22-10-2018 (Important News Clippings)

Afeias
22 Oct 2018
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Date:22-10-18

How To Stop Farmers Burning Crop Stubble

ET Editorials

The government must hold out the carrot and wield the stick to get farmers to stop burning crop stubble and releasing harmful pollutants into the atmosphere, including particulate matter smaller than 2.5 micron across. The governments of Punjab and Haryana, besides the Centre, must take coordinated steps that go beyond preaching. Making Happy Seeders—machines that cut and lift the crop stubble, sow the wheat and deposit the straw over the sown area as mulch—available is the main task. The severest of graded penalties should escalate to non-procurement from areas where farmers burn stubble.

Farmers resort to burning the stubble as it is easy and the costs are low. Also, they detest paying an additional charge for hiring combine harvesters to remove the stubble. However, the ancillary costs are significant, given that stubble burning makes the soil less fertile and pushes farmers into using more fertilisers, water and power for the same area. The need is for governments to create better awareness and also price these inputs appropriately so that farmers internalise some of the cost of burning crop stubble. The additional funds required for providing incentives should be recovered, at least in part, from the increased cost of inputs, whose use goes up with burning crop residue.

Research shows that Happy Seeder is a viable alternative to conventional tillage. Let startups create a business model in which they take money from the government for every hectare of wheat sown using a Happy Seeder. This will ensure that the initial investment on procuring the seeders is not foisted on the farmer. Its swift adoption would be a practical way to do away with burning stubble. If farmers still refuse to make use of available alternatives to crop burning, penalties should kick in.


Date:22-10-18

बुरा विचार

संपादकीय

ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार देश में भुगतान व्यवस्था के नियमन के विषय पर टकराव की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। समस्या की शुरुआत पिछले महीने हुई जब सरकार द्वारा मौजूदा भुगतान एवं निस्तारण व्यवस्था अधिनियम, 2007 में संशोधन करने के लिए गठित अंतरमंत्रालयीन समिति ने नए अधिनियम का प्रस्ताव रखा। समिति की अध्यक्षता वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभागीय सचिव को सौंपी गई थी लेकिन इसमें आरबीआई का भी प्रतिनिधित्व था। समिति के मुताबिक सरकार को मौजूदा कानून में संशोधन के बजाय एक नया कानून लाना चाहिए। अब तक जहां आरबीआई इसका प्रभारी है, वहीं अनुशंसा में कहा गया है कि भुगतान तंत्र के लिए एक अलग नियामक बनाना चाहिए।

समिति का मानना था कि सरकार को आरबीआई के साथ मशविरा कर नया नियामक नियुक्त करना चाहिए। आरबीआई ने समिति की अनुशंसाओं से तीखी असहमति जताई और 19 अक्टूबर को इस मामले पर अपनी असहमति का पत्र भी जारी किया। ऐसी तमाम वजहें हैं जिनके चलते कई लोगों को लगा कि एक स्वतंत्र भुगतान नियामक की जरूरत है। उदाहरण के लिए यह एक नया क्षेत्र है जहां तकनीक की बदौलत तेजी से बदलाव आ रहे हैं।

कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में विषय विशेषज्ञों की आवश्यकता है जो स्वतंत्र रूप से काम कर सकें क्योंकि आरबीआई के मौजूदा ढांचे के अधीन काम करना नवाचार और प्रतिस्पर्धा को रोक सकता है। आरबीआई के पास पहले ही ढेर सारा नियामकीय बोझ है और इसे लेकर चिंता जताई जा रही हैं कि वह इस नए उभरते क्षेत्र के लिए त्वरित नियामकीय हल सुझा पाएगा या नहीं। हालांकि आरबीआई ने अपने असहमति पत्र में इन तमाम शंकाओं का ठोस उत्तर दिया है। सरकार और आरबीआई के बीच विवाद का असल मुद्दा भुगतान नियामक के नेतृत्व का है। इसका उत्तर देते हुए आरबीआई ने सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा है कि भुगतान तंत्र के कामकाज को लेकर कोई कुछ भी सोचे लेकिन नियमन का काम तो आरबीआई के हाथ में ही होना चाहिए। उसने कहा है कि भुगतान मुद्रा से जुड़ा मसला है जो आरबीआई द्वारा नियमित होता है। इसी तरह हर भुगतान तंत्र का एक बैंक खाता होता है। उसका नियमन भी बैंकिंग नियामक करता है। तथ्य यह है कि देश में कई भुगतान तंत्रों पर बैंकों का दबदबा है और आरबीआई का नियमन शायद उनके लिए अधिक सुसंगत होगा। बल्कि आरबीआई से विनियमन न कराने से भ्रम उत्पन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए निस्तारण बैंक खातों में किया जाता है और इस पर अंतिम मुहर आरबीआई की होती है। ऐसे में दो नियामक होना यकीनन थोड़ा विचित्र परिस्थितियां उत्पन्न कर देगा।

कार्ड से होने वाले भुगतान को लेकर भी ऐसा ही संकट होगा क्योंकि कार्ड बैंक जारी करते हैं जबकि वे भी दोहरे नियमन के अधीन आ सकते हैं। चूंकि भुगतान तंत्र का कामकाज शेष बैंकिंग और व्यापक मौद्रिक तंत्र के साथ घुला-मिला है। इसलिए अलग नियामक की नियुक्ति उलट प्रभाव वाली हो सकती है। नियमन और भुगतान सेवाओं की जवाबदेही को एक नए नियामक को सौंपना जोखिम भरा भी हो सकता है जबकि आरबीआई का रिकॉर्ड बेहतरीन रहा है। इस बहस को हल करने की कुंजी यह समझने में निहित है कि भुगतान तंत्र को एकीकृत नियमन की आवश्यकता है न कि समन्वित नियमन की। आरबीआई को इस प्रक्रिया से बाहर रखना अंतरराष्ट्रीय मानक व्यवहार का भी उल्लंघन होगा। इसके बजाय अगर सरकार अभी भी चाहती है कि भुगतान नियामक बोर्ड में उसके नामित सदस्य हों तो आरबीआई ने उनको शामिल करने की इच्छा दिखाई है बशर्ते कि पूरा नेतृत्व आरबीआई के हाथ में रहे। बेहतर होगा कि सरकार अलग नियामक पर जोर देना छोड़ कर आरबीआई के साथ मतभेद समाप्त करे।