16-01-2023 (Important News Clippings)

Afeias
16 Jan 2023
A+ A-

To Download Click Here.


Date:16-01-23

जवाबदेही का तंत्र विकसित करे न्यायपालिका

हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )

भारतीय राजव्यवस्था में शक्ति के मुख्य स्रोत जन-गण-मन हैं। संविधान की उद्देशिका में इन्हें ‘हम भारत के लोग’ कहा गया है। संविधान सभा में पारित संकल्प के अनुसार प्रभुत्व संपन्न भारत की सभी शक्तियां और प्राधिकार, उसके संघटक भाग और शासन के सभी अंग ‘लोक’ से उत्पन्न हैं। संविधान निर्माताओं ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को शक्ति संपन्न बनाकर उनके उत्तरदायित्व निर्धारित किए हैं। सबकी मर्यादा हैं। अमेरिका में न्यायपालिका को सर्वोच्च बताया जाता है। ब्रिटेन में संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धांत है। भारत में संविधान की सर्वोच्चता बताई जाती है। संविधान राजधर्म है। धर्म की शक्ति पालनकर्ता में निहित होती है। यहां जनहित और जनइच्छा की सर्वोच्चता है। विधायिका द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी कानून को न्यायालय द्वारा निरस्त करने से दो स्तंभों में टकराव बढ़ा है। राजस्थान में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एनजेएसी को रद करने पर टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि वह केशवानंद भारती मामले में दिए गए फैसले से सहमत नहीं हैं। इस फैसले में कहा गया था कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन उसके मूल ढांचे में नहीं। धनखड़ ने कहा कि न्यायपालिका को संसद की संप्रुभता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

दरअसल, संविधान के मूल ढांचे पर बहस जारी है। संविधान सभा में मूल ढांचे पर कोई चर्चा नहीं हुई। एनजेएसी पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए थे। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे के आधार पर एनजेएसी को निरस्त कर दिया। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है। अनुच्छेद 368 में संशोधन शक्ति की सीमा नहीं है। इसी अनुच्छेद में निरसन शब्द आया है। डीडी बसु ने लिखा है, ‘अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन में संविधान के किसी भी उपबंध का निरसन सम्मिलित है। तथाकथित आधारिक और सारवान उपबंध भी उसमें आते हैं।’ संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं, किंतु न्यायालय द्वारा घोषित इन आधारिक लक्षणों का संशोधन नहीं किया जा सकता। यदि संविधान संशोधन संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन करता है तो न्यायालय उसे शक्तिवाह्यता आधार पर शून्य करार देने का पात्र होगा।

उच्चतम न्यायालय ने संविधान के आधारिक लक्षणों की सूची में संख्या निश्चित नहीं की। यानी यह सूची अभी अपूर्ण है। संप्रति संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन, न्यायिक पुनरावलोकन, परिसंघवाद, पंथनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता, संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, उच्चतम न्यायालय की शक्तियां, सामाजिक न्याय, मूल अधिकार और नीति-निदेशक तत्वों के मध्य संतुलन आदि 25 बिंदु आधारिक लक्षणों की सूची में हैं। न्यायपालिका संविधान के निर्वचन और क्रियान्वयन की अभिभावक है। वह न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से संविधान और विधि की व्याख्याता भी है। व्याख्याकार और निगरानीकर्ता के रूप में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन व्याख्याकार सर्वोच्च नहीं हो सकता। स्वतंत्र न्यायपालिका संवैधानिक सीमा के भीतर ही अपना काम करती है, लेकिन यह अवश्य स्मरण रहे कि स्वतंत्रता विधायी मूल्य है और स्वच्छंदता नकारात्मक।

संसद सवा अरब से अधिक लोगों की प्रतिनिधि संस्था है। यह विधि निर्मात्री है। इसके पास संविधान संशोधन के भी अधिकार हैं। संसद और विधानमंडल में बहुमत प्राप्त दल समूह कार्यपालिका बनाते हैं। कार्यपालिका और विधायिका के संबंध स्थायी हैं। कार्यपालिका अपने समूचे कामकाज के बारे में विधायिका के प्रति जवाबदेह है। कार्यपालिका की जवाबदेही भारतीय शासन व्यवस्था को प्रामाणिक बनाती है। विधायिका अपने कामकाज से जनता की सर्वोपरि इच्छा को व्यक्त करती है। कार्यपालिका अपने कामकाज के बारे में न्यायालयों के प्रति भी जवाबदेह है। जवाबदेही प्रत्येक संस्था के कामकाज की गुणवत्ता बढ़ाती है। न्यायपालिका के प्रति लोगों में श्रद्धा है, लेकिन उसकी जवाबदेही का कोई मंच नहीं है। न्यायपालिका को अपने भीतर से ही किसी जवाबदेह संस्था का विकास करना चाहिए। अधिकार प्राप्त व्यक्ति की जिम्मेदारी भी होती है। न्यायपालिका के फैसलों पर टिप्पणियां भी होती हैं। ऐसी टिप्पणी को लेकर न्यायालय की अवमानना की बातें भी चलती हैं। संविधान के आधारिक लक्षणों को लेकर भी टिप्पणियां हुई थीं। संविधान संशोधन और विधि निर्माण विधायिका के विषय हैं, तो न्यायालय के निर्णय विधि बनते हैं। इसलिए न्यायिक निर्णयों में अतिरिक्त सतर्कता की आवश्यकता होती है। यह न भूलें कि संविधान के आधारिक लक्षणों का उदय न्यायिक प्रक्रिया से हुआ है। विधायिका से नहीं।

संविधान जड़ नहीं हो सकता। संविधान निर्माताओं ने तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए संविधान बनाया था। समय और परिस्थिति के अनुसार सब कुछ बदलता है। संविधान में भी समयानुकूल परिवर्तन-संशोधन होते रहते हैं। अब तक उसमें सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू ने उचित ही कहा था कि ‘संविधान इतना कठोर नहीं होना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विकास और सामर्थ्य की बदलती हुई परिस्थितियों में अनुकूलित न किया जा सके।’ संविधान निर्माताओं ने परिसंघ प्रणाली को प्रभावित न करने वाले उपबंधों को संशोधित करने के लिए सरल उपबंध किया था। ऐसे उपबंध साधारण बहुमत से पारित होते हैं। संशोधन के लिए सरल तरीका अपनाने का राजनीतिक महत्व था। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा में संशोधन के प्रस्ताव को प्रस्तुत करते हुए कहा था, ‘जो संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें बस दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा। यदि वह संसद में दो-तिहाई बहुमत भी नहीं पा सकते तो यह समझा जाना चाहिए कि संविधान के प्रति असंतोष में जनता उनके साथ नहीं है।’ स्पष्ट है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के लिए कुछ मर्यादाएं अधिरोपित की हैं। वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए तीनों के मध्य आवश्यक प्रीतिपूर्ण मर्यादा की आवश्यकता है।


Date:16-01-23

पर्यावरण बनाम विकास

विनीत नारायण

उत्तराखंड में भगवान श्रीबद्रीविशाल के शरदकालीन पूजा स्थल और आदि शंकराचार्य की तपस्थली ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) नगर में विगत महीने से जो बड़ी लंबी-लंबी दरारें आ गई, वे निरंतर गहरी व लंबी होती जा रही हैं। वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और धार्मिंक लोगों के अनुसार, बेतरतीब ढंग से हुए ‘विकास’ और हर वर्ष बढ़ते पर्यटकों के सैलाब को इसका कारण माना जा सकता है।

जोशीमठ नगर बद्रीनाथ धाम से 45 किमी. पहले ही अलकनंदा नदी के किनारे वाले ऊंचे तेज ढलान वाले पहाड़ पर स्थित है। यहां पर फौजी छावनी और नागरिक मिलाकर 50,000 के लगभग निवासी रहते हैं। साल के छह महीने की गर्मिंयों के दौरान यह संख्या पर्यटकों के कारण दुगुनी हो जाती है। बद्रीनाथ धाम में दशर्नार्थी तो आते ही हैं, साथ ही विश्व प्रसिद्ध औली जाने वाले पर्यटक भी आते हैं। औली बद्रीनाथ से करीब 50 किमी. दूर है। जोशीमठ से 4 किमी. पैदल चढ़ कर औली पहुंचा जा सकता है। इसलिए औली जाने वाले ज्यादातर पर्यटक भी रात्रि विश्राम जोशीमठ में ही करते हैं। यहां से बद्रीनाथ धाम जाने के लिए 12 किमी. नीचे की ओर विष्णुगंगा और अलकनंदा के मिलन विष्णु प्रयाग तक उतरना पड़ता है, जहां विष्णु प्रयाग जलविद्युत परियोजना (जेपी ग्रुप) का निर्माण कार्य चल रहा है। यहां बिजली बनाने के लिए बड़ी-बड़ी सुरंग कई वर्षो से बनाई जा रही हैं, जिनमें से अधिकांश बन चुकी हैं। जोशीमठ के नीचे दरकने और दरारें आने की मुख्य वजह ये सुरंगें बताई जा रही हैं क्योंकि बारूद से विस्फोट करके ही इन्हें बनाया जाता है। इस कारण पहाड़ में दरारें आना स्वभाविक है।

यह कार्य चार दशकों से पूरे हिमालय विशेषकर गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में हो रहा है। बिजली बनाने के लिए कई सौ परियोजनाएं यहां चल रही हैं। मैदानों को दी जाने वाली बिजली बनाने के लिए कई दशकों से यहां अंधाधुंध व बेतरतीब ढंग से हिमालय में सुरंगों, सड़कों और पुलों का निर्माण जारी है, जिससे यहां की वन संपदा आधी रह गई है। अयोध्या से जुड़े राम भक्त संदीप जी द्वारा साझी की गई जानकारी के अनुसार, उत्तराखंड स्थित बद्री, केदार, यमुनोत्री व गंगोत्री धामों के दशर्न करके इसी जन्म में मोक्ष पाने की सस्ती लालसा के पिपासुओं की भीड़ और नवधनाढ्यों की पहाड़ों में मौज मस्ती भी यहां प्राकृतिक संसाधनों पर भारी पड़ी है। इस कारण समूचा गढ़वाल हिमालय क्षेत्र तेजी से नष्ट हो रहा है जबकि यह देवात्मा हिमालय का सर्वाधिक पवित्र क्षेत्र माना जाता है। इसकी भौगोलिक स्थिति का स्कंध पुराण में भी विस्तृत वर्णन मिलता है।

यहां कदम-कदम, मोड़-मोड़ पर प्राचीन ऋषि मुनियों के आश्रम और पौराणिक देवस्थान स्थित हैं। इन्हीं पर्वतों से गंगा व यमुना जैसी असंख्य पवित्र नदियां निकली हैं। ऐसे परम पवित्र पावन रमणीक हरे-भरे प्रदेश का पर्यावरणविद् के सतत विरोध के बावजूद बिजली बनाने और पर्यटन के लिए वर्तमान बीजेपी सरकार सहित सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने खूब दोहन किया है। इस कारण केदारनाथ त्रासदी जैसी घटनाएं घटित हो चुकी हैं, और आगे और भी भयावह विनाश की खबरें आएंगी क्योंकि जब देवताओं की निवास स्थली देवभूमि हिमालय मी पर्यटन के नाम पर अंडा, मांस, मदिरा का व्यापक प्रयोग और न जाने कैसे-कैसे अपराध मनुष्य करेगा तो देवता तो रुष्ट होंगे ही। हर वर्ष गर्मिंयों में उत्तराखंड दशर्न और सैरसपाटे के लिए घुमक्कड़ों की भीड़ इस कदर होती है कि पहाड़ों में गाड़ियों का कई किमी. तक लंबा जाम लग जाता है। पर्यटकों के कारण यहां का पारिस्थितिकी तंत्र चरमरा जाता है। हर शहर और गांव में बढ़ती भीड़ के लिए होटल और गेस्ट हाउसों की बाढ़ आई हुई है। प्रश्न है कि मैदानों की बिजली की मांग तो निरंतर बढ़ती जाएगी तो इसका खमियाजा पहाड़ क्यों भरे? सरकारों को अन्य विकल्प तलाशने होंगे। क्यों न यहां भी बढ़ती भीड़ के लिए कश्मीर घाटी के पवित्र अमरनाथ धाम के दशर्न की ही तरह दशर्नार्थियों को सीमित मात्रा में परमिट देने का सिस्टम विकसित किया जाए?

इस विषय में सबसे खास बात है कि सरकार समूचे हिमालय क्षेत्र के लिए खास दीर्घकालीन योजना बनाई जाए जिसमें देश के जाने-माने पर्यावरणविद्, इंजीनियरों और वैज्ञानिकों के अनुभवों और सलाहों को खास तवज्जो दी जाए। तभी हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र संभलेगा वरना तो केदारनाथ त्रासदी और अभी हाल की जोशीमठ जैसी घटनाएं निरंतर और विकराल रूप में आएंगी ही आएंगी। दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एमिरेट्स साइंटिस्ट प्रो. धीरज मोहन बैनर्जी के अनुसार, ‘कई साल पहले भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने एक जांच की थी। वह रिपोर्ट भी बोलती है कि यह क्षेत्र कितना अस्थिर है। भले ही सरकार ने वैज्ञानिकों या शिक्षाविद् को गंभीरता से नहीं लिया, कम से कम उसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर तो ध्यान देना ही चाहिए था। इस क्षेत्र में बेतरतीब ‘विकास’ के नाम पर हो रहे सभी निर्माण कार्यों पर रोक लगनी चाहिए।’

चिंता की बात यह है कि सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की वो कभी पर्यावरणवादियों की सलाह को महत्त्व नहीं देती। पर्यावरण के नाम पर मंत्रालय, एनजीटी और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन सब कागजी खानापूरी करने के लिए हैं। कॉरपोरेट घरानों के प्रभाव में और उनकी हवस को पूरा करने के लिए सारे नियम और कानून ताक पर रख दिए जाते हैं। पहाड़ हों, जंगल हों, नदी हों या समुद्र का तटीय प्रदेश, हर ओर विनाश का यह तांडव जारी है। नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा शुरू किया गया उत्तराखंड के चार धाम को जोड़ने वाली सड़कों का प्रस्तावित चौड़ीकरण भविष्य में इससे भी भयंकर त्रासदी लाएगा। पर क्या कोई सुनेगा? देवताओं के कोप से बचाने वाले खुद देवता ही हैं। वो हमारी साधना से खुश होकर हमें बहुत कुछ देते भी हैं, और कुपित होकर बहुत कुछ ले भी लेते हैं। संदीप जी जैसे भक्तों, प्रोफेसर बनर्जी जैसे वैज्ञानिकों, भौगोलिक विशेषज्ञों और सारे जोशीमठवासियों की पीड़ा हम सबकी पीड़ा है। इसलिए ऐसे संकट में सभी को एकजुट हो कर समस्या का हल निकालना चाहिए।


Date:16-01-23

घरेलू बचत बढ़ना जरूरी

डॉ. जयंतीलाल भंडारी

इस समय देश में घरेलू वित्तीय बचत बढ़ाने की जरूरत अनुभव की जा रही है। एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2023 की शुरुआत में दिखाई दे रहा है कि महंगाई और खर्च बढ़ने से भारतीय परिवारों की वित्तीय बचत घटकर करीब 30 साल के निचले स्तर पर आ गई है। वित्त वर्ष 2022-23 की पहली छमाही में घरेलू वित्तीय बचत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4 प्रतिशत के बराबर दर्ज की गई है। वित्त वर्ष 2021-22 में 7.3 प्रतिशत के स्तर पर थी जबकि वर्ष 2020-21 में 12 प्रतिशत की ऊंचाई पर। धनराशि के आंकड़ों के मद्देनजर अप्रैल-सितम्बर, 2022 में घरेलू वित्तीय बचत 5.2 लाख करोड़ रुपये रह गई जो एक वर्ष पहले की समान छमाही में 17.2 लाख करोड़ थी।

ऐसे में आगामी तिमाहियों में बचत में तेजी नहीं आती है, तो अर्थव्यवस्था में खपत और निवेश, दोनों प्रभावित होते दिखेंगे। अतएव घरेलू वित्तीय बचत को बढ़ाने के लिए छोटी बचत योजनाओं को ब्याज दर के मद्देनजर आकषर्क बनाया जाना जरूरी है। यद्यपि सरकार ने जनवरी से मार्च, 2023 तिमाही के लिए राष्ट्रीय बचत प्रमाणपत्र (एनएससी), डाकघर सावधि जमा, वरिष्ठ नागरिक बचत योजना सहित छोटी जमा राशि पर ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, किंतु महंगाई और जीवन निर्वहन के बढ़ते खचरे के मद्देनजर छोटी बचत योजनाओं और अधिक आकषर्क बनाना जरूरी है। गौरतलब है कि जनवरी, 2023 से एनएससी पर 7 फीसदी की ब्याज दर मिलेगी। वर्तमान में यह 6.8 फीसदी है। वरिष्ठ नागरिक बचत योजना वर्तमान में 7.6 फीसदी के मुकाबले अब 8 फीसदी ब्याज देगी। 1 से 5 साल की अवधि की डाकघर सावधि जमा योजनाओं पर ब्याज दरों में 1.1 फीसदी तक की वृद्धि होगी। मासिक आय योजना में भी 6.7 फीसदी से बढ़कर 7.1 फीसदी ब्याज मिलेगा। ज्ञातव्य है कि इससे पहले 9 सितम्बर को सरकार ने अक्टूबर से दिसम्बर, 2022 की तीसरी तिमाही में किसान विकास पत्र के ब्याज दर को 6.9 फीसदी से बढ़ाकर 7 फीसदी किया था।

उल्लेखनीय है कि कोविड-19 की आर्थिक चुनौतियों से लेकर महंगाई की चुनौतियों के बीच देश में आम आदमी के सामने बड़ी चिंता छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दर कम रहना थी। रूस-यूक्रेन युद्ध जारी रहने, वैश्विक खाद्यान्न उत्पादन में कमी, अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा 2023 में मौद्रिक नीति को सख्त बनाए जाने से डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत घटने की चिंता तथा चीन सहित कई देशों में कोहराम मचा रहे कोरोना वायरस के नये वेरिएंट की वजह से 2023 में महंगाई बढ़ने की आशंका के बीच इस वर्ष की शुरुआत में छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दर में वृद्धि छोटे निवेशकों के लिए राहतकारी है। स्पष्ट है कि अभी वैश्विक चुनौतियों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था गतिशील है, और कारोबार से कर्ज की मांग तेजी से बढ़ रही है और बैंकों में कर्ज के मुकाबले जमा की रफ्तार धीमी है। रिजर्व बैंक के हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि बैंकों की ऋण वृद्धि दर जमा वृद्धि दर की तुलना में डेढ़ गुना से भी अधिक है। ऐसे में तमाम बैंकों में बढ़ते ऋणों की जरूरत के मद्देनजर जमा धन राशि बढ़ाने के लिए सावधि जमा पर ब्याज दरों में वृद्धि की होड़ लग गई है। वस्तुत: देश में बचत की प्रवृत्ति के लाभ आमजन के साथ ही समाज व अर्थव्यवस्था के लिए भी हैं। बचत की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि हमारे यहां विकसित देशों की तरह सामाजिक सुरक्षा का उपयुक्त ताना-बाना नहीं है। यद्यपि छोटी बचत योजनाओं में ब्याज दर की कमाई का आकषर्ण घटने से 2012-13 के बाद सकल घरेलू बचत दर (ग्रास डोमेस्टिक सेविंग रेट) घटती गई है। लेकिन अभी भी छोटी बचत योजनाएं अपनी विशेषताओं के कारण आमजन के विश्वास और निवेश का माध्यम बनी हुई हैं।

गौरतलब है कि 2008 की वैश्विक मंदी का भारत पर कम असर होने का एक कारण भारतीयों की संतोषप्रद घरेलू बचत की स्थिति को भी माना गया था। कोविड-19 से जंग में भारतीयों की घरेलू बचत विसनीय हथियार के रूप में दिखी। नेशनल सेविंग्स इंस्टीट्यूट (एनएसआई) द्वारा भारत में निवेश की प्रवृत्ति से संबंधित रिपोर्ट में कहा गया है कि लोगों के लिए छोटी बचत योजनाएं लाभप्रद हैं। उम्मीद करें कि घरेलू वित्तीय बचत बढ़ाने की जरूरत के मद्देनजर वित्त मंत्रालय द्वारा तत्परतापूर्वक छोटी बचत की ब्याज दरों में बदलाव के लिए एक और उपयुक्त समीक्षा करके इस बार ब्याज दर बढ़ने से वंचित रहे पीपीएफ और सुकन्या समृद्धि योजना की ब्याज दरों में उपयुक्त वृद्धि की जाएगी। करीब पांच करोड़ कर्मचारियों से संबंधित ईपीएफ पर वर्तमान में दी जा रही और चार दशक की सबसे कम 8.1 फीसदी ब्याज दर में भी वृद्धि की जाएगी। इससे महंगाई की निराशाओं एवं मुश्किलों के बीच छोटी बचत करने वाले करोड़ों लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट बढ़ते हुए दिखाई दे सकेगी। बचत की प्रवृत्ति बढ़ने से छोटी बचत योजनाओं के बढ़े हुए कोष से अर्थव्यवस्था के लिए निवेश भी बढ़ाया जा सकेगा।


Date:16-01-23

कृत्रिम बुद्धि से जुड़े असली सवाल

हरजिंदर, ( वरिष्ठ पत्रकार )

बात आठ साल पुरानी है। 2015 के जनवरी महीने में दुनिया की एक दर्जन से ज्यादा बड़ी हस्तियों- वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, दार्शनिकों और प्रोफेसरों ने मिलकर एक खुला खत जारी किया। इसमें कहा गया था कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), यानी कृत्रिम बुद्धिमता जिस तरह से विकसित हो रही है, वह दुनिया के लिए ही नहीं, मानवता के लिए भी खतरा साबित हो सकती है। उन्होंने इस पर रोक लगाने की मांग की। इस पत्र पर दस्तखत करने वालों में स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक और एलन मस्क जैसे उद्योगपति भी शामिल थे। मगर अभी वह साल पूरा भी नहीं बीता था कि एलन मस्क ने पाला बदला और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को विकसित करने के लिए सैन फ्रांसिस्को में बनी एक कंपनी ओपेनएआई के संस्थापक और प्रमुख निवेशक बन गए। यह बात अलग है कि तीन साल के भीतर ही उन्होंने इस कंपनी के निदेशक पद से कुछ मतभेदों के चलते इस्तीफा दे दिया।

अब इसी ओपेनएआई कंपनी ने चैटजीपीटी नाम की व्यवस्था विकसित की है, जिसे लेकर वे तमाम सवाल फिर सामने आ गए हैं, जो आठ साल पहले उस खुले खत में उठाए गए थे। चैटजीपीटी ऐसा बहुत कुछ कर सकता है, जिसे पहले इंसान ही कर सकते थे। वह इंसान की तरह सोचता है, उसी की भाषा में बोलता है, सवालों के जवाब भी उसी की तरह देता है और समस्याओं के समाधान भी वैसे ही बताता है।

कृत्रिम बुद्धिमता की नैतिकता को लेकर बहुत सारे सवाल शुरू से ही उठाए जाते रहे हैं, वे सारे सवाल तो अपनी जगह हैं ही। इस बीच एक नई चिंता भी उठ खड़ी हुई है, वह है इसकी वजह से पैदा होने वाली बेरोजगारी का सवाल। डर है कि चैटजीपीटी जैसी व्यवस्थाएं अगर और विकसित हुईं, तो पढ़े-लिखे लोगों के वैसे रोजगार कम हो जाएंगे, जिन्हें ‘ह्वाइट कॉलर जॉब’ कहा जाता है। हालांकि, यह कहा जा रहा है कि इससे कई तरह के रोजगार भले ही कम होंगे, लेकिन रोजगार के कई नए अवसर भी पैदा होंगे। ठीक वैसे ही जैसे एक दौर में कंप्यूटर ने किया था। बहुत से लोग जब मान बैठे थे कि इससे रोजगार के अवसर कम होंगे, तो ऐसे अवसर दरअसल बढ़ गए, क्योंकि कंप्यूटर ने उत्पादकता को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को एक विस्तार दे दिया था। तर्क है कि यही काम कृत्रिम बुद्धिमता भी कर सकती है।

मगर कोविड महामारी के बाद की दुनिया में इस तरह के तर्क लोगों को बहुत आश्वस्त नहीं कर पा रहे। खासकर तब, जब महामारी के दौरान बेरोजगार हुए लोगों की एक बहुत बड़ी फौज आज भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भटक रही है। और, एक बार फिर एआई पर रोक लगाने की मांग उठने लगी है। क्या सचमुच इस पर रोक लग सकती है?

एआई से बहुत पहले जेनेटिक इंजीनियरिंग के मानव पर प्रयोग के खिलाफ बहुत कुछ कहा, सुना और लिखा गया था। वैज्ञानिकों में इसे लेकर एक आम सहमति भी बनती दिखाई दी थी। फिर भी इसे रोका नहीं जा सका। विज्ञान और तकनीक की छोटी-बड़ी लहरों को इस तरह रोकना संभव भी नहीं होता। सभी को लगता है कि अगर उसने तकनीक विकसित नहीं की, तो कोई दूसरा इसका फायदा उठा लेगा। नतीजा यह होता है कि सभी उसे विकसित करने में जुट जाते हैं। एलन मस्क जैसे वे लोग भी, जो शुरू में उसके विरोधी होते हैं। वैसे भी ज्ञान किसी भी तरह का हो, उसके विकास को रोकना खतरनाक भी हो सकता है और प्रतिगामी भी।

समस्या वैसे पूरी तरह से विज्ञान और तकनीक की है भी नहीं। समस्या उस सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की है, जो हमने बना ली है। लंबे दौर तक दुनिया को आश्वासन देने वाला एक आर्थिक सिद्धांत था, जिसे ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ कहा जाता था। यह सिद्धांत कहता था कि जब विकास तेजी से होगा, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढे़गा, तो उसके फायदे छन-छनकर नीचे सभी लोगों तक पहुंचेंगे ही। सूरज जब बीच आसमान पर चमकेगा, तब उसकी रोशनी हर कोने तक पहुंच जाएगी। मगर पिछली एक सदी के अनुभव ने यह बता दिया है कि दुनिया के बहुत से अंधेरे कोने अभी तक रोशनी की बाट जोह रहे हैं; जबकि इस बीच तरक्की भी खूब हुई है और जीडीपी में वृद्धि भी काफी तेजी से हुई है।

इसे हम अपने देश में ज्यादा अच्छी तरह से देख सकते हैं। उदारीकरण के बाद से अब तक हमने विकास का एक लंबा दौर देख लिया है। इस विकास के लिए एक और शब्दावली का प्रयोग किया जाता है- जॉबलेस ग्रोथ, यानी विकास का ऐसा दौर, जिसमें जीडीपी के आंकड़े तो बहुत तेजी से बुलंद हुए, लेकिन उस अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं बढ़े।

सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। तकनीक के कारण बढ़ी उत्पादकता और विकास दर से आई समृद्धि चंद लोगों के हाथ ही सिमटी रही है। समृद्धि का यह हिमपात सिर्फ ऊंची चोटियों तक सीमित रहा, नीचे तलहटी तक इसकी सर्द सिहरन और कंपकंपी ही पहुंची। धन का यह केंद्रीकरण उस दौर में कुछ ज्यादा ही बढ़ा है, जिसे हम साइबर युग कहते हैं। इस दौर में गरीबी भले ही कई जगहों पर घटी हो, लेकिन विषमता बढ़ी है।

यही कारण है कि एआई की पदचाप बहुत से लोगों में खौफ पैदा करती है। लोग ऐसे दौर की कल्पना करते हैं, जब ज्यादातर जगहों पर सिर्फ मशीनें काम करेंगी और ज्यादातर लोग सिर्फ बेरोजगार होंगे। बेशक, यह सिर्फ एक खौफनाक यूटोपिया है और शायद ऐसा होगा भी नहीं, लेकिन हमारे पास जो वर्तमान है, और जो भविष्य दिख रहा है, उसमें इसके विरुद्ध खड़ा कोई ठोस आश्वासन भी तो नहीं है। यह आशंका तब और डराती है, जब कुछ अर्थशास्त्री ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ की बात करते हैं। इसका अर्थ यह है कि अगर हालात बिगड़ते हैं, तो सभी लोगों को सरकार की तरफ से एक निश्चित रकम या आमदनी दी जा सकती है, ताकि उनका गुजारा चल जाए। क्या अंतिम आदमी तक खुशहाली पहुंचाने के सपने से अब अर्थशास्त्र ने भी नमस्कार कर लिया है? विषमता दूर करने और अंतिम आदमी तक खुशहाली पहुंचाने के नए रोडमैप की जितनी जरूरत हमें आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्या इसकी तलाश का काम भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हवाले ही करना पड़ेगा?


Date:16-01-23

हमें मार्ग दिखाती गीता

स्वामी अवधेशानंद गिरि

मनुष्य के विषय में बहुत से महत्वपूर्ण तथ्य समझने योग्य हैं, लेकिन मनुष्य सोया हुआ है। सारे धर्मग्रंथ और सारी आध्यात्मिक साधनाएं मनुष्य को जगाने के लिए ही हैं। यह जीवन तो एक कर्मभूमि है और उसका उचित-अनुचित फल हमें भोगना ही पड़ता है। इसलिए अपने जीवन को जितना सहज बनाकर प्रभु को अर्पण करेंगे, उतनी ही शांति मिलेगी। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है- अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। प्रभु श्रीराम अति सहज हैं। उन्हें छल नहीं, निर्मल मन भाता है।

इसी तरह, गीता हमें अवसाद से आह्लाद का मार्ग बताती है। जीवन में जो कुछ चल रहा है, उसे यह देखने का सामर्थ्य प्रदान करती है। इस धर्मग्रंथ में तो इतनी शक्ति है कि इसका एक ही श्लोक अगर छह माह तक लगातार पढ़ा जाए, तो सारी अज्ञानता समाप्त हो जाए। इसके मूल रहस्य को समझने की आवश्यकता है। गीता मानव-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है; हमें तनावों से मुक्त करती है और जीवन में प्रबंधन सिखाती है। इसीलिए हम भारतवासियों के लिए यह एक प्रकार से प्राण-वायु तो है ही, समस्त विश्व के लोगों का जीवन-मार्ग प्रशस्त करती है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के समस्त प्राणियों के लिए इसमें उपदेश दिए हैं।

सही मायने में गीता ईश्वर की वाणीमय मूर्ति है। इसका अध्ययन हमें संवारता है। यह धर्मग्रंथ मनुष्य को हमेशा ही सत्य का मार्ग चुनने की सलाह देता है। श्रीमद्भगवद् गीता में केवल उपदेश नहीं हैं, वरन इसका हरेक श्लोक मनुष्य को सही फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह जीवन के सकल भ्रम, भय, अज्ञान व अल्पता का भंजन और अंत:करण की समस्याओं के चिरस्थायी समाधान में समर्थ है।

विडंबना यह है कि लोग इसका सिर्फ वाचन करते हैं, जबकि इसे अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है। जितनी इसकी गहराई में उतरोगे, उतनी ही शांति की अनुभूति होगी और जब मनुष्य शांत होगा, तो प्रकृति का सौंदर्य बढ़ेगा। हरेक जीव आनंदमय होगा। युद्धभूमि में अवतरित गीता हमें अपने अंदर युद्ध करना सिखाती है। हमारे अंदर दो तरह की प्रवृत्तियां पुरातन हैं। एक, दैवी प्रवृत्तियां, जो सद्गुणों से प्रेरित हैं और दूसरी है, आसुरी प्रवृत्तियां, जो दुर्गुणों से प्रेरित हैं। हमें गीता का सहारा लेकर सद्गुणों को अपने हृदय में बढ़ाकर दैवीय प्रवृत्ति को सबल करना है और दुर्गुणों का त्यागकर आसुरी प्रवृत्तियों को दुर्बल करना है।

हमारे अंतर का युद्ध दैवीय प्रवृत्ति और आसुरी प्रवृत्ति के बीच का है। दैवीय प्रवृत्ति से आसुरी प्रवृत्ति को हराना है, क्योंकि दैवीय प्रवृत्ति हमें परम तत्व की तरफ ले जाती है, साथ ही मोक्ष भी दिलाती है।