13-10-2025 (Important News Clippings)
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Mature relationship
India and the United Kingdom have deepened business ties without fuss
Editorial
At a time when social media threats, reciprocal actions, and shrill rhetoric are becoming the global norm, the manner in which the India-U.K. economic relationship is unfolding is a refreshing change. U.K. Prime Minister Keir Starmer’s two-day visit to India last week reinforced the existing solidity in economic relations and deepened them. India’s negotiations with the U.S. have been fraught, erratic, and dramatic. U.S. President Donald Trump has also shown that he is more than willing to change the contours of deals already struck. Negotiations with the European Union have been less fraught and dramatic, but there certainly seems to be a gap between the positive assurances made by the leaders and what the negotiators say in private about the deal’s progress. Against this backdrop, Sir Starmer chose to bring a delegation of more than 100 entrepreneurs, cultural representatives, and university vice-chancellors and left India with defence, investment and movie deals, further cementing the trade deal signed in July. The keenness to deepen trade relations makes eminent sense. India, despite being the fourth-largest economy in the world and one of the largest markets, accounts for less than 2% of the U.K.’s total merchandise exports. The U.K. accounts for about 3% of India’s exports. There is ample scope for trade to grow. Growing India-U.K. trade could also mitigate some of the impact of the U.S.’s punitive 50% tariffs, if they remain.
One of the unsaid reasons why India is slowing its capital expenditure is because it needs to fund its defence acquisitions. Sir Starmer’s visit made sure that some of these acquisitions — in the form of a £350 million missile supply deal — came the U.K.’s way. The U.K. government also revealed that 64 Indian companies have so far committed to invest £1.3 billion in the U.K. It goes without saying that U.K. companies would have made similar investment commitments in India, but the Indian government has inexplicably not made these public yet. Yet, statements by companies such as Rolls-Royce show that there is enthusiasm there. The Indian population in the U.K. is the largest ethnic minority, and this is not lost on the political leadership either. One of the first things Sir Starmer did on arriving in Mumbai was to visit Yash Raj Films (YRF) and meet Indian producers. The result was that YRF has committed to shoot three films in the U.K. Two U.K. universities have also committed to opening campuses in India. This cross-sector cooperation is how mature democracies should work together — without fuss and ego, just business.
गाजा में शांति पर संदेह का साया
शिवकांत शर्मा, ( लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं )
राष्ट्रपति ट्रंप की बीस सूत्री शांति योजना पर इजरायली कैबिनेट की मंजूरी के बाद गाजा में युद्धविराम लागू हो गया है। इससे जुड़ी शांति योजना के तीन चरण हैं। जिस पहले चरण पर हमास और इजरायल सहमत हुए हैं, उसमें सबसे पहले इजरायली हमले रुकना और इजरायली सेना को गाजा के 47 प्रतिशत क्षेत्र से पीछे हटना था। साथ ही, इजरायल आतंकी हमलों और दूसरे अपराधों के आरोपों में सजा काट रहे करीब 250 फलस्तीनी कैदियों को और गाजा के उन 1700 लोगों को रिहा करेगा जो हिरासत में हैं। हमास 28 इजरायली बंधकों की पार्थिव देह सौंपेगा और इजरायल अपनी हिरासत में मरे गाजा के 15 लोगों के पार्थिव शरीर हमास को सौंपेगा।
इजरायल, हमास, अरब देश और ट्रंप सभी एक-दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं। ट्रंप अपनी योजना को पश्चिम एशिया में स्थायी शांति का कदम बताकर नोबेल शांति पुरस्कार की आस लगाए बैठे थे। वह तो पूरी नहीं हो सकी, पर क्या वे टूटी आस की कड़वाहट को पीकर शांति योजना को सफल बनाने में पूरी शक्ति लगाएंगे? क्योंकि उनकी योजना के पहले चरण का क्रियान्वयन तो अपेक्षाकृत आसान था। हालांकि इसमें भी हमास की मांग पर रिहा होने वाले कैदियों के नामों और संख्या को लेकर रुकावटें खड़ी हो सकती हैं। इसके पूरा होने के बाद दूसरे और तीसरे चरणों की सौदेबाजी शुरू होगी।
योजना के अनुसार गाजा पट्टी का पूरी तरह विसैन्यीकरण होना है। यानी हर तरह के सैनिक, आतंकी और आक्रामक ढांचे को ढहाया जाएगा, जिसमें उन सुरंगों का जाल भी शामिल है जिनका प्रयोग हमास के आतंकी अपने राकेट, गन और गोला बारूद रखने के लिए करते थे। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के आकलन के अनुसार हमास ने युद्ध के दौरान करीब 15 हजार नए लड़ाकों की भर्ती भी की थी। इजरायल चाहता है कि ये सभी सदस्य हथियार डालें और भविष्य में लड़ाई न करने का प्रण लें। हालांकि हमास की शर्त रही है कि वह स्वतंत्र फलस्तीन राष्ट्र की स्थापना होने के बाद ही हथियार डालेगा।
शांति योजना के अनुसार गाजा का प्रशासन एक शांति बोर्ड की देखरेख में फलस्तीनी विशेषज्ञों की अस्थायी समिति संभालेगी। शांति बोर्ड की अध्यक्षता खुद ट्रंप करेंगे। पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की भी इसमें प्रमुख भूमिका होगी। फलस्तीनी प्राधिकरण में सुधार करने के बाद गाजा का प्रशासन उसे सौंप दिया जाएगा, परंतु उसमें हमास की प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई भूमिका नहीं होगी।
हमास के जो सदस्य इजरायल के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को स्वीकार करेंगे, उन्हें अभयदान देकर दूसरे देशों में भेज दिया जाएगा। हालांकि अभी तक हमास इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार करने से इन्कार करता रहा है। दूसरी ओर, नेतन्याहू ने ट्रंप की शांति योजना को पूरी तरह स्वीकार भले कर लिया हो, पर वे गाजा का प्रशासन फलस्तीनी प्राधिकरण को नहीं देना चाहते।
गाजा के युद्धविराम को ट्रंप पश्चिम एशिया में स्थायी शांति का पहला कदम बताते हैं, परंतु इतना वे भी जानते हैं कि फलस्तीनियों को उनका देश मिले बिना यहां कोई शांति स्थायी नहीं हो सकती। पिछली सदी के अंत तक यह संभव लगता था। इजरायल में भी काफी बड़ा जनमत इसके पक्ष में था, लेकिन जब से नेतन्याहू ने सत्ता संभाली है, अलग फलस्तीनी राष्ट्र की संभावना को सपने में बदल दिया है।
फलस्तीनी चाहते हैं कि पश्चिमी किनारे और गाजा में उनका देश बने, जिसकी राजधानी पूर्वी यरूशलम हो। कहने को पश्चिमी किनारे पर फलस्तीनी प्राधिकरण का शासन है, परंतु इजरायल ने धीरे-धीरे वहां यहूदी बस्तियों का जाल बिछा दिया है, जिनमें लगभग सात लाख यहूदी बसते हैं। उन बस्तियों पर इजरायली शासन है।
पश्चिमी किनारे की मात्र 18 प्रतिशत भूमि पर ही फलस्तीनी प्राधिकरण का शासन है। 22 प्रतिशत भूमि पर इजरायल और फलस्तीनी प्राधिकरण का संयुक्त शासन है और जार्डन और इजरायल से लगती शेष 60 प्रतिशत भूमि पर इजरायली शासन। यदि मानचित्र पर देखें तो पश्चिमी किनारे के शहर इजरायली भूमि पर फलस्तीनी द्वीपों जैसे लगते हैं। यह सुनियोजित रणनीति के तहत किया गया लगता है ताकि फलस्तीनी शहर इजरायल के विरुद्ध एकजुट न हो सकें। सीमावर्ती जमीन को भी इजरायल ने इसलिए अपने पास रखा ताकि पड़ोसी देशों में खुलने वाली सुरंगों का जाल न बिछाया जा सके, जो गाजा में हुआ है। शायद इसीलिए नेतन्याहू पश्चिमी किनारे और गाजा में एक फलस्तीनी सरकार नहीं बनने देना चाहते।
इस समय नेतन्याहू और हमास के पास ट्रंप की शांति योजना के लिए सहमत होने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा था। नेतन्याहू शांति के नोबेल की आस लगाए बैठे ट्रंप को नाराज नहीं कर सकते थे। हमास के पास भी न तो निरंतर बढ़ती आ रही इजरायली सेना से बंधकों को छिपाए रखने की जगह बची थी और न ही दुनिया से और अधिक सहानुभूति बटोरने की गुंजाइश। अब शांति कायम हो जाने और गाजा में पुनर्निर्माण शुरू होने के साथ ही दोनों को अस्तित्व की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। नेतन्याहू के समक्ष अपनी सरकार बचाने, हमास के हमले को रोकने में हुई सुरक्षा चूक की जांच से और भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाने से बचने की चुनौतियां हैं। हमास के समक्ष सत्ता से बाहर रहते हुए अपना प्रभाव बनाए रखने की चुनौती है। इजरायली हमलों में मारे गए 67 हजार से अधिक लोगों के परिवारों का इजरायल विरोधी रोष उन्हें उसे बनाए रखने और संगठन खड़ा करने की आधारभूमि देगा।
इजरायली बड़ी शान से कहा करते थे कि उनकी लड़ाइयां सैनिक अकादमियों में पढ़ाई जाया करेंगी, लेकिन गाजा की लड़ाई उन्हें बहुत मायूस करेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि इजरायल ने भले ही हमास के साथ-साथ हिजबुल्ला के फनों को भी कुचल दिया हो, परंतु उनके उद्देश्य के लिए बढ़ती सहानुभूति की लहर को नहीं थाम पाया है। साख की लड़ाई में तो वह बुरी तरह हार गया है। संयुक्त राष्ट्र के जांच आयोग ने उस पर जनसंहार का आरोप लगाया है और ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा जैसे पारंपरिक मित्र देशों ने उसकी मर्जी के खिलाफ फलस्तीन को मान्यता दे दी है।
Date: 13-10-25
साझेदारी का निर्माण
संपादकीय
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर की हालिया भारत यात्रा का उद्देश्य दोनों देशों के बीच आपसी रिश्तों में हुए हाल में आई गर्मजोशी को आगे बढ़ाना था। इससे पहले गत जुलाई में दोनों देशों के बीच व्यापक आर्थिक एवं व्यापार समझौते (सीईटीए) पर हस्ताक्षर हुए थे। स्टार्मर के साथ यूके के कारोबारियों का अब तक का सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल भारत आया था। ब्रिटिश सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि इस यात्रा के दौरान भारतीय कंपनियों द्वारा ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में करीब 1.3 अरब पाउंड के निवेश का वादा किया गया है। इसमें टीवीएस मोटर्स द्वारा इंगलैंड के उत्तरी हिस्से में विनिर्माण सुविधाओं के विस्तार की योजना भी शामिल है।
टीवीएस मोटर ने 2020 में ब्रिटिश कंपनी नॉर्टन मोटरसाइकल का अधिग्रहण किया था। इस बीच भारत को उम्मीद है कि नई संयुक्त परियोजनाओं की बदौलत उसे उन्नत नवाचार तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी। व्यापार सौदा भी भारतीय कंपनियों के लिए नए बाजार खोल सकता है। इसमें छोटे बाजार भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए रत्न एवं आभूषण क्षेत्र जिसके अमेरिकी व्यापार नीतियों से सबसे अधिक प्रभावित होने की आशंका है, उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में वह यूके को अपना निर्यात दोगुना कर सकता है।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने मुंबई में एक फिनटेक सम्मेलन को संबोधित किया। यह इस बात का संकेत है कि दोनों देशों के वित्तीय और प्रौद्योगिकी क्षेत्रों के बीच करीबी रिश्ते देखने को मिल सकते हैं। ब्रिटेन राजकोषीय मोर्चे पर दिक्कतों से जूझ रहा है और उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था की लागत भी अधिक है। खासतौर पर बायोटेक और फिनटेक क्षेत्रों के साथ ऐसा है।
इन क्षमताओं का प्रतिबिंब उन सहयोग योजनाओं की प्रकृति में दिखाई देता है, जिनका उद्देश्य भारत में जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान और नवाचार परिषद द्वारा संचालित संस्थानों तथा भारतीय विज्ञान संस्थान की सुविधाओं को उन्नत करना है। कुछ ऐसी बातें जो अतीत में भारत की प्राथमिकता रही हैं अब उन पर जोर नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए लगता नहीं है कि भारतीयों को वर्क वीजा का मुद्दा बातचीत में दोबारा उभरेगा। इसके पीछे घरेलू राजनीतिक हालात को जिम्मेदार माना जा सकता है।
ब्रिटेन पहुंचने वाले भारतीयों की संख्या पहले ही लगातार बढ़ रही है। 2021 से 2024 के बीच 8.50 लाख प्रवासी भारतीय वहां पहुंचे। इसके बजाय भारतीय और ब्रिटिश सरकारों ने अवैध प्रवासियों की वापसी को लेकर करीबी सहयोग पर सहमति जताई है।
हालांकि सीईटीए के उचित क्रियान्वयन को अंजाम देने के लिए अभी भी काफी कुछ करना बाकी है ताकि भारत की सूक्ष्म, लघु और मझोली कंपनियों सहित सभी कंपनियां इससे लाभान्वित हो सकें। पेशेवरों के लिए परस्पर मान्यता वाले समझौतों को अंतिम रूप देना जरूरी है। यह आसान नहीं होगा क्योंकि दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं सेवा आधारित हैं।
व्यापार में ई-गवर्नेंस और नियामक सहयोग पर किए गए वादों को पूरा करना भी आवश्यक होगा। ऐसा करके व्यापार समझौते का पूरा लाभ उठाया जा सकता है। सुरक्षा के क्षेत्र में भी आगे काम करने की जरूरत है। भारतीय नौसेना और रॉयल नेवी पहले भी संयुक्त अभ्यास कर चुके हैं। परंतु हिंद महासागर के क्षेत्र में सहयोग की संभावनाएं बहुत अधिक हैं। खासतौर पर फ्रांस के साथ त्रिपक्षीय प्रारूप में ऐसा किया जा सकता है।
ब्रिटेन ने बहरीन में अपने नौसैनिक अड्डे में निवेश बढ़ाया है तथा उम्मीद की जा रही है कि वे भारतीय नौसेना के सहयोग और समर्थन में समुद्री डकैती रोकने संबंधी निगरानी और अभियानों को और अधिक प्रभावी रूप से अंजाम दे सकेंगे। भारत-यूके साझेदारी भारत के नजरिये से सबसे कम तनावपूर्ण और सबसे अधिक पारदर्शी साझेदारियों में से एक बनी हुई है और इसके आर्थिक और सुरक्षा क्षेत्रों में और अधिक विस्तार की पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं।
Date: 13-10-25
मुख्य न्यायधीश, आईपीएस और होमबाउंड
शेखर गुप्ता
पिछले दिनों तीन कारकों के एक साथ आने से जाति और अल्पसंख्यकों से जुड़ी ऐसी समस्याओं का एक मिश्रण हमारे सामने आया है जिन्हें देश संविधान निर्माण के 75 वर्ष बाद भी सुलझा पाने में नाकाम रहा है। जाति की समस्या तो हमारे यहां सदियों से व्याप्त है।
तीन घटनाएं सामने आई हैं: देश के दलित मुख्य न्यायाधीश पर उनकी ही अदालत में जूता फेंका जाना, हरियाणा में एक वरिष्ठ दलित आईपीएस अधिकारी द्वारा आत्महत्या करना और सुसाइड लेटर में वर्षों तक भेदभाव, उत्पीड़न और वर्षों की पीड़ा का जिक्र और तीसरा बॉलीवुड के सबसे प्रमुख और प्रभावशाली दलित फिल्मकार नीरज घेवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ की कामयाबी।
यह फिल्म प्रतिद्वंद्वी सैयारा, पठान, जवान, एनिमल, बाहुबली या कांतारा की तुलना में बड़ी हिट नहीं है। इस फिल्म को लेकर पीआर इंटरव्यू, प्रायोजित समीक्षाएं, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स का इस्तेमाल नहीं नजर आया। इसमें बड़े सितारे भी नहीं थे। इसे मनोरंजक भी नहीं कहा जा सकता है। यह फिल्म 100 करोड़ रुपये की ओपनिंग को ध्यान में रखकर नहीं तैयार की गई थी।
इसके बावजूद बहुत धीमी शुरुआत के बाद भी इसने केवल लोगों की आपसी प्रशंसा की बदौलत अपनी पकड़ बनाई। ऐसा करने वालों में ऊपरी श्रेणी के पेशेवर और युवा उद्यमी आदि शामिल थे। कह सकते हैं कि ऐसे लोग जिनकी आय सात या आठ अंकों में है। यानी सामाजिक-आर्थिक प्रभावशाली वर्ग। इसका प्रमाण उन छोटे लेकिन सबसे महंगे मल्टीप्लेक्स हॉल से मिलता है जो महानगरों में पूरी तरह भरे चल रहे हैं।
इन सामाजिक चर्चाओं से जो बात सामने आती है, वह यह नहीं है कि फिल्म उबाऊ थी, अतिशयोक्तिपूर्ण थी, बहुत अधिक राजनीतिक थी, या वह सामान्य बात जो हम अक्सर सुनते हैं- ‘यह बात एकदम साफ है कि आरक्षण के 75 सालों ने असमानता को समाप्त नहीं किया है।’ तो फिर ‘हम’ और क्या कर सकते हैं? बेहतर होगा कि ‘उन्हें’ अच्छी शिक्षा और सुविधाएं तथा प्रतिस्पर्धा करने का अवसर दिया जाए। परंतु यह मिशन ‘हम’ और ‘वे’ के विभाजन पर ही समाप्त हो जाता है।
इसके विपरीत होमबाउंड देखने वाले दर्शकों में आप तीन युवा और गरीब ग्रामीण भारतीयों के संघर्षों के प्रति समानुभूति को देख सकते हैं। इनमें शिक्षा है, समझ है और आगे बढ़ने की आकांक्षा भी है। दर्शकों ने यह भी स्वीकार किया कि व्यवस्था उन्हें हर बार नाकाम करने के लिए ही बनी थी। तो अब हम क्या करें? संदर्भ के लिए, ये तीन युवा भारत की जनसंख्या के एक-तिहाई से अधिक हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। यानी दलित और मुस्लिम समुदाय।
शिक्षा, आरक्षण और सरकारी नौकरी की मदद से समानता और गरिमा हासिल होनी थी। मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने की घटना दिखाती है कि हम अभी भी इससे कोसों दूर हैं। इससे भी दुखद है हरियाण पुलिस के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजीपी) वाई पूरन कुमार की आत्महत्या। उनकी पत्नी और 2001 बैच की आईएएस अधिकारी अमनीत पी कुमार भी दलित हैं। उन्होंने राज्य के डीजीपी और जिले के एसपी के विरुद्ध अपने पति के उत्पीड़न की एफआईआर दर्ज कराई है। तो आज हम यहां खड़े हैं। अगर एक मुख्य न्यायाधीश, एक आईपीएस और एक आईएएस अधिकारी की गरिमा सुरक्षित नहीं, उन्हें समानता हासिल नहीं तो यह दिखाता है कि हमारी व्यवस्था में अन्याय और पूर्वग्रह बहुत गहरे तक घर कर चुके हैं और 75 साल का आरक्षण भी इन्हें दूर नहीं कर सका है।
होमबाउंड के तीन युवा मित्र चंदन कुमार (वाल्मीकि), मोहम्मद शोएब अली और सुधा भारती (एक और दलित) जिनकी भूमिका क्रमश: विशाल जेठवा, ईशान खट्टर और जाह्नवी कपूर ने निभाई है, वे पुलिस कॉन्स्टेबल बनने की तैयारी कर रहे हैं। इसे देखते हुए मुझे 1985 में बाबू जगजीवन राम से हुई एक बातचीत याद आई।
मंडल आयोग की रिपोर्ट चर्चा का विषय बन गई थी और मैं इंडिया टुडे के लिए उच्चवर्ग की जातियों के पहले आंदोलन को कवर कर रहा था। जगजीवन राम उस समय सत्ता से बाहर थे और उनके पास समय था। उन्होंने आरक्षण को सटीक ढंग से समझाया। उन्होंने एक पुराने दोस्त की बात की जो अनुसूचित जाति (उस समय कोई दलित नहीं कहता था) से आता था। उनका मित्र आगरा का जूतों का कारोबारी था और बड़े पैमाने पर निर्यात करता था।
उसका एक बेहतरीन घर था, एक विदेशी कार और लाखों रुपये की जमापूंजी उसके पास थी। इसके बावजूद वह बाबूजी से याचना कर रहा था कि उसके बेटे को उत्तर प्रदेश पुलिस में सहायक पुलिस निरीक्षक (एएसआई) के रूप में नौकरी दे दी जाए। बाबूजी ने उससे पूछा, ‘तुम्हारे पास इतनी संपत्ति है, तुम अपने बेटे को एएसआई क्यों बनवाना चाहते हो?’ उसने जवाब दिया, ‘हम चाहे जितने अमीर हो जाएं, एक ब्राह्मण कभी भी मुझसे या मेरे बेटे से इज्जत से बात नहीं करेगा। लेकिन अगर मेरा बेटा एएसआई बन जाता है तो ब्राह्मणों सहित सभी जूनियर उसे सलाम करेंगे। इस तरह आरक्षण समानता और ताकत देता है।’
होमबाउंड में तस्वीर कुछ अधिक जटिल है क्योंकि चंदन सामान्य श्रेणी में प्रतिस्पर्धा करने पर जोर देता है। वह कहता है कि अगर वह अपनी जाति यानी वाल्मीकि का खुलासा कर देगा तो पुलिस सेवा में भी उसे साफ-सफाई के काम तक सीमित कर दिया जाएगा। सुधा स्नातक की पढ़ाई करके यूपीएससी निकालना चाहती है। शोएब चतुर है और एक कंपनी में चपरासी की नौकरी के बावजूद वह सामान बिकवाने में टाई वाले मैनेजरों तक को पीछे छोड़ देता है। उसका बॉस उसके काम से चकित है और कुछ भी बेच देने की उसकी काबिलियत के चलते उसे बेचू कहकर बुलाता है। वह भी एक टाई वाला मैनेजर बनने की ओर अग्रसर है कि तभी बॉस के घर में एक पार्टी में नशे में धुत कुछ लोग क्रिकेट मैच देखते समय उसे अपमानित करते हैं। वह भी जीत की खुशी मना रहा होता है लेकिन उससे कहा जाता है कि उसका दिल टूट गया होगा क्योंकि भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया।
दलित और मुस्लिम दोनों को उनके पूर्वजों के अतीत के नीचे अलग-अलग ढंग से कुचला जाता है। दलितों को इसलिए क्योंकि उन्होंने पीढ़ीगत अन्याय को झेलना पड़ता है जिसके लिए उनके दमनकारियों को खुद में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। मुस्लिमों को इसलिए क्योंकि वे किसी न किसी तरह अपने मुगल, अफगान, तुर्क पूर्वजों और यहां तक कि जिन्ना द्वारा हिंदुओं पर की गई अतियों की कीमत चुकाते हैं। यही बातें चंदन, शोएब और सुधा के साथ-साथ एक तिहाई भारत की राह का रोड़ा हैं।
मोदी सरकार की कल्याण योजनाएं, प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण योजनाएं किसी के साथ पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं करतीं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं, खासकर- यूपीएससी निष्पक्ष हैं और अच्छी खासी तादाद में मुस्लिम उसमें कामयाबी हासिल करते हैं। मुस्लिम पहले ही शीर्ष राजनीतिक, संवैधानिक या अफसरशाही पदों से बाहर हैं और सरकार के बाहर भी उनके लिए चुनौतियां हैं।
उन्हें अलगाव का सामना करना पड़ता है (शोएब से बार-बार पुलिस जांच के लिए पूछा जाता है, माता-पिता का आधार कार्ड मांगा जाता है) और किराये पर घर मिलने में समस्या आम है। मुस्लिमों से जुड़े कारोबारों पर भी सोचा समझा हमला किया जाता है। उदाहरण के लिए मांस के व्यापार पर त्योहारों के दौरान मनमाने ढंग से हफ्तों और पखवाड़ों तक का प्रतिबंध लगा दिया जाता है, चमड़े के कारोबार, कसाईखाने के साथ ऐसा ही होता है। आपने ध्यान दिया होगा कि कैसे ऐप आधारित डिलिवरी, उबर आदि सेवाओं में बड़ी संख्या में मुस्लिम युवा नजर आते हैं, वे ऐप आधारित मरम्मत या रखरखाव सेवाओं में भी काम करते दिखते हैं। सोशल मीडिया पर पहले ही ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मानो वे आपके परिवार के लिए खतरा हों। ‘लव जिहाद’ और धर्मांतरण या अन्य जघन्य अपराधों के साथ भी उनका नाम जोड़ दिया जाता है।
अच्छी बात यह है कि जैसा कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विज्ञान भवन में गत माह कहा भी था कि भारतीय मुस्लिम अपनी नकारात्मक छवि को बदल रहे हैं। अब वे कितने बच्चे पैदा करते हैं? भागवत ने कहा कि पहले हिंदुओं की जन्म दर में कमी आई और उसके बाद मुस्लिमों की जन्म दर में कमी आ रही है। भारतीय मुस्लिमों ने पाकिस्तान के मुस्लिमों के उलट आधुनिक शिक्षा को अपनाया है, जबकि पाकिस्तानी मानते हैं कि उनका राष्ट्रवाद सर सैयद अहमद खां और अल्लामा इकबाल से प्रेरित है। इसके बावजूद अगर पढ़े-लिखे मुस्लिम अपने ही ‘घेटो’ में रहने को विवश हों तो यह बहुत दुखद है। इससे विकसित भारत बनाने में मदद नहीं मिलेगी।
यह कोई फिल्म समीक्षा नहीं है। यह जरूर है कि इस वर्ष भारत ने इसे ऑस्कर में अपनी प्रविष्टि के रूप में चुना है। इस फिल्म ने जनसंख्या के उस हिस्से को छुआ है जिसे हम अक्सर उग्र मानते हैं। संयोग से यह वास्तविक जीवन की दो कहानियों से मेल खाती है जिनमें भुक्तभोगी (यह शब्द मैं भारी मन से इस्तेमाल कर रहा हूं) वे हैं जिन्हें भारत एक नागरिक होने के नाते सबसे विशेषाधिकार प्राप्त पदों की पेशकश कर सकता है। मैं आपको भारत के पहले दलित मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की नियुक्ति के दिन ही किए गए उनके अपमान की याद दिलाना चाहूंगा। इस प्रवृत्ति की हम अनदेखी नहीं कर सकते, खासकर तब जब यह हर तीन में से एक भारतीय को प्रभावित करता हो।
Date: 13-10-25
ट्रंप टैरिफ के बीच एमएसएमई क्षेत्र को बदलने का शानदार मौका
तुलसी जयकुमार, (लेखिका एसपीजेआईएमआर के सेंटर फॉर फैमिली बिजनेस ऐंड आंत्रप्रेन्योरशिप की कार्यकारी निदेशक और प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) हैं। )

हाल ही में भारत के प्रमुख निर्यात क्षेत्रों विशेष रूप से कपड़ा, समुद्री खाद्य और रत्न व आभूषण को निशाना बनाने वाले 50 फीसदी ‘ट्रंप टैरिफ’ (अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा घोषित आयात शुल्क) ने देश के कई क्षेत्रों में चिंता पैदा कर दी है। सूरत में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) पर वित्तीय दबाव की स्थिति बन रही है, जहां 80 फीसदी हीरा-निर्यात इकाइयां केंद्रित हैं, वहीं दूसरी ओर तिरुपुर में परिधान निर्यातकों को कुल मिलाकर 61 फीसदी से अधिक के शुल्क का सामना करना पड़ रहा है जिससे एक वास्तविक संकट की स्थिति बन रही है।
आशंका यह है कि ये आयात शुल्क (टैरिफ) उन क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं जो भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात का करीब 25 फीसदी हिस्सा है। यह टैरिफ उन कंपनियों के लिए खतरा है जिनकी मार्जिन और कीमतें तय करने की ताकत सीमित है। हालांकि, इस तत्कालिक संकट को एमएसएमई तंत्र की व्यापक क्षमता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इनकी क्षमता का अभी पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो सका है।
पिछले चार वर्षों में सराहनीय तीन गुना वृद्धि के बावजूद, निर्यात करने वाले एमएसएमई की संख्या पिछले साल मई में महज 1,73,350 थी। हालांकि 7.3 करोड़ एमएसएमई के मजबूत आधार के मुकाबले देखने पर, यह आंकड़ा मात्र 0.23 फीसदी का प्रतिनिधित्व करता है। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो जो उद्यम भारत से लगभग आधे निर्यात (45.79 फीसदी) के लिए उत्पादन कर रहे हैं वे एमएसएमई आधार के चौथाई फीसदी से भी कम हैं।
भारत में एमएसएमई का अधिकांश हिस्सा सूक्ष्म उद्यमों का है और इनमें से कई अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। उनके कारोबार का दायरा भी बड़ा नहीं है और न ही जरूरी तकनीक उनके पास है। इसके अलावा उनकी संरचना भी ऐसी नहीं है कि वे अहम क्षेत्रों में वैश्विक वैल्यू श्रृंखला (जीवीसी) की मांग को पूरा कर सकें जिनमें जटिल अंतरराष्ट्रीय प्रमाणन का पालन करना शामिल है। इसके अलावा आधुनिक इन्वेंट्री प्रबंधन मॉडल जैसे कि ‘जस्ट इन टाइम (जेआईटी) और लीन मैन्युफैक्चरिंग’ को लागू करने की क्षमता भी होनी चाहिए जिसके लिए डिजिटल तकनीक और भरोसेमंद लॉजिस्टिक्स की जरूरत होती है। साथ ही इंडस्ट्री 4.0 टूल के साथ जुड़ना भी अहम है।
भारत के लिए बड़ा अवसर तभी बन पाएगा जब एक व्यापक, निष्क्रिय आधार को एक औपचारिक, जीवीसी के लिए तैयार आपूर्तिकर्ता पूल में बदला जा सके। इस अवसर का फायदा उठाने के लिए, सामान्य कल्याणकारी उपायों से हटकर लक्षित, क्रियान्वयन पर केंद्रित हस्तक्षेप की आवश्यकता है। इसके अलावा पूंजी तक पहुंच भी सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। इस क्षेत्र को 30 लाख करोड़ रुपये तक के अनुमानित ऋण मांग-आपूर्ति की खाई का सामना करना पड़ता है।
जीवीसी में शामिल होने के लिए नए निवेश की जरूरत है विशेषरूप से तकनीक को बेहतर बनाने के लिए। इनमें नई मशीने खरीदने, प्रमाणन से जुड़े अनुपालन करने और डिजिटल साधन का इस्तेमाल करने के लिए पैसे की जरूरत होगी। सरकार को ऐसे फिनटेक समाधान को बढ़ावा देना चाहिए जो पुराने तरीकों से हटकर जीएसटी/उद्यम डेटा का इस्तेमाल कर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) से क्रेडिट स्कोरिंग करे। इससे निर्यात के ऑर्डर के लिए कार्यशील पूंजी की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। इसके साथ ही क्लस्टर फाइनैंसिंग की व्यवस्था भी मददगार साबित होगी।
इसके अलावा भले ही भारत में लॉजिस्टिक्स की लागत का मौटे तौर पर अनुमान अब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 7.97 फीसदी है लेकिन अब गहराई में जाना जरूरी है। उद्योग संवर्धन एवं आंतरिक व्यापार विभाग और राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुंसधान परिषद की हाल की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि छोटे उद्योग की लॉजिस्टिक्स लागत उनके उत्पादन का 16.9 फीसदी तक है जबकि बड़े उद्योग के लिए यह लागत 7.6 फीसदी है। इस अंतर के कारण छोटे उद्योग जल्द ही मुकाबले से बाहर हो जाते हैं।
पीएम गति शक्ति राष्ट्रीय योजना को और तेजी से लागू करना होगा ताकि मल्टी-मॉडल लॉजिस्टिक्स पार्क बनाए जा सकें। इन पार्कों में साझा भंडारगृह की सुविधा होगी और सामान को नजदीक और सुदूर इलाकों तक पहुंचाने का इंतजाम बेहतर होगा। इससे लागत घटेगी और छोटे कारोबारियों पर बोझ कम होगा। एमएसएमई के माल के लिए यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल जरूरी करने से भी मदद मिलेगी।
कुशल कर्मचारियों के बिना कोई भी तकनीक बेकार है। भारत को जल्द से जल्द ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों की शुरुआत करनी होगी जिनमें जीवीसी से जुड़े जरूरी कौशल की जानकारी दी जाए, जैसे कि गुणवत्ता की जांच करना, डिजिटल परिचालन, मशीनों का रख-रखाव और आपूर्ति श्रृंखला का प्रबंधन। इसके साथ ही, विनिर्माण के क्षेत्र में साझा जांच केंद्र और प्रमाणपत्र देने वाले केंद्र भी खोलने होंगे। इन केंद्रों से छोटे कारोबारों को नियमों का पालन करने का खर्च कम करने में मदद मिलेगी और खरीदारों का भरोसा बढ़ेगा।
दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं अपनी आपूर्ति श्रृंखला में विविधता ला रही हैं। टैरिफ और व्यापार में बदलाव से भारत को अपने एमएसएमई क्षेत्र को बदलने का शानदार मौका मिला है। लेकिन, ये मौका ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगा। अगर भारत ने अपने 99.76 फीसदी एमएसएमई को सशक्त बनाने के लिए जल्दी और सही कदम नहीं उठाए तो वियतनाम, मेक्सिको या इंडोनेशिया जैसे देश इस मौके को छीन लेंगे। दुनिया का विनिर्माण केंद्र बनने के लिए सिर्फ इरादा नहीं, बल्कि कड़ी मेहनत, ध्यान और बड़े पैमाने पर काम करना जरूरी है।
स्वदेशी से सशक्त होगा भविष्य
संपादकीय

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वदेशी महामंत्र को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी आगे बढ़ाया है। हाल ही में प्रदेशवासियों को स्वदेशी अपनाने का मंत्र देकर न केवल आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को जोर दिया है, बल्कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने की पहल भी की है। यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि आर्थिक स्वावलंबन, स्थानीय उत्पादन और जनसहभागिता पर आधारित विकास का एक ठोस मॉडल है। आज वैश्वीकरण के दौर में जहां विदेशी वस्तुओं की चमक-दमक ने बाजार पर कब्जा कर रखा है, वहीं योगी सरकार का यह संदेश जनजागरण की तरह है कि जब तक हम अपनी मिट्टी से बने उत्पादों को प्राथमिकता नहीं देंगे, तब तक प्रदेश की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं हो सकती। स्वदेशी का अर्थ केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं, बल्कि अपने संसाधनों से अपनी जरूरतों को पूरा करना है। यही भाव वोकल फॉर लोकल का आधार है। इस कारण उन्होंने सभी से सबसे पहले स्वदेशी अपनाने का नारा बुलंद किया है। यह वह मंत्र है, जिसके जरिये विजन 2047 का असली मकसद पूरा होगा।
प्रदेश सरकार ने पहले ही वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट (ओडीओपी) योजना के माध्यम से स्थानीय उद्योगों को पुनर्जीवित करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए स्वदेशी को जीवनशैली का हिस्सा बनाना प्रदेश के छोटे और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) को नई उड़ान देगा। जब लोग अपने जिले, अपने गांव के उत्पादों को अपनाएंगे, तब स्थानीय बाजारों में मांग बढ़ेगी, जिससे उद्योग स्वतः पनपेंगे। इसका असर यह होगा कि मैट्रो सिटी से उद्योग का बाजार तेजी के साथ छोटे शहरों की तरफ बढ़ेगा। स्वदेशी नीति का एक बड़ा लाभ यह भी होगा कि इससे प्रदेश में नए उद्योगों की स्थापना के अवसर बढ़ेंगे। औद्योगिक निवेश बढ़ेगा, जिससे रोजगार सृजन स्वाभाविक रूप से होगा। योगी सरकार पहले ही औद्योगिक गलियारों, एक्सप्रेसवे, डिफेंस कॉरिडोर और स्मार्ट कनेक्टिविटी परियोजनाओं के माध्यम से निवेशकों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर चुकी है। अब जब जनता भी स्वदेशी उत्पादों को प्राथमिकता देगी, तब यह प्रयास एक जनांदोलन का रूप ले लेगा। साथ ही, स्वदेशी के प्रति यह आह्वान पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक स्वाभिमान से भी जुड़ा है। जब हम अपने पारंपरिक हस्तशिल्प, कपड़ा, कृषि उत्पाद और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देंगे, तब न केवल रोजगार मिलेगा बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान भी सुरक्षित रहेगी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह संदेश वास्तव में आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ-साथ मानसिक स्वावलंबन का भी संदेश है। यह हमें यह याद दिलाता है कि हम अपनी क्षमता और प्रतिभा के बल पर भी विकास कर सकते है, हमें केवल अपने संसाधनों पर विश्वास करना होगा। यदि प्रदेश का हर नागरिक स्वदेशी अपनाओ, प्रदेश बढ़ाओ के मंत्र को जीवन में उतार ले, तो आने वाले वर्षों में प्रदेश न केवल देश का सबसे बड़ा राज्य रहेगा, बल्कि सबसे सशक्त आर्थिक इकाई के रूप में भी अपने को स्थापित करता नजर आएगा। स्वदेशी केवल आर्थिक नीति नहीं, बल्कि एक विचारधारा है। आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और आत्मगौरव से भरे समाज की नींव । मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह आह्वान उसी दिशा में एक निर्णायक कदम सावित हो सकता है, लेकिन इसमें लोगों की सहभागिता और जागरूकता के जरिये प्रदेश की आर्थिक नीति को बुलंदी प्रदान की जा सकती है।