15-11-2018 (Important News Clippings)

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15 Nov 2018
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Date:15-11-18

RCEP’s Possibilities

It offers India a chance to put to use learnings from earlier trade agreements

TOI Editorials

Prime Minister Narendra Modi’s itinerary during his current visit to Singapore includes a leaders’ meeting of Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP), a proposed trade deal between 16 countries including India and China. When concluded, it will span a combined population of 3.6 billion generating GDP of about $25 trillion. Enhancing cross-border trade has served the world well and been a positive force in India’s economic development. Nevertheless, recent developments in global trade make the current phase of RCEP negotiations particularly tricky.

Chinese mercantilism followed by the hostility of the Trump administration to past multilateral trade agreements have changed the dynamics. Unfazed by the US pullout from Trans-Pacific Partnership (TPP), the remaining members reached an agreement which will take effect next month. China, which is not a part of the reworked TPP, has perhaps not been under as much pressure in recent memory. RCEP thus provides a promising opportunity to get China to adhere to a tighter rules-based trade framework. This is in India’s interest. Based on the experience gained from earlier free trade agreements, India is also in a position to carefully choose tariff lines which can benefit the most from a closer regional integration.

RCEP has triggered anxiety as its member states are the source of most of India’s trade deficit. Among the negotiating parties it’s China which really worries both Indian industry and sections of the government. The anxiety is understandable but RCEP should be seen as an opportunity to rectify earlier mistakes. A successful trade deal offers enough benefits to all partners to risk the costs. By taking a comprehensive look at potential costs and benefits in both goods and services and negotiating skilfully, India can ensure RCEP boosts economic growth as well as enhances competitiveness at home.


Date:15-11-18

नाकाम प्रयास

संपादकीय

खरीफ विपणन सत्र शुरू हो चुका है लेकिन किसानों को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भारी इजाफा करने वाली सरकार की बहुचर्चित योजना नाकाम नजर आ रही है। इस योजना को प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान का नाम दिया गया है, जिसका संक्षिप्त रूप है पीएम-आशा। परंतु यह योजना किसानों की आकांक्षाओं पर खरी उतरने में नाकाम रही। खरीफ की जिन 14 फसलों के एमएसपी में उत्पादन लागत के 50 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की गई थी वे फिलहाल इन दरों से 10 से 40 फीसदी तक नीचे बिक रही हैं। इस महत्त्वाकांक्षी मूल्य संरक्षण योजना के कमजोर प्रदर्शन के लिए कई वजह जिम्मेदार हैं। उदाहरण के लिए जो तीन विपणन मॉडल अपनाए गए हैं उनमें से कोई भी खामी रहित नहीं है। न ही वे मॉडल राज्यों के लिए वित्तीय रूप से पर्याप्त आकर्षक हैं। इस पूरी योजना को खरीफ विपणन शुरू होने के ऐन पहले अंतिम रूप दिया गया था। ऐसे में राज्यों के पास जरूरी कदम उठाने का समय नहीं रह गया था। इसके अलावा पीएम-आशा का क्रियान्वयन मौजूदा मंडियों के माध्यम से करने की बात कही गई थी जिनका संचालन कृषि उपज विपणन समिति करती हैं। इन समितियों को इनकी अक्षमता और कदाचार के लिए जाना जाता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने अब कुछ मानक शिथिल किए हैं और राज्यों से इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन करने को कहा है।

पीएम आशा के तहत जो तीन कृषि विपणन मॉडल अपनाए गए, वे हैं: पारंपरिक सरकारी खरीद आधारित मूल्य समर्थन योजना, भाव में अंतर के मुताबिक भुगतान की योजना (मध्य प्रदेश सरकार की भावांतर भुगतान योजना पर आधारित) और निजी खरीद तथा भंडारण योजना (इसमें सेवा शुल्क भुगतान की मदद से बाजार समर्थित गतिविधियों की बात शामिल है)। पहली दो योजनाएं कुछ राज्यों में चुनिंदा फसलों के लिए पहले से संचालित हैं। परंतु उनका लाभ किसानों के एक सीमित हिस्से को मिल पा रहा है, वह भी सीमित तरीके से। तीसरा विकल्प जो निजी व्यापार के जरिये मूल्य समर्थन देने का है, वह अपने आप में एक नई अवधारणा है और इसकी सहायता से कारोबारियों को आकर्षित किया जाना चाहिए। परंतु मौजूदा खरीफ सत्र के पहले ऐसा करने का समय ही नहीं था। इसलिए इस योजना को कोई नहीं अपना रहा। चाहे जो भी हो यह तरीका और भावांतर भुगतान का तरीका सैद्घांतिक तौर पर मजबूत नजर आते हैं क्योंकि ये सरकार को अनाज खरीदने, ढोने, भंडारित करने और अंत में निपटाने के बोझिल और महंगी लागत वाले काम से निजात दिलाते हैं। बहरहाल, सेवा शुल्क को एमएसपी के 15 फीसदी तक सीमित करने वाली बात बाधा बन सकती है। भाव में अंतर का मॉडल भी जटिल प्रक्रियाओं वाला है और यह किसानों के शोषण तथा भुगतान में देरी की वजह बन सकता है। ऐसी दिक्कतों को दूर किया जाना आवश्यक है। कृषि क्षेत्र की आर्थिक चिंताओं जिनमें फसलों की कमतर आय और किसानों को आय संरक्षण जैसी बातें जरूरी तौर पर शामिल हैं, उनके मूल में विपणन और मूल्य निर्धारण की कमजोर नीतियां जिम्मेदार हैं।

एमएसपी आधारित खरीद के जरिये पहले से तय बाजार की अवधारणा उस समय तैयार की गई थी जब देश में अनाज की कमी थी और उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता थी। अब इसकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है क्योंकि अनाज का जबरदस्त उत्पादन हो रहा है। बल्कि इसने कीमतों पर नकारात्मक दबाव बनाकर बाजार में विसंगति पैदा की है। आवश्यकता यह है कि कृषि निर्यात को बढ़ावा दिया जाए और जिंस के उत्पादन को घरेलू और निर्यात बाजार की मांग के अनुरूप होने दिया जाए। किसानों के लिए आय समर्थन का लक्ष्य बिना बाजार में विसंगति के नकद मूल्य समायोजन से हासिल किया जाना चाहिए।


Date:15-11-18

भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता बनाम राजनीति

मिहिर शर्मा

अभी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सरकार के बीच टकराव से इतर शायद ही कोई ऐसा मुद्दा है जो बाजारों में उथलपुथल ला सकता है। दोनों के बीच रिश्ते गिरावट के नए स्तर पर पहुंच गए हैं। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने पिछले महीने एक भाषण में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के सैद्घांतिक और व्यावहारिक कारणों का हवाला दिया था। जाहिर तौर पर उनका निशाना सरकार पर था। आचार्य ने आरबीआई के गवर्नर ऊर्जित पटेल सहित अपने सभी सहयोगियों को धन्यवाद दिया। इससे साफ है कि केंद्रीय बैंक का शीर्ष नेतृत्व संस्थान की स्वायत्तता को बचाने के लिए एकजुट है।

यह स्थिति दो साल पहले नोटबंदी के तुरंत बाद बनी आरबीआई की छवि से एकदम अलग है। अब यह स्पष्टï हो चुका है कि नोटबंदी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फरमान भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में खराब फैसलों में से एक था। इसके कुछ ही स्थायी फायदे रहे। इनमें डिजिटलीकरण और करदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी शामिल है लेकिन इसके लिए कई और बेहतर तरीके थे। लेकिन जिन लक्ष्यों के लिए नोटबंदी की गई थी वे हासिल नहीं हुए। इनमें काले धन पर रोक, नकली नोटों पर लगाम, आतंकवादियों की फंडिंग रोकना आदि शामिल थे। नोटबंदी की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी। नोटबंदी के कारण लाखों लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा जबकि देश की अर्थव्यवस्था युवाओं को रोजगार देने में संघर्ष कर रही थी। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने से ऐन पहले छोटे एवं मझोले उद्योगों को नोटबंदी का झटका नहीं दिया जाना चाहिए था।

आरबीआई को भी नोटबंदी का खमियाजा भुगतना पड़ा। यह धन आपूर्ति के संबंध में हाल के वर्षों में लिया गया बहुत बड़ा फैसला था और शायद ही कोई यह दावा कर सकता है कि इसमें आरबीआई की कोई भूमिका थी। नोटबंदी के बाद बैंकिंग व्यवस्था में वापस आए नोटों को गिनने में कई महीने लग गए। इस कारण केंद्रीय बैंक और उसके गवर्नरों को फजीहत का सामना करना पड़ा। उन्हें सरकार के हाथों की कठपुतली की तरह देखा जाने लगा। अच्छी बात यह है कि आरबीआई की छवि बहाल हो गई है। कोई नहीं चाहता है कि पटेल अपने पद से इस्तीफा दें। लेकिन गवर्नर के इस्तीफा देने पर इसके भयावह परिणाम होंगे। इससे दुनियाभर के निवेशकों में यह संदेश जाएगा कि भारत के केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को कमजोर किया गया है। यही स्वायत्तता बैंक का मजबूत स्तंभ है और बाजारों के लिए इसकी अपील का एक अहम पहलू है। अगर सरकार खुले तौर पर आरबीआई कानून की धारा 7 को लागू करती है और सरकार केंद्रीय बैंक पर अपना आदेश थोपती है तो पटेल के पास इस्तीफा देने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

वे कौन से मुद्दे हैं जिन पर सरकार केंद्रीय बैंक पर दबाव बनाना चाहती है? देखना होगा कि वे सत्तारूढ़ पार्टी के चुनावी एजेंडे से कितने करीब से जुड़े हैं और सरकार की मंशा कितनी पारदर्शी है। बिजली क्षेत्र को ऋण के सवाल पर विचार कीजिए। इस साल की शुरुआत में आरबीआई ने एक परिपत्र जारी कर कहा कि जिस ऋण की किस्त के भुगतान पर एक दिन की भी देरी हो, बैंकों को उसे डिफॉल्ट मानना चाहिए। यह बैंकों की बैलेंस शीट को दुरुस्त करने की कवायद का हिस्सा था। अलबत्ता सरकार का कहना है कि इससे बिजली क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। अगर सर्वोच्च न्यायालय ने दखल नहीं दिया तो 300 अरब रुपये का बैंक कर्ज डिफॉल्ट की श्रेणी में शामिल हो सकता है। सरकार चाहती है कि इन संयंत्रों को चलाने के लिए कोई भुगतान करे। अगर जरूरी हुआ तो उपभोक्ता ऐसा करें और इसके लिए वे पहले तय शुल्क से ज्यादा भुगतान करें। लेकिन राजनीतिक मुद्दा यह है कि बिजली क्षेत्र में दबाव जल्दी से जल्दी खत्म हो। सरकार का मानना है कि बिजली संयंत्रों को दिवालिया प्रक्रिया में ले जाना उनके हित में नहीं है। भाजपा चौबीसों घंटे बिजली देने का वादा करके सरकार में आई थी और अपने इस वादे को पूरा करने के लिए उसके पास बहुत कम समय बचा है।

फिर त्वरित उपचारात्मक कार्रवाई (पीसीए) का मुद्दा है। आरबीआई ने कमजोर प्रदर्शन करने वाले कई सरकारी बैंकों पर पाबंदियां लगाई हैं। सरकार का मानना है कि इससे बैंकों के कर्ज की वृद्घि रुक गई है। सरकार खासकर छोटे और मझोले उद्यमों को ऋण को लेकर चिंतित है। आईएलऐंडएफएस के संकट के कारण गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) में नकदी संकट के कारण यह मुद्दा अहम हो गया है। इस संकट से पूरा बैंकिंग क्षेत्र प्रभावित होता है। सरकार मानती है कि अगर एनबीएफसी ने ऋण देना बंद किया तो इससे रोजगार की वृद्घि और प्रभावित होगी। सरकार चाहती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इसमें मदद करें। अगर आरबीआई अपने रुख पर अड़ा रहा तो यह संभव नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो रोजगार वृद्घि की राजनीतिक अनिवार्यता आरबीआई के बैंकों की बैलेंस शीट दुरुस्त करने के एजेंडे के एकदम उलट है।

सरकार को पैसा चाहिए। सुधार के मोर्चे पर ढीले रवैये के कारण सरकार विकास को पटरी पर लाने में नाकाम रही है। मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी खर्च से ही विकास का इंजन चल रहा है। अब यह पैसा खत्म हो रहा है, लिहाजा सरकार की नजर आरबीआई के खजाने पर है। सरकार समर्थक अर्थशास्त्री नोटबंदी के कारण लाखों करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आने का दावा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जीएसटी से भी अपेक्षा के अनुरूप राजस्व नहीं मिला है। यहां टकराव आरबीआई के अपने भंडार के बारे में फैसला करने के अधिकार और चुनावों से पहले खर्च करने के लिए सरकार की नकदी की जरूरत के बीच है।


Date:15-11-18

वित्तीय प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर भ्रष्टाचार से लड़ें मोदी

संपादकीय

सिंगापुर के वित्तीय प्रौद्योगिकी महोत्सव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिनटेक की उपयोगिता पर तब व्याख्यान दिया है जब देश के भीतर उनके नोटबंदी के फैसले की आलोचना हो रही है। नोटबंदी का जिक्र किए बिना उन्होंने सिंगापुर से भारत को संबोधित किया है। यह संबोधन बैंकरों, टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों, नागरिकों और राजनेताओं सभी के लिए है। उन्होंने नोटबंदी के जिस लक्ष्य का जिक्र काफी बाद में किया था अब उसे वे सबसे पहले कर रहे हैं और वही उनके सिंगापुर भाषण का मूल मंत्र है। अगर सुरक्षित की जा सके तो डिजिटल इकोनॉमी आज की जरूरत है और उसमें न सिर्फ पारदर्शिता रहती है बल्कि छपाई, रखरखाव और संसाधनों के तमाम खर्च भी बच जाते हैं। इससे आर्थिक अपराधों को पकड़ा जा सकता है। उन्होंने करोड़ों लोगों का बैंक खाता खोलने और तकरीबन सौ करोड़ लोगों को बायोमेट्रिक प्रणाली से जोड़ने का उल्लेख करते हुए आसियान और पूर्वी एशिया के इस शिखर सम्मेलन में यह बताना चाहा है कि भारत आधुनिकता की ओर तेजी से बढ़ रहा है और अब वहां निवेश करना सुलभ और सुरक्षित है।

सिंगापुर का फिनटेक फेस्टिवल एक महत्वपूर्ण आयोजन बन गया है और इसमें पिछले साल दुनिया के 100 देशों के 30,000 लोगों ने हिस्सा लिया था। भारत डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल से ही लुक ईस्ट की नीति अपना रहा है और उसी को आगे बढ़ाते हुए मोदी दो दिन की सिंगापुर यात्रा पर गए हैं। वहां उन्होंने न सिर्फ अमेरिका को भारत में रक्षा उत्पादन में निवेश के लिए आमंत्रित किया बल्कि यह भी दावा किया कि भारत नए बिज़नेस के लिए सबसे उपयुक्त जगह है। भारत के चिंतन में पूर्वी एशिया की तरक्की का मॉडल हमेशा रहा है। वह सोचता रहा है कि कैसे छोटे स्तर पर होने वाली इस आर्थिक कामयाबी को भारत जैसे विशाल देश में लागू किया जाए। यह चिंता मोदी के भाषण में उस समय दिखी जब उन्होंने कहा कि वित्तीय प्रौद्योगिकी को सोचना होगा कि कैसे वह आम आदमी और हाशिये पर रहने वाले लोगों तक पहुंचे। यही वह बिंदु है जहां डिजिटल इकोनॉमी की आलोचना होती है और उसकी निरर्थकता चिह्नित की जाती है। दूसरा बिंदु प्रौद्योगिकी के भरोसेमंद होने का है। अगर आपका डेटा सुरक्षित है और उसे सामान्य आदमी भी समझकर प्रयोग कर सकता है तो वित्तीय प्रौद्योगिकी के माध्यम से आर्थिक क्रांति का सपना पूरा किया जा सकता है।


Date:14-11-18

सम्मान की वापसी

संपादकीय

कई बार हम किसी इंसान को सम्मान के इतने ऊंचे मंच पर बिठा देते हैं, जहां से नीचे देखने में भी डर लगता है। आंग सान सू की के साथ भी कुछ ऐसा ही है। शांति का नोबेल सम्मान पाने वाली सू की कभी जिस संघर्ष और मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए जानी गई थीं, आज उन्हीं सवालों पर वह वैश्विक आलोचनाओं के घेरे में हैं। माना जा रहा है कि सैन्य अभियान के कारण लाखों रोहिंग्याओं के पलायन के बावजूद मजबूत प्रतिपक्षी आवाज सू की ने आंखें मूंद रखी हैं। यही कारण है कि कभी उनके संघर्षों का सम्मान करते हुए ऑक्सफोर्ड के जिस सैंट ह्यू कालेज ने अपनी इस पूर्व छात्रा की तस्वीर गवर्निंग बॉडी के प्रवेश द्वार पर लगाई थी, उसे हटा लिया और ऑक्सफोर्ड शहर का प्रतिष्ठित ‘फ्रीडम ऑफ द सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड अवॉर्ड’ भी उनसे वापस ले लिया गया। सू की के रवैये को ऑक्सफोर्ड की विविधतापूर्ण और मानवीय परंपराओं और प्रतिष्ठा को कलंकित करने वाला बताते हुए ऑक्सफोर्ड ने उनसे डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी वापस ले ली।

अब एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपना सर्वोच्च सम्मान ‘अम्बेसडर ऑफ कॉन्शंस अवॉर्ड’ उनसे वापस ले लिया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 2009 में यह सम्मान उनकी नजरबंदी के दौरान उनके संघर्षों का सम्मान करते हुए दिया था। उसका मानना है कि ‘सू की का मौजूदा रुख निराशाजनक है और अब वह उम्मीदों, साहस और मानवाधिकारों की रक्षा का प्रतीक नहीं रह गई हैं।’ सू की ने अब तक इस बारे में कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया भले न दी हो, लेकिन सहज ही समझा जा सकता है कि इन दिनों वह किस मानसिक स्थिति से गुजर रही होंगी। रोहिंग्या संकट एक ऐसा मुद्दा रहा है, जिस पर सू की ने लगातार आलोचना ही झेली है। वह जिस संघर्ष की उपज हैं, उसमें उनसे अपेक्षाएं भी स्वाभाविक रूप से कहीं ज्यादा हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि राजनीति और सत्ता ऐसी चीजें हैं, जहां पहुंचने के बाद संघर्षों की पथरीली जमीन को याद रखना या उसके अनुरूप आचरण शायद आसान नहीं रह जाता। लेकिन सू की जैसा इंसान, जो अपने संघर्षों के कारण ही अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बनता है, उससे उसी के आईने में बहुत कुछ करते दिखने की उम्मीद की जाती है। जाहिर सी बात है, सू की को भी अपने म्यांमार की इस अल्पसंख्यक आबादी के लिए कुछ करते हुए दिखना था, जिसमें वह विफल रहीं। इस शिकायत से उबर पाना उनके लिए अब उतना आसान भी नहीं।

दरअसल शुरुआती आलोचना के दौर में ही जब ऑक्सफोर्ड से प्रतिरोध की आवाज आई, कनाडा ने मानद नागरिकता वापस ली या अमेरिकी होलोकास्ट मेमोरियल म्यूजियम ने अपना सर्वोच्च सम्मान वापस लिया, सू की के लिए तभी चेत जाने का वक्त था। राजनीति में कुछ भी अनायास नहीं होता और उसके नतीजे भी अनायास नहीं निकला करते। सू की का ताजा अध्याय भी इसी की परिणति है, जहां हमेशा मुखर रहने वाली इस नेता की खामोशी कई रास्ते रोककर खड़ी हो गई। सू की संघर्ष की जीती जागती मिसाल हैं। हालांकि स्थानीय जटिलताओं के कारण उनके लिए म्यांमार की राजनीति उतनी आसान भी नहीं है। ऐसे में, उन्हें अपने अतीत की छाया के साथ चलते हुए कुछ ऐसा नया गढ़ना होगा, जो न सिर्फ उनकी संघर्षशील छवि को बरकरार रखे, वरन उन्हें एक मजबूत सर्वमान्य नेता के तौर पर भी प्रस्तुत करे।


Date:14-11-18

A reality check on cooperative federalism

It is yet to be tested on issues related to the Goods and Services Tax

M.S. Ananth is a Delhi-based lawyer.

Since at least 1974, when the Supreme Court commented on the Constitution envisaging a cooperative federal structure, federalism has come a long way in India. In relation to the imposition of President’s rule under Article 356 of the Constitution, federalism is far more mature. Between 1947 and 1977, there were 44 instances when the power to impose President’s rule was exercised.

Between 1977 and 1996, the power was exercised almost 59 times. Prime Minister Indira Gandhi’s cabinet resorted to the power an estimated 50 times in her 14 years. The fact that it includes 15 instances between 1980 and 1984 after the Supreme Court held federalism a basic feature of the Constitution is quite telling. From 1991 till 2016, there have been 32 instances of the exercise of this power — compared to 92 instances in the preceding period. In S.R. Bommai v. Union of India (1994), the limitation laid down by the Supreme Court might have placed gentle breaks on exercise of this power, but the Centre continues to wield superior legislative powers, including residuary powers and legislative precedence.

These are powers the Central government enjoys under the Constitution and States’ legislative powers have routinely yielded to the Centre. Given this constitutional framework, what is the cooperative federalism that one can hope for?

Recently, in Govt. of NCT of Delhi v. Union of India, the Supreme Court gently tilted the balance of executive power in favour of the Government of the National Capital Territory vis-à-vis the Lieutenant Governor (and by extension, the Centre). However, the court’s observations on cooperative federalism were stating the obvious considering members of both cabinets take an oath to uphold the Constitution. The facts behind the case and the acrimonious litigation, which the Supreme Court did not examine in its July 2018 ruling, clearly bring out the yawning gap between the Constitution’s intent and political reality.

Contentious terrain

Taxation powers are another contentious issue and the Central government has won most of the disputes purely due to express provisions in the Constitution. In the Goods and Services Tax (GST) scenario, States have foregone some taxation powers (octroi, entry tax, luxury and entertainment taxes, etc.) but have powers to levy taxes through panchayats and municipalities. Such powers can result in an anomalous situation of a transaction being taxed under GST laws and a local law, and this is yet to be tested in court. After the GST amendments to the Constitution, States have power to levy tax on sale of petrol, diesel, etc. and these would be revenues of the respective States. However, the GST Council is yet to recommend inclusion of these items under GST.

This brings us to another key dynamic that defines the Centre-State relationship — sharing of taxes. The southern States have been vocal about the false positives and negatives from tax sharing and this mechanism is largely subject to the recommendations of the Finance Commission (FC) and action by Parliament. State levies and State GST form part of a State’s revenue. Under Article 269A(1) the GST Council — and not the FC — has the powers to make recommendations in relation to sharing of taxes from inter-State trade. This is important since States have a vote in the GST Council. However, Articles 270(1A) and 270(2) provide that taxes levied under the GST laws will be shared in the manner ‘prescribed’ in Article 270(2) — which takes us to the FC, and not the GST Council. The possible anomaly between roles and powers of the FC and the GST Council has not been tested but it may make sharing of these revenues subject matter of the FC and Parliament rather than the GST Council, where States have more power.

States don’t merely seek parity with each other, historically States have also sought parity with the Centre (Sarkaria and Punchhi Commissions). Recommendations of the FC are placed before Parliament and States have no role in the debate. There is no provision for an aggrieved State to challenge the FC report or seek its enforcement. If the Centre refuses to make allocations as per the GST Council, or if a State is aggrieved by the recommendations itself, an aggrieved State would have to litigate in the Supreme Court as it appears that the GST Council is yet to establish a mechanism for resolving differences in terms of Article 279A(11). In 68 years of the Constitution, there is limited precedent for such extreme actions. In an era of coalition politics, this would be a true test of cooperative federalism.


 

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