09-11-2018 (Important News Clippings)

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09 Nov 2018
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Date:09-11-18

Job Worries

Demonetisation’s adverse impact on employment lingers, needs special policy attention

TOI Editorials

In the midst of an election season, the second anniversary of demonetisation was marked by sharp political exchanges. From an economic standpoint, demonetisation was an ill-conceived move as costs outweighed benefits. Some costs were transient but one that has lingered is the impact on employment. Employment data released by Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE) shows that unemployment rate in October was 6.9%, the highest in two years. More worrying is the related data showing that the number of people in the job market was just 42.3% of the working age population, the lowest level since January 2016.

Demonetisation’s impact was felt primarily by agricultural and informal sectors, the two most cash-dependent parts of the economy. Research, both for India and other countries, shows that informality is largely a fallout of poverty. Consequently, the work force dependent on it is often unskilled. One of the trends thrown up by CMIE data is that it’s women who bore the brunt of adverse consequences of demonetisation on the job market – even if the problem of women dropping out of the work force precedes demonetisation. On balance, demonetisation clearly hurt the job market.

The best antidote is economic growth. Alongside there needs to be policy attention paid to patterns of growth. As the informal sector still provides the lion’s share of jobs, it requires a light touch regulatory framework. In fits and starts, Centre and states have tried to address this aspect. But a relatively neglected aspect is the boost job prospects in the informal sector can get through a combination of policy and targeted spending on infrastructure. It will improve the entire ecosystem of doing business. This can reverse the recent trend in the job market and also over time formalise a lot more firms.


Date:09-11-18

नोटबंदी के दो साल बाद कर आधार बढ़ने का दावा

संपादकीय

नोटबंदी को दो साल पूरे होने पर सरकार ने उसे सही बताते हुए उसके फायदे गिनाए हैं वहीं विपक्ष ने फिर सरकार को चेताया है कि वह ऐसा दुस्साहस भरा कदम भविष्य में न उठाए। यह बहस चलनी चाहिए और इससे कम से कम भावना की बजाय तर्क पर आधारित चर्चा उठेगी और विवेक और तथ्य की बातें होंगी। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने नए संदर्भों में वह दलील पलट दी है, जिसमें कहा गया था कि नोटबंदी कालाधन और नकली नोटों को खत्म करने के साथ आतंकवाद और नक्सलवाद को कमजोर करने के लिए लाई गई है। जेटली ने अपनी फेसबुक पोस्ट पर लिखा है कि नोटबंदी का उद्‌देश्य बाजार में बिखरे नोटों को इकट्‌ठा करना था ही नहीं। इरादा तो यह था कि अर्थव्यवस्था का कर प्राप्त करने का आधार बड़ा हो जाए और एक औपचारिक वातावरण निर्मित हो।

जेटली ने दावा किया है कि नोटबंदी से प्रत्यक्ष कर का आधार तो बढ़ा ही है साथ में अप्रत्यक्ष कर के संग्रह में भी वृद्धि हुई है। अगर मई 2014 में आयकर दाताओं की संख्या 3.8 करोड़ थी तो अब वह 6.86 करोड़ हो गई है। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष कर संग्रह भी जीडीपी के 4.4 प्रतिशत से 5.4 प्रतिशत तक चला गया है। इससे कल्याणकारी योजनाएं चलाने के लिए सरकार को धन मिला है और वह जनता का भला कर रही है। जेटली ने यह भी दावा किया है कि इससे अर्थव्यवस्था नकदी से डिजिटल हुई है। दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण कदम था और इसके जख्म अभी भी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़े हैं।

डॉ. सिंह ने प्रमाण के तौर पर लघु और मझोले उद्यमों की स्थिति का उल्लेख किया है जो बुरी हालत में है। उसी के कारण बाजार में नौकरियों का संकट है। डॉ. सिंह और जेटली की बहस में राजनीतिक पार्टीबंदी से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन, उसमें उन तथ्यों को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता, जो नोटबंदी के दौरान दावे के रूप में आए और बाद में आंकड़ों के तौर पर प्रकट हुए। डॉ. सिंह राजनेता से ज्यादा एक अर्थशास्त्री हैं और उन्हें नवउदारीकरण के कर्ताधर्ता के तौर पर हमेशा याद किया जाएगा। इसलिए इस आधार पर कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई सैद्धांतिक फर्क नहीं है, यह मानना पड़ेगा कि नोटबंदी जनता और अर्थव्यवस्था के लिए एक यातना देने वाला उपाय था।


Date:09-11-18

कुपोषण के खिलाफ उपाय

अभिनव प्रकाश

वर्तमान में आइसीडीएस के पास कई लक्ष्य हैं जैसे बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना, बच्चों के उचित मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की नींव रखने के लिए विभिन्न नीतियों के कार्यान्वयन में प्रभावी समन्वय को स्थापित करना, बच्चों के स्कूल छोडऩे के सिलसिले को थामना। मां को सामान्य स्वास्थ्य और पोषण संबंधी जरूरतों को सही तरीके से पूरा करने के लिए प्रशिक्षित करना भी इसके कार्यों में शामिल है। इसके लिए आइसीडीएस आंगनबाड़ी केंद्र पूरक पोषण, प्री-स्कूल गैर- औपचारिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच-पड़ताल और रेफरल सेवाएं प्रदान करता है। यह स्पष्ट है कि हम एक ही नीति से बहुत से उद्देश्यों को लक्षित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसके चलते किसी भी उद्देश्य में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है।

इसका सबसे अधिक प्रभाव पीडि़त गर्भवती और स्तनपान करने वाली माताओं पर पड़ता है। इससे सेवा वितरण मॉडल के प्रभावी होने पर गंभीर प्रश्न उठता है? इसीलिए नीति आयोग की ‘भारत राष्ट्रीय पोषण रणनीति ने आइसीडीएस में सुधार की वकालत की है। इस रणनीति में आंगनबाड़ी केंद्रों पर पोषण उपलब्ध करने के बजाय महिलाओं को सीधे बैंक खातों में रुपये देने की बात कही गई है। उज्ज्वला रसोई गैस सिलेंडर और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण मॉडल की सफलता के बाद इसे आइसीडीएस में लागू करना एक बड़ा कदम होगा। कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी और परिवार की आय में कमी होना है जबकि आइसीडीएस घरेलू खाद्य सुरक्षा को संबोधित नहीं करता। इसलिए किसी भी समग्र समाधान में आय की भरपाई करने का दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए। इसके लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण यानी डीबीटी सबसे अच्छा उपलब्ध विकल्प है।

दूसरा कारण, घर में महिलाओं की सामाजिक स्थिति कमजोर होना है। ऐसे मेंउन्हीं के जन-धन खाते में सरकार की तरफ से सीधा पैसा आने से उनकी स्थिति मजबूत होगी और उन्हें अपने और बच्चे के पोषण और स्वास्थ्य के लिए फैसला लेने में आजादी होगी। घर और समाज में मां की स्थिति मजबूत होने से आने वाली पीढ़ी के पोषण, स्वास्थ्य, और शिक्षा पर अपने-आप ही सकात्मक प्रभाव पड़ता है। तीसरा कारण, महिलाओं को आंगनबाड़ी केंद्रों में मिलने वाले आहार पर निर्भर रहना पड़ता है जो कई बार उनके स्वाद के अनुकूल नहीं होने के साथ-साथ हर इलाके में एक समान होता है। डीबीटी से महिलाओं को अपना आहार चुनने की आजादी मिलेगी और वे स्थानीय भौगोलिक, जलवायु और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपना आहार और पोषण चुन सकेंगी।


Date:09-11-18

क्या है कंपनी निदेशक मंडल की भूमिका ?

अजय शाह, (लेखक नई दिल्ली स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं।

निदेशक मंडल यानी बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स के कामकाज और उसकी भूमिका में नए सिरे से रुचि ली जा रही है। बोर्ड के कुछ काम तो ऐसे हैं जो तमाम निजी संस्थानों और सरकारी एजेंसियों में एक समान हैं। बोर्ड का काम है प्रबंधन को हर स्तर पर जवाबदेह बनाना। सरकारी व्यवस्था में बोर्ड की प्रक्रिया के चार पहलुओं में संशोधन करना होता है। अगर संस्थान पर प्रबंधन का नियंत्रण होता है तो यह जोखिम है कि प्रबंधन आलस बरतेगा, भ्रष्ट होगा या बिना किसी व्यवस्थित नीति के काम करेगा। इसके लिए मजबूत व्यवस्था वही होगी जहां संगठन के संचालन का काम बोर्ड के पास हो। संचालन और प्रबंधन दो अलग-अलग बातें हैं। प्रबंधन रोजमर्रा का कामकाज देखता है लेकिन यह काम बोर्ड की निगरानी में किया जाता है। हम अक्सर बोर्ड को समरूप इकाई के रूप में देखते हैं जबकि यह दो अलग-अलग लोगों का समूह है। इसमें प्रबंधन निदेशक भी होते हैं। ये निदेशक मंडल के वे सदस्य होते हैं जो संस्थान के पूर्णकालिक प्रबंधक भी होते हैं। इनके अलावा गैर प्रबंधन निदेशक (एनएमडी) भी होते हैं जो बाहरी होते हैं। बोर्ड की प्रक्रिया यह है कि एनएमडी प्रबंधन पर दबाव बनाएं कि वह बेहतर प्रदर्शन करे।

बोर्ड का अस्तित्व तीन समस्याओं की वजह से है। प्रबंधन हमेशा यह दावा करता है कि हालात ठीक हैं और किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। प्रबंधन अपने निर्णयों से प्रेम करता है जो अक्सर इस तरह लिए जाते हैं जो उनके लिए सुविधाजनक होते हैं। प्रबंधन विस्तृत ब्योरों में कहीं खो जाता है। प्रबंधन हमेशा यह दावा करता है कि चीजों को समझने के लिए उनका हिस्सा बनना पड़ता है। एनएमडी के पास तीन स्तर होते हैं जिनकी मदद से इन समस्याओं को हल किया जा सकता है। वे रिपोर्टिंग के ठोस तरीके निर्धारित करते हैं, जो संगठन का सही प्रदर्शन सामने लाते हैं। वे समीक्षा करते हैं और प्रदर्शन के लिए प्रबंधन को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे संगठन की नीति तैयार करने में प्रत्यक्ष योगदान करते हैं। वे संगठन का वह डिजाइन तैयार करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं जिसके जरिये नीति को आगे बढ़ाया जाता है।

इन कारकों के काम करने के लिए बोर्ड में एनएमडी का बहुमत होना आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि चेयरमैन स्वयं मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) न हो। एक अच्छे बोर्ड ढांचे में एक सीईओ, तीन डिप्टी और कम से कम पांच एनएमडी होते हैं। इस तरह बोर्ड कुल मिलाकर नौ सदस्य होते हैं। या फिर एक सीईओ, दो डिप्टी और कम से कम चार एनएमडी के अलावा सात सदस्य बोर्ड में होते हैं। आदिम किस्म के देशों में तानाशाहों का शासन होता है। एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता कई मस्तिष्कों के बीच बंटी रहती है। इसके परिणाम अधिक बेहतर होते हैं। इसी प्रकार अगर तानाशाही वृत्ति का सीईओ हो तो भी सात या नौ सदस्यों के बोर्ड में अधिकार वितरण अच्छे नतीजे देता है। सात या नौ सदस्य मिलकर सोचते हैं, बहस करते हैं और ऐसे में वे किसी एक व्यक्ति से बेहतर नतीजे दे सकते हैं। एक मजबूत संस्थान की यही पहचान है कि उसका सीईओ संस्थान के बारे में बात करते वक्त ‘मैं’ का प्रयोग नहीं करता। किसी देश को सत्ता में साझेदारी की बुनियादी समझ विकसित करने में कई दशक का वक्त लग जाता है। इसी प्रकार किसी संगठन के लिए भी यह काम सीखना मुश्किल है जहां कई दिमाग मिलकर निर्णय लें।

ये तमाम विचार एक सरकारी संस्थान में चार घुमावों के साथ नजर आते हैं। पहला, एनएमडी के लिए सरकारी व्यवस्था में प्रबंधन को जवाबदेह ठहराना मुश्किल होता है। वहां वित्तीय प्रदर्शन का तर्क काम नहीं करता। आईएलऐंडएफएस के बोर्ड के लिए राजस्व, बाजार हिस्सेदारी, मुनाफा, इक्विटी पर रिटर्न और शेयर कीमत आदि के रूप में गिरावट का आकलन करना आसान था। इसके विपरीत बोर्ड के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड के प्रदर्शन का आकलन कर पाना मुश्किल है। इसलिए सेबी के बोर्ड को गुणात्मक और मात्रात्मक आकलन तय करने के लिए काफी प्रक्रियाओं की स्थापना करनी होगी।

अगर आरबीआई केवल मौद्रिक नीति पर काम करे तो संभव है कि वह अपने प्रदर्शन का आकलन मुद्रास्फीति के लक्ष्य से विचलन के आधार पर कर सके। किसी संस्थान को तभी जवाबदेह ठहराया जा सकता है जबकि उसका लक्ष्य सहज और सामान्य हो। भ्रामक और विरोधाभासी लक्ष्य जवाबदेही की दृष्टि से अच्छा नहीं होता है और उसके लिए बोर्ड को बहुत सक्रिय होना पड़ता है। दूसरा, एक निजी संस्थान में मुनाफे की प्रेरणा देने वाले कारक प्रभावी होते हैं। बोर्ड सीईओ को मुनाफे में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार मानता है और सीईओ लागत को न्यूनतम करने का काम करता है। एक सरकारी संस्थान में मुनाफे की प्रेरणा नहीं होती और अधिकारों के मनमाने इस्तेमाल की प्रेरणा से संगठनात्मक ढांचा खराब होता है। बोर्ड को संगठनात्मक ढांचे में सीधी रुचि लेनी चाहिए और हर विभाग की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। लागत में कमी और विधि सम्मत व्यवहार तय करना बोर्ड का काम है।

तीसरा, एक संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी निजी व्यक्ति को केवल कानूनी शक्तियों का प्रयोग करके ही रोका जा सकता है। यह कानूनी विधायी शक्तियों से आता है। परंतु नियामकों के पास कानून या नियमन तैयार करने का अधिकार होता है। इसके तहत निजी व्यक्तियों को भी विवश किया जा सकता है। यह एक विशिष्ट स्थिति है जहां राज्य की शक्ति निर्वाचित व्यक्तियों को हस्तांतरित की जाती है। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए राजनेता के रूप में व्यवहार करके बाजार में विभिन्न प्रतिद्वंद्वियों को प्रश्रय देने लगता है। वे आलस कर सकते हैं और भ्रष्टाचार कर सकते हैं।

इस समस्या को हल करने के लिए सभी नियमन बनाने का काम बोर्ड के पास होना चाहिए। नियमन बनाने वाली परियोजना की शुरुआत के पहले बोर्ड की मंजूरी की आवश्यकता जरूरी है। स्टाफ को एक औपचारिक, पारदर्शी और मशविरे वाली प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए। इसकी सहायता से नियमन तैयार किया जाना चाहिए। दस्तावेजीकरण का यह काम होने के बाद बोर्ड में इस पर दोबारा चर्चा होनी चाहिए और नियमन को मंजूरी दी जानी चाहिए। चौथा, नामित निदेशकों का मसला। कई सरकारी संस्थानों में नामित निदेशक होते हैं। मोटे तौर पर यह व्यवस्था कारगर नहीं रही है। नामित निदेशक आमतौर पर खामोश और निष्क्रिय रहते हैं और केवल अपने मातृ संगठन के हित को बढ़ावा देने के लिए ही पहल करते हैं। इससे मूल्यवर्धन नहीं होता है और यह व्यवस्था बदलनी चाहिए।


Date:09-11-18

एक और हार

संपादकीय

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में एक तीन सदस्यीय विवाद निस्तारण पैनल ने हॉट रोल्ड स्टील के आयात शुल्क को लेकर भारत और जापान के बीच असहमति के मसले में भारत के खिलाफ निर्णय दिया है। गत वित्त वर्ष के दौरान भारत ने जो 84 लाख टन स्टील आयात किया उसका 45 प्रतिशत जापान और दक्षिण कोरिया से आया। कुल मिलाकर 650 करोड़ डॉलर मूल्य का स्टील आयात किया गया। भारत ने घरेलू उत्पादकों की मांग पर बीते तीन वर्षों से लगातार यह प्रयास किया है कि वह अपने घरेलू स्टील उद्योग का बचाव करे। इस कदम के लिए आधिकारिक तौर पर यह दलील दी गई है कि चीन की अतिरिक्त क्षमता बाजार में विसंगति पैदा कर रही है। फिर भी यह स्पष्ट है कि जापान और कोरियाई स्टील निर्माताओं पर भी इसका काफी असर पड़ा है। अब स्थिति यह है कि भारत अपना यह दावा गंवा चुका है कि हॉट रोल्ड स्टील पर उसका संरक्षण शुल्क डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप था। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत यह स्थापित कर पाने में नाकाम रहा कि आयात में अचानक और तेज वृद्घि ने घरेलू उत्पादकों को नुकसान पहुंचाया है। इसका अर्थ यह हुआ कि दो बातों में से एक ही बात सही होगी। या तो स्टील उद्योग की शिकायत गलत थी या फिर सरकार उनकी दलील को ठोस तरीके से पेश नहीं कर सकी।

हाल में भारत ने व्यापारिक नीति में संरक्षणवादी कदम उठाए हैं और डब्ल्यूटीओ ने भी इन पर पर्याप्त ध्यान दिया है। इस वर्ष के आरंभ में एक अहम निर्णय देते हुए डब्ल्यूटीओ ने कहा था कि भारत के सौर पैनल में घरेलू सामग्री की जरूरत संबंधी प्रावधान व्यापारिक नियमों के खिलाफ थे। देश में नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की क्षमताओं में इजाफे के बीच देश में सोलर पैनल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए ये शर्तें लगाई गई थीं। सरकार के भीतर भी इस निर्णय का विरोध हुआ। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने दलील दी थी कि देश के सौर अभियान के लिए सस्ते सोलर पैनल जरूरी थे जबकि औद्योगिक नीति एवं संवद्र्घन विभाग देश में सोलर पैनल निर्माण को बढ़ावा देने की बात कह रहा था। इस दौरान दो गलतियां हुईं। पहली, चूंकि असली भय चीन से आने वाले सस्ते पैनलों से जुड़ा था इसलिए सोलर पैनल बनाने वाले अन्य उपक्रमों को इसमें शामिल करना चाहिए था। इसके बजाय मामले को हाथ से निकल जाने दिया गया। आखिरकार अमेरिका ने इस मामले में अपील की और वह जीत भी गया। दूसरी गलती तब हुई जब हम यह बात साबित कर पाने में नाकाम रहे कि सोलर पैनल कीमतों में आई गिरावट भारतीय उद्योग जगत को तकलीफ में डाल रही है।

जहां तक डब्ल्यूटीओ में भारत के प्रदर्शन की बात है एक खास किस्म का रुझान देखने को मिलता है। विशिष्ट संरक्षणवादी कदम उठाए गए हैं और इसके परिणामस्वरूप भारत डब्ल्यूटीओ में अपने कदमों का समुचित ढंग से बचाव नहीं कर पा रहा है। कृषि खरीद से जुड़े सख्त रुख को लेकर भी ऐसा हो सकता है। कृषि क्षेत्र में भी भारत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अपने जटिल तंत्र का डब्ल्यूटीओ में बचाव कर रहा है। जबकि वह इस मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ चुका है। सरकार के पास आगे बढऩे के केवल दो ही विकल्प हैं। वह या तो घरेलू उत्पादन के नाम पर ऐसे अवरोध खड़े करना बंद कर दे जो भारतीय उपभोक्ताओं को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। या फिर उसे समुचित क्षमता निर्मित करनी होगी जो यह सुनिश्चित करे कि वह इन अवरोधों से उपजे अधिकांश विवादों में जीत हासिल कर लेगा। देश के संरक्षणवादी रुख को लेकर एक बड़ी बहस की आवश्यकता है क्योंकि यह उपभोक्ता कल्याण को भी नुकसान पहुंचा रहा है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदगी की वजह भी बन रहा है।


Date:09-11-18

सरकार-आरबीआई विवाद धारा 7 से किसका फायदा ?

ए के भट्टाचार्य

भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 पिछले कुछ समय से काफी चर्चा में है। इसके इस्तेमाल को लेकर कई तरह की चिंता जताई गई जो काफी हद तक उचित भी प्रतीत होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार ने भले ही आरबीआई अधिनियम की धारा 7 का इस्तेमाल कर आरबीआई गवर्नर से मशविरा करने की बात कही हो लेकिन भविष्य में उसका इस्तेमाल कर केंद्रीय बैंक को निर्देश देना वित्तीय क्षेत्र के लिए सही नहीं होगा। ऐसा करने से देश के केंद्रीय बैंक और बैंकिंग नियामक की छवि को धक्का पहुंचेगा।

आरबीआई अधिनियम की धारा 7 केंद्र सरकार को यह अनुमति देती है कि वह जनहित में जरूरी समझने पर समय-समय पर केंद्रीय बैंक को निर्देश दे। इसके लिए अहम शर्त यह है कि ऐसे निर्देश आरबीआई गवर्नर से मशविरे के बाद जारी किए जाने चाहिए। अतीत में किसी सरकार ने इस प्रावधान का इस्तेमाल नहीं किया। ऐसा नहीं है कि आरबीआई और सरकार के बीच पहले मतभेद नहीं हुए। ऐसा हुआ है लेकिन उन्हें बिना धारा 7 का इस्तेमाल किए हल कर लिया गया। इस धारा का प्रयोग करना जोखिम भरा है। एक बार सरकार ने यह सिलसिला शुरू कर दिया तो समस्या पैदा हो सकती है। अगर गवर्नर सरकार के कदमों से पहले सहमत नहीं था तो वह इस धारा के इस्तेमाल से हुए मशविरे में क्यों सहमत होने लगा? माना जा सकता है कि सरकार गवर्नर का मशविरा लेकर अपनी मर्जी का निर्देश जारी कर देगी।

केवल दुर्लभ में दुर्लभतम मामलों में आरबीआई गवर्नर सरकार के विचार या उसकी सोच से सहमत होगा। अगर ऐसा होता है तो केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता को गहरा झटका लगेगा। सवाल यह पूछा जाएगा कि अगर धारा 7 के प्रयोग के पहले आरबीआई की राय अलग थी तो मशविरे के बाद उसने राय क्यों बदली? यह भी एक वजह है कि अतीत में आरबीआई के गवर्नरों ने ऐसे हालात ही नहीं बनने दिए कि सरकार धारा 7 के प्रयोग के बारे में सोचे भी। जब भी मतभेद होता, आरबीआई गवर्नर और वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री साथ बैठकर बात करते या फोन पर चर्चा करते। ऐसे मशविरे में गवर्नर अपना रुख स्पष्ट करते और सरकार भी अपना नजरिया रखती। अंत में आरबीआई सरकार के सुझाए रास्ते पर चलने को सहमत हो जाता।

यह भी संभव है कि सरकार धारा 7 के तहत आरबीआई गवर्नर के साथ मशविरे के बाद अपने कदम पीछे खींच ले और कहे कि वह गवर्नर की व्याख्या से सहमत है। उस स्थिति में सरकार की विश्वसनीयता जाएगी और आलोचक कह सकते हैं कि वित्तीय बाजारों में व्याप्त अनिश्चितता से बचा जा सकता था। चाहे जो भी हो लेकिन धारा 7 का प्रयोग केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता, सरकार की विश्वसनीयता और वित्तीय बाजारों के सहज कामकाज, तीनों के लिए जोखिम भरा है। यही वजह है कि इतने वर्षों कभी इसका प्रयोग नहीं किया गया।

परंतु धारा 7 का एक और पहलू है। हालांकि सरकार ने अतीत में इस प्रावधान का इस्तेमाल करके कोई निर्देश जारी नहीं किया है लेकिन सरकार को इसकी मौजूदगी का लाभ मिला है। क्योंकि इस प्रावधान की मौजूदगी के चलते ही रिजर्व बैंक हमेशा दबाव में रहा और बातचीत के लिए आगे आया। ऐसे में सरकार के लिए इस धारा ने उद्देश्यपूर्ति का काम बखूबी किया है। यह अत्यंत विरोधाभासी है। आरबीआई अधिनियम में इस धारा को शामिल करने की वजह एकदम उलटी थी। इसे इसलिए शामिल किया गया था ताकि सरकार अगर आरबीआई पर अपना निर्णय थोपना चाहे तो उसकी जवाबदेही सुनिश्चित हो सके। भारतीय रिजर्व बैंक का इतिहास के पहले वॉल्यूम (1935-1951) में धारा 7 को यह स्पष्ट करने के लिए एकदम वांछित माना गया कि जब सरकार गवर्नर की राय के विपरीत काम करे तो वह यह समझ ले कि संबंधित कदम की पूरी जिम्मेदारी भी सरकार को ही लेनी होगी।

अतीत में कई मौकों पर आरबीआई पर यह दबाव डाला गया कि वह सरकार की इच्छा के मुताबिक काम करे लेकिन सरकार ने कभी ऐसे कदमों की जिम्मेदारी नहीं ली। मिसाल के तौर पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में 2008 से 2014 तक बैंकों की ओर से बेतहाशा ऋण जारी करने का निर्णय सरकार का था जिसके कारण बैंकों को भारी भरकम फंसे हुए कर्ज से जूझना पड़ा। सरकार ने इस बेतहाशा ऋण वितरण को लेकर केंद्रीय बैंक की चिंताओं को एकदम किनारे कर दिया। केंद्रीय बैंक चाहता था कि इन ऋणों का इस्तेमाल निवेश और वृद्घि को गति देने के लिए किया जाए।

अगर आरबीआई ने उस वक्त आगे बढ़कर केंद्र की संप्रग सरकार से यह कह दिया होता कि अगर वह नियामकीय सहिष्णुता चाहती है तो वह निर्देश जारी करने के लिए धारा 7 का प्रयोग कर सकती है। अगर ऐसा किया गया होता तो बाजार में उथलपुथल मच गई होती लेकिन कम से कम केंद्रीय बैंक पर यह आरोप तो नहीं लगता कि उसने अत्यधिक नियामकीय सहनशीलता का परिचय दिया है। क्या अब वक्त आ गया है कि यह समझ लिया जाए कि आरबीआई अधिनियम की धारा 7 के मूल उद्देश्य का नकारा जाना ठीक नहीं? धारा 7 का निर्माण इसलिए किया गया था ताकि आरबीआई के हितों की रक्षा की जा सके। अगर केंद्रीय बैंक यह मानता है कि सरकार द्वारा मशविरे के बाद उस पर नीति को थोपना सही नहीं है तो उसे सरकार को धारा 7 का इस्तेमाल करके निर्देश जारी करने देना चाहिए ताकि वह अपने कदमों की जवाबदेही ले और इसके परिणाम भी भुगते। परंतु यह भी सच है कि धारा 7 के इस्तेमाल से आरबीआई साफ बच जाएगा और सरकार उसे अपनी पसंद के कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं कर सकेगी।


Date:08-11-18

Tough Climb Continues

Ramesh Abhishek, (The writer is secretary, department of industrial policy and promotion, ministry of commerce and industry, GoI)

India was ranked a modest 142 out of 189 economies in the World Bank’s Doing Business Report (DBR) 2015, last among the Brics (Brazil, Russia, India, China, South Africa) nations, and fifth among the eight South Asian economies. This acted as a catalyst to kick-start the journey of improving ease of doing business in India. For the first time, a nodal department — the department of industrial policy and promotion (Dipp) — was appointed to spearhead this initiative, and also implement Prime Minister Narendra Modi’s vision of being ranked in the top 50 of the DBR.

India’s stunning improvement in the last four years — it is 77th on the 2019 DBR released last week — is culmination of the efforts of Dipp and the various implementing departments spanning central, state and municipal governments. To put things in perspective, India is now the highest-ranked South Asian nation and the third among the Brics. In two years, India has improved its rank by 53 points, a jump that has not been achieved by any economy that is comparable to India in size and scale. Along this remarkable journey, it has learnt several important lessons.

First, we have learnt that persistence pays off. This year’s results are the culmination of four years of effort, and not just that of the past year. This is particularly true of two indicators: ‘Trading Across Borders’, where India’s rank improved from 146 in 2018 to 80, and ‘Dealing with Construction Permits’, where it moved from 181 last year to 52. These dramatic improvements have resulted from the dedication of the customs, shipping, ports and municipal corporations of Mumbai and Delhi, who have been painstakingly working on business process reengineering, online single-window systems and infrastructure improvements since 2015.

Their hard work has only paid off this year, since deep and lasting reform takes time to have its intended impacts felt on the ground. We have learnt that the World Bank follows a rigorous feedback-driven process, and credit is only given once the reform reaches the users, not when the change is introduced by the government. Second, we have also learnt that the client experience matters the most. This means that no reform is complete until its effects are felt by its users. With this understanding, India has mainstreamed private sector feedback into its reform process. Today, both Dipp and implementing departments actively solicit feedback from users on whether the reforms are working as intended, or if any corrections are required.

This has helped authorities to identify gaps in the implementation of reforms and rectify them to have the intended impact. Many departments have innovated in this regard. All of this has been supplemented by a wide-ranging communications effort using not just tradi- tional media, but also social media like Facebook and Twitter. Several departments, including the municipal corporations, have established WhatsApp groups with their users, to address in real-time any challenges or constraints that are being faced by the users. These have enabled us to fundamentally transform how the government communicates with citizens and, thereby, transform the way the government machinery operates.

Third, in countries of the scale of India, coordination is critical. Since the beginning of the ‘ease of doing business’ project, Dipp has been coordinating the reform agenda across implementing departments within central, state and municipal governments. However, dramatic improvements were seen only since November 2016, when a nodal department was identified for each indicator. A task force was constituted in each nodal department consisting of senior officials from all relevant departments and Dipp. This led to much greater coordination between the departments and the reform being expedited.

Finally, we have found that there is great value in learning from the experience of other countries. For example, the best practices of other economies helped us drastically reduce the costs of ‘Dealing with Construction Permits’. We also look forward to sharing our experiences with other Asian and African countries, which have already expressed interest in learning from our business reform experience. Our experience over the last four years has shown that India can excel when a strong political leadership is committed to reforms, and a group of dedicated and hard-working officials is given the support they need to get things done. The lessons we have learnt till date will be fundamental in our efforts going forward to make India reach the top 50 in the Doing Business Report.


Date:07-11-18

Sea Change

INS Arihant marks a high in India’s strategic independence. But it is just the beginning

Editorial

On Monday, India achieved a significant milestone in its strategic nuclear posture when it announced the completion of its survivable nuclear triad by adding maritime strike capability to land and air-based delivery platforms for nuclear weapons. With the country’s first nuclear ballistic missile submarine, INS Arihant, completing its maiden “deterrence” patrol, India joined the select group of five — US, Russia, China, France and UK — which can boast of this capability.

A deterrence patrol, as the term signifies, is meant to deter the adversary from conducting the first nuclear strike, as a nuclear ballistic missile submarine provides India with an assured second-strike capability. While land-based and air-based delivery systems are easier to track, seek and destroy, a SSBN can stay undetected at sea for a long duration, assuring a nuclear retaliation against the adversary. An assured second-strike capability also allows India not to promise a No First Use of nuclear weapons in the case of any conflict. Part of India’s nuclear doctrine, it is meant to be a major safeguard against any nuclear misadventure, particularly by Pakistan. Over the past three decades, Pakistan has ostensibly supported terrorism in India under the shadow of a nuclear umbrella, which makes a conventional war a rather risky option for India. While the prime minister assured that India “remains committed to the doctrine of Credible Minimum Deterrence and No First Use,” he also warned Pakistan without naming the country that “the success of INS Arihant gives a fitting response to those who indulge in nuclear blackmail”.

As we acknowledge this achievement, there is a need to step back and appraise the challenges that lie ahead. The command and control structures for an SSBN on a fully-loaded deterrence patrol have to be robust and fool-proof, for an inadvertent error can lead to mass destruction. Also, the range of missiles on-board INS Arihant are no match for the range of Chinese missiles. INS Arihant, which is an indigenously developed submarine and part of a supposedly five-submarine project, was in the making for more than two decades as a classified programme, directly under the PM. Designed in the 1990s, the INS Arihant development project was officially acknowledged in 1998 and the submarine was launched in 2009. The nuclear reactor of the submarine went critical in 2013 and it was commissioned three years later. As the country looks in satisfaction at INS Arihant’s maiden deterrence patrol, it must celebrate the hard yards put in the past to ensure India’s strategic independence.


Date:07-11-18

सुरक्षा का घेरा

संपादकीय

वही देश सामरिक रूप से सशक्त माना जाता है, जिसके पास थल, जल और वायु तीनों जगहों से दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दे सकने की क्षमता हो। इस मामले में भारत सक्षम है। परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत के आने के बाद उसकी ताकत और बढ़ गई है। यह पनडुब्बी पूरी तरह देश में ही तैयार की गई है। इस तरह अब भारत दुनिया का छठा देश हो गया है, जिसके पास परमाणु पनडुब्बी है। अभी तक अमेरिका, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और चीन के पास परमाणु पनडुब्बियां थीं। अरिहंत की खासियत यह है कि यह साढ़े सात सौ से लेकर पैंतीस सौ किलोमीटर तक मार कर सकती है। इसके जरिए पानी के भीतर और सतह पर से मिसाइलें दागी जा सकती हैं। पानी के भीतर से भी किसी विमान को निशाना बनाया जा सकता है। अरिहंत ने अपना पहला गश्ती फेरा पूरा कर लिया। इस तरह उसके तकनीकी पक्षों को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है। स्वाभाविक ही इस मौके पर प्रधानमंत्री ने वहां उपस्थित होकर अरिहंत के चालक दल को बधाई दी और उनका मनोबल बढ़ाया। साथ ही उन्होंने पाकिस्तान को आड़े हाथों लेते हुए चेतावनी दी कि अब उसके परमाणु हमले की धौंस सुनने के दिन समाप्त हो गए। पाकिस्तान अक्सर तनाव की स्थितियों में परमाणु हमले की धमकी देता रहता है।

ऐसे में अब निस्संदेह भारत को उसका दबाव झेलने की जरूरत नहीं होगी। दुनिया भर में तमाम देश परमाणु हथियारों का जखीरा इसीलिए जमा करते हैं कि वक्त आने पर उन्हें अपने दुश्मन देश के सामने दबना न पड़े। हालांकि आज दुनिया की जो स्थिति है, उसमें युद्ध की स्थितियां लगभग न के बराबर हैं। आज वही देश ताकतवर माने जाते हैं, जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्खा को मजबूत बनाया है। ऐसे में परमाणु हथियार सिर्फ दुश्मन देश पर धौंस जमाने के ही काम आते हैं। पर पाकिस्तान में जिस तरह परोक्ष रूप से सेना का शासन चलता है, उसमें अक्सर वह युद्ध का माहौल बनाए रखने का प्रयास करती है। यही उसके लिए अपनी जनता का ध्यान वहां की बुनियादी जरूरतों और समस्याओं से भटकाए रखने का सबसे बड़ा औजार है। फिर पाकिस्तान में आतंकी संगठनों को जिस तरह पनाह मिली हुई है, वे वहां की सेना से ही हथियार और दूसरे साजो-सामान लेकर भारत में अस्थिरता पैदा करने का प्रयास करते हैं।

वे कब युद्ध की स्थिति पैदा कर दें, कहना मुश्किल है। ऐसे में शक्तिशाली हथियार रखने जरूरी हैं, ताकि उनके भय की वजह से हमले करने से पहले वे सोचें। हालांकि परमाणु हथियारों का उपयोग कोई भी देश नहीं करना चाहेगा। उसका असर सिर्फ दुश्मन देश पर नहीं, बल्कि अपने देश पर भी पड़ेगा। यह बात पाकिस्तान भी जानता है। भले वह परमाणु हमले की धमकी देता रहा हो, पर वह जहां तक हो सकेगा, इसके इस्तेमाल से बचेगा। मगर सिर्फ इस तर्क पर भारत उसे मुंहतोड़ जवाब देने वाले हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने से परहेज नहीं कर सकता। समुद्री सीमा में पाकिस्तान ने अपनी ताकतवर पनडुब्बियां तैनात कर रखी हैं। उनका सामना करने के लिए अरिहंत जैसी पनडुब्बी की जरूरत थी। अरिहंत केवल पानी के भीतर दुश्मन से निपटने में सक्षम नहीं है, बल्कि वह पानी के भीतर से हवा में मार करने की भी क्षमता रखता है, इसलिए यह सेना के लिए ज्यादा कारगर साबित होगी। निश्चय ही इसके पहले गश्ती फेरे से लौट कर आने के बाद नौसेना का मनोबल बढ़ा है।


Date:07-11-18

अरिहंत से दुनिया हतचेत

संपादकीय

आईएनएस अरिहंत का पहला गश्त सफलतापूर्वक पूरा होना वाकई ऐतिहासिक है। यह नाभिकीय शक्ति से चलने तथा नाभिकीय हथियारों से लैस पहली स्वदेशी पनडुब्बी है। अरिहंत की टीम ने इसकी मारक क्षमता का सफल अभ्यास कर दुनिया के सामने भारत की सामरिक क्षमता की धाक जमाई है। इस गश्त अभियान के साथ भारत ने जल, थल और नभ से नाभिकीय हथियार दागने की क्षमता हासिल कर नाभिकीय त्रिकोण का मुकाम हासिल कर लिया है। यह क्षमता अभी तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन एवं चीन को हासिल थी। भारत भी इनकी श्रेणी में शामिल हो गया है। अग्नि मिसाइल के जरिए जमीन से और मिराज 2000 के द्वारा विमान से नाभिकीय हमले की क्षमता हमारे पास पहले से थी। यह 83 मेगावॉट के रिएक्टर से चलने वाली इस पनडुब्बी का 26 जुलाई 2009 को जलावतरण किया गया था। अगस्त 2013 में अरिहंत के रिएक्टर ने काम करना शुरू कर दिया था। दिसम्बर 2014 में इसके गहन समुद्री परीक्षण शुरू किए गए थे। इस त्रिकोण को हासिल करने का प्रमाण दुनिया के सामने पेश करने वाले अरिहंत की वापसी पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इसे ऐतिहासिक उपलब्धि बताना स्वाभाविक है। यह अच्छा है कि इसकी घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री ने की।

इस अभियान में शामिल पूरी टीम पर देश हमेशा गर्व करेगा। प्रधानमंत्री का यह कहना ठीक है अरिहंत टीम की सफलता नाभिकीय हथियारों के नाम पर ब्लैकमेलिंग का माकूल और मुंहतोड़ जवाब है। चीन और पाकिस्तान को हमारे लिए हमेशा चुनौती बताई जाती है। अरिहंत कहीं से भी पाकिस्तान और चीन पर मिसाइल दाग सकता है। लेकिन जैसा हम जानते हैं, भारत की रक्षा तैयारियों का लक्ष्य कभी भी दुनिया में किसी को धमकी देना, डराना या तनाव पैदा करना नहीं है। मकसद शांति एवं स्थिरता को बढ़ावा देना है। नाभिकीय त्रिकोण क्षमता हासिल करने पीछे भी यही भाव विद्यमान है। कई बार शक्ति भी शांति का वाहक बनता है। कमजोर होते हुए हम शांति एवं स्थिरता में योगदान दे ही नहीं सकते। अगर भारत की रक्षा क्षमता अपने प्रतिस्पर्धी देशों से बेहतर या समान है तो यह शांति की गारंटी है। इस मिशन की सफलता निश्चय ही भारत के इस मूल सामरिक लक्ष्य की दिशा में अपना योगदान करेगा। लिहाजा, अरिहंत की पूरी टीम को देश की तरफ से अभिनंदन किया जाना चाहिए।


 

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