14-06-2021 (Important News Clippings)
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Date:14-06-21
G7 Summit: Less Than Global Leadership
India must step up to the vaccination challenge
ET Editorials
The Carbis Bay communiqué of the G7, the seven richest countries led by the US, fails to show western leadership of the kind its leaders avow, on the world’s battle against Covid19. While pledging to beat the pandemic, the G7 have come up with an extra one billion vaccine doses, over and above the one billion already promised. India has the responsibility to ensure that the world’s poorest are not left behind.
The G7’s target of achieving global herd immunity by the end of 2022 is disappointing. It will mean that poor developing countries, particularly those with no access to vaccine manufacturing facilities, will have to wait longer, leading to the possible rise of new variants, even vaccine resistant ones. The world requires roughly between 12 to 14 billion doses to ensure that all eligible adults are vaccinated globally. Till date a little over 2.33 billion vaccine doses have been administered, of these less than 1% have been in the poor countries. While the UN secretary general came out in support of the India-South Africa TRIPS waiver proposal, the G7 remained divided. The leaders merely agreed to “engage constructively” at the WTO. The leaders of the richest and most advanced economies agreed to support manufacturing in low-income countries for equitable access to vaccines. This should be the opening that India seizes. Even as it pursues negotiations at the WTO, India should roll out a plan to share the technology and knowhow for its indigenously developed vaccines such as Covaxin. At home, the government has offered to share the technology with vaccine manufacturers with a Bio Safety Level 3-compliant lab. It must now take this offer to countries in Africa and Latin America. It must augment vaccine production at home as well, not just to meet domestic demand but to be able to provide vaccines, as grants and exports, to countries that require it.
Defeating Covid is critical to economic recovery as well. Vaccination and investment in healthcare offer the best possible way. The world will always be one wave away from a health disaster.
Date:14-06-21
Incentivise Nascent Renewable Tech
ET Editorials
The power ministry has put out a forward-looking discussion paper on renewable energy (RE) that seeks, rightly, to incentive newer RE technologies, and proposes a more stable and predictable policy regime for extant RE generators. The policy intention is, of course, to boost RE by tapping our large solar and wind potential to traverse to a low-emissions energy sector. The effort to channel resources to less mature RE technologies like pumped storage hydro is welcome.
The paper proposes rationalisation of the incentive structure for maturing RE technologies like solar photo-voltaic and wind power. Note that those who buy RE are issued Renewable Energy Certificates (RECs) to duly meet their Renewable Energy Obligations, and also avail concessions like waiver of transmission charges. But solar and wind power tariffs have fallen substantially, thanks to proactive policy to tap scale economies, and now are even lower than the variable charges for non-renewable thermal energy plants. And given the cost-competitiveness of extant RE plants, and greater capacity installed nationally, twin incentives like waiver of transmission charges and RECs seem unwarranted, the paper avers. Instead, the timelines for RECs are sought to be extended for 15 years for new RE projects, and up to 25 years for extant RE plants.
Further, a higher technology multiplier is to be applied for newer and relatively costly RE technologies such as off-shore wind plants, pumped storage hydro and hydrogen units. A technology policy for newer RE makes sense, although stormier seas sound caution on offshore wind. The energy sector is in a state of flux, and it is entirely possible that newer technologies are more efficient in moving to a low-emissions economy.
Date:14-06-21
जी-7 का स्वाभाविक साझीदार भारत
हर्ष वी पंत, ( लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )
साल भर पहले की बात है, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जी-7 समूह को पुराना पड़ चुका समूह करार देते हुए कहा था कि वह दुनिया के समकालीन ढांचे का उचित रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता। अमेरिका के साथ इसमें शामिल कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन जैसे सात देशों के इस समूह को लेकर नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का रवैया अपने पूर्ववर्ती से इतर नजर आया। बाइडन ने इसे अपनी कूटनीतिक पहुंच को बढ़ाने का मंच बनाया है। राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले बड़े विदेशी दौरे पर उन्होंने अपनी यही मंशा रेखांकित करने का प्रयास किया कि अमेरिका अपने मूल स्वरूप में लौट आया है और विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियों और भविष्य के लिहाज से महत्वपूर्ण मसलों से निपटने के मामले में दुनिया के लोकतांत्रिक देश एकजुट हैं। बाइडन के इस लंबे दौरे का पहला पड़ाव बना इंग्लैंड का कॉर्नवाल शहर, जहां ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के साथ उन्होंने द्विपक्षीय संबंधों की नई तान छेड़ी। ट्रंप काल की उथल पुथल और ब्रेक्जिट के बाद यह दोनों देशों के राष्ट्र प्रमुखों की पहली द्विपक्षीय बैठक रही। तथाकथित खास रिश्ते में नई जान फूंकने के लिए दोनों नेताओं ने अटलांटिक घोषणापत्र के नए प्रारूप पर हस्ताक्षर किए। इसके साथ ही वैश्विक चुनौतियों के समाधान और लोकतंत्र की रक्षा, सामूहिक सुरक्षा की महत्ता और एक उचित एवं सतत वैश्विक व्यापार तंत्र जैसे विभिन्न मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने का संकल्प लिया। इसके अलावा दोनों देशों के बीच तमाम उलझे हुए पेच सुलझाने पर भी बात हुई।
अपनी आठ दिन की लंबी यात्रा में बाइडन बहुत व्यस्त रहने वाले हैं। जी-7 शिखर सम्मेलन और ब्रिटिश महारानी की मेहमाननवाजी करने के अलावा बतौर राष्ट्रपति वह पहले नाटो सम्मेलन में शिरकत करेंगे, यूरोपीय संघ के अधिकारियों से मिलेंगे और आखिर में बुधवार को जिनेवा में उनकी मुलाकात रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से होगी। यह आखिर पड़ाव ही सबसे असहज होगा और दुनिया भर की निगाहें इस मुलाकात पर लगी होंगी। बहरहाल इस दौरे के केंद्र में रहे जी-7 की चर्चा करें तो ब्रिटेन की अध्यक्षता में वह कुछ मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित रहा। मसलन कोरोना वायरस से वैश्विक मुक्ति के साथ ही भविष्य की महामारियों के खिलाफ ढाल को मजबूत बनाना, मुक्त एवं उचित व्यापार को साधकर भविष्य की समृद्धि को प्रोत्साहन देना, जलवायु परिवर्तन से निपटना, पृथ्वी की जैवविविधता को संरक्षित करना और साझा मूल्यों एवं खुले समाज की पैरवी करने जैसे बिंदु मुख्य रूप से इसमें मुखर रहे। फिर भी कोविड-19 से राहत ही केंद्र में रही। यह बोरिस जॉनसन द्वारा महत्वाकांक्षी रूप से तैयार प्रारूप में भी झलका, जिसके अनुसार जी-7 वैश्विक महामारी को लेकर नई वैश्विक संधि की दिशा में पहल करेगा, ताकि दुनिया को ऐसी दुश्वारी फिर कभी न झेलनी पड़ी। ऐसी पहल को लेकर कुछ गंभीरता भी दिखती है। जैसे बाइडन प्रशासन सम्मेलन से पहले ही एलान कर चुका था कि अमेरिका दुनिया के 90 गरीब देशों को 50 करोड़ कोरोना रोधी टीकों की खेप उपलब्ध कराएगा।
कोविड ग्रस्त दुनिया को मदद की अमेरिकी पहल निश्चित ही स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन यह वैश्विक संकट जितना बड़ा है, उसे देखते हुए विश्व की अन्य शक्तियों को अगले वर्ष की शुरुआत तक 180 करोड़ टीके उपलब्ध कराने के लक्ष्य को हासिल करने में भी बड़ा योगदान देना होगा। जी-7 के मौजूदा ढांचे पर भी चर्चा आवश्यक है। यह दुनिया की सात बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल देशों का समूह है। लोकतंत्र, मानवाधिकार और सतत विकास जैसे साझा मूल्य उन्हेंं जोड़ने वाली कड़ी का काम करते हैं। चूंकि दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक तनाव बढ़ रहा है तो जी-7 के लक्ष्य भी पुनर्परिभाषित हो रहे हैं। इसी कड़ी में ब्रिटेन ने वैश्विक शासन संचालन को और प्रभावी ढंग से चलाने के लिए एकसमान सोच वाले विशेषकर लोकतांत्रिक देशों यथा ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, भारत और दक्षिण अफ्रीका को भी जी-7 सम्मेलन में अतिथि देश के रूप में आमंत्रित किया। दरअसल चीन की लगातार विकराल होती चुनौती का प्रभावी तोड़ निकालने के लिए विकसित औद्योगिक देशों को अपना दायरा विस्तृत करने की जरूरत महसूस हो रही है। ऐसी कवायद में भारत प्रमुख साझीदार के रूप में उभरा है। जी-7 ने चीन से मुकाबले के लिए एक व्यापक बुनियादी ढांचा परियोजना के एलान से स्पष्ट कर दिया कि वह ड्रैगन से निपटने को लेकर गंभीर है।
वर्ष 2014 के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने दूसरी बार जी-7 सम्मेलन को संबोधित किया। गत वर्ष डोनाल्ड ट्रंप ने भी मोदी को सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन वह अमेरिका में महामारी के कारण वहां नहीं जा सके थे। इस बार वह देश में महामारी से निपटने के प्रबंधन में जुटे हैं। इस कारण उन्होंने वर्चुअली ही भाग लिया और वन अर्थ, वन हेल्थ जैसा मंत्र दिया। पिछले कुछ समय से जी-7 के साथ बढ़ती भारत की सक्रियता ने पश्चिम के साथ पहले से ही बढ़ती उसकी सहभागिता को एक नया क्षितिज दिया है। भारत भी उन देशों के साथ रिश्तों की पींगें बढ़ा रहा है, जिनके बारे में उसे लगता है कि वे उसकी क्षमताओं में वृद्धि और वैश्विक गवर्नेंस में उसका लाभ उठाने के इच्छुक हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पश्चिम के साथ भारत की प्रगाढ़ता फिलहाल सबसे उच्च स्तर पर है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अब क्वाड जैसी चौकड़ी से लेकर पश्चिम के साथ मजबूत होते संबंध भारतीय विदेश नीति में अप्रत्याशित सक्रियता की बानगी हैं, जो भारत के उदय की प्रतीक है और यह घरेलू परिदृश्य से खासी उलट है, जहां अमूमन उसकी बदरंग तस्वीर पेश की जाती है। जहां भारत बड़े आत्मविश्वास के साथ दुनिया के साथ सक्रिय हो रहा है, वहीं विश्व भी उसी अनुपात में भारत के नजदीक आ रहा है। जी-7 में भारत की मौजूदगी, उसकी अंतर्निहित शक्ति के लिए किसी अनुपम उपहार से कम नहीं। भले ही भारत को अक्सर दस्तक देने वाली चुनौतियों से क्यों न जूझना पड़े, उसकी इस अंतर्निहित शक्ति को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।
Date:14-06-21
चिंता गरीबों की
संपादकीय
धरती पर सभी लोग स्वस्थ हों, इससे बड़ा इंसान का हासिल क्या हो सकता है! चाहे अमीर देश हों या गरीब देश, सब आज इसी चिंता में हैं कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर दुनिया को कैसे सुरक्षित बनाया जाए। समूह सात के शिखर सम्मेलन में भारत ने ‘वन अर्थ-वन हेल्थ’ का मंत्र दिया है। भले पूरे समूह ने नहीं, लेकिन जर्मनी की चासंलर एजेंला मर्केल ने इस नारे जोरदार समर्थन किया। वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कहा कि आज दुनिया की पहली जरूरत धरती के हर नागरिक के लिए एक जैसे स्वास्थ्य की है। और यह तभी संभव हो पाएगा जब हर जगह स्वास्थ्य सुविधाएं भी एक जैसी हों। लेकिन अभी देखें तो हालात एकदम उलट हैं। आधी से ज्यादा दुनिया गरीबी की मार झेल रही है। इससे तो कोई इंकार नहीं करेगा कि स्वास्थ्य, कुपोषण, भुखमरी जैसे संकट गरीबी की ही देन हैं और इसके लिए अमीर देशों की नीतियां ही काफी हद तक जिम्मेदार हैं। तब धरती पर हर नागरिक के स्वस्थ्य होने का सपना कैसे साकार हो, इस पर अब खुद को गरीबों का मसीहा कहने वाले देशों को सोचना पड़ेगा। गरीबी से छुटकारा पाए बिना तो ‘वन अर्थ-वन हेल्थ’ का नारा सपना बन कर रह जाएगा।
दुनिया महामारी के भयानक दौर से गुजर रही है। संकट अभी टला नहीं है। बस राहत की बात इतनी है कि विकसित देशों में टीकाकरण अभियान जोरों पर होने की वजह से संकट को साधने में मदद मिल गई है। लेकिन यह राहत चंद देशों में ही नजर आ रही है। गरीब और विकासशील देशों के हालात तो बता रहे हैं कि उन्हें अभी लंबा संघर्ष करना है। गरीब देशों में तो अभी जांच के भी इंतजाम नहीं हैं। जब भारत जैसा दुनिया का बड़ा टीका निर्माता खुद टीकों की भयानक कमी झेल रहा हो तो बाकी मुल्कों का क्या आलम होगा, इसका अनुमान सहज ही लग जाता है। ज्यादातर टीका निर्माता कंपनियां अमेरिका और यूरोप की हैं। इनके टीके महंगे भी हैं और पहले ये अपने देशों की जरूरत पूरी करने में लगे हैं। ऐसे में समूह सात के देशों ने गरीब देशों को एक अरब टीके दान देने का जो एलान किया है, उसे फिलहाल बड़ी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे यह भी झलकता है कि महामारी को लेकर विकसित देशों में किस कदर चिंता व्याप्त है। अमीर मुल्क अब इस हकीकत को समझ चुके हैं कि जब तक सभी देश महामारी से चंगुल से नहीं निकल जाते, तब तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला पाना आसान नहीं होगा। इसमें कोई शक नहीं कि इस चिंता में उनके अपने हित नीहित हैं।
समूह सात के देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी, जापान और कनाडा हैं। इन सभी ने कोरोना की भारी मार झेली है। इसलिए यह वक्त महामारी से सबक का भी है। जो देश टीका बनाने में अग्रणी हैं, उनकी प्राथमिकता यही होना चाहिए कि बाजार और मुनाफे से परे हट कर दुनिया के उस हर देश को टीका मुहैया कराएं जो इसकी पहुंच से बाहर है। अपनी बात करें तो हमने भले टीकों की कमी का संकट झेल लिया हो, लेकिन अमेरिका सहित कई देशों को टीकों का निर्यात किया। जबकि अमेरिका जैसे देश ने ही टीके बनाने के लिए भारत को कच्चा माल देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि पहले हम अपनी जरूरत पूरी करेंगे। अगर अमीर देश इस रवैए के साथ चलेंगे तो धरती पर सबके समान स्वास्थ्य का लक्ष्य शायद ही कभी हासिल हो पाएगा।
Date:14-06-21
वैश्विक एकजुटता जरूरी
संपादकीय
यह प्रसन्नता की बात है कि जी–7 समूह की शिखर वार्ता में जो घोषणापत्र स्वीकार किया गया है उसमें कोरोना महामारी जैसी स्वास्थ्य आपदा की भविष्य में पुनरावृत्ति नहीं होने देने की बात कही गई है। इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दिया गया वक्तव्य बहुत अर्थवान है। उन्होंने वीडि़यो कांफ्रेंसिंग के जरिये शिखर वार्ता को संबोधित करते हुए ‘एक पृथ्वी‚ एक स्वास्थ’ का मंत्र दिया। वास्तविकता भी है कि इस मंत्र के जरिये ही मौजूदा और भविष्य की स्वास्थ्य संबंधी आपदाओं की चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में भविष्य की महामारी की चुनौतियों को प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए वैश्विक एकजुटता और विभिन्न नेतृत्व के बीच तालमेल आवश्यक है। जाहिर है कि किसी भी वैश्विक महामारी का मुकाबला कोई एक देश अकेले नहीं कर सकता। ब्रिटेन के कॉर्नवॉल में चल रही शिखर वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था। इस समूह में दुनिया के सात ताकतवर देश अमेरिका‚ ब्रिटेन‚ फ्रांस‚ जर्मनी‚ इटली‚ कनाड़ा और जापान शामिल हैं। प्रधानमंत्री मोदी के कथन का समूह के कुछ शीर्ष नेताओं ने समर्थन भी किया‚ लेकिन सच तो यह है कि कोरोना महामारी को लेकर विकसित और अमीर देशों ने ही नहीं बल्कि विश्व संस्थाओं ने भी भारत सहित अन्य विकासशील देशों को बहुत निराश किया है। गौर करने वाली बात है कि भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन में कोरोना वैक्सीन को पेटेंट से छूट दिए जाने का प्रस्ताव पिछले वर्ष अक्टूबर में दिया था‚ लेकिन इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद भी यह प्रस्ताव लंबित है। इतना ही नहीं वैक्सीन के कच्चे माल की अनुपलब्धता या न मिलने के कारण भारत के सीरम इंस्टीटूट जैसी कंपनियां पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन का उत्पादन नहीं कर पाई । प्रधानमंत्री मोदी ने महामारी से लड़़ने के लिए विश्व संस्थाओं की कमजोरी और अक्षमता का कई बार उल्लेख किया है। महामारी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों में भारत शामिल है। भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत सीमित हैं। इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी ने समूह के नेताओं से ट्रिप्स के लिए ड़ब्ल्यूटीओ में भारत द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर समर्थन मांगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए पूरा विश्व एकजुट हो पाएगा।
Date:14-06-21
खरीदारी बढ़ेगी तो घटेगी महंगाई
आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
…बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई। सन1974 में आई सुपरहिट फिल्म रोटी कपड़ा और मकान का यह गाना आज के हाल पर एकदम फिट बैठता है। कोरोना की बीमारी और उससे उपजी बेरोजगारी की मार झेल रहे देश को अब महंगाई भी बुरी तरह सता रही है।
पेट्रोल और डीजल के चर्चे तो हुए भी, पेट्रोल का दाम शतक लगा भी चुका है। बंगाल चुनाव खत्म होने के बाद से बीते शनिवार तक इनके दाम 22 बार बढ़ चुके हैं। सोशल मीडिया पर एक नया मीम चल रहा है- पेट्रोल का नया भाव, 25 रुपये पाव! मजाक उड़ाने का अंदाज दिलचस्प हो सकता है, लेकिन पेट्रोल कोई पाव भर तो लेता नहीं है। पाव, यानी 250 ग्राम और उससे भी कम यानी, 100 या 50 ग्राम में जो तेल बिकता है, वह है खाने का तेल। मगर पेट्रोल-डीजल के चक्कर में उसके भाव पर खास बातचीत नहीं हो रही है, जबकि उसके भाव में भी कम आग नहीं लगी हुई है। पिछले कुछ महीनों में तो इन तेलों की महंगाई बहुत तेज हुई है। सरसों के तेल ने तो डबल सेंचुरी मार दी, लेकिन चर्चा वैसी ही हुई, जैसे सचिन, द्रविड़ और गांगुली के आगे मिताली राज की बल्लेबाजी की होती है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मूंगफली का तेल 20 फीसदी, सरसों का तेल 44 फीसदी से ज्यादा, वनस्पति करीब 45 फीसदी, सोया तेल करीब 53 फीसदी, सूरजमुखी का तेल 56 फीसदी और पाम ऑयल करीब 54.5 फीसदी महंगा हुआ। ये आंकड़े 28 मई, 2020 से 28 मई, 2021 के बीच का हाल बताते हैं।
मई में ही अप्रैल महीने के लिए थोक महंगाई का जो आंकड़ा आया, उसमें महंगाई बढ़ने की दर 11 साल की नई ऊंचाई पर दिख रही है। पिछले साल के मुकाबले 10.5 प्रतिशत ऊपर। जाहिर है, थोक भावों का असर कुछ ही समय में खुदरा बाजार में दिखता है, और वह दिख भी रहा है। किराने के सामान, यानी घर में रोजमर्रा इस्तेमाल की चीजें औसतन 40 फीसदी महंगी हो गई हैं, जबकि खाने के तेल 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ चुके हैं। और, अभी हालात यही बता रहे हैं कि इनके दाम बढ़ने का सिलसिला रुकने वाला नहीं है।
सिर्फ तेल नहीं, सभी कमॉडिटीज के दाम बढ़ रहे हैं। कमॉडिटी कारोबारी और सट्टेबाजों का कहना है कि इस वक्त तेजी का एक सुपर साइकिल, यानी महातेजी चल रही है। दुनिया भर में खाने-पीने की चीजों और बाकी इस्तेमाल की चीजें, जैसे धातुओं और कच्चे तेल के दाम भी लगातार बढ़ रहे हैं। इस तेजी की एक बड़ी वजह वही है, जो शेयर बाजार में तेजी की है। यानी, महामारी से निपटने के लिए सरकारी राहत पैकेजों की रकम बड़े पैमाने पर बाजार में आना। अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में कोरोना राहत के नाम पर नोट छाप-छापकर जनता को जो पैसा बांटा जा रहा है, वह घूम-फिरकर इक्विटी और कमॉडिटी बाजार में पहुंच रहा है।
इसके अलावा, अमेरिका और अर्जेंटीना के कुछ हिस्सों में सूखा पड़ने की वजह से सोया की फसल कमजोर हुई है। और, अगले साल भी वहां किसान इसकी खेती से बचने की सोच रहे हैं। यानी, खतरा अभी और बढ़ने वाला है। दुनिया भर में खाने के तेल की कीमत बढ़ने की एक वजह यह भी है कि यह तेल अब सिर्फ खाने के लिए इस्तेमाल नहीं होते, बल्कि बहुत से देशों में इनका इस्तेमाल पेट्रोल और डीजल के साथ ईंधन के लिए भी होने लगा है।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि कोरोना की वजह से कारोबार भी अटका है और पैदावार भी। लेकिन मांग में कमी के बजाय बढ़ोतरी हो रही है। चीन जैसे कुछ देश इस वक्त अपना भंडार बढ़ाने के लिए यह तेल खरीद रहे हैं, जिसकी वजह से भाव बढ़ रहे हैं। भारत में खाने के तेल की खपत करीब 2.4 करोड़ टन है, जबकि उत्पादन एक करोड़ टन के आसपास ही होता है। ऐसे में, 1.3 टन से ऊपर, यानी जरूरत का 56 फीसदी तेल आयात करना पड़ता है। अब दुनिया भर के बाजार में तेजी का असर तो दिखना ही है। ऊपर से टैक्स और ड्यूटी इसे और महंगा बनाते हैं।
महंगाई की यह बीमारी सिर्फ भारत में नहीं, दुनिया भर में कोरोना की ही तरह फैल रही है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में महंगाई करीब 11 फीसदी पर पहुंच गई है, तो अमेरिका में मई में खुदरा भावों का सूचकांक पांच फीसदी पर पहुंच गया, जो वहां 2008 के बाद से सबसे ऊंचा स्तर है। महंगाई का ही एक दूसरा आंकड़ा है, कोर प्राइज इंडेक्स, यानी जरूरी चीजों के भाव की रफ्तार का मीटर। अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेड रिजर्व अपनी पॉलिसी के लिए इसी मीटर पर नजर रखता है। इसमें खाने-पीने की चीजों और पेट्रोल के भाव हटाकर देखने पर 3.1 प्रतिशत की बढ़त दिख रही है। यह 1992 के बाद से सबसे ज्यादा है। उधर चीन में यही आंकड़ा 0.9 प्रतिशत है। इस लिहाज से चीन के हालात बहुत अच्छे दिख रहे हैं, पर फैक्टरी गेट इन्फ्लेशन, यानी फैक्टरी में बने सामान के दाम बढ़ने की रफ्तार नौ फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है। चीन में महंगाई की वजह से अमेरिका जाने वाले चीन के सामान के दाम भी 2.1 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ गए हैं, और दुनिया भर में यह खतरा जताया जा रहा है कि सस्ता माल निर्यात कर-करके दुनिया के बाजार पर कब्जा करने वाला चीन कहीं अब महंगाई तो निर्यात नहीं करने वाला है।
उधर अमेरिका में महंगाई बढ़ने से उन अमीरों के बीच भी हड़कंप सा मचा हुआ है, जिन्हें देखकर हम और आप सोचेंगे कि इन्हें महंगाई से क्या फर्क पड़ता है। इनकी चिंता की एक बड़ी वजह महंगाई नहीं, बल्कि उसके साथ जुड़ी यह आशंका है कि इसकी वजह से अगर ब्याज दरें बढ़ने लगीं, तो शेयर बाजार पर दबाव बन सकता है और दूसरी तरफ कर्ज लेना भी मुश्किल हो जाएगा। लेकिन चीन हो या अमेरिका, महंगाई के इस संकट से निकलने का रास्ता तो कोरोना का टीका लगने के बाद ही दिखाई पड़ेगा। जैसे-जैसे लोग बाहर निकलेंगे, और जरूरी खरीद से हटकर घूमने-फिरने और बाहर खाने पर खर्च करने लगेंगे, वैसे-वैसे महंगाई में राहत मिलने के आसार हैं। पर साथ में यह भी जरूरी होगा कि लोगों के रोजगार का इंतजाम हो।