11-01-2025 (Important News Clippings)

Afeias
11 Jan 2025
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   Date: 11-01-25

Local power

Local self-governments make a difference to the lives of people

Editorial

Instead of signalling its intention to hold elections to rural local bodies, the Tamil Nadu government has appointed special officers for these bodies in several districts of the State. Elections were due in 9,624 village panchayats, 314 panchayat unions, and 28 district panchayats where the term of office of the RLBs came to an end on January 5. These government officers will function for the next six months. In support of its decision, the government has cited the ongoing re-organisation of rural and urban local bodies, which will result in a delimitation of wards of the local bodies — a step that the government considers a prerequisite to the conduct of polls to local bodies. It had given an undertaking to the Madras High Court in December 2024, that no poll notification would be issued without completing delimitation and putting in place a quota of seats and offices for women, Scheduled Castes and Scheduled Tribes. Apart from creating four more municipal corporations by accommodating village panchayats, the stage is set for the expansion of the limits of municipal corporations, municipalities and town panchayats by taking in other village panchayats. It has proposed the merger of least 140 village panchayats with municipal corporations. Though there is nothing final about the reorganisation, the government is of the view that rapid urbanisation in village panchayats adjoining bigger cities such as Chennai and Coimbatore necessitates a fresh look at the local bodies.

In Suresh Mahajan vs State of Madhya Pradesh, the Supreme Court had held that the delimitation or formation of ward “cannot be a legitimate ground to be set forth by any authority much less the State Election Commission — to not discharge its constitutional obligation in notifying the election programme” at an opportune time and ensure that an elected body was installed before the expiry of the five-year term of the outgoing body. It had also stipulated that in undertaking delimitation, which the Court regarded as a continuous exercise, it “ought to be commenced well-in-advance” so that the elections were notified on time. Sections of residents in a number of village panchayats have opposed the proposed reorganisation of local bodies as they are apprehensive of the cessation of rural development schemes such as the MGNREGA if there is a merger with urban local bodies. Tamil Nadu is not the only State that has failed to hold local body polls on time. Bigger cities such as Mumbai and Bengaluru are on the list. It is time that the States realise the importance of the space that local bodies occupy in the democratic structure. Despite shortcomings, local self-governments do make a qualitative difference to people’s lives.


   Date: 11-01-25

एमएसपी विवाद का आखिर स्थाई हल क्या है

संपादकीय

किसान नेता डल्लेवाल 46 दिनों से शंभू बॉर्डर पर अनशन पर हैं। उनकी स्थिति लगातार खराब हो रही है। 27 दिन में दो किसानों ने आत्महत्या की है। एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर सरकार राजी नहीं है। क्या सरकार मानती है कि यह मांग एक क्षेत्र विशेष के किसानों तक ही सीमित है या प्रकारांतर से यह कि किसानों की स्थिति अच्छी है ? लोकतंत्र में कल्याणकारी राज्य को यह देखना चाहिए कि मांग सही है या नहीं बजाय इसके कि ये कितने छोटे या बड़े समूह की है। और सही-गलत के हिसाब से हल तलाशना चाहिए। किसानों की हालत दशकों से खराब न होती तो पिछले 34 वर्षों से हर 35 मिनट में एक किसान आत्महत्या न कर रहा होता। अगर गेहूं-चावल, चीनी, कपास और प्याज के दाम बढ़े तो सरकार फौरन ही निर्यात रोकती है, फिर जरूरत हुई तो दाम गिराने के लिए आयात करती है। क्या औद्योगिक उत्पादों में भी ऐसी नीति है? सरकारी अर्थशास्त्री कहते हैं कि सरकार कैसे देश के 23 जिंसों का सारा उत्पादन एमएसपी पर खरीदेगी? इस तर्क में दोष है | गारंटी मिलेगी तो किसान अन्य फसलों की ओर उन्मुख होगा यानी दलहन और तिलहन के लिए सरकार को आयात नहीं करना होगा। एमएसपी की गारंटी से व्यापारी बाजार नीचे नहीं कर पाएंगे लिहाजा किसान सरकार की जगह मंडियों में बेचेगा ।


Date: 11-01-25

‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ में भारत की भूमिका पर सवाल

शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद )

ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि डोनाल्ड ट्रम्प के ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (‘मागा’) आंदोलन में भारत की भी अहम भूमिका बन गई है। एक तरफ वो लोग हैं, जो मानते हैं कि अमेरिकी-महानता को फिर से बहाल करने की कुंजी संरक्षणवाद, करों में कटौती और नियम-कायदों में ढील देने में है। इसका मतलब होगा कि बाहर की दुनिया के लिए अमेरिका की जिम्मेदारियां घटेंगी, सरकार का आकार छोटा होगा और दुनिया भर की प्रतिभाओं को काम पर रखकर व्यापार को बढ़ावा दिया जाएगा। वहीं दूसरी तरफ के लोगों का सोचना है कि अमेरिका की महानता गोरों के वर्चस्व में ही निहित है।

इन दोनों ही पक्षों के लिए भारत एक मिसाल बन गया है। कई मायनों में, अमेरिका में रहने वाले भारतीय एक आदर्श अल्पसंख्यक समुदाय हैं। अमेरिका के 72% भारतीय प्रवासी विश्वविद्यालय स्नातक हैं और ये वहां के सबसे अधिक आय वाले अप्रवासी समूहों में से हैं। भारतवंशियों ने पिछली चौथाई सदी में सिलिकॉन वैली के लगभग 25% स्टार्टअप का नेतृत्व किया है। साथ ही अल्फाबेट (गूगल), माइक्रोसॉफ्ट, एडोबी और आईबीएम में भी भारतीय शीर्ष पदों पर पहुंचे हैं।

इससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि अर्थव्यवस्था के सुधार पर फोकस करने वाला ‘मागा’ गुट ट्रम्प द्वारा अपने प्रशासन में प्रमुख पदों के लिए भारतीय-अमेरिकियों को चुनने से खुश क्यों था। इनमें जय भट्टाचार्य (राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थानों का निर्देशन करने के लिए) और काश पटेल (एफबीआई का नेतृत्व करने के लिए) शामिल हैं। ट्रम्प ने विवेक रामास्वामी को एलन मस्क के साथ मिलकर सरकारी दक्षता विभाग (डोज) का सह-नेतृत्व करने के लिए भी चुना है।

वहीं ‘मागा’ आंदोलन का श्वेत-राष्ट्रवादी गुट इन नियुक्तियों से नाराज था। चेन्नई में जन्मे वेंचर कैपिटलिस्ट श्रीराम कृष्णन को एआई पर वरिष्ठ नीति सलाहकार के रूप में नियुक्त करने के ट्रम्प के फैसले ने उन्हें और नाराज कर दिया। जैसा कि एक यूजर ने एक्स पर लिखा, क्या आपमें से किसी ने अमेरिका चलाने के लिए इस भारतीय को वोट दिया था? एक प्रमुख ‘मागा’ कार्यकर्ता लॉरा लूमर ने एक्स पर लिखा कि अमेरिका ऐसे व्यक्ति के तहत इमिग्रेशन को कैसे नियंत्रित कर सकता है? उन्होंने दावा किया कि इससे विदेशी छात्र अमेरिका आकर अमेरिकियों की नौकरियां हड़प लेंगे।

जैसा कि व्हाइट हाउस एआई के लिए ट्रम्प द्वारा चुने गए डेविड सैक्स ने बताया, वर्तमान में हर देश को समान संख्या में ग्रीन कार्ड (यूएस स्थायी आवास वीजा) दिए जाते हैं, चाहे उसके पास कितने भी योग्य आवेदक क्यों न हों। वास्तव में, जहां उच्च-कुशल श्रमिकों के लिए एच1-बी वीजा रखने वालों में भारतीयों की संख्या बहुत ज्यादा है, वहीं जारी किए जाने वाले केवल 7% ग्रीन कार्ड के लिए उनकी पात्रता है।

लेकिन लूमर और उनके साथियों के लिए सभी प्रकार के इमिग्रेशन एक समस्या हैं, क्योंकि वे अमेरिका के मूल रूप से ईसाई, यूरोपीय राष्ट्रीय चरित्र को खतरे में डालते हैं और विदेशियों को अमेरिकियों से नौकरियां छीनने में सक्षम बनाते हैं। भारत से इमिग्रेशन- जहां की आबादी का केवल 2-3% ही ईसाई हैं और जहां लगभग कोई भी यूरोपियन मानकों पर गोरा नहीं है- भी अपवाद नहीं है। जैसा कि धुर दक्षिणपंथी टिप्पणीकार एन कूल्टर ने इस साल की शुरुआत में पूर्व रिपब्लिकन उम्मीदवार रामास्वामी से कहा था, वे उनके कई विचारों से सहमत हैं, लेकिन इसके बावजूद वे कभी उन्हें वोट नहीं देंगी, क्योंकि वे भारतवंशी हैं!

भारतीय मूल के दो डेमोक्रेट्स- रो खन्ना और श्री थानेदार के अनुभव भी इससे बेहतर नहीं थे। खन्ना ने कहा कि अमेरिकियों को तो खुशी मनानी चाहिए कृष्णन जैसे प्रतिभाशाली लोग चीन के बजाय अमेरिका आना चाहते हैं। उन्हें मिले जवाबों में कुछ इस तरह के बयान थे कि अगर वे इतने ही अच्छे हैं तो उन्होंने अपने मूल देश को क्यों नहीं सुधारा? या हमें गोरे इमिग्रेंट्स चाहिए, भूरे नहीं! लेकिन नस्लवाद इकलौता कारण नहीं है, जिसके चलते ट्रम्प समर्थक इमिग्रेशन का विरोध करते हैं। उनमें से कई अमेरिकी नौकरियों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा से डरते हैं, खासकर ऐसे समय में जब एआई भी रोजगार के लिए खतरा बनता जा रहा है। इसका समाधान यह है कि भारतीय कामगारों का आयात करने के बजाय अमेरिका भारत को अपने इनोवेशन आउटसोर्स करे। यदि अमेरिकी निवेशक भारतीय फर्मों में पैसा लगाते हैं, तो अमेरिका इमिग्रेशन बढ़ाए बिना भारतीयों के इनोवेशन का लाभ उठा सकेगा। लेकिन इससे भारत को भी लाभ होगा। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ में ‘इंडिया’ के लिए भी जगह बनानी होगी!


Date: 11-01-25

आर्थिक अपराधी

संपादकीय

यह स्वागतयोग्य तो है कि इंटरपोल की नई व्यवस्था के तहत यह जानने में आसानी होगी कि विदेश भागे आर्थिक अपराधियों ने कहां कितना धन छिपा रखा है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या अवैध तरीके से अर्जित किए गए और विदेश भेजे गए इस काले धन को हासिल करने में भी आसानी होगी? बात तब बनेगी, जब इस धन को सरलता से हासिल करने की भी राह खुले और साथ ही संबंधित आर्थिक अपराधी को देश भी लाया जा सके। आर्थिक अपराधियों की ओर से विदेश में जमा किए गए धन का पता लगाने के लिए इंटरपोल ने सिल्वर नोटिस जारी करने की जो नई मुहिम शुरू की है, उसमें भारत भी भागीदार है। यह अच्छा है कि इंटरपोल ने पहला सिल्वर नोटिस जारी कर दिया, लेकिन यह ध्यान रहे कि शराब कारोबारी विजय माल्या और हीरा व्यापारी नीरव मोदी को अब तक भारत नहीं लाया जा सका है। यही स्थिति नीरव मोदी के सहयोगी मेहुल चोकसी की भी है। इनके अलावा भारत से भागे कुछ और आर्थिक अपराधी भी हैं। इनमें से कुछ के बारे में तो यह अनुमान लगा लिया गया है कि उन्होंने कितना धन विदेश भेजा, लेकिन अन्य के काले कारनामों की तह तक नहीं पहुंचा जा सका है।

जिस तरह भारत अपने आर्थिक अपराधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने में समर्थ नहीं हो पा रहा है, उसी तरह अन्य देश भी। इसका कारण यह है कि इंटरपोल के हस्तक्षेप के बाद भी अनेक देश अपने यहां रह रहे दूसरे देशों के आर्थिक अपराधियों को प्रत्यर्पित करने में आनाकानी करते हैं। दुर्भाग्य से इनमें पश्चिमी देश भी हैं। क्या यह किसी से छिपा है कि विजय माल्या और नीरव मोदी आदि को ब्रिटेन से लाने में सफलता नहीं मिल पा रही है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विश्व के प्रमुख देश आर्थिक अपराध से निपटने की हामी तो भरते रहते हैं, क्योंकि जब ऐसा करने की बारी आती है तो वे अपेक्षित सहयोग देने से इन्कार करते हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि काला धन जमा करने की दृष्टि से सुरक्षित माने जाने वाले देश भी आर्थिक अपराधियों के प्रति कुल मिलाकर नरम रवैया ही अपनाए हुए हैं। इसी कारण भारत और अन्य देशों का काला धन वापस लाने का अभियान सफल नहीं हो पा रहा है। इसका प्रमाण यह है कि इंटरपोल ही यह कह रहा है कि आर्थिक अपराधियों की ओर से दूसरे देशों में जमा की गई अधिकांश संपत्ति बरामद नहीं की जा सकी है। समस्या यह भी है कि वे उनके साथ-साथ आतंकियों को सौंपने के मामले में भी सकारात्मक रवैये का परिचय नहीं देते।


Date: 11-01-25

रिश्तों पर कायम संदेह के बादल

हर्ष वी. पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं )

जस्टिन ट्रूडो और अधिक उपहास का पात्र नहीं बनना चाहते थे। फजीहत से बचने के लिए उन्होंने अंतत: कनाडा के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उनकी राजनीति और करियर पिछले कुछ समय से भटकाव का शिकार रहा। वह जिस दलदल में फंसते जा रहे थे, उससे निकलने की कोई राह भी नहीं दिख रही थी। न केवल उनकी पार्टी, बल्कि दुनिया के एक बड़े हिस्से द्वारा भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। एक दशक पहले तक वैश्विक मीडिया के दुलारे रहे व्यक्ति की अब अमेरिका के 51वें राज्य के गवर्नर के रूप में सार्वजनिक रूप से खिल्ली उड़ाया जाना किसी दिग्गज के पतन की ज्वलंत मिसाल है। ऐसे में, उनके इस्तीफे पर कोई हैरानी नहीं हुई। उन्होंने कहा कि जब तक लिबरल पार्टी नया नेता नहीं चुन लेती तब तक वह कार्यभार संभाले रहेंगे। कनाडा की मौजूदा संसद का कार्यकाल 24 मार्च तक है। उसके बाद चुनाव होने हैं।

देखा जाए तो ट्रूडो की अधिकांश समस्याएं उनकी ही देन हैं। लंबे समय से सहयोगी रहीं उनकी उपप्रधानमंत्री क्रिस्टीया फ्रीलैंड ने जब दिसंबर में एकाएक अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, तभी तय हो गया था कि ट्रूडो के भी अपने पद पर गिने-चुने दिन ही शेष हैं। फ्रीलैंड ने त्यागपत्र देते हुए आरोप लगाया था कि कनाडाई वस्तुओं पर ट्रंप के 25 प्रतिशत के संभावित आयात शुल्क से उत्पन्न होने वाली चुनौती का तोड़ निकालने की दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं हो रहे। इससे बने माहौल में न्यू डेमोक्रेट्स और क्यूबेक नेशनलिस्ट पार्टी जैसे दलों ने भी अपना समर्थन वापस ले लिया, जो लिबरल पार्टी को लंबे समय से सत्ता में बनाए हुई थीं। तथ्य यह भी है कि कंजरवेटिव जैसे मुख्य विपक्षी दल के प्रति पिछले कुछ समय से जनसमर्थन बढ़ता जा रहा था, जबकि ट्रूडो को लिबरल पार्टी के भविष्य पर एक ग्रहण के रूप में देखा जाने लगा था। सहयोगियों के रवैये में ही इसकी झलक दिखने लगी थी। जैसे अपने इस्तीफे में फ्रीलैंड ने ट्रूडो को उनकी ‘राजनीतिक तिकड़मों’ के लिए आड़े हाथों लिया था। फ्रीलैंड का आशय अधिकांश कर्मियों के लिए दो महीने की बिक्री कर छूट और 250 कनाडाई डालर जैसी पेशकश की ओर था। उन्होंने ट्रूडो के नेतृत्व के साथ जुड़ी बुनियादी खामियों को रेखांकित किया। एक नेता जो अपने देश में व्यापक बदलाव के वादे के साथ 2015 में सत्ता में आया, वह आखिर में राजनीतिक तिकड़मों का सहारा लेने पर विवश हो गया।

विश्व में कोविड महामारी ने जो असर दिखाया, उससे कनाडा भी अछूता नहीं रहा। इस महामारी के बाद अधिकांश कनाडाई लोगों को आर्थिक दुर्दशा का सामना करना पड़ा। उनकी दृष्टि में महामारी से निपटने में सरकारी प्रबंधन संतोषजनक नहीं था। बढ़ती बेरोजगारी एवं चढ़ती महंगाई के सिलसिले ने ट्रूडो में लोगों का भरोसा और घटा दिया। उनकी लोकप्रियता तेजी से घटने लगी, जिससे उनके संगी-साथियों में अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंता बढ़ने लगी। विदेश नीति के मोर्चे पर ट्रंप की वापसी ट्रूडो के लिए बड़ा झटका रही। ट्रंप ने दावा किया कि टैरिफ को लेकर उनके दबाव के चलते ही ट्रूडो इस्तीफे पर मजबूर हुए। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। ट्रंप ने कहा, ‘अगर कनाडा अमेरिका में अपना विलय कर ले तो कोई टैरिफ नहीं होगा, टैक्स की दरें कम होंगी और रूसी एवं चीनी जहाजों के निरंतर मंडराते खतरे से भी उसकी सुरक्षा सुनिश्चित होगी।’ ट्रंप के इस कथन ने ट्रूडे के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया।

भारत के साथ रिश्तों को तो ट्रूडो ने जबरदस्त आघात पहुंचाया। ट्रूडो के नेतृत्व में भारत को लेकर ऐसा घटनाक्रम सामने आया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसके चलते भारतीय विदेश नीति प्रतिष्ठान में कनाडा को ‘नए पाकिस्तान’ के रूप में देखा जाने लगा। रिश्तों के रसातल में पहुंचाने के लिए ट्रूडो की करतूतों को अनेदखा नहीं किया जा सकता। यह ध्यान रहे कि दोनों देश बड़ी मुश्किल से कनिष्क बम हादसे, परमाणु चुनौतियों और शीत युद्धकालीन रणनीतिक असहमति के दौर से आगे बढ़ने में सफल हुए थे। 2006 से 2015 के बीच स्टीफन हार्पर के कार्यकाल में द्विपक्षीय रिश्तों की रंगत बदलती दिखी थी, लेकिन ट्रूडो के दौर में रिश्ते और बदरंग होते गए। अपनी घरेलू राजनीति चमकाने के लिए खालिस्तानी चरमपंथियों की खुशामद ने भारत-कनाडा रिश्तों को गंभीरता से लेने की उनकी क्षमता को संदिग्ध बना दिया। भारत को निशाना बनाकर अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाने का उन्होंने अंतिम पैंतरा चला। जब उन्होंने हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का आरोप भारत पर मढ़ा तो कनाडा में कुछ ही लोगों ने उन्हें गंभीरता से लिया। आखिरकार, निज्जर और अन्य चरमपंथियों को प्रत्यर्पित करने के भारत के अनुरोध को उनकी सरकार ही बार-बार खारिज करती आ रही थी। इसके साथ ही ट्रूडो सरकार ने कनाडा में खालिस्तानी समर्थकों की नफरती एवं हिंसक गतिविधियों पर भी आंखें मूंद रखी थीं। ट्रूडो और उनकी पार्टी का यह रवैया एक खास तबके और विशेष रूप से खालिस्तान समर्थकों को लुभाने पर ही केंद्रित रहा। इस मामले में भारत की चिंताओं को अनदेखा करना एवं सिख अलगाववाद को लेकर असंवेदनशील रवैये ने भी द्विपक्षीय रिश्तों में खटास बढ़ाने का काम किया।

ट्रूडो की विदाई के बाद दोनों रिश्तों के संबंधों में सुधार की एक हल्की सी उम्मीद जगी है। हल्की सी इसलिए, क्योंकि न केवल उनकी पार्टी के अन्य नेता, बल्कि विपक्षी नेता पियरे पोलिवरे भी शायद ही खालिस्तानी चरमपंथियों के विरोध का साहस जुटा पाएं। इसका कारण यही है कि ऐसे तत्वों ने कनाडा के समाज और राजनीति में अपनी जड़ें गहराई से जमा ली हैं। इसलिए ट्रूडो के बाद जो भी सत्ता की कमान संभालेगा, वह अगर भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाना चाहे तो उसके लिए उसे अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। दोनों देशों के संबंधों में एक दशक के दौरान हुए नुकसान की भरपाई आसान नहीं है।


Date: 11-01-25

सुलझाना होगा एमएसपी का सवाल

केसी त्यागी, ( लेखक पूर्व सांसद हैं )

पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने केंद्रीय कृषि मंत्री की उपस्थिति में पीएम किसान सम्मान निधि में बदलाव के साथ किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए उनसे वार्ता की भी जरूरत जताई। कृषि पर संसदीय मामलों की कमेटी ने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी की सिफारिश की है। संसद के पटल पर रखी गई इस रपट में पीएम किसान सम्मान राशि को भी 6,000 से 12,000 रुपये करने की भी संस्तुति है। इसी बीच अपनी मांगों को लेकर आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण सरकारों की चिंता बढ़ रही है। 2020 में मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानून लाने और फिर इन्हें खत्म करने के बाद भी किसान आंदोलन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। कृषि उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) कानून के अनुसार किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते थे। कोई भी लाइसेंस धारक व्यापारी किसानों से सहमत कीमतों पर उपज खरीद सकता था। कृषि उत्पादकों का यह व्यापार राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए मंडी कर से मुक्त किया गया था। किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा कानून किसानों से अनुबंध खेती करने और अपनी उपज का स्वतंत्र रूप से विपणन करने की अनुमति देने के लिए था। इसके तहत फसल खराब होने पर नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं, बल्कि एग्रीमेंट करने वाले पक्ष या कंपनियों द्वारा की जाती। आवश्यक वस्तु संशोधन कानून के तहत असाधारण स्थितियों को छोड़कर व्यापार के लिए खाद्यान्न, दाल, खाद्य तेल और प्याज जैसी वस्तुओं से स्टाक सीमा हटा ली गई थी।

कृषि कानूनों से किसानों में यह बात घर कर गई कि इनके जरिये सरकार एमएसपी को खत्म कर देगी और उन्हें उद्योगपतियों का मोहताज बनाकर छोड़ देगी, जबकि सरकार का तर्क था कि इन कानूनों के जरिये कृषि क्षेत्र में नए निवेश के अवसर पैदा होंगे और किसानों की आमदनी बढ़ेगी। कृषि संकट एक वैश्विक घटना है। कई देशों में छोटे किसानों को संसाधनों तक पहुंच की कमी, कम पैदावार, अस्थिर बाजार जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारत में इस कृषि संकट के चलते किसानों की आत्महत्या की घटनाएं 1970 से ही प्रारंभ हो गई थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1995 से 2014 के बीच 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की। 2014 से 2022 के बीच नौ वर्षों में यह संख्या 10,047 थी। नाबार्ड के अनुसार मौजूदा समय देश के सभी तरह के बैंकों का करीब 16 करोड़ किसानों पर 21 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। यानी प्रति किसान कर्ज 1.35 लाख रुपये है।

आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के अनुसार किसानों को जरूरी दर से कम एमएसपी देने से किसानों को लगभग 60 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इसके चलते किसान कर्ज में डूब गए हैं। यह किसानों की आत्महत्या का एक बड़ा कारण है। इसी असंतोष के चलते 2020 में किसानों ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के साथ किसानों की मांगों पर सहमति बनाने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही। कई दौर की मीटिंग के बाद भी आज तक उस कमेटी की रिपोर्ट का अता-पता नहीं है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पांच सदस्यीय कमेटी के कुछ निष्कर्ष अवश्य प्रकाश में आए हैं, जिसके अनुसार किसानों की लागत और कृषि हेतु लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ रहा है। समिति ने उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाने के लिए एमएसपी को कानूनी मान्यता सहित 11 मुद्दे चिह्नित किए हैं।

हाल में कृषि उत्पादकता में गिरावट, बढ़ती कृषि लागत, अपर्याप्त मार्केटिंग सिस्टम और सिकुड़ते कृषि रोजगार से कृषि आय में गिरावट आई है। घटता जलस्तर, बार-बार सूखा पड़ना, कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा का पैटर्न, भीषण गर्मी आदि जलवायु आपदाएं भी कृषि एवं खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रही हैं। किसान अपनी आजीविका को बनाए रखने से संबंधित चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इसी आर्थिक असुरक्षा के चलते पंजाब के किसान संगठनों ने स्वामीनाथन फार्मूले के अनुसार सभी फसलों पर एमएसपी के कानूनी अधिकार की मांग की है। उनका कहना है कि उन्हें बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। एमएसपी को महत्वपूर्ण कृषि उत्पादों के लिए मूल्य स्थिरता बनाए रखने के लिए डिजाइन किया गया है। इसका उद्देश्य सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से किसानों को मूल्य में उतार-चढ़ाव से बचाना है। यह प्रणाली पांच दशकों से अधिक समय से चल रही है। सरकार की धारणा है कि एमएसपी को कानूनी गारंटी देने से उसे सभी कृषि उपज खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, लेकिन इस संदर्भ में दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहला, सभी कृषि उपज बाजार में नहीं आतीं। किसान कुछ उपज को स्वयं के उपभोग, बीज और पशु चारे के लिए बचाकर रखते हैं। दूसरा, सरकारी हस्तक्षेप केवल तभी तक आवश्यक होता है, जब किसी वस्तु का बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे जाता है। इसीलिए एमएसपी पर कानूनी गारंटी लागू करने पर विचार होना चाहिए। एमएसपी की गारंटी न केवल किसानों की आत्महत्या को रोकने और महंगाई घटाने में सहायक होगी, बल्कि जल संरक्षण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा और राष्ट्रीय संपत्ति को संरक्षित करने में भी मददगार होगी।


Date: 11-01-25

दोस्ती का हाथ

संपादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनने के बाद भारत के साथ उसके रिश्तों में दूरी आ गई है। मगर अब अफगानिस्तान ने फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। वहां के कार्यवाहक विदेशमंत्री ने मानवीय सहायता के लिए भारत का आभार जताते हुए कहा कि वे अर्थव्यवस्था केंद्रित विदेश नीति के अनुरूप राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं। उन्होंने अपील की कि भारत व्यापारियों, रोगियों और विद्यार्थियों के लिए वीजा जारी करना शुरू करे। उनकी अपील पर भारत ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। दरअसल, भारत भी चाहता है कि अफगानिस्तान के साथ उसके रिश्ते फिर से मजबूत हों। उसके साथ व्यापारिक गतिविधियां बढ़ें और परियोजनाओं पर काम शुरू हो। मगर चूंकि वहां तालिबान के सत्ता में आने के बाद दुनिया के अनेक देशों ने उस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए और तालिबान के सत्ता हथियाने के तरीके को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध माना गया, इसलिए भारत ने भी स्वाभाविक ही उससे दूरी बना ली। हालांकि जरूरत के वक्त भारत उसे मानवीय सहायता प्रदान करता रहा है। मगर अफगानी छात्रों के लिए वीजा जारी करने संबंधी फैसले को लेकर काफी समय से मंथन चल रहा है। इसलिए इस पर भारत के लिए विचार करना मुश्किल नहीं है। दरअसल, वीजा न मिल पाने के कारण भारत में पढ़ रहे बड़ी संख्या में अफगानी छात्रों का भविष्य अधर में लटका हुआ है।

अफगानिस्तान व्यापारिक रूप से भारत का एक बड़ा सहयोगी पड़ोसी रहा है। भारतीय कंपनियां वहां की विकास परियोजनाओं में लगी रही हैं। इस तरह, तालिबान के सत्ता में आने के बाद बनी दूरी से दोनों देशों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। दुनिया के कई देश अपने रणनीतिक लाभ के लिए अफगानिस्तान के साथ रिश्ते फिर से बहाल कर लिए हैं। ऐसे में, भारत के लिए बहुत देर तक दूरी बनाए रखना भी ठीक नहीं समझा जा रहा। सार्क समूह के विखंडित होने के बाद उपजी स्थितियों का लाभ चीन उठाने का प्रयास कर रहा है। इसलिए भी अफगानिस्तान से भारत की नजदीकी रणनीतिक दृष्टि से जरूरी है। अफगानिस्तान भारत के लिए एक बड़ा बाजार है, इसलिए आर्थिक रणनीति के तहत उसे खोना नहीं चाहिए। यही वजह है कि भारत ने कहा है कि वह अफगानिस्तान के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते बहाल और मजबूत करने पर विचार कर रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत को अफगानिस्तान से काफी कारोबार मिलता है। हर वर्ष करीब तेरह हजार विद्यार्थी वहां से आते हैं। इसी तरह बहुत सारे रोगी यहां के अस्पतालों में इलाज के लिए आते हैं।

भारत वैसे भी शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र को विस्तृत करना चाहता है। साथ ही स्वास्थ्य पर्यटन संबंधी योजनाओं को प्रश्रय देता है। अफगानिस्तान से आने वाले विद्यार्थियों और रोगियों को रोकना उसके लिए फायदेमंद नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि तालिबान के कई फैसले और नीतियां लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं कही जा सकतीं। मगर फिलहाल वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाली के आसार नजर नहीं आ रहे, तो इसी बीच कोई सकारात्मक रास्ता तो निकालना पड़ेगा। जो अफगानी छात्र 2021 से वीजा न मिलने के कारण अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहे, उनके भविष्य पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। वे बार-बार मांग करते रहे हैं कि उन्हें वीजा जारी किया जाए। अफगानी विदेशमंत्री की अपील पर भारत सरकार ने सकारात्मक रुख दिखाया है, जो रणनीतिक रूप से एक अच्छा संकेत है।


Date: 11-01-25

बेटियों का हक

संपादकीय

हालांकि एक सभ्य समाज में बेटे और बेटी के अधिकारों में अंतर का सवाल नहीं उठना चाहिए, लेकिन कई वजहों से जड़ जमा चुके पूर्वाग्रहों की वजह से आमतौर पर बेटियों को कई स्तर पर समझौता करना पड़ता है। ऐसी स्थिति की मुख्य वजह पारंपरिक धारणाओं के प्रति ज्यादातर लोगों की सहजता होती है, जिसमें बेटियां अपने हक के प्रति उदासीन रहती हैं या फिर वंचित रह जाती हैं। फिर किन्हीं कारणों से माता-पिता के अलग हो जाने की स्थिति में भी बेटी की पढ़ाई-लिखाई सिर्फ खर्च पूरा नहीं हो पाने की वजह से बाधित हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक मामले की सुनवाई के बाद इसी मसले पर एक तरह से स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने छब्बीस वर्ष से अलग रह रहे दंपति के मामले में कहा कि बेटियों को अपने अभिभावकों से शिक्षा संबंधी खर्च मांगने का पूरा अधिकार है और जरूरत पड़ने पर माता-पिता को कानूनी तौर पर बाध्य किया जा सकता है कि वे बेटी की पढ़ाई-लिखाई के लिए जरूरी धन दें। बेटी को ये पैसे रखने का अधिकार है और यह रकम उसे अपनी मां या पिता को लौटाने की जरूरत नहीं है।

दरअसल, ऐसे मामले अक्सर देखे जाते रहे हैं जिनमें परिवारों में अगर संपत्ति के बंटवारे की स्थिति आती है तो जितने हिस्से पर बेटों का सहज हक माना जाता है, उतने के लिए बेटियों को अलग से प्रयास करना पड़ता है। विडंबना यह है कि अगर किसी परिवार में माता-पिता को शिक्षा पर खर्च के मामले में बेटी या बेटे में से किसी एक को ही चुनने का विकल्प हो तो वे आमतौर पर बेटे को प्राथमिकता देते हैं। अगर कभी बेटी को उनका हिस्सा दिया जाता है तो उसे समाज में विशेष रूप से दी गई सुविधा की दृष्टि से देखा जाता है। जबकि सामाजिक बराबरी के सिद्धांत से लेकर कानूनी स्थिति तक के लिहाज से बेटियों को उनके माता-पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा होना चाहिए और इसे लेकर लोगों को सहज रहना चाहिए। खासतौर पर पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ अन्य जरूरी खर्च के मामले में माता-पिता की आर्थिक सीमा में बेटियों को उनसे अपना खर्च लेने का अधिकार होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो बेटियों के हक के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला स्वागतयोग्य है।


Date: 11-01-25

पद पर हावी राजनीति

संपादकीय

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने बड़े बदलाव किए हैं, जिसमें अब बिजनेसमैन, आईएएस व आईपीएस सरीखे अधिकारी भी विश्वविद्यालय के कुलपति बन सकेंगे। इस चयन का अधिकार केवल चांसलर का होगा, जिसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। अभी तक शिक्षाविद के तौर पर दस का कार्यकाल आवश्यक था, परंतु अब वे इसके पात्र होंगे, जो संबंधित फील्ड के विशेषज्ञ, शोध, उद्योग व लोकप्रशासक का अनुभव हो, जिसमें दस साल काम किया हो तथा उनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा हो । कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर पहले भी सरकार पर उंगलियां उठती रही हैं। अब जब उद्योगपतियों व ब्यूरोक्रेट्स की नियुक्ति के मार्ग प्रशस्त किए जा रहे हैं तो चयन को लेकर और भी संदेह उपज सकते हैं। सत्तापक्ष के इशारे पर उसके वफादारों पर पद बंटवारे की आशंकाओं से मुक्त नहीं रहा जा सकता। निःसंदेह उद्योगपतियों को कुलपति जैसे सम्मानित पद पर सुशोभित करने से आर्थिक लाभ मिलने की गुंजाइश बढ़ सकती है। जैसे कि ब्यूरोक्रेट अपने अनुभवों का बेहतरीन इस्तेमाल कर नये मार्ग इजात कर सकते हैं। मगर चयन समितियों के गठन पर उठने वाले सवालों को रोकना भी सरकार और यूजीसी की बड़ी जिम्मेदारी होगी। राज्यपाल उन्हीं सिफारिशों पर मुहर लगाता है, जो राज्य सरकारों द्वारा प्रेषित होती हैं। उपने उम्मीदवार को कुलपति चुनने पर राज्यपालों की भी राज्य सरकारों से सीधा टकराव की स्थितियां देखने में आती रही हैं। चूंकि राज्यपाल केंद्र द्व नियुक्त होते हैं, इसलिए वे विश्वविद्यालयों के प्रशासन में सीधी दखलंदाजी को आजाद हैं। नये नियमों की अवहेलना करने वाले विश्वविद्यालयों के प्रति यूजीसी का रवैया क्या हो सकता है, यह आने वाला वक्त तय करेगा। क्योंकि जिन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं, वहां विवाद की स्थितियों को रोकना नामुमकिन होगा । वे स्पष्ट रूप से इसे संघ का एजेंडा मानते हैं। जैसे कि केरल के मुख्यमंत्री ने शुरुआत ही इस मसौदे की आलोचना से की है। सरकार तथा आयोग को ऐसे सम्मानित पदों का शुद्ध राजनीतिकरण करने की बजाए दरम्याना रवैया इख्तियार करने का प्रयास करना होगा।


Date: 11-01-25

काम के घंटे

संपादकीय

निजी क्षेत्र के एक दिग्गज अधिकारी ने सप्ताह में 90 घंटे काम करने की जो बात कही है, उस पर हंगामा होना स्वाभाविक है। एलऐंडटी के चेयरमैन एस एन सुब्रमण्यन अगर लोगों से सप्ताह में 90 घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं, तो इन्फोसिस के नारायण मूर्ति प्रतिदिन 14 घंटे और सप्ताह में साढ़े छह दिन काम करने की वकालत करते रहे हैं। दोनों उद्यमी महाप्रबंधकों के कामकाज की प्रशंसा होनी चाहिए, दोनों ही उद्यमशीलता की मिसाल हैं, लेकिन शायद यह भूल जा रहे हैं कि सबकी कार्य क्षमता समान नहीं होती है और सबका वेतन भी संतोषजनक नहीं होता है। अगर हम अनुमान लगाएं, तो औसत भारतीय की मासिक कमाई 20,000 रुपये भी नहीं है। प्रश्न यह है कि इतनी कम औसत कमाई पर 15 घंटे काम करने की मांग कौन कर रहा है? जिस व्यक्ति की तनख्वाह चार करोड़ रुपये मासिक है, वह बहुत शिक्षित प्रशिक्षित भी है और उसे यह अवश्य निर्दिष्ट करना चाहिए कि वह 90 घंटे काम लेने की उम्मीद किससे कर रहा है? जाहिर है, सुब्रमण्यन आलोचना के निशाने पर आ गए हैं।

अफसोस, उन्होंने यह भी कहा है कि ‘मुझे खेद है, मैं आपसे रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं। अगर मैं आपसे रविवार को काम करवा सकूं, तो मुझे अधिक खुशी होगी।’ पूंजीवाद आज की जरूरत है, पर नव-पूंजीवादियों को नहीं भूलना चाहिए कि श्रमिक एक समय 18 घंटे और सातों दिन काम करते थे। लंबे आंदोलनों के बाद ही धीरे-धीरे सुविधाएं बढ़ीं, काम के घंटे घंटे, पर अब वापस काम के घंटे बढ़ाने की पैरोकारी तेज होने लगी है। व्यापक नजरिये से देखना चाहिए कि क्या श्रम सुधारों का यही फल है ? कोई हो, तो ज्यादा परिश्रम से ज्यादा धन शक नहीं कि अगर कुशलता या हुनर अर्जित किया जा सकता है। जीवन में बड़ी सफलता अर्जित करने वाली और झोंपड़ी से महल में पहुंचने वाली बहुत सी हस्तियों ने खूब खूब घंटे काम करके ही बुलंदियों को छुआ है। यह सामान्य बात सभी को पता है। हां, लोगों को ज्यादा काम के लिए अवश्य प्रेरित करना चाहिए, लेकिन प्रेरित करने की अलग भाषा और अलग ढंग होना चाहिए। पूंजी और श्रम के इतिहास को भूलना कतई सराहनीय नहीं है। साथ ही, यह भी देखना चाहिए कि ऐसी कोई भी सलाह क्या केवल निजी क्षेत्र के लिए होती है? क्या निजी क्षेत्र में ऐसी सलाहों या अपेक्षाओं के चलते ही सरकारी नौकरी पाने के लिए होड़ लग जाती है ?

यह एक ऐसा विषय है, जो पूरी संवेदना के साथ विचार की मांग करता है। श्रम से जुड़े नियम-कायदे सर्वोच्च योग्यता को देखकर नहीं, बल्कि औसत योग्यता को देखकर ही बनाए जाते हैं। जब उद्योग-दर- उद्योग और सरकारी महकमों में भी रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने की वाजिब कवायद आगे बढ़ चली है, तब काम के घंटों की चर्चा में मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य की चिंता भी अवश्य शामिल होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए निजी क्षेत्र में ऐसे युवाओं की जरूरत पड़ेगी, जो दिलोजान से मेहनत और नवाचार करेंगे, जिससे देश में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर बनेंगे। निजी क्षेत्र यह भी उम्मीद करेगा कि सार्वजनिक क्षेत्र भी अपनी मेहनत लगन से मिसाल गढ़े। बहरहाल, सुब्रमण्यन या नारायण मूर्ति जैसे दिग्गजों पर विश्व स्तरीय गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा का जो दबाव है, उसे भी ध्यान में रखकर हमें आगे बढ़ना चाहिए।