीद होती है। पीडीएस के तहत अनाज देने के लिए 500 से 590 लाख टन अनाज की जरूरत होती है। वर्ष 2023-24 में केंद्र ने एनएफएसए में 600 लाख टन गेहूं और चावल का आवंटन किया है। ऐसे में गरीबों के लिए बड़े हुए खाद्यान्न के आवंटन और देश की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए रणनीतिक कदम आगे बढ़ाने होंगे।

देश में लागू की गई सामुदायिक रसोई एक राष्ट्र एक राशन कार्ड या योजना, आयुष्मान भारत, पोषण अभियान समग्र शिक्षा जैसी योजनाएं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गरीबी के स्तर में कमी, स्वास्थ्य और भुखमरी की चुनौती को कम करने में सहायक रही है। मगर उनके क्रियान्वयन में अभी अधिक कारगर प्रवासों की जरूरत बनी हुई है। गरीबों की आय बढ़ाने के लिए भी नए सिरे से अधिक प्रयास करने होंगे देश में अल्प बेरोजगारी, बेरोजगारी और श्रम की कम उत्पादकता भी गरीबी और आय असमानता का एक प्रमुख कारण है। समय पर पर्याप्त रोजगार का सृजन न हो पाने के कारण भी आप की असमानता दिखाई देती है।

इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि गरीब या आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे लोगों को मुफ्त खाद्यान्न सुविधा देनी चाहिए, लेकिन निशुल्क खाद्यान्न योजना जिस तरह अस्सी करोड़ से अधिक यानी आबादी के सत्तावन फीसद लोगों तक विस्तारित है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। तात्कालिक आवश्यकता यह है कि लाभार्थियों को नए सिरे से परिभाषित किया और पता लगाया जाए कि वास्तव में किन लोगों को निशुल्क खाचान की आवश्यकता है और किन लोगों को रिवायती दरों पर खाद्यान्न दिया जाना उपयुक्त होगा।

दरअसल, जिस तरह सत्तावन फीसद आबादी मुफ्त अनाज की छतरी में हैं, उसमें से आबादी के अत्यधिक जरूरतमंद हिस्से को मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति निश्चित करते हुए बाकी आबादी को रियायती दर पर खाद्यान्न की आपूर्ति की जाए। साथ ही सरकार खाद्यान्न के पूर्व निर्धारित रियायती केंद्रीय निर्गम मूल्य में समुचित संशोधन कर सकती है, क्योंकि ये कीमतें एक दशक पहले निर्धारित की गई थीं। ऐसा करने से सरकार का खाद्य सबसिडी चिल भी उतना बड़ा बोझ नहीं रह जाएगा।

सरकार का खाद्य सबसिडी खर्च वर्तमान आकलन के मुताबिक दो लाख करोड़ रुपए है, वह आगामी वर्षों में चलेगा। इस समय भारतीय खाद्य निगम को गेहूं और चावल पर क्रमशः करीब 27 रुपए और 39 रुपए प्रति किलोग्राम का आर्थिक बोझ उठाना पड़ रहा है। सरकार इस बात पर भी गंभीरतापूर्वक विचार कर सकती है कि जरूरतमंदों तक मुफ्त अनाज की जगह उसकी कीमत के बराबर प्रत्यक्ष नगद सहायता पहुंचाई जाए इससे जहां भारतीय खाद्य निगम का खाद्यान्न खरीद संबंधी आवंटन कम होगा, वहीं खाद्यान्न भंडारण का खर्च भी कम होगा।

इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि गरीबों की आमदनी में वृद्धि के लिए जहां गरीब वर्ग के युवाओं को रोजगार के मौके जुटाने के लिए डिजिटल शिक्षा के रास्ते पर आगे बढ़ाने के कारगर प्रयास करने होंगे, वहीं उन्हें निशुल्क कौशल प्रशिक्षण के साथ नए हुनर सिखाने होंगे। रोजगार के अवसरों के लिए भी अधिक प्रवास करने होंगे ऐसे रणनीतिक प्रयासों से देश में गरीबी और आय की असमानता कम करने में मदद मिल सकेगी।


Date:22-11-23

टकराव नहीं समन्वय

संपादकीय

संविधान में केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है कुछ मायनों में केंद्र को अधिक अधिकार दिए गए हैं। लेकिन संघीय व्यवस्था होने के कारण राज्यों को भी अपने शासन क्षेत्र में पूरा अधिकार प्राप्त है। शक्तियों के इस स्पष्ट विभाजन के बावजूद केंद्र और राज्यों में टकराव होते रहते हैं। ऐसा तब नहीं होता जब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकारें होती हैं। साफ है कि अधिकतर टकराव राजनीतिक कारणों से ही होते हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी के शासनकाल में ऐसे टकराव बहुत हुए हैं। गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को अपदस्थ करके राष्ट्रपति शासन थोपने की घटनाओं से कांग्रेस शासन का इतिहास अटा पड़ा है। अभी पिछले नौ वर्षों से केंद्र में भाजपा की सरकार है। इस दौरान किसी गैर-भाजपा सरकारों को केंद्र द्वारा अपदस्थ तो नहीं किया गया, लेकिन पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पंजाब की गैर भाजपा सरकारों के साथ केंद्र की टकराहट की खबरें आती रही है। इनके मुख्यमंत्रियों का आरोप है कि राज्यपाल सरकार के कामकाज में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं और पारित विधेयकों को लटकाए रखते हैं। देश की सर्वोच्च अदालत ने तमिलनाडु के राज्यपाल को मंजूरी के लिए जनवरी 2020 को भेजे गए विधेयक पर निर्णय लेने में देरी पर कड़ा रुख अपनाते हुए सवाल किया कि वे तीन साल से क्या कर रहे हैं? मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की तीन सदस्यीय पीठ ने अटार्नी जनरल से पूछा ‘राज्यपाल को सरकारों के सुप्रीम कोर्ट जाने का इंतजार क्यों करना चाहिए? यह भी कहा कि राज्यपाल तब सक्रिय हुए, जब अदालत से नोटिस जारी हुए। सर्वोच्च अदालत ने 10 नवम्बर को आदेश जारी किया था और राज्यपाल ने 13 नवम्बर को विधेयकों का निबटारा किया। पीठ का कहना था कि केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल का संवैधानिक दायित्व यह देखना है कि राज्य में शासन तंत्र संविधानिक रूप से चल रहा है या नहीं इसमें उनसे दल-निरपेक्षता की अपेक्षा की जाती है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर राज्यपाल की नियुक्ति राजनीतिक मानी जाती है। ऐसे में वह केंद्र की सत्ता से बंधा होता है और उसीके अनुरूप काम करता है लेकिन राज्यपाल को चाहिए कि वह केंद्र और राज्यों के बीच एक कड़ी के रूप में काम करते हुए दोनों में समन्वय स्थापित करे। यही तो संघीय शासन की सफलता की अनिवार्य शर्त है।


Date:22-11-23

छलनी हिमालय के खतरे

जयसिंह रावत

उत्तरकाशी स्थित सिक्यारा परियोजना की सुरंग के एक हिस्से के धंसने से वहां फंसे 40 मजदूरों की जान संकट में पड़ने के बाद हिमालय में सुरंगों के निर्माण पर सवाल उठने लगे हैं। सुरंगों सहित भूमिगत निर्माण में इस तरह के हादसे नए नहीं हैं। पर अब तो सुरंगों के धंसने और निर्माणाधीन सुरंगों के ऊपर बसी बस्तियों के धंसने की शिकायतें आम हो गई हैं। जोशीमठ इसका उदाहरण है। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गड़करी के अनुसार उत्तराखंड के साथ हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में इस वक्त पौने तीन लाख करोड़ रुपए की लागत की टनल बनाई जा रही हैं। अगर सिलक्यारा सुरंग की ही तरह सभी सुरंगें बनाई जा रही हैं तो हिमालय और हिमालय वासियों का ऊपरवाला ही मालिक है।

हिमालयी क्षेत्र की जनता को विकास चाहिए तभी उनकी जिंदगी की मुश्किलातें कम होंगी और बेहतर जीवन सुलभ होगा, लेकिन पहाड़ों पर सड़कें बनाना तो आसान है मगर उन सड़कों के निर्माण से उत्पन्न परिस्थितियों से निपटना उतना आसान नहीं है। तेज ढलान के कारण पनबिजली उत्पादन के लिए हिमालयी क्षेत्रों को सबसे अनुकूल माना जाता है। इसीलिए नीति-नियंताओं और योजनाकारों की नजर हिमालय पर है। पनबिजली के लिए ढलान की आवश्यकता होती है ताकि तेज धार या पानी की भौतिक ऊर्जा से पावर हाउस की टरबाइन चल सके और फिर बिजली का उत्पादन हो सके। इसके लिए पहाड़ों से बहने वाली नदियां ही सबसे माकूल हैं।

इन नदियों का वेग और भौतिक ऊर्जा बढ़ाने के लिए पानी को तेज ढलान वाली सुरंगों से गुजारा जाता है। मैदानी क्षेत्र में पानी के लिए इतनी ढाल के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र डुबोना होता है इसलिए अब तक जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक पनबिजली के लिए योजनाकारों ने हिमालयी क्षेत्र को चिह्नित कर रखा है। हिमालय के गर्भ को छलनी करने का समर्थन तो पर्यावरणविद् कर नहीं सकते मगर भूविज्ञानी इसमें संयम की सलाह अवश्य देते हैं। वर्तमान में हिमालय पर केवल पनबिजली परियोजनाओं के लिए नहीं बल्कि यातायात और अन्य गतिविधियों के लिए भी सुरंगों का निर्माण हो रहा है। पहले भूमिगत बिजली घर बने, लेकिन अब तो पहाड़ी नगरों में ट्रैफिक समस्या के समाधान के लिए भूमिगत पार्किंग भी बनने लगे हैं। राज्य गठन के पहले ही उत्तराखंड में चार धाम ऑल वेदर रोड और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना की सुरंगों के अलावा लगभग 750 किमी लम्बी सुरंगें विभिन्न चरणों में बनाई जा रहीं थीं।

एनटीपीसी की लगभग 12 किमी लम्बी सुरंग को जोशीमठ के धंसने के लिए पर्यावरणविद् जिम्मेदार मानते रहे हैं। जोशीमठ के ही सामने चाई गांव के धंसने के लिए 300 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना की 13 किमी लम्बी सुरंग पर ऊंगलियां उठती रही हैं। पेशे से इंजीनियर और भारत सिंचाई और ऊर्जा मंत्री के. एल. राव द्वारा देश के जल संसाधनों का सन् 60 के दशक में व्यापक सर्वेक्षण कराया गया था। उसी सर्वेक्षण के आधार पर भाखड़ा नंगल बांध से लेकर टिहरी बांध जैसी परियोजनाएं शुरू हुई थीं। उसी के आधार चिह्नित परियोजनाएं आज विभिन्न चरणों में हैं, जिनमें कुछ हरित प्राधिकरण द्वारा रोकी भी गई हैं। इनमें लगभग कुल 750 किमी लम्बी सुरंगें विभिन्न चरणों में हैं।

नाथपा झाकड़ी की 27.40 किमी, नगनादी अरुणाचल की 10 किमी, दुलहस्ती चेनाब की 10.60 किमी और लोकतक मणिपुर की 6.88 किमी लम्बी सुरंगें तो बहुत पहले ही बन चुकी थीं एक सुरंग खोदने के लिए कई सुरंगें बनानी होती हैं। हालांकि उत्तरकाशी के सिलक्यारा सुरंग में पैसे बचाने के लिए अतिरिक्त सुरंगें नहीं बनाई गई। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलाजी के पूर्व निदेशक एनएस विरदी और एक अन्य वैज्ञानिक ए. के. महाजन के एक शोध पत्र के मुताबिक अकेले गंगा बेसिन की प्रस्तावित और निर्माणाधीन परियोजनाओं के लिए 150 किमी लंबी सुरंगें खुद रही हैं या खोदी जा चुकी हैं। प्रस्तावित परियोजनाओं में से विष्णु प्रयाग प्रोजेक्ट पर 12 किमी सुरंग चल रही है। भागीरथी पर बनने वाली परियोजनाओं में लोहारी नागपाला 13.6 किमी, पाला मनेरी 8.7 किमी व मनेरी भाली द्वितीय में 15.40 किमी लंबी सुरंग शामिल है। मनेरी भाली प्रथम में पहले ही 9 किमी लंबी सुरंग काम कर रही है। पनबिजली की इन सुरंगों के अलावा ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना पर 105.47 किमी लम्बी 17 मुख्य सुरंगें बन रही हैं और 98.54 किमी लम्बी स्केप टनल सहित कुल 218 किमी लम्बी सुरंगें विभिन्न चरणों में हैं।

इसलिए सवाल लाजिमी है कि अगर हिमालय के कच्चे पहाड़ अंदर से इस तरह छलनी कर दिए जाएंगे तो उनका गहरा पर्यावरणीय असर होगा। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना की सुरंगों के निर्माण में भारी विस्फोटकों के कारण टिहरी, पौड़ी और रुद्रप्रयाग जिलों की कुछ बस्तियों में न केवल मकानों में दरारें आ गई बल्कि सारे गांव में भवन तक ढह गए। अगर इस परियोजना को बदरीनाथ-केदारनाथ तक बढ़ाया गया तो इतनी ऊंचाई तक रेल लाइन पहाड़ों के अंदर ही बनायी जा सकती है। क्षेत्र की विशिष्ट भूगर्भीय, भौगोलिक और पर्यावरणीय विशेषताओं के कारण हिमालय में सुरंग निर्माण से कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। दरअसल, हिमालय भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की चट्टानें, भ्रंश रेखाएं और अस्थिर भूभाग शामिल हैं। यहां कठिन चट्टानों, भूस्खलन और भूगर्भीय अस्थिरता के कारण सुरंग बनाने के लिए चुनौतियां पैदा होती हैं। निर्माण कार्य प्रायः ऊंचाई पर कठिन होता है। कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी और कठिन पहुंच जैसी चुनौतियां निर्माण को कठिन बनाती हैं। कठोर चट्टनों में सुरंग बनाने, पानी के प्रवेश का प्रबंधन करने, वेंटिलेशन सुनिश्चित करने और खड़ी चट्टानों में स्थिरता बनाए रखने के लिए उन्नत इंजीनियरिंग तकनीकों और विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है। हिमालय में भूगर्भीय निर्माण गतिविधियां नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन, जल संसाधन और मानव बस्तियों पर प्रभाव चिंता का विषय बनती हैं। जोखिमों को कम करने के लिए व्यापक योजना, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, उन्नत तकनीक, सुरक्षा प्रोटोकॉल और कुशल जनशक्ति आवश्यक हैं।


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