10-10-2020 (Important News Clippings)
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Date:10-10-20
A paternal state that thinks it can decide for the people is to be feared not cheered
Rahul Shivshankar, [ The writer is Editor-in-Chief, Times Now ]
We are on slippery ground. The state, hiding behind the thin patina of “good intentions”, is making us fear our freedoms. This time the fetters have been placed by the Supreme Court. Its decision to restrain Sudarshan TV from telecasting future episodes of its show ‘Bindaas Bol’ will only strengthen the state’s ability to exercise greater control over freedom of expression.
Indeed this is a case where – while the apex court appears to have acted in the interest of upholding liberal values – it is also paradoxically further eroding the liberal outlook of the Constitution. While our laws allow for “prior restraint” on free speech as a rule, they should be applied only in the exception. There are any number of laws and regulations on the books that could have been invoked against Sudarshan TV for violating the programming code, the peace of the land and the rights of a community.
There is an argument to say there are already one too many criminal laws regulating hate speech in this country. The allegedly vile provocations contained in the show – it reportedly depicts Muslims in a derogatory light that could arouse a backlash against them – would have easily attracted some of these stringent penal provisions.
Perhaps, the Supreme Court could have considered events in France. There, a few weeks ago the magazine Charlie Hebdo, known for what some describe as “tasteless” takes on Muslims, decided to reprint the same set of cartoons of the Prophet that invited an unpardonable terror attack on its office in 2015. Few know that in 2007, when it originally printed the cartoons, the decision to publish the depiction of the Prophet was challenged in French courts as a “blasphemous act of reckless provocation”, but the judge ruled in favour of the magazine.
The court said that it was upholding the Constitution’s “abiding commitment to free speech”. Just like in 2007, even now the decision taken by the magazine to republish the contentious cartoons has been fiercely criticised. France, like India, has seen protests by civil liberties groups against the perceived discrimination and villainisation of minorities. France is widely thought to be succumbing to an insular impetus. Despite a call by the organisation that represents all French Muslims to condemn the “act of extreme intolerance” by the magazine, no one has moved to restrain Charlie Hebdo from republishing the cartoons. As in most robust democracies, trust has been placed in the public’s ability to make the right distinctions.
But here in India, in the days following the Supreme Court’s order restraining Sudarshan TV, much self-congratulatory commentary has erupted in liberal circles. Is it the liberal case that censorship, that too prior restraint, is praiseworthy? If it is, would they also support the recent Andhra high court order placing ‘prior restraint’ on the media from reporting a case of alleged corruption involving a Supreme Court Justice’s daughters?
In all honesty, the liberal establishment has shown that it selectively champions free speech. Just ask the prominent RSS affiliated lawyer Monica Arora and her co-authors who found that a leading publishing house suddenly pulled their book on the 2020 Delhi riots after their work was deemed to be pushing an anti-Muslim narrative. According to reports, a cabal of self-proclaimed “liberal writers” persuaded the editor of the publishing house to cancel the contract with the “bigoted” author for painting Muslims as the sole protagonists of the riots.
If this “Bloomsbury sect” has any genuine concern for freedom and democracy they must restart a conversation around the first amendment to the Constitution. The founders of our Constitution were clearly free speech absolutists who had faith in the ability of the public to discern right from wrong. But in 1951 Nehru’s government amended the Constitution to limit the scope of free speech and expression.
Since then, the first amendment has been used to forbid dozens of books, publications, articles, political parties, citizen’s groups and used to jail intellectuals, cartoonists, activists, politicians and journalists. Over the decades, the interventions based on the first amendment, particularly by the state, have acquired a worrying frequency and ferocity. A paternal state that thinks it can decide for the people is to be feared not cheered.
Date:10-10-20
काले धन पर लगाम
संपादकीय
स्विट्जरलैंड ने अपने यहां के बैंकों में खाते रखने वाले भारतीयों की जो सूची भारत सरकार को उपलब्ध कराई, वह काले धन के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई की सफलता का परिचायक है। इसके पहले इसी तरह की एक सूची पिछले साल भी मिली थी। स्विट्जरलैंड से इस तरह की सूचियां मिलना इसीलिए संभव हो पा रहा है, क्योंकि भारत ने इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठाई। फिलहाल यह कहना कठिन है कि स्विट्जरलैंड से मिली जानकारी के आधार पर विदेश में काला धन रखने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकेगी, लेकिन इतना तो है ही कि ऐसे लोग हतोत्साहित होंगे। चूंकि ऐसे आंकड़े सामने आए हैं कि काला धन बाहर जाने का सिलसिला कमजोर पड़ा है, इसलिए इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि सरकार की कोशिश रंग ला रही है। केंद्र सरकार और उसकी विभिन्न एजेंसियों को काले धन और खासकर भ्रष्ट तौर-तरीकों से हासिल किए गए धन को विदेश ले जाने वालों के खिलाफ सख्ती का सिलसिला कायम रखने के साथ ही इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगे। आखिर यह भ्रष्टाचार ही है जो काले धन का कारण बनता है। लक्ष्य केवल यही नहीं होना चाहिए कि काला धन बाहर न जाने पाए, बल्कि यह भी होना चाहिए कि वह पनपने ही न पाए।
यह सही है कि केंद्र सरकार के उच्च स्तर पर जारी रहने वाले भ्रष्ट तौर-तरीकों पर एक बड़ी हद तक लगाम लगी है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि अन्य स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी काबू पा लिया गया है। केंद्रीय सत्ता के निचले स्तरों और साथ ही राज्य सरकारों के स्तर पर भ्रष्टाचार अभी भी सिर उठाए हुए है। इसके चलते भ्रष्ट तत्व केवल लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे ही नहीं करते, बल्कि जनता का शोषण भी करते हैं। जब आम आदमी सरकारी दफ्तरों में व्याप्त रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से दो-चार होता है तो वह ऐसे दावों पर मुश्किल से ही यकीन करता है कि काले धन पर लगाम लग रही है। आखिर उस भ्रष्टाचार पर लगाम कब लगेगी जो विकास परियोजनाओं और जन कल्याणकारी योजनाओं की गुणवत्ता की अनदेखी करता है या फिर जिससे आम आदमी त्रस्त होता है? यह सवाल केवल केंद्रीय सत्ता के समक्ष ही नहीं, राज्य सरकारों के सामने भी है। इस सवाल को हल करने के लिए वैसी ही प्रतिबद्धता दिखाई जानी चाहिए, जैसी विदेश भेजे जाने वाले काले धन पर अंकुश लगाने के मामले में दिखाई गई है। वास्तव में हमारे नीति-नियंताओं को यह समझने की जरूरत है कि नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
Date:10-10-20
शांति की राह
संपादकीय
अफगानिस्तान में स्थायी युद्ध विराम और दीर्घकालिक शांति कायम करने के लिए चल रही वार्ता इस समूचे एशियाई क्षेत्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण पहल है। खासतौर पर भारत की इसमें दिलचस्पी इसलिए भी है कि अफगानिस्तान न केवल भौगोलिक अवस्थिति की वजह से देश की सुरक्षा के लिए अहम है, बल्कि वहां की विकास गतिविधियों में भी भारत बड़ी भागीदारी निभा रहा है। यों युद्ध और टकराव की स्थिति को पूरी तरह खत्म करने के लिए अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच होने वाली बातचीत में भारत पहले से ही सक्रिय है, लेकिन इसी मसले पर अफगान शीर्ष शांति वार्ताकार के साथ एक प्रतिनिधिमंडल ने समर्थन को पुख्ता आधार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। इसके बाद गुरुवार को प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत अफगानिस्तान में दीर्घकालिक शांति और समृद्धि को लेकर प्रतिबद्ध है और वहां चल रहे स्थायी युद्धविराम के प्रयासों का स्वागत करता है। उन्होंने भारत-अफगानिस्तान ऐतिहासिक संबंधों को आगे और मजबूती देने की भारत की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दोहराया। जाहिर है, अफगानिस्तान में चल रही शांति प्रक्रिया में सहयोग करने के लिहाज से भारत एक अहम भागीदार है और यह एक तरह से इस समूचे इलाके के लिए महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम है।
दरअसल, पिछले महीने कतर की राजधानी दोहा में आयोजित बैठक में अफगानिस्तान में लंबे संघर्ष के बाद विभिन्न विरोधी गुटों ने बातचीत शुरू की थी। इस बातचीत में उम्मीद यही की गई कि उन्नीस साल बाद अमेरिका और नाटो सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी का रास्ता साफ होगा। शांति की राह में बढ़े हर कदम लंबे समय से युद्ध में पिस रहे अफगानिस्तान के लिए एक जरूरत भी है। लेकिन शांति और इसके बाद वहां राजनीतिक स्थिरता और पुनर्निर्माण के लिए भी अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी। इस लिहाज से देखें तो भारत अफगानिस्तान में एक बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। न केवल कूटनीतिक स्तर पर वहां चल रही शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में भारत समर्थन और सहयोग कर रहा है, बल्कि वहां की विकास परियोजनाओं को लेकर भी प्रतिबद्ध है। मसलन, अफगानिस्तान के इकतीस प्रांतों में एक सौ सोलह उच्च प्रभाव वाली सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर भी भारत काम कर रहा है। इन परियोजनाओं पर 2017 में ही सहमति बनी थी, जिसके अंतर्गत भारत अफगानिस्तान में पानी, कृषि, सिंचाई, नवीकरणीय ऊर्जा, सूक्ष्म जल विद्युत जैसी परियोजनाओं पर बड़ी रकम खर्च कर रहा है।
जाहिर है, भारत के लिए भी अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण महत्त्व रखता है। लेकिन इससे इतर भारत की एक बड़ी अपेक्षा यह है कि अफगानिस्तान अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी भी हाल में भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। इस लिहाज से देखें तो भारत को इसके लिए अफगानिस्तान के दोनों विरोधी पक्षों के साथ कूटनीतिक संबंध को बेहतर रखने की जरूरत महसूस हो रही है। यह किसी से छिपा नहीं है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के इलाकों में अपनी गतिविधियां चलाने वाले लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन भारत के लिए कैसी जटिल समस्या खड़ी कर चुके हैं। ऐसे में भारत की कोशिश यह है कि इन आतंकी संगठनों पर काबू करने और उन्हें कोई मदद नहीं देने के लिए वह अफगानिस्तान शांति वार्ता में शामिल सभी पक्षों को तैयार कर सके। शायद इसी वजह से भारत यह ध्यान रखे जाने की बात करता है कि इस शांति प्रक्रिया में कहीं ऐसा स्थान खाली नहीं रह जाए, जिसे आतंकवादी और उनके छद्म सहयोगी भर दें। यह एक जरूरी पहलू है, क्योंकि अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता को गति तभी मिल सकेगी, जब इस मसले लेकर अतिरिक्त सावधानी बरती जाए ।
Date:10-10-20
चुनौती बनता मानसिक स्वास्थ्य
रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, ( लेखक केंद्रीय शिक्षा मंत्री हैं )
कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। खासतौर से बच्चों और किशोरों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर तो बुरा असर पड़ रहा है। घरों में बंद रहने के कारण ज्यादातर बच्चे मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि कोविड-19 आसमान से गिरी बिजली की तरह हर उम्र के लोगों के लिए एक चुनौतीपूर्ण घटना बन गई है। इस वक्त हर किसी को जहां संक्रमण लगने का भय बना हुआ है, वहीं सुरक्षित दूरी, पूर्णबंदी जैसे उपायों के चलते इस विषाणु के विरुद्ध संघर्ष में अनिश्चितता के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी बढ़ गया है। मानसिक संकट को शब्दों में समझा पाना कठिन होता है, परंतु यह भय, चिंता, दुख, असुरक्षा जैसी भावना ही होती है जो कि अचानक आपको परास्त कर सकती है। एक पल जब आपके विचार आप पर हावी होने लगते हैं तो आप तेज धूप में अंधेरा महसूस करने लगते हैं। अनिश्चितता और भावनात्मक कमजोरी की भावना के साथ हताशा, निराशा की भावना आपके शरीर और मन को बर्बाद करने लगती है।
कोविड-19 के कारण आया यह भावनात्मक संकट पहले से ही कमजोर बच्चों और किशोरों के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण रहा है। किशोरावस्था में गरीबी, दुर्व्यवहार या हिंसा के कारण कई शारीरिक, भावनात्मक और सामाजिक बदलाव आते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) की वर्ष 2017 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में दस से तेरह फीसद बच्चे और किशोर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से जूझ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार भारत सहित दुनिया के लगभग सभी देशों में मानसिक रूप से प्रभावित होने वाले बच्चों की संख्या में भारी वृद्धि की आशंका है। कोरोना महामारी के कारण छात्रों में चिड़चिड़ापन, घबराहट और बेचैनी बढ़ गई है, जबकि वे दूरस्थ शिक्षा के नए सामान्य का पालन कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के लगभग बीस फीसद किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य या व्यवहार संबंधी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। पंद्र्रह से उन्नीस वर्ष के आयु वर्ग के लोगों के लिए अवसाद विश्व में बीमारी का सबसे बड़ा बोझ बन गया है और पंद्रह से पैंतीस वर्ष की आयु के नौजवानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति गंभीर चिंता का विषय बन गई है। इस उभरते संकट की कोई सीमा नहीं है।
आज सबसे बड़ी जरूरत मानसिक कुशलता की गंभीरता को समझने की है। मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली परस्पर जुड़ी हुई शक्ति के रूप में है जो अन्य भागों के कार्य को भी प्रभावित करती है। इसलिए सही समय पर मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान न देने से यह खतरा वयस्कता तक बढ़ सकता है और इससे शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आज देखने में आ रहा है कि पूर्णबंदी के दौरान घरों में कैद रहने के कारण ज्यादातर बच्चों में अवसाद के लक्षण पैदा हो गए। बाहर निकलने, दोस्तों से मेल-मुलाकात करने, खेलने-कूदने जैसी सारी गतिविधियों के बंद हो जाने से बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा है।
प्रधानमंत्री ने परीक्षा पर चर्चा 2.0 में इस बात का उल्लेख किया था कि ‘अवसाद और खराब मानसिक स्वास्थ्य चिंता का बड़ा कारण हैं। हालांकि इनसे संबंधित पहलुओं को हल किया जा सकता है। शुरुआती लक्षणों पर ध्यान दें, चर्चा करें, समर्थन दें और यदि आवश्यक हो, तो परामर्शदाता से मिलने में संकोच न करें। इसी भावना से शिक्षा मंत्रालय ने वर्षों के दौरान अपने प्रयासों में विस्तार किया है। हमारे विद्यार्थियों की शैक्षिक सफलता और खुशहाली हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। वर्षों के दौरान विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रयास किए गए हैं। मानसिक कुशलता की आधारशिला रखने के लिए सभी स्कूलों और कॉलेजों में परामर्शदाता का होना आवश्यक है, जिसके द्वारा प्रत्येक स्कूल में सीबीएसई संबद्धता उपनियम का आदेश दिया जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दिशा-निर्देशों, 2015 के अनुसार सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में ‘छात्र परामर्श प्रणाली’ का बंदोबस्त होना चाहिए।
बहरहाल, कोरोना महामारी के कारण पूर्णबंदी के चलते विद्यार्थियों के लिए दूरस्थ शिक्षा का विस्तार किया गया है। मानसिक स्वास्थ्य को दुरुस्त बनाने के लिए भी परिवर्तन की आवश्यकता है, ताकि अनिश्चितता के वातावरण में भी विद्यार्थियों को पर्याप्त मार्गदर्शन और परामर्श दिया जा सके। इसके लिए शिक्षा मंत्रालय ने ऑनलाइन अध्ययन के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं तनाव को दूर करने के तरीके बताए हैं। इसी तरह नेशनल स्कूल ऑफ ओपन स्कूलिंग (एनआइओएस) ने मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों योग, ध्यान, नृत्य, कला, चित्रकला और संगीत की कक्षाओं का आयोजन किया। इसके साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम निष्ठा द्वारा शिक्षकों को ऑनलाइन मॉड्यूल के माध्यम से मानसिक कुशलता के मुद्दों से निपटने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
इसके अलावा उच्च शिक्षा संस्थानों में भी अध्ययनरत छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जा रहा है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) ने बड़ी संख्या में संकाय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए और दस हजार से ज्यादा संकायों को प्रशिक्षित किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपील जारी कर मानसिक स्वास्थ्य, मनो-सामाजिक चिंताओं और परिसर में हर किसी की भलाई से संबंधित सूचनाएं और परामर्श जारी किए हैं। हालांकि समय चुनौतीपूर्ण रहा है, लेकिन प्रयासों में और अधिक वृद्धि हुई है। मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए हेल्पलाइन की स्थापना की गई है, साथ ही जरूरतमंद छात्रों की पहचान और तत्काल आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए कोविड-19 सहायता समूहों की स्थापना की गई है।
ये प्रयास यहीं समाप्त नहीं हो जाते हैं। वर्ष 2020 के विश्व मानसिक स्वास्थ्य के केंद्रीय विषय के साथ शिक्षा मंत्रालय मानसिक स्वास्थ्य को एक मानवाधिकार के रूप में स्थापित करता है। शिक्षा मंत्रालय ने इस बात पर बल दिया है कि सबको मानसिक स्वास्थ्य उपलब्ध होना चाहिए। सुविधाओं तक अधिक व्यापक पहुंच के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता है। केंद्रीय वित्त मंत्री ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत छात्रों, उनके परिवारों के सदस्यों और अध्यापकों की मानसिक कुशलता के लिए मनोदर्पण की घोषणा की थी। शिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य और मनो-सामाजिक मुद्दों के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों के साथ एक कार्यदल का गठन किया गया था। पर्याप्त मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करने के साथ-साथ समूह मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और छात्रों की चिंताओं पर निगरानी रखने और उन्हें पूरा करने के लिए उत्तरदायी होगा। परामर्श सेवाओं, ऑनलाइन संसाधनों और हेल्पलाइन, एक वेबसाइट और टोल फ्री नंबर के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य और मनोसामाजिक पहलुओं को संबोधित करने के लिए सहायता सक्षम की जाएगी। इस पहल में अनेक घटक शामिल हैं, जैसे कि विद्यार्थियों, अध्यापकों, विद्यालय प्रणालियों और विश्वविद्यालयों के संकाय के लिए सलाहकारी दिशा-निर्देशों का निर्माण, शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट पर वेब पेज का सृजन, जिसमें सलाहकार, व्यावहारिक युक्तियां, पोस्टर, वीडियो, मनोवैज्ञानिक सहायता और ऑनलाइन पूछताछ प्रणाली व राष्ट्रीय स्तर के डाटाबेस शामिल होंगे।
हमें यह महसूस करना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य सर्वांगीण विकास के लिए एक अनिवार्य घटक है। अब से शिक्षा मंत्रालय यह सुनिश्चित करेगा कि सक्रिय और निवारक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को मुख्यधारा में सीखने की प्रक्रिया के साथ समन्वित किया जाए। सरकार का संकल्प है कि देश का हर बच्चा मानसिक रूप से एकदम स्वस्थ हो और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ हर नागरिक को मिले। इसलिए हमें स्वस्थ और समृद्ध जीवन-यापन के लिए एक-दूसरे तथा अन्य व्यक्तियों के साथ संवाद करना और अपनी भावनाएं व्यक्त करना चाहिए।