12-02-2025 (Important News Clippings)

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12 Feb 2025
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Date: 12-02-25

ट्रम्प की धमकी में हमारे लिए एक अवसर है

संपादकीय

ट्रम्प ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ के आयातित स्टील और एल्युमीनियम पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी दी है। भारत सहित तमाम देश इससे प्रभावित होंगे। विश्व कूटनीति में ‘धमकी डॉक्ट्रिन’ ट्रम्प की पुरानी स्टाइल रही है। दूसरे टर्म में ट्रम्प ने कनाडा सहित कई देशों को सबसे पहले यह धमकी दी हालांकि बाद में इसका अमल टाल दिया। सम्भव है पीएम मोदी से कल-परसों की भेंट के बाद भारत के खिलाफ भी टैरिफ न लगे। लेकिन भारत को इसे दो प्रकार से देखना होगा। सही है कि अमेरिका में ही जरूरत भर का स्टील और एल्युमीनियम उत्पादन होने में तीन साल लगेंगे और इससे 1000 अमेरिकी लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन विदेशी स्टील की कमी से अमेरिका में कीमतें बढ़ेंगी, कार सहित स्टील की खपत करने वाले तमाम उद्योगों पर काफी बुरा असर पड़ेगा। अमेरिकी जनता को स्टील महंगा मिलेगा यानी 1000 रोजगारों की वास्तविक कीमत कल्पना से ज्यादा होगी। उधर निर्यात न होने की स्थिति में भारत में स्टील का रेट गिरेगा तो इस पर आधारित एमएसएमई सेक्टर को बढ़ने और निर्यात करने का मौका मिलेगा। अमेरिकी जनता कुछ युवाओं को नौकरियों की कीमत पर लम्बे समय तक महंगाई झेलने को तैयार नहीं होगी। अमेरिकी फैसले के बाद पूरी दुनिया अपनी जरूरत का स्टील और एल्युमीनियम लेने के लिए चीन और भारत का रुख भी कर सकती है।


Date: 12-02-25

एआइ की चुनौती

संपादकीय

पेरिस में आयोजित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि इस तकनीक में दुनिया को बदलने की ताकत है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि इसके उपयोग के संदर्भ में कोई वैश्विक ढांचा बने। ऐसा इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि एआइ के दुरुपयोग के खतरे किसी से छिपे नहीं। अभी एआइ का उपयोग अपने प्रारंभिक चरण में ही है, लेकिन उससे पैदा होने वाली कई चुनौतियों ने सिर उठा लिया है। यह उन्नत तकनीक बनाने वाली कुछ कंपनियां उसे अपने हिसाब से संचालित करती भी दिख रही हैं। इस तकनीक का मनमाना इस्तेमाल न होने पाए, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कोई प्रभावी तंत्र इसलिए बनाना होगा, क्योंकि अमेरिका की कुछ बड़ी तकनीकी कंपनियों ने सूचना संसार में अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया है। उनके एकाधिकार और उनकी मनमानी से निपटना विश्व के तमाम देशों के लिए मुश्किल हो रहा है । यदि इसी तरह का एकाधिकार एआइ कंपनियों ने भी स्थापित कर लिया तो फिर समस्या गंभीर हो जाएगी। सबसे अधिक समस्या विकासशील और निर्धन देशों को होगी, जो पहले से ही चुनिंदा तकनीकी कंपनियों के वर्चस्व से दो-चार हैं।

कोई भी तकनीक तभी अवसर बनती है, जब उसका उपयोग नीर-क्षीर ढंग से होता है और उसके दुरुपयोग की आशंकाओं पर प्रभावी ढंग से लगाम लगाई जाती है। एआइ के मामले में ऐसा इसलिए अनिवार्य रूप से करना होगा, क्योंकि यह मानव जीवन को कहीं गहराई से प्रभावित करने की क्षमता रखती है। एआइ एक नई तकनीक है और बहुत से लोग उसके प्रयोग के तौर-तरीकों से अपरिचित हैं। इसीलिए यह आशंका उभरी है कि उसके कारण रोजगार का संकट पैदा हो सकता है। निःसंदेह नई तकनीक अवसर बनती है, लेकिन उन्हीं के लिए जो उससे परिचित हो जाते हैं। यह स्वाभाविक है कि भारत एआइ को अपने लिए एक अवसर के रूप में देख रहा है, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि उसका समुचित लाभ उठाने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। एआइ के जरिये वे अनेक काम किए जा सकते हैं, जो मनुष्य करते हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि उसमें मानवीय संवेदनाएं नहीं होतीं और वह उपलब्ध डाटा के आधार पर ही किसी नतीजे पर पहुंचती है। अब यदि डाटा ही सटीक न हो तो नतीजे भी नुकसान पैदा करने वाले हो सकते हैं। इस पर हैरानी नहीं कि अति उन्नत एआइ को मानव सभ्यता के लिए संकट के रूप में भी देखा जा रहा है। इस आशंका को निर्मूल साबित करने वाले उपाय करना समय की मांग हैं। यह ठीक है कि पेरिस शिखर सम्मेलन में एआइ के क्षेत्र में भारत और प्रमुख देशों के बीच सामंजस्य बढ़ने के संकेत मिले, लेकिन बात तब बनेगी, जब यह मंच एआइ के नियमन के लिए सहमति कायम करने की आधारशिला बने ।


Date: 12-02-25

भारत के पास अवसर

संपादकीय

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के आर्थिक और राजनीतिक विचार दुनिया को अस्थिर कर रहे हैं। विश्व अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में अमेरिका के महत्व को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि चार साल में दुनिया कैसी नजर आएगी। यह भी संभव है कि ट्रंप के विचार उनके कार्यकाल के बाद भी प्रभावी रहें। चाहे जो भी हो दुनिया को निकट भविष्य में उथल-पुथल से जूझना होगा। विभिन्न देशों को अपने हितों की रक्षा के लिए बातचीत और बदलावों के वास्ते तैयार रहना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस सप्ताह होने वाली अमेरिका यात्रा भारत को शुरुआती अवसर मुहैया करा रही है ताकि वह अमेरिका के नए प्रशासन के समक्ष अपना रुख स्पष्ट कर सके। दोनों नेताओं के बीच बैठक उस समय हो रही है जब अन्य बातों के अलावा अमेरिका ने कहीं से भी स्टील आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगा दिया है। इससे पहले ट्रंप ने चीन पर 10 फीसदी शुल्क लगाया था और मेक्सिको तथा कनाडा पर शुल्क लगाने की धमकी दी थी।

व्यापार के संदर्भ में भारत का रुख स्पष्ट करने के पहले यह समझना आवश्यक होगा कि नया अमेरिकी प्रशासन क्या हासिल करना चाहता है। जैसा कुछ टीकाकारों ने स्पष्ट किया है इसके मोटे तौर पर दो लक्ष्य हैं। पहला, जैसा ट्रंप ने स्वयं कहा है वह व्यापार को संतुलित करना चाहते हैं। अमेरिका का चालू खाते का घाटा (सीएडी) 2024 की तीसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.2 फीसदी के बराबर रहा जो इससे पिछली तिमाही के 3.8 फीसदी से अधिक था। दूसरा लक्ष्य है राजस्व बढ़ाना ताकि कर में भारी भरकम कटौती की भरपाई की जा सके। यकीनन लक्ष्य और साधन व्यापक आर्थिक सहमति के साथ तालमेल वाले नहीं हैं। शुल्क दरों का बोझ अंततः अमेरिकी परिवारों पर ही पड़ेगा और अमेरिका के व्यापार घाटे की वृहद आर्थिक वजहें भी मौजूद हैं। बहरहाल, ऐसी वजहें ट्रेप को प्रभावित करती नहीं दिखतीं।

अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की सोच हाल ही में रॉबर्ट ई लाइटहाइजर ने स्पष्ट की जो ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि थे और जिन्होंने ‘नो ट्रेड इज फ्री: चेंजिंग कोर्स, टेकिंग ऑन चाइना, ऐंड हेल्पिंग अमेरिकाज वर्कर्स (2023) ‘ पुस्तक लिखी है। उन्होंने द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक आलेख लिखा। उसका मुख्य तर्क यह है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था अमेरिका तथा कई अन्य देशों के हितों के खिलाफ रही है। वह कहते हैं कि चीन जिसने 2024 में एक लाख करोड़ डॉलर से अधिक का व्यापार अधिशेष हासिल किया, उसने इस प्रणाली को ध्वस्त किया है। ऐसे तमाम तरीके हैं जिनकी मदद से देश व्यवस्था को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकते हैं। मुद्रा के साथ छेड़छाड़ भी उसमें से एक है। लाइटहाइजर कहते हैं कि लोकतांत्रिक देशों को साथ आकर एक नई कारोबारी व्यवस्था कायम करनी चाहिए। भारत को व्यापक सोच और नीतिगत ढांचे को देखते हुए अमेरिका से कहना चाहिए कि वह देशों को ध्यान में रखकर प्रतिबंध लगाने से बचे। ट्रंप अपने प्रचार अभियान के दौरान कई बार भारतीय टैरिफ की बात कर चुके हैं।

पहली बात तो यह कि कई अन्य देशों के उलट भारत घरेलू नीतियों में बदलाव नहीं कर रहा और अमेरिका की तरह वह भी चालू खाते के घाटे से जूझ रहा है। हमारा आयात, नियत से अधिक है। दूसरा भारत अपने शुल्कों की समीक्षा कर रहा है और जैसा एक व्यापार विशेषज्ञ ने इसी पृष्ठ पर लेख में कहा है कि भारत आने वाले तीन चौथाई अमेरिकी आयात पर वास्तविक शुल्क पांच फीसदी से भी कम है। जरूरत पड़ने पर भारत को टैरिफ और आयात स्रोत की समीक्षा को तैयार रहना चाहिए। तीसरा, भारत का बाजार बहुत बड़ा है और वह अमेरिकी तकनीक कंपनियों को प्रतिभाएं मुहैया कराता है। यानी दोनों के बीच परस्पर निर्भरता बहुत अधिक है जो व्यापार के आंकड़ों में नहीं दिखती। अंत में, अर्थशास्त्र और भूराजनीति आपस में संबद्ध हैं। कम से कम चीन के संदर्भ में तो ऐसा ही है। ऐसे में आपसी सहयोग भारत और अमेरिका दोनों के हित में है।


Date: 12-02-25

निर्णायक लड़ाई में आगे बढ़ता देश

प्रमोद भार्गव

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में सुरक्षा बलों के नक्सल विरोधी अभियान में बड़ी सफलता मिली है। डिस्ट्रिक रिजर्व गॉर्ड, एसटीएफ और बस्तर योद्धाओं के संयुक्त दल ने इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में 31 नक्सली मार दिए। बीजापुर में सात दिन में यह दूसरी बड़ी मुठभेड़ है। इससे पहले गंगालूर क्षेत्र में 2 फरवरी को 8 नक्सली मारे गए थे। इसी तरह 4 अक्टूबर 2024 को सुरक्षा बलों ने अबूझमाड़ के थुलथुली में 38 नक्सलियों को मार गिराया था, लेकिन अब नक्सलियों को बालों लगातार चुनौती मिल रही है। नक्सलियों का दमन हो रहा है।

केंद्र सरकार ने 2026 तक नक्सलवाद का पूर्ण सफाया करने का संकल्प लिया हुआ है। बावजूद नक्सलियों का अस्तित्व अब तक बना है तो इसलिए क्योंकि कुछ देश विरोधी ताकतें उन्हें धन, घातक हथियार, विस्फोटक और उत्तम गुणवत्ता की संचार प्रणाली उपलब्ध करा रहे हैं। लगता है कि सजातीय वनवासियों और ग्रामीणों पर उनकी पकड़ अभी भी बनी हुई है। उधर, छत्तीसगढ़ सरकार ने भी दो टूक कह दिया है कि या तो नक्सली समाज से जुड़ जाएं या खात्मे के लिए तैयार रहें। नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार की कोशिश है कि सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी जाए, जहां नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में 4000 से अधिक सैन्यबल तैनात करने जा रहा है। केंद्र सरकार की कोशिश है कि 31 मार्च 2026 तक इस क्षेत्र को पूरी तरह नक्सलवाद से मुक्त कर दिया जाए। इतनी बड़ी संख्या में सैन्यबलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुंच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। जिस तरह से नरेन्द्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियां इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएं मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निशाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं। इनका कार्यक्षेत्र वह आदिवासी बहुल इलाका है, जिससे ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना मुष्किल होता है, लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएं आसानी से हासिल कर लेते हैं । नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आंकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही है, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश विकास की धारा से लग रहा है? क्योंकि इसी दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिले हैं। बावजूद कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे हैं। हालांकि नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध ‘सलवा जुडूम’ को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से ठन गई। इस हमले में कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे, लेकिन कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली थी, बावजूद नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा अब फिर सत्ता में है। उसके बाद से ही नक्सलियों के सफाए का सिलसिला चल रहा है।

दरअसल, देश में तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा है, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था, बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोलता था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की। माओवादियों के खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती है, लेकिन अब इस चरमपंथ पर पूर्ण अंकुश लगाता दिखाई दे रहा है।


Date: 12-02-25

उच्च शिक्षा सुधार

संपादकीय

भारतीय विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है और नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट ने इस जरूरत की तस्दीक की है। सबसे खास बात यह है कि नई शिक्षा नीति के तहत नीति आयोग ने कुछ अच्छी सिफारिशें की हैं, जिन्हें अगर ठीक से लागू किया जाए, भारत में राज्य स्तर पर काम कर रहे उच्च शिक्षण संस्थानों का कायाकल्प हो जाएगा। सिफारिशों का मुख्य जोर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार पर है भारत की विशाल आबादी को कुशल बनाकर ही विकसित भारत का निर्माण संभव है और नीति आयोग ने अगर इस जरूरत को समझ लिया है, तो प्रशंसा होनी चाहिए। राज्यों के अधीन विश्वविद्यालयों में संकाय भर्ती प्रक्रिया के साथ ही मान्यता प्रकिया में भी सुधार होना चाहिए। यह बात कई बार सामने आई है कि इन संस्थानों में बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद खाली हैं। योग्य शिक्षकों को नियुक्त करना और साथ ही, पैमाने पर खरे संस्थानों को मान्यता देने की सिफारिश सुखद है। यह बात छिपी नहीं है कि अनेक संस्थानों में आज के पैमानों पर ही कड़ाई बरती जाए, तो उनकी मान्यता रद्द हो जाएगी। वैसे, समय आ गया है कि कड़ाई बरती जाए।

नीति आयोग ने अपनी सिफारिश में राष्ट्रीय अनुसंधान नीति शुरू करने के साथ ही मानविकी विषयों में अनुसंधान विकास पर भी जोर दिया है। वाकई भारतीय विश्वविद्यालयों में होने वाले अनुसंधानों की आलोचना होती रही है। ज्यादातर अनुसंधान खानापूर्ति वाले होते हैं, जिनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं रहता है। अनुसंधान में गिरावट तभी आती है, जब शिक्षा को औपचारिकता मात्र समझ लिया जाता है। शिक्षा एक बहुत गंभीर क्षेत्र है और यहां केवल दिखावे के लिए कुछ करना घातक सिद्ध हो सकता है भारत अनुसंधान या शोध की संख्या के मामले में दुनिया में चौथे स्थान पर है, लेकिन शोध उद्धरण या मान्यता के मामले में नौवें स्थान पर है। नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद शोध के स्तर में क्या सुधार हुआ है,

यह जांचने की बात होनी चाहिए। नीति आयोग ने शोध के मोर्चे पर परेशान कर रही कमियों को देखा होगा, तभी सिफारिशें सामने आई हैं। नीति आयोग ने देश के 20 राज्यों से परामर्श किया है और उसके बाद ही स्टेट पब्लिक यूनिवर्सिटीज में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुधार की सिफारिशें की हैं। अफसोस कि जहां सभी राज्यों को सहमत करने में कामयाबी नहीं मिली, वहीं विपक्षी दलों के अधीन काम कर रही सरकारों ने नई शिक्षा नीति को मन से स्वीकार नहीं किया है।

भारत में शिक्षा सुधार पर तमाम राज्यों को एकमत होना चाहिए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जो नियम प्रस्तावित किए हैं, उनका कर्नाटक और केरल में विरोध हो रहा है। तमिलनाडु ने तो पहले ही घोषणा कर दी है कि वह अपनी अलग शिक्षा नीति लाएगा। विरोध की ऐसी वजहों को समझना होगा। शिक्षा राजनेताओं का विषय नहीं, शिक्षाविदों का विषय है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के अलावा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भी यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु को कैसे राजी किया जा सकता है? दक्षिण के राज्यों की शिक्षा नीतियों में अगर कुछ बेहतर क्रांतिकारी उपाय हैं, तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर या हर राज्य में आजमाने में कोई हर्ज नहीं है। सुधार की बात अगर चल ही रही है, तो राज्य स्तर के साथ ही, केंद्रीय विश्वविद्यालयों व अन्य उच्च संस्थानों को भी सोने पर सुहागे जैसे सुधार कर लेने चाहिए।


Date: 12-02-25

पेरिस में कुछ सुलझी एआई की पहेली

मोहन कुमार, ( पूर्व राजदूत, फ्रांस )

पेरिस में संपन्न दो दिवसीय कृत्रिम बुद्धिमत्ता सम्मेलन, यानी ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) एक्शन समिट’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के गहरे अर्थ हैं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि एआई में करोड़ों लोगों के जीवन को बदलने की क्षमता है, इसलिए हमें आम लोगों के हित में इसका अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए। साइबर सुरक्षा, गलत सूचना और डीप फेक से जुड़ी चिंताओं के समाधान को लेकर भी उन्होंने व्यापक पहल का आह्वान किया। इस संदर्भ में यह सम्मेलन कितना सफल साबित हुआ, इसका पता तो खैर आने वाले दिनों में चलेगा, लेकिन यह एआई पर तीसरा शिखर सम्मेलन था। इससे पहले दो शिखर सम्मेलन, नवंबर, 2023 में ब्रिटेन में और मई, 2024 में दक्षिण कोरिया में हो चुके हैं।

पेरिस सम्मेलन का मकसद सामूहिक तरक्की और सार्वजनिक हित में अधिक उपयोगी एआई के लिए आपस में मिलकर वैज्ञानिक बुनियाद, समाधान और मानक तैयार करना था। भारत ने इस सम्मेलन में फ्रांस के साथ मिलकर अध्यक्षता की। कहना गलत नहीं होगा कि यह सम्मेलन साल 2023 के ब्लेचली पार्क शिखर सम्मेलन और 2024 के सियोल शिखर सम्मेलन में तय किए गए रास्तों का नया महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ है। इसमें समावेशी व विविध योगदान सुनिश्चित करने के लिए करीब 30 देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को एक साथ लाने में सफलता मिली है।

एआई एक्शन समिट की अध्यक्षता भारत और फ्रांस द्वारा साझा रूप से किए जाने के संकेत प्रतीकात्मक नहीं हैं। जनवरी, 2024 में जब फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों गणतंत्र दिवस के मौके पर मुख्य अतिथि बनकर भारत आए थे, तभी दोनों शीर्ष नेताओं ने बातचीत में एआई पर चर्चा की थी। इसके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इन दोनों ने सुरक्षित, संरक्षित और भरोसेमंद एआई विकसित करने के लिए एक बहुआयामी साझेदारी की जरूरत समझी थी। इसी कारण, वैश्विक साझेदारी के लिए एआई को आगे बढ़ाने के प्रति फ्रांस और भारत ने साझा प्रतिबद्धता जताई, ताकि महत्वपूर्ण एआई संसाधनों तक न्यायसंगत पहुंच को बढ़ावा मिल सके। पेरिस शिखर सम्मेलन इससे बेहतर समय में हो नहीं सकता था। यह डीपसीक द्वारा पैदा की गई हलचल की पृष्ठभूमि में और एक ऐसे समय पर हुई, जब दुनिया भर के नियामक इस क्षेत्र में हो रहे तीव्र विकास से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

फिलहाल, तीन बुनियादी मसलों की चर्चा जरूर होनी चाहिए। पहला, ओपेन सोर्स बनाम क्लोज्ड सोर्स एआई। ओपेन सोर्स एआई का मतलब ऐसी व्यवस्था से है, जिसमें कोड सबके लिए मुफ्त में उपलब्ध होता है। इसमें किसी को भी सॉफ्टवेयर की जांच करने, उसमें सुधार करने और योगदान देने का अधिकार मिल जाता है, जिससे सहयोगी व सामूहिक प्रगति को बढ़ावा मिलता है। दूसरी तरफ, क्लोज्ड सोर्स में एआई कोड पर किसी का मालिकाना हक होता है और वह केवल डेवलपर्स या उसे तैयार करने वाली कंपनी के लिए ही सुलभ होता है। इस कारण कोई बाहरी यहां तक नहीं पहुंच सकता और न ही इसमें संशोधन कर सकता है। इससे सॉफ्टवेयर के विकास पर कंपनी का पूरा-पूरा नियंत्रण हो जाता है। पहुंच और नियंत्रण के ये दो अलग-अलग आयाम ही वास्तव में तकनीकी उद्योग की मौजूदा रणनीतियों को परिभाषित करते हैं। दूसरा मुद्दा एआई की नैतिकता से जुड़ा है। नैतिकता का संबंध एल्गोरिदम संबंधी पूर्वाग्रहों, एआई एप में भेदभाव, डाटा पर सहमति, निगरानी और नियंत्रण (निजता का उल्लंघन ) और कानूनी जवाबदेही से हो सकता है। बुनियादी सवाल यह है कि एआई के लिए नैतिक जिम्मेदारी कैसे तय की जाए

तीसरा मसला कार्बन-फुटप्रिंट से जुड़ा है। एआई की क्षमता ऊर्जा की व्यापक खपत से तैयार होती है, जिससे चौंका देने वाले कार्बन उत्सर्जन होते हैं। जैसे- जैसे डेटासेट और मॉडल जटिल होते जाते हैं, एआई मॉडल को प्रशिक्षित करने और संचालित करने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। ऊर्जा खपत में होने वाली यह वृद्धि सीधे-सीधे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को प्रभावित करती है, जिससे जलवायु संकट बढ़ता है। ओपेन एआई शोधकर्ताओं के मुताबिक, साल 2012 से अत्याधुनिक एआई मॉडल को तैयार करने के लिए जरूरी कंप्यूटिंग ताकत की मात्रा हर तीन महीने में दोगुनी हुई है। उम्मीद की जा रही है कि साल 2040 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में अकेले सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी उद्योग की हिस्सेदारी 14 फीसदी हो जाएगी, जिनमें से अधिकांश उत्सर्जन सूचना और संचार प्रौद्योगिकी संरचना, खासकर डेटा सेंटर और संचार नेटवर्क से होगा।

यहां अमेरिका और चीन में चल रही प्रतिस्पर्द्धा का उल्लेख जरूरी है। अमेरिका ने चैटजीपीटी एआई मॉडल बनाया, जिसके जवाब में चीन ने कहीं सस्ता एआई मॉडल डीपसीक लॉन्च कर दिया। डीपसीक एप एपल पर सबसे ज्यादा डाउनलोड किया जाने वाला मुफ्त एप बन गया है। मगर वास्तव में, दोनों में एक बुनियादी अंतर है। चैटजीपीटी जहां क्लोज्ड सोर्स मॉडल है, वहीं डीपसीक ओपेन सोर्स। ऐसे में, मेरा मानना है कि भारत और यूरोपीय संघ किसी मध्यमार्ग पर आगे बढ़ना पसंद करेंगे। कोई तीसरा रास्ता बनाया जा सकता है, जिसमें एआई पर नैतिक नियंत्रण भी हो और वह ओपेन सोर्स भी रहे। वास्तव में, यह भारत व यूरोपीय संघ के लिए एक कूटनीतिक मौका है और इससे भारत-फ्रांस संबंध काफी आगे बढ़ सकते हैं। यह इसलिए भी अहम है, क्योंकि अमेरिका-चीन और अमेरिका-यूरोपीय संघ के बीच वैचारिक दूरी बन रही है, ऐसे में, भू-राजनीति के हिसाब से भारत की अहमियत काफी बढ़ गई है।

भारत और फ्रांस इन तमाम चुनौतियों से पार पाने में सक्षम हैं। इसकी पहली वजह तो यही है कि जब बात एआई तक लोकतांत्रिक पहुंच सुनिश्चित करने, एआई की नैतिकता पर काम करने और इसके विकास में कम कार्बन फुटप्रिंट वाले रास्ते तय करने की बात आती है, तो भारत व फ्रांस समान धरातल पर नजर आते हैं। ये दोनों देश वैश्विक भलाई के लिए उच्च तकनीक को बढ़ावा देने के लिए संकल्पित हैं। सवाल बस यही है कि क्या एक भरोसेमंद एआई विकसित करना संभव है? चूंकि फ्रांस एक विकसित देश है और उसके पास कई नवाचार हैं, वहीं भारत एक विकासशील देश होते हुए भी अपनी डिजिटल क्षमता का बखूबी प्रदर्शन कर चुका है कि वह किस तरह नई तकनीक को विकसित और अपना सकता है, लिहाजा माना जा रहा है कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों व प्रधानमंत्री मोदी की सह-अध्यक्षता में हुए पेरिस सम्मेलन का खासा प्रभाव पड़ सकता है।