20-08-2025 (Important News Clippings)

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20 Aug 2025
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Date: 20-08-25

Mr Trump, Thanks for The Chinese Gambit

Keep eyes open and engage with all

ET Editorials

Those who have wished, in the larger scheme of things, for the reopening of India-China lines now have Trump to thank. US protectionism is pushing the two Asian countries to make common cause on free trade. New Delhi is being cautiously pragmatic about its neighbour after being singled out for special tariff action by the idiosyncratic Trumpraj. It is also affected by China’s use of tactical export controls, like those over rare earths, as it negotiates a tariff deal with the US. Reports that China has lifted curbs on export of fertilisers, rare-earth magnets and tunnel-boringmachines may be an opening for India. Building bridges with China when trade negotiations with the US are slow should ease some pressure on New Delhi. More so when the US is drumming up support for punitive taxes on India for buying Russian oil. Beijing has not been targeted by Washington, but will be drawn in if Trump is serious about a Western embargo on Russian energy exports. His logic on such matters is ‘peccable’.

New Delhi has two obvious areas of concern that hold back closer trade relations with Beijing: border disagreement, and trade surplus China runs up with India. Progress on both fronts is vital for meaningful engagement. India hopes to benefit from the China plus-onestrategy of global manufacturing companies. But hope alone won’t do. It is at a disadvantage to Asian rivals plugged deeper into Chinese value chains.

India’s engagement with China is also governed by its need for the US as a strategic ally and its principal export destination. Trump may have muddied the waters for India. But the US has a non-adversarial relationship with India in the techscape that can keep things in balance. There is a point beyond which India can’t be pushed, by Washington or Beijing. This leaves some space for New Delhi to react to a fluid external environment. Some of the pressure will, of course, dial down if Trump can broker peace in Ukraine. India should use this experience to build on the progress it has achieved with the US, as well as with China.


Date: 20-08-25

Peace momentum

Ukraine needs to see its future security in the context of its battle losses

Editorials

The unprecedented multilateral summit at the White House on Monday between U.S. President Donald Trump and a host of European leaders, including Ukraine President Volodymyr Zelenskyy, just after Mr. Trump’s meeting with Russian leader Vladimir Putin in Alaska on Friday, points to a renewed willingness on all sides to end the Ukraine war. The Alaska summit marked a new start in Mr. Trump’s push for conflict resolution, although it did not yield an immediate breakthrough. While Mr. Trump invited Mr. Zelenskyy to the White House to discuss ‘the Putin proposal”, European leaders, including the British Prime Minister, France’s President and the chiefs of the European Commission and NATO, also travelled to Washington, in a strong show of solidarity with Ukraine. Mr. Zelenskyy’s visit to the White House, in February, had gone poorly. This time, Mr. Zelenskyy and his European allies were careful not to upset their host.

The message from Europe is clear: irrespective of Washington’s position, Europe is firmly committed to Ukraine’s security. But European leaders also recognise that they lack the capability to continue to back Ukraine in a war it is not winning should the U.S. cut off its weapons supplies to Kyiv. So, the challenge before the French and British leaders was to persuade Mr. Trump – he has already ruled out NATO membership for Ukraine to offer some form of American support for security guarantees to Ukraine as part of a final settlement. Europe has already begun planning to send a “reassurance force” to Ukraine. Mr. Trump’s comments signalling support for the idea of security guarantee were a small but significant breakthrough. He said Europe would be “the first line of defence” but did not rule out American involvement, adding that Mr. Putin would accept western security guarantees for Ukraine. The next big question is on where to draw the ceasefire line. Mr. Putin wants all of Donbas and is willing to freeze the frontline in the south. Mr. Zelenskyy and his European partners have so far ruled out any territorial concessions for peace, but all sides are ready to continue the talks. Mr. Zelenskyy should adopt a pragmatic approach, weighing Ukraine’s future security against its present battlefield vulnerabilities. Mr. Putin should realise that this may be his best opportunity to end the war that he launched in February 2022. Mr. Trump and the European leaders must now work towards a compromise formula that addresses Ukraine’s future security needs and Russia’s past grievances. The current momentum for peace should not be squandered.


Date: 20-08-25

चीन का हमें रेयर अर्थ देने का वादा शुभ संकेत

संपादकीय

भारत यात्रा पर आए चीनी विदेश मंत्री द्वारा भारत को रेयर अर्थ एलिमेंट्स (आरईई), खाद और टनल बोरिंग मशीन देने का आश्वासन बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में हमारे लिए बेहद शुभ समाचार है। चीन ने अमेरिका से टैरिफ को लेकर व्यापारिक असहमति के दौरान जिन देशों को आरईई देने पर रोक लगाई, उनमें अमेरिका के अलावा भारत भी था। जहां अमेरिका के तमाम उद्योगों पर इसका असर पड़ रहा है, वहीं भारत में भी ईवी उत्पादन प्रभावित होने लगा । भारत के रूस और चीन के साथ बढ़ते नए समीकरण को लेकर अमेरिका भी नाराज है। ट्रम्प के भरोसेमंदों में से प्रमुख और व्हाइट हाउस के ट्रेड सलाहकार ने एक लेख में भारत पर नया आरोप लगाते हुए कहा है कि अगर भारत को ट्रेड शर्तों में रियायत चाहिए तो उसे यूएस के स्ट्रेटेजिक पार्टनर की तरह व्यवहार करना होगा। भारत को रूसी तेल का वैश्विक क्लीयरिंग हाउस बताते हुए उन्होंने भारत के हाल में रूस और चीन की ओर बढ़ते झुकाव पर भी ऐतराज किया। सलाहकार भूल रहे हैं कि रूस से क्रूड खरीदना और रिफाइनरीज में शोधित कर उपयोग या निर्यात करना भारत एक जमाने से कर रहा है। तीन साल के रूस- यूक्रेन युद्ध के दौरान रूसी तेल पर कोई प्रतिबंध नहीं, केवल प्राइस कैंप लगाया गया है। इसके अलावा अमेरिका ने हमेशा चाहा कि भारत रूसी क्रूड को साफ करके यूरोप और अन्य देशों को बेचे ताकि पेट्रोलियम के दाम स्थिर रहे । अमेरिका ने यही ऐतराज चीन या यूरोप से नहीं किया, जो स्वयं रूसी तेल खरीदते रहे।


Date: 20-08-25

चीन के आश्वासन

संपादकीय

यह राहतकारी है कि भारत यात्रा पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग ई ने दुर्लभ धातुओं यानी रेयर अर्ध मैग्नेट की आपूर्ति बहाल करने, बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं के लिए जरूरी मशीनों का निर्यात करने के साथ उर्वरकों की बिक्री शुरू करने का आश्वासन दिया। चीन ने कुछ ही समय पहले भारत को उर्वरक भेजने के साथ ही रेयर अर्थ मैग्नेट की आपूर्ति बंद कर दी थी। इसके अतिरिक्त भारी मशीनरी का निर्यात सीमित कर दिया था। यह किसी नेक इरादे से नहीं किया गया था। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मनमानी टैरिफ नीति और अन्य मामलों में तीखे तेवरों को देखते हुए ही चीन ने भारत से संबंध सुधारने की जरूरत महसूस की है। स्पष्ट है कि भारत चीनी विदेश मंत्री के आश्वासन पर बहुत उत्साहित नहीं हो सकता, क्योंकि बात तब बनती दिखेगी, जब इन आश्वासनों पर अमल होगा। अपने कहे से मुकरने वाला चीन यह समझने को तैयार नहीं कि वह और भारत मिलकर पश्चिम की चुनौतियों का सामना करने के साथ आर्थिक सहयोग को बहुत आगे ले जा सकते हैं। इस सहयोग का लाभ भारत के साथ उसे भी मिलेगा। दोनों देशों की हजारों साल पुरातन संस्कृति है और दोनों के संबंध सदियों पुराने हैं। होना यह चाहिए कि दोनों देश मिलकर अपनी और विश्व की समस्याओं का समाधान करें। चीन भारत के साथ चलने की नीति का हामी नहीं दिखता। इसके बजाय वह भारत की प्रगति में अड़ंगा लगाते और उसके हितों के खिलाफ काम करते दिखता है। वह यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों के प्रति संवेदनशील रहे, पर स्वयं ऐसा नहीं करता । इसका उदाहरण है अरुणाचल, कश्मीर पर उसकी बेजा बयानबाजी।

चीनी नेतृत्व ने अपने यहां की क्रांति के बाद तो भारत से मैत्री भाव दिखाया, लेकिन फिर उसने भारत विरोधी रवैया अपना लिया। इसी का परिणाम था 1962 का युद्ध | भारत डोकलाम विवाद और गलवन की घटना को भी नहीं भूल सकता। बदले हुए अंतरराष्ट्रीय माहौल में भारत से संबंध सुधारने को तैयार चीन के विदेश मंत्री वांग ई ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मिलकर भले ही सीमा विवाद सुलझाने पर सहमति जताई हो, लेकिन यह कहना कठिन है कि इस सहमति के अनुरूप कुछ ठोस होगा। वह ध्यान रहे कि विशेष प्रतिनिधि स्तर की 24 दौर की वार्ता के बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। यह सही है कि आज भारत को भी चीन के सहयोग की आवश्यकता है और संभवतः इसी कारण भारतीय प्रधानमंत्री शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में शामिल होने चीन जा रहे हैं, लेकिन अच्छा होगा कि इस पर विचार किया जाए कि हम दुर्लभ धातुओं, उर्वरकों, भारी मशीनों आदि के लिए चीन पर क्यों निर्भर हैं? विकसित भारत के लक्ष्य को देखते हुए यह निर्भरता ठीक नहीं।


Date: 20-08-25

चुनाव पर न हो कटुता

संपादकीय

भारत में मतदाता सूची संबंधी विवाद में तल्खी का बढ़ते जाना दुखद और चिंताजनक है। । दुखद इसलिए कि एक सांविधानिक संस्था की गरिमा पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है और चिंताजनक इसलिए कि विवाद समाधान की ओर बढ़ने के बजाय नई समस्याओं की ओर बढ़ रहा है। चूंकि बिहार में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है, तो वहां जमीनी स्तर पर मतदाताओं के अधिकार को लेकर सरगर्मी तेज हो गई है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव मतदाताओं के अधिकार के लिए सड़कों पर उतर गए हैं। जब बिहार में आनन-फानन में मतदाता पुनरीक्षण का काम शुरू हुआ था, तभी यह आशंका जताई जा रही थी। नए मतदाता जुड़ते, तो विवाद होता और जब 65 लाख के करीब मतदाता सूची से प्राथमिक रूप से हटाए गए हैं, तब भी नाराजगी है। अफसोस, पुनरीक्षण का शुद्ध चुनावी काम राजनीतिक मुद्दा बन गया है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल के नेता पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में पुनरीक्षण की मांग कर रहे हैं, जबकि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने पुनरीक्षण का विरोध शुरू कर दिया है।

पुनरीक्षण जैसी अच्छी प्रक्रिया विवादों में पड़ गई है, तो यह चुनाव आयोग की ओर से तैयारी का ही अभाव है। हालांकि, मतदाता सूची संबंधी जो शिकायतें सामने आई हैं, वे नई बात नहीं हैं। अपने देश में बीएलओ (ज्यादातर सरकारी शिक्षक) और बीएलए (राजनीतिक कार्यकर्ता ) का जो कार्य स्तर है, उसके प्रति बहुत संतोष नहीं जताया जा सकता। कुछ काम प्रशिक्षण के अभाव में बिगड़ते हैं, तो कुछ कामों पर लापरवाही या उदासीनता हावी हो जाती है। ऐसे में बीएलओ और बीएलए, दोनों की कमियों का ठीकरा चुनाव आयोग पर फूटता है । भारत जैसे देश में वैसे भी चुनाव कराना आसान नहीं है। यहां कोई भी पहचान पत्र पुख्ता नहीं है। सबकी कमियों के दृष्टांत समय-समय पर सामने आते रहते हैं। जाहिर है, पहचान पत्र बनाने वाली एजेंसियों में कमी है और यह कोई बहुत चौंकाने वाली बात नहीं है। डिजिटल दौर में, राशन कार्ड का मामला हो या बीपीएल कार्ड का, पूरी सच्चाई या पूरी ईमानदारी की गारंटी लेना किसी भी भारतीय सांविधानिक संस्था के लिए बहुत मुश्किल है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारी सांविधानिक संस्थाओं की इस कमी या मजबूरी को हमारी राजनीतिक पार्टियां समझती हैं? क्या कमियों को सुधारने के बजाय उनका लाभ उठाने का इरादा ज्यादा हावी है ? यहां यह बात छिपी नहीं है कि अपने देश में अनेक चुनावी सुधार न्यायालयों के हस्तक्षेप से ही संभव हुए हैं। हमारी प्रचलित राजनीतिक परंपरा में सुधार की राजनीतिक मंशा बेहद कमजोर है। सुधार की उपेक्षा का ही फल है – चुनाव को लेकर फैली कटुता । इसकी किसे परवाह है। कि मतदाता सूची विवाद के आरोप की वजह से दुनिया में भारतीय लोकतंत्र का कितना मखौल उड़ रहा है? क्या कोई ऐसी बड़ी सियासी पार्टी है, जो अभी संपूर्ण चुनाव सुधार का वादा कर रही हो? आज जब सत्ता पक्ष को भी शिकायत है और विपक्ष को भी, तब क्या हम पूरे देश में गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण के लिए तैयार हैं? बेशक, चुनाव आयोग को इस दिशा में कदम उठाने ही चाहिए। कुछ वक्त भले लग जाए, पर मतदाता सूची सोलह आना सही होनी चाहिए। यह काम बहुत बड़ा है, शायद इसे मुमकिन बनाने के लिए देश को लगातार टी एन शेषन जैसे दो-तीन तेजतर्रार मुख्य चुनाव आयुक्तों की जरूरत पड़ेगी ।


Date: 20-08-25

बीजिंग की मंशा पर अब भी शंका

श्रीकांत कोंडापल्ली, ( प्रोफेसर चाईना स्टडीज, जेएनयू )

गलवान संघर्ष के बाद पहली बार नई दिल्ली पहुंचे चीन के विदेश मंत्री वांग यी के दौरे को यदि एक पंक्ति में परिभाषित करें, तो यही कहना उचित होगा कि वह ठंडे पड़े द्विपक्षीय संबंधों में गरमाहट लाने के लिए आर्थिक रिश्ते की वकालत करते रहे, मगर सीमा पर तनाव कम करने को लेकर कोई ठोस संकेत नहीं दिया। मगर भारत पहले सीमा पर शांति और स्थिरता का हिमायती है। इसका संकेत साफ है। दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ जल्दी पिघलने वाली नहीं है।

वांग यी मूलतः तीन वजहों से भारत आए थे। एक, भारत-चीन के विशेष प्रतिनिधियों के 24वें दौर की वार्ता में उन्हें शिरकत करनी थी। इसमें द्विपक्षीय संबंधों से जुड़े मुद्दों पर बातचीत हुई। उनकी राय थी कि दोनों देशों को आपसी बातचीत जारी रखनी चाहिए और वैश्विक आर्थिक अस्थिरता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हालांकि, भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर इससे सहमत नहीं थे। उनका स्पष्ट कहना है कि जब तक तीन बातों का ध्यान नहीं रखा जाएगा, द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाना मुश्किल है। ये तीन बातें हैं- परस्पर सम्मान, संवेदनशीलता और एक-दूजे के हितों का ध्यान ।

वांग यी के दौरे का दूसरा मकसद उन मुद्दों पर सहमति बनाने का था, जिसे इस महीने के अंत में शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक के बाद साझा बयान में शामिल किया जाएगा। आमतौर पर हरेक बड़े आयोजन से पहले यह होता है कि मेजबान देश का विदेश मंत्री भागीदार देशों में जाकर पहले ही उन मुद्दों पर आम राय बनाने का प्रयास करता है, जिन पर बैठक में चर्चा होनी है। दो दिवसीय यह सम्मेलन चीन के तिआनजिन शहर में प्रस्तावित है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिरकत कर सकते हैं। यह सात साल के बाद भारतीय प्रधानमंत्री का चीन दौर होगा।

चीनी विदेश मंत्री के दिल्ली आने की तीसरी वजह अमेरिकी टैरिफ को लेकर एक साझा रुख अपनाने के लिए भारत को तैयार करना था । यह माना जा रहा है कि अमेरिका जिस तरह से टैरिफ बढ़ाकर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है, उससे निपटने के लिए तमाम देशों को एकजुट होना चाहिए। ऐसा प्रयास किया भी गया था और चीन, यूरोपीय संघ, भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने हाथ मिलाने की कोशिश शुरू की थी, लेकिन यह कवायद परवान नहीं चढ़ सकी।

बहरहाल, अपनी मंशा में चीन के विदेश मंत्री कुछ हद तक ही सफल हो सके। बेशक, बीजिंग चाहता है कि अब दोनों देशों के बीच आर्थिक स्थिरता पर नए सिरे से जोर दिया जाए, लेकिन भारत के लिए सबसे अहम मसला सीमा सुरक्षा है। 2020 की गलवान घटना के बाद दोनों देशों के रिश्तों में काफी कड़वाहट आई है, जिसका नुकसान चीन को भी हुआ है। रही बात अमेरिकी टैरिफ की, तो उसमें साझा रुख अपनाना मुश्किल है, क्योंकि अमेरिका अलग-अलग देशों से अलग-अलग दरों पर मोल-तोल कर रहा है।

यहां एक मसला ब्रिक्स भी है। चीन और भारत, दोनों इसके महत्वपूर्ण सदस्य हैं। इस संगठन पर अमेरिका की टेढ़ी नजर है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मानते हैं कि यह संगठन ‘डी- डॉलराइजेशन’ को आगे बढ़ाना चाहता है, यानी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की हैसियत कम करने की दिशा में ब्रिक्स के देश काम कर रहे हैं। उन्होंने ऐसा करने वाले राष्ट्रों के खिलाफ 100 प्रतिशत सीमा शुल्क लगाने का एलान भी किया था। मगर ऐसा कहते हुए ट्रंप भूल रहे थे कि भारत ने ऐसी किसी कवायद से इनकार किया है। बेशक, कुछ अंतरराष्ट्रीय लेन-देन रुपये में भी हुए हैं, लेकिन चीन रेनमिनबी (चीनी मुद्रा युआन का आधिकारिक नाम ) का विस्तार चाहता है, जो ब्रिक्स के अन्य देशों को पसंद नहीं। वैसे भी, चीन फिलहाल अमेरिका से टकराने के लिए तैयार नहीं दिखता, क्योंकि दोनों देश व्यापार समझौते पर आगे बढ़ रहे हैं। लिहाजा, ब्रिक्स से इस बारे में बहुत उम्मीद पालना गलत होगा ।

दरअसल, भारत व चीन के बीच इतने संवेदनशील मुद्दे हैं कि फिलहाल संबंधों के पटरी लौटने की उम्मीद कुछ अधिक आशावादी होना कहलाएगा। दोनों देश सीमा पर तो उलझे हुए हैं ही, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक होड़ और व्यापार असंतुलन भी बड़े मसले हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का केंद्र बनकर उभरा है। यह भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया जैसे देशों का इलाका है, साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी हिस्सेदारी अनवरत बढ़ रही है। इस सूरतेहाल में वहां वर्चस्व हासिल करना चीन की मंशा रही है, जिसके खिलाफ भारत लगातार मुखर रहा है। नई दिल्ली इस क्षेत्र में ऐसी व्यवस्था चाहती है, जो सबके हितों का पोषण करे। यही कारण है कि ‘ग्लोबल साउथ की एक प्रमुख आवाज़ के रूप में भारत की पहचान बनी है। मगर चीन इससे इत्तफाक नहीं रखता।

इसी तरह, द्विपक्षीय व्यापार अब भी चीन के पक्ष में झुका हुआ है, जिसे भारत कम करना चाहता है। आंकड़ों की मानें, तो चीन से भारत का आयात 2024-25 में 113.5 अरब डॉलर था, जबकि निर्यात महज 14.3 अरब डॉलर इस तरह, द्विपक्षीय व्यापार में भारत को 99.2 अरब डॉलर का घाटा है, जिसे पाटने के लिए भारत प्रयासरत है। स्वदेशी उत्पादों पर जोर नई दिल्ली की इसी रणनीति का हिस्सा है।

बहरहाल, कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि 31 अगस्त की शिखर बैठक में भाग लेने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन जाएंगे, तब आपसी संबंधों में भी कुछ नरमी आ सकती है। हालांकि, इसकी उम्मीद मुझे कम ही लगती है। इसकी पहली वजह तो यही है कि इस सम्मेलन में बहुपक्षीय मुद्दों पर जोर दिया जाएगा। बेशक, दोनों देशों के शासनाध्यक्ष भी आपस में बैठेंगे, लेकिन यह द्विपक्षीय बातचीत कमोबेश 45 मिनट की होगी, जिनमें से आधा वक्त तो अनुवाद सुनने में ही जाया होगा। इसका सीधा मतलब है कि जरूरी मुद्दों पर बहुत सार्थक बातचीत शायद ही हो सकेगी।

दूसरी बात, चीन संबंधों को पटरी पर लाने के लिए गंभीरता का चोला जरूर ओढ़े हुए है, लेकिन उसकी मंशा नेक नहीं दिखती। पिछले साल मई में जब ‘इंडो- पैसिफिक मिनिस्टीरियल फोरम की बैठक में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि बहुध्रुवीय विश्व केवल बहुध्रुवीय एशिया से ही संभव है, तो चीन को यह काफी नागवार गुजरा था। वह एशिया में एकमात्र ताकत के रूप में स्थापित होना चाहता है। इसका मतलब साफ है कि भारत और चीन के संबंधों में अभी काफी गहरी खाइयां हैं, जिनको पाट पाना इतना आसान नहीं।