17-06-2019 (Important News Clippings)

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17 Jun 2019
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Date:17-06-19

Within Reach – the $5 Trillion Economy

It’s all about skilled,courageous politics

ET Editorials

India as a $5 trillion economy by 2024 – that is the vision that Prime Minister Narendra Modi presented before the nation at the NITI Aayog. To achieve this would be hard, he said, but not impossible. He is right. The Indian economy is estimated to have been $2.74 trillion at market exchange rates in 2018-19, leaving aside all controversies over GDP estimates. From there to reach $5 trillion in five years, the economy needs to grow at a compound rate of 12.8% every year. Growth in dollar terms would be a combination of growth in rupee terms and change in the exchange rate. If India achieves real growth in excess of 8%, maintains macroeconomic stability and registers a steady rise in productivity that would allow the rupee to gain against the dollar, the target is achievable.

That is in theory. In practice, growing at that pace calls for political courage, to fix the broken school system and expand healthcare. No sustained growth is possible with a dysfunctional power sector. The utilization of installed generation capacity is just over 50%, even as large tracts of the country go without power or run diesel generators to make up for the missing grid supply. Banks notch up non-performing loan numbers from power projects unable to sell power and service their loans.

Politicians must find the courage to ask people to pay for the power they consume, end open-ended power subsidies and stop patronizing power theft. Another constraint is repressed urbanization. The cost of land for a hospital, school or new factory complex is prohibitively high, thanks to artificially constrained supply of urban land. Releasing rural land for non-farm uses is bedevilled by absence of a coherent policy for making farmers stakeholders in urban prosperity. Amaravati in Andhra Pradesh seeks to change this.

Cropping patterns ill-suited to agro-climatic conditions are endemic, thanks to vested interests and the subsidies they extract. Ending this and removing shackles on farm marketing, call for reconfiguring internal and external trade policy and subsidies. That calls for both boldness and courage.


Date:17-06-19

Piped water should be sustainable, too

ET Editorials

The government’s intent to provide piped drinking water to all households by 2024 is admirable ambition. The ground reality is that some three-fourths of all households lack drinking water at their premises, and five out of six rural households do not have access to piped water supply. Streamlined water supply would hugely boost ease of living nationwide, including by inducing people to use the toilets built for them. But this calls for proper allocation of resources, stepped-up conservation efforts, and greatly improved water management.

The way forward is to envision participatory demand-side water management and proactive decentralisation with administrative control over and accountability for maintenance and upkeep of local piping and sewerage systems vested in panchayats and local bodies. These must be trained in the economies of recycling and conservation of water. About 54% of India’s groundwater wells are declining, even as groundwater provides 80% of our drinking water and nearly two-thirds of all irrigation needs. In the last four decades, about 84% of total addition to irrigation has come from groundwater, which is plain unsustainable given the dropping water tables.

Agriculture accounts for four-fifths of water demand, and the way ahead to tackle the growing crisis nationally — 600 million people currently face high to extreme water stress — is to boost surface irrigation. Yet, state governments have long neglected investments in canal networks, and there’s a growing gulf between irrigation potential and actual supply. Notice the rising recourse to groundwater. In parallel, we do need clear-cut norms for waste water recycling, stepped-up investment in sewage treatment plants and annual water audits for industry. A new mindset is called for on water.


Date:17-06-19

हर घर को नल से जल देना कठिन लक्ष्य

संजय गुप्त, ( लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं )

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की दूसरी पारी में जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को मिलाकर जल शक्तिमंत्रालय बना दिया है। इस मंत्रालय की कमान गजेंद्र सिंह शेखावत को सौंपी गई है। शेखावत ने इस मंत्रालय की कमान संभालते ही यह घोषणा की कि अभी देश के 18 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ही नल से जल की आपूर्ति होती है, लेकिन अगले पांच साल में शेष सभी 82 प्रतिशत घरों में भी नल से पेयजल की आपूर्ति की जाएगी। इस आशय का वादा भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में भी किया था।इस वादे के अनुसार जल के लिए नया मंत्रालय बनाकर देश के अलग-अलग हिस्सों में बड़ी नदियों को जोड़ने के अटल बिहारी वाजपेयी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जाएगा ताकि पीने के पानी की समस्या का समाधान करने के साथ ही सिंचाई के लिए भी पानी उपलब्ध कराया जा सके।

ग्रामीण इलाकों में हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना चुनौती भरी है। यह चुनौती गरीबों को रसोई गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने और शौचालयों का निर्माण कराने से अधिक कठिन है, लेकिन इसे पूरा करना भी आवश्यक है। यह योजना यह बताती है कि आजादी के 72 वर्षों बाद भी हम सभी को पेयजल उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। अर्थव्यवस्था के लिहाज से भारत से पिछड़े कई देश अपने लोगों को बिजली, पानी एवं अन्य नागरिक सुविधाएं देने में समर्थ रहे हैं। कई देश तो ऐसे हैं। जो सभी को पेयजल उपलब्ध कराने के साथ उसकी गुणवत्ता भी बनाए रखने में सक्षम हैं। यूरोपीय समुदाय में शामिल होने वाले देशों के सामने तो एक शर्त यह थी कि वे पेयजल संबंधी मानकों को पूरा करें।

अपने देश में पेयजल के मामले में मानक तो बने हुए हैं। , लेकिन उनका पालन मुश्किल से ही होता है। यही कारण है कि कई बड़े शहरों में भी गंदे जल की आपूर्ति की शिकायतें सामने आती रहती हैं। स्थानीय निकाय समुचित मात्रा में पानी की आपूर्ति करने में अक्षम हैं।

एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 2001 में 1816 क्यूबिक मीटर थी जो 2011 में 1544 क्यूबिक मीटर हो गई, लेकिन केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 में पूरे देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1140 क्यूबिक मीटर रह जाने का अनुमान है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के अनुसार यदि प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1000 क्यूबिक मीटर से नीचे आती है तो उसे जल संकट माना जाता है।

समस्या यह है कि देश के कई नदी बेसिन में जल उपलब्धता का पैमाना नीचे जा रहा है। इनमें कृष्णा, कावेरी, साबरमती भी हैं। इसे देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि देश का एक भाग रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। आज देश के कितने ही गांवों में महिलाओं को सिर पर पानी ढोकर मीलों चलना पड़ता है। कई जगह यह पानी शुद्ध भी नहीं होता। अनेक शहरों का भी बुरा हाल है।

अनियोजित विकास ने हर घर को पानी पहुंचाने के लक्ष्य को और मुश्किल बना दिया है। ध्यान रहे कि देश की राजधानी दिल्ली तक में ऐसे इलाके हैं। जहां के लोग पानी के टैंकरों पर निर्भर रहते हैं। भारत में पेयजल की किल्लत का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि तमाम ऐसे इलाकों मे भी ट्यूबवेल से भूमिगत जल का दोहन किया जा रहा है जहां नल से जल भेजने की सुविधा है। इसके चलते भूजल स्तर गिरता जा रहा है। एक बड़ी समस्या यह है कि यह भूमिगत जल दूषित हो रहा है। कहीं-कहीं तो इतना दूषित हो गया है कि वह न तो पीने के लायक है और न ही सिंचाई के लायक। वह बीमारियां फैलाने का काम कर रहा है।

अपने देश में पीने और सिंचाई के पानी की समस्या आज से नहीं, आजादी के पहले से हैं। इसी तरह नदी जल के बंटवारे की समस्या भी बहुत पुरानी है। आज भी नदी जल बंटवारे को लेकर कई राज्यों के बीच तनातनी है। कर्नाटक और तमिलनाडु के कावेरी जल को लेकर विवाद है तो पंजाब और हरियाणा के बीच सतलज नदी के जल को लेकर। देश के कुछ हिस्से ऐसे भी है जो दूसरे देश से आने वाली नदियों के पानी से परेशान होते रहते हैं।

पानी से जुड़ी समस्याएं इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक कारणों से भारत ढंग की कोई जल नीति नहीं बना पाया है। अब जब मोदी सरकार ग्रामीण क्षेत्र में हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना आगे बढ़ा रही है तब फिर उसे इस पर ध्यान देना होगा कि नदियों के जल का ठीक से बंटवारा हो, भूमिगत जल का अनावश्यक दोहन न हो, उसे प्रदूषित होने से रोका जाए और बारिश के जल का संरक्षण और संचयन हो। यदि बारिश के जल के एक चौथाई हिस्से को भी ढंग से संरक्षित और संचित किया जा सके तो पेयजल और सिंचाई के पानी की सारी जरूरतें पूरी हो सकती है, लेकिन इस दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा सके हैं। जो कदम उठाए भी गए है वे पर्याप्त नहीं हैं। जल संरक्षण की योजनाएं सतत निगरानी और बेहतर रख-रखाव की मांग करती है। इसके अभाव में ये योजनाएं वैसे ही नाकाम हो सकती है जैसे सीवेज शोधन संयंत्र हो रहे है। जल संरक्षण की योजनाओं का नियमन और उनका रख-रखाव बेहतर ढंग से किया जाना इसलिए अनिवार्य हो गया है, क्योंकि जल संकट बढ़ता जा रहा है। जल संकट से बचने के लिए इस सवाल को भी सुलझाना होगा कि जल को संविधान की समवर्ती सूची में लाया जाए या नहीं?

आज देश के तमाम हिस्सों में छोटी-छोटी नदियां नालों में तब्दील हो चुकी हैं। कुछ तो नष्ट होने की कगार पर हैं। नदियों के अलावा अन्य परंपरागत जलस्नोत भी अनदेखी का शिकार है। स्पष्ट है कि नवगठित जल शक्ति मंत्रालय को इन समस्याओं पर गंभीरता से गौर करना होगा। चूंकि केंद्र सरकार का काम नीतियां बनाना और उन पर अमल करना राज्यों का काम है इसलिए राज्य सरकारों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और यह देखना होगा कि स्थानीय निकाय अपना काम सही ढंग से करें, क्योंकि पानी के प्रबंधन का काम उनके ही जिम्मे आता है। यदि ऐसा नहीं होता तो मोदी सरकार की हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।

यह तय है कि इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए अच्छा-खासा धन चाहिए होगा। राज्यों ने इस योजना पर अमल के लिए जितने धन की जरूरत जताई है उससे यह स्पष्ट है कि अगले पांच सालों में केंद्र को इस योजना के मद में बड़ी धनराशि का प्रबंध करना होगा। अगर अगले पांच साल में इस योजना पर सही ढंग से अमल हुआ तो देश के लोगों को एक बड़ी राहत तो मिलेगी ही, मोदी सरकार को 2024 में वैसी ही राजनीतिक सफलता मिल सकती है जैसी हाल के आम चुनावों में गरीबों को रसोई गैस उपलब्ध कराने और उनके घरों में शौचालय निर्माण संबंधी योजनाओं से मिली।


Date:17-06-19

कृषि क्षेत्र पर राज्यों के बेरोकटोक नियंत्रण पर अंकुश की जरूरत

सुरिंदर सूद

किसानों की समस्याओं पर गठित एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग (नैशनल कमीशन ऑन फार्मर्स) ने कृषि क्षेत्र को राज्य सूची से स्थानांतरित कर समवर्ती सूची में रखने की सिफारिश की थी। अफसोस की बात है कि इस महत्त्वपूर्ण सिफारिश पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितनी जरूरत थी। कृषि विषय अगर समवर्ती सूची में लाया जाता है तो इससे कृषि एवं किसानों से जुड़े मसलों पर केंद्र सरकार अपेक्षाकृत अधिक निर्णायक कदम उठा पाएगी, साथ ही राज्य सरकारों के अधिकारों पर भी कोई खास असर नहीं होगा। फिलहाल केंद्र को उन कृषि विकास एवं किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए भी राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनका वित्त पोषण यह स्वयं कर रहा है।

वास्तव में कृषि क्षेत्र को राज्य सरकार की मर्जी पर छोडऩा भारत सरकार अधिनियम, 1935 की ‘देन’ कही जा सकती है। उस समय इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि चूंकि, कृषि क्षेत्र विशेष पेशा है और मुख्य तौर पर स्थानीय कृषि-पारिस्थितिकी वातावरण और मूल स्थानों पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, इसलिए प्रांतीय सरकारें इस क्षेत्र की बेहतर देखभाल कर सकती हैं। उन दिनों कृषि कार्य केवल खाद्य जरूरतें पूरी करने के लिए किए होते थे और खाद्यान्न की खरीद-बिक्री सीमित स्तर पर होती थी। किसानों से जुड़ीं समस्याएं भी स्थानीय स्तर तक ही सीमित थीं।

आधुनिक समय में परिस्थितियां काफी बदल गई हैं। आधुनिक समय में कृषि क्षेत्रीय सीमाओं में बंधा नहीं रह गया है और अब राज्यों के बीच व्यापारिक सौदे इसका हिस्सा बन गए हैं। इतना ही नहीं, कृषि अब अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर व्यापार, उद्योग और सेवा से भी जुड़ गया है। अब कोई एक राज्य कृषि के संबंध में कोई निर्णय लेता है तो इसका प्रभाव दूसरे राज्यों की कृषि-अर्थव्यवस्था पर भी देखा जाता है। लिहाजा कृषि क्षेत्रों पर राज्यों के बेरोकटोक नियंत्रण से समस्याएं खड़ी हो रही हैं और इनका प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

स्वामीनाथन समिति की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट अक्टूबर 2006 में जारी हुई थी, जिसमें कृषि को समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया गया था। रिपोर्ट में इस ओर ध्यान दिलाया गया था कि फसलों का समर्थन मूल्य, संस्थागत साख और कृषि-जिंस कारोबार-घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय- आदि से जुड़े निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिए जाते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण कानून, जिनका कृषि क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है, संसद ने बनाए हैं, जो केंद्र की देख-रेख में काम करते हैं। पौधे की नस्लों की सुरक्षा एवं किसानों के अधिकार कानून, जैविक विविधता कानून और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इनके अलावा ग्रामीण ढांचा, सिंचाई एवं अन्य कृषि विकास कार्यक्रमों के लिए ज्यादातर राशि केंद्र ही मुहैया कराता है। आयोग ने कहा, ‘कृषि समवर्ती सूची में आने से किसानों की सेवा और कृषि की संरक्षा केंद्र एवं राज्य दोनों का उत्तरदायित्व बन जाएंगे।’

कृषि को समवर्ती सूची में लाने की सिफारिश के पीछे कुछ और कारण भी हैं। कुछ राज्य सरकारों के असहयोग करने से किसानों की समस्याएं दूर करने एवं उनकी आय बढ़ाने के लिए शुरू की गईं केंद्र की कुछ योजनाएं अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं। उदाहरण के लिए फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान) और प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) कुछ ऐसी ही योजनाएं हैं, जिनका पूर्ण लाभ नहीं मिल पा रहा है। इतना ही नहीं, कृषि विपणन, जमीन पट्टा, अनुबंध आधारित कृषि आदि से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार भी कुछ खास बदलाव नहीं ला पा रहे हैं। एक बार फिर कुछ राज्यों का असहयोग इसके लिए जिम्मेदार रहा है।

किसानों की आय दोगुनी करने की संभावनाएं तलाशने के लिए गठित दलवाई समिति ने भी कृषि विपणन को समवर्ती सूची में रखने पर जोर दिया है। समिति के अनुसार इससे कृषि मंडियों में व्यापक सुधार, इनकी परिचालन क्षमता में इजाफा और ग्रामीण विपणन तंत्र के विस्तार में केंद्र सरकार को आसानी होगी। दलवाई समिति की रिपोर्ट ने कृषि को समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने की दलील और मजबूत कर दी है। इससे पहले भी किसी विषय को एक सूची से दूसरी सूची में डालने के लिए संविधान में संशोधन हो चुके हैं। उदाहरण के लिए 1976 में 42वें संशोधन में वन एवं वन्यजीव सुरक्षा सहित पांच विषय राज्य से निकालकर समवर्ती सूची में डाल दिए गए। विषय की महत्ता और इससे मिलने वाले संभावित लाभों को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों को कृषि को राज्य सूची से स्थानांतरित कर समवर्ती सूची में रखने के लिए एक और संविधान संशोधन को समर्थन देना चाहिए। कृषि और किसान दोनों इससे लाभान्वित होंगे।


Date:17-06-19

कथनी को करनी में बदलें

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिश्केक में आयोजित शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) सम्मेलन में खुले एवं गतिरोध रहित व्यापार की अहमियत और विश्व व्यापार संगठन की जरूरत के भारत के रुख को दोहराया। अब तक भारत ने कुछ देशों के बीच कारोबारी समझौतों से ज्यादा बहुपक्षीय समझौतों का समर्थन किया है। मोदी ने शुक्रवार को सम्मेलन को संबोधित करते हुए एकपक्षीयता और कारोबारी संरक्षणवाद पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते व्यापार युद्ध की पृष्ठभूमि में कहा कि नियम आधारित, भेदभाव रहित और सर्व समावेशी डब्ल्यूटीओ केंद्रित बहुपक्षीय कारोबारी व्यवस्था की जरूरत है। मोदी ने पिछले साल दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक में भी देशों को अपनी अर्थव्यवस्था बंद करने के लिए चेताया था। उन्होंने कहा था कि वैश्वीकरण के खिलाफ संरक्षणवादी ताकतें अपना सिर उठा रही हैं।

लेकिन मोदी सरकार को अपनी कथनी को करनी में बदलना होगा क्योंकि भारत ने भी मुफ्त व्यापार के समर्थन के मामले में अच्छा उदाहरण कायम नहीं किया है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में संरक्षणवादी रुझान बढ़ा है और हाल के बजटों में घरेलू उद्योग को बचाने के लिए शुल्कों में बढ़ोतरी देखने को मिली है। भारत की औद्योगिक नीति के बहुत से पहलू ठीक से नहीं बनाए गए हैं और ये डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन कर सकते हैं। हाल में जापान भारत को उन कदमों के लिए डब्ल्यूटीओ में लेकर गया है, जो मोबाइलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए थे। यह भारत के स्तर पर कारोबारी कूटनीति की दुर्भाग्यपूर्ण नाकामी है।

अमेरिका ने तरजीह की सामान्य प्रणाली कार्यक्रम के तहत कुछ भारतीय निर्यातकों को मिलने वाले विशेषाधिकार खत्म कर दिए हैं। इस कार्यक्रम के तहत निर्यातकों को अमेरिकी बाजार में बिना शुल्क के अपना माल बेचने की मंजूरी मिलती है। भारत ई-कॉमर्स और आईटी सहित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के परिचालन को नियंत्रित कर खुद को अमेरिका के निशाने पर ला रहा है। हाल में विकासशील देेशों के वाणिज्य मंत्रियों की नई दिल्ली में बैठक हुई। उनमें से बहुत कम ने डब्ल्यूटीओ के उस बहुपक्षीय खाके पर चर्चा को रोकने की भारत की चाहत का समर्थन किया, जो अंतरराष्ट्रीय ई-कॉमर्स को विनियमित करेगा। भारत एक बार फिर अलग-थलग पड़ गया।

भारत का यह रुख इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़कर बहुत कुछ हासिल करना है। वैश्विक आपूर्ति शृंखला के लिए खुलकर ही निर्यात में सुधार और उससे निरंतर एवं अच्छे वेतन वाले रोजगार अवसरों की उम्मीद की जा सकती है। चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध को अलग रूप में देखने की जरूरत नहीं है। यह उस अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एक नया और पारदर्शी ढांचा तैयार करने की कोशिश का हिस्सा है, जो चीन की अर्थव्यवस्था में छिपी सब्सिडी पर रोक लगाता है। चीनी अर्थव्यवस्था ने वैश्विक कारोबारी प्रणाली को तोड़ा-मरोड़ा है। यह भारत के लिए भी चिंता की बात है और उसे नई कारोबारी इमारत को आकार देने में मदद लेनी चाहिए, बजाय उससे निकलने के। भारत को वैश्विक मूल्य शृंखला का हिस्सा बनना चाहिए और खुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोडऩा चाहिए। भारत के निर्यात को पहले ही तगड़ा झटका लग चुका है, जो पिछले पांच वर्षों से सपाट है। बांग्लादेेश और वियतनाम जैसे अन्य निर्यातक देशों ने वैश्विक व्यापार में बढ़ोतरी से पैदा हुए अवसर लपक लिए हैं। सरकार के बहुत से कदमों से सवाल पैदा होते हैं कि क्या भारत अब भी बाजार अनुकूल सुधारों पर आगे बढ़ रहा है या वह बीते वर्षों के नाकाम आयात विकल्प मॉडल पर लौटने को तरजीह दे रहा है। अगर नई सरकार और वाणिज्य मंत्री ने खुद को खुलेपन के लिए नहीं ढाला तो भारत फिर मौका चूक जाएगा।


Date:16-06-19

बिश्केक के संकेत

शंघाईसहयोग संगठन ने आतंक विरोधी तंत्र स्थापित किया है। यह तंत्र ठोस सक्रिय भूमिका निभाए इस पर मोदी ने जोर दिया। यह भारत के हित में होगा कि वह पाकिस्तान की नकेल कसने में रूस और चीन का उपयोग करे

डॉ. दिलीप चौबे

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दूसरा कार्यकाल विदेश नीति के मोर्चे पर बहुत सक्रियता के साथ शुरू हुआ। बहुराष्ट्रीय मंच पर मोदी की पहली भागीदारी किर्गिजस्तान के बिश्केक की शिखर वार्ता में हुई। वहां उन्हें रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से द्विपक्षीय वार्ता करने का अवसर मिला। इन दोनों नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान ही संकेत दे दिया था कि वे प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की वापसी चाहते हैं।

बिश्केक में इन नेताओं के साथ मोदी की मुलाकात संक्षिप्त रही लेकिन इससे आगामी दिनों में होने वाली द्विपक्षीय शिखर वार्ता के लिए पृष्ठभूमि अवश्य तैयार हुई। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में मोदी को दो परस्पर विरोधी परिस्थितियों का सामना करने की चुनौती थी। एक तो चीन और रूस के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय सहयोग के इस मंच पर अपनी स्वैच्छिक भागीदारी सिद्ध करनी थी, तो दूसरी ओर यह भी दिखाना था कि भारत किसी भी अमेरिका विरोधी लॉबी का हिस्सा नहीं है। मोदी ने राजनय के इस कूट-कौशल का अच्छी तरह निर्वाह किया।

भारत के सामने इसके अतिरिक्त एक और विरोधाभास था कि उसे आतंकवाद के मसले पर एससीओ के मंच का इस्तेमाल ऐसे देश के विरुद्ध करना था जो स्वयं इस संगठन का सदस्य है। जैसी कि अपेक्षा थी, उसी के अनुरूप मोदी ने पुलवामा और श्रीलंका की आतंकी घटनाओं को दृढ़ता के साथ रखा। हो सकता है कि चीन को यह बात पसंद नहीं आई हो कि भारत ने इस मंच का इस्तेमाल पाकिस्तान पर आक्षेप लगाने के लिए किया लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। वास्तव में जिनपिंग और मोदी, दोनों अमेरिका-चीन व्यापार के प्रभाव में हैं। बावजूद इसके दोनों सीमा संबंधी द्विपक्षीय विवादों को सुलझाने पर सहमत हो गए।

एससीओ की बैठक में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी भाग लिया। बालाकोट में एयरस्ट्राइक के बाद दिखाई दे रहा था कि मोदी इमरान के साथबातचीत नहीं करेंगे। ऐसा ही हुआ। मोदी ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। बिश्केक जाने के लिए भी उन्होंने पाकिस्तान के वायु क्षेत्रका उपयोग नहीं किया। हालांकि इस कदम से उनके विशेष विमान को लंबा चक्कर काट कर दो-तीन घंटे अधिक समय लेकर गंतव्य तक पहुंचना पड़ा। पुलवामा और बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संपर्क के लिए बहुत कम गुंजाइश रह गई थी। एससीओ ही ऐसा संगठन है, जिसमें दोनों देशों के नेता बड़ी मेज पर साथ बैठ सकते हैं। संगठन के मुख्य कर्ताधर्ता रूस और चीन दोनों देशों के बीच संवाद की जमीन तैयार कर सकते हैं। एससीओ में द्विपक्षीय मामले नहीं उठाए जाते लेकिन मोदी ने अच्छे से आतंकवाद के बारे में भारत की चिंता को उजागर किया।

शिखर बैठक के बाद जारी बिश्केक घोषणा पत्र में आतंकवाद और उसे समर्थन देने वाले देशों के खिलाफ जिस कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है, उस पर भारत का असर स्पष्ट नजर आता है। वास्तव में जेहादी आतंकवाद और उसकी कट्टरवादी विचारधारा से रूस, चीन और एशिया के अन्य देशों को भी उतना ही खतरा है, जितना भारत को। यही कारण है कि एससीओ ने आतंकवाद विरोधी तंत्र (रैट्स) स्थापित किया है। यह तंत्र ठोस सक्रिय भूमिका निभाए इस पर मोदी ने जोर दिया। यह भारत के हित में होगा कि वह पाकिस्तान की नकेल कसने में रूस और चीन का उपयोग करे। भारत एससीओ के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है। ऐसा करने पर वह सहयोग का एक स्थायी सुरक्षात्मक ढांचा विकसित कर सकता है। भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी से आतंकवादी विरोधी क्षेत्रीय ढांचा और मजबूत हो सकता है।

प्रधानमंत्री मोदी का इस महीने के अंत में विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के संगठन जी-20 की बैठक में भाग लेने का इरादा है। जापान के ओसाका में यह बैठक अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के साये में होने जा रही है। व्यापार युद्ध अब अमेरिका और भारत को भी गिरफ्त में ले रहा है। अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर रियायत खत्म किए जाने के बाद अब भारत की ओर से जवाबी कार्रवाई की गई है। अमेरिका के ट्रंप प्रशासन की संरक्षणवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ भारत और चीन एक साझा प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।