23-01-2020 (Important News Clippings)

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23 Jan 2020
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Date:23-01-20

बेहतर हो रहा दुनिया में जीवन का स्तर !

बस व्यापक दृष्टिकोण रखने की जरूरत, पहली बार दुनिया में 10 फीसदी से कम हो गई है अत्यधिक गरीबी

गुरचरण दस

नए दशक की शुरुआत पर जब बहुत सारे लोग नाखुश दिख रहे हैं, तब प्रतिभाशाली विज्ञान लेखक मैट रिड्ले ने चौंकाने वाला दावा किया है कि बीता दशक सर्वोत्तम में से एक था। वह ब्रिटिश जर्नल ‘द स्पेक्टेटर’ में लिखते हैं कि ‘हम उस दौर में रह रहे हैं जब इतिहास में मानव जीवन के स्तर में महान सुधार हो रहे हैं। पहली बार अत्यधिक गरीबी दुनिया की आबादी के 10 फीसदी से नीचे हाे गई है। शिशु मृत्युदर अपने न्यूनतम स्तर पर है। अकाल लगभग खत्म हो गया है। मलेरिया, पोलियो और हृदय की बीमारियों में कमी आ रही है।’ रिड्ले ने एक अच्छा बिंदु उठाया है। भारत में अत्यधिक गरीबी तेजी से घट रही है। अत्यधिक गरीबी, यानी रोजाना 88 रुपए से कम आय, जो 2012 में 22 फीसदी थी और आज 5.5 फीसदी रह गई है। यह इसलिए हुआ, क्योंकि भारत पिछले 17 वर्षों से औसत सात फीसदी दर से विकास कर रहा है। चीन के बाद यह दुनिया में सबसे तेज विकास दर है।

आम आदमी और आम औरत की जिंदगी से जुड़े अन्य सकारात्मक संकेतक भी हैं। घर के भीतर मौजूद जहरीले प्रदूषण से अब अधिक महिलाएं मुक्त हैं, क्योंकि वे अब साफ गैस से खाना बनाती हैं। अब अधिक भारतीयों के पास टॉयलेट है और वे खुले में शौच नहीं करते। इसने उन्हें प्रदूषण और स्वास्थ के लिए अन्य खतरों से मुक्त किया है। अब अधिक भारतीयों के गांव पक्की सड़कों से जुड़े हैं, उनके पास बिजली है और एक बैंक खाता है, जिसमें वे डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर की राशि प्राप्त करते हैं। हमने लोगों के जीवन में हुए इन नाटकीय बदलावों को नोटिस नहीं किया, क्योंकि हम इतिहास को व्यापक परिदृश्य में नहीं देखते हैं। हम रोजाना की हेडलाइन को लेकर जुनूनी हैं और अच्छी खबरें हेडलाइन नहीं होती। हंस रोजलिंग की पुस्तक फैक्टफुलनेस के मुताबिक ऐसी प्रवृत्तियां होती हैं, जो दुनिया को लेकर हमारी धारणा को विकृत करती हैं। उदाहरण के लिए हम दुनिया काे विकसित पश्चिम व विकासशील पूर्व में बांटकर बड़े हुए हैं। यह अंतर अब खत्म हो गया है, क्योंकि अब बड़ी संख्या में गैर पश्चिमी देश मध्यम वर्ग में आ गए हैं।

व्यापक दृष्टिकोण ठीक है, पर पिछले एक दशक में ट्रंप, पुतिन, शी, एर्दोगन, मोदी व बोरिस जाॅनसन जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के उभार और उन आदर्शों के तेज क्षरण के बारे में क्या कहें, जिन्हें देखते हुए हम बढ़े हैं? कोई कैसे अच्छा महसूस कर सकता है, जब पीढ़ियों द्वारा बनाए और विकसित किए गए संस्थान खतरे में हैं? धुर दक्षिण के उभार ने दुनिया को अप्रत्याशित और खतरनाक बना दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था नाटकीय तौर पर मंद हो गई है, हमारी हवा और पानी खराब हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विवादास्पद सोशल एजेंडा देश की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक नींव को खतरे में डाल रहा है। देशभर के विद्यार्थी एक नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। पांच महीने के बाद भी कश्मीर में लॉकडाउन जारी है। क्या यह किसी के स्थायी तौर पर अवसाद में रहने के लिए काफी नहीं है?

इसका जवाब है कि इस स्थिति के बावजूद अनेक अच्छी चीजें हुई हैं, जिन्होंने दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाया है। वे वैज्ञानिक सफलताओं के रूप में शुरू हुईं और बाजार की ताकतों द्वारा जल्द ही दुनियाभर में फैला दी गईं। उदाहरण के लिए सेल फोन को ही ले लीजिए, इसने दुनिया के गरीबों को अनेक तरह से सशक्त बनाया है। यह एक टेलीविजन, घड़ी, कैमरा, टॉर्च, रिकॉर्ड प्लेयर, अखबार, कलेंडर, लेटर राइटर, शतरंज और पोस्टमैन से लेकर न जाने क्या-क्या है। भारत में इसने वैश्विक बैंकिंग को भी हाथ में ला दिया है। सरकार का इससे बहुत लेना-देना नहीं था। यूके के साइंस जर्नल में हाल में एक ऐसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सिस्टम के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, जो ब्रेस्ट कैंसर का पता लगाने में रेडियोलॉजिस्ट को भी पीछे छोड़ देगा। यह उस कैंसर का भी पता लगा सकेगा, जो शुरुआती दौर में पकड़ में नहीं आता है या फिर उस गलती को भी कम कर सकेगा, जिसमें किसी को कैंसर न होते हुए भी उसे पॉजिटिव बता दिया जाता है।

व्यापार और नवाचार के राेचक इतिहास पर रिड्ले की पुस्तक द रेशनल ऑप्टिमिस्ट पढ़ने के बाद मैंने उन्हें गंभीरता से लेना शुरू किया। एक समय प्रतिभाशाली साइंस लेखक रहने के बाद उन्होंने अपना फोकस इकोनॉमी पर किया। एक अन्य विज्ञान लेखक स्टीफन पिंकर ने मेरे आशावाद को बल दिया है। उन्होंने मानव के भले के 15 अलग-अलग मानदंडों के आधार पर कहा है कि अधिकतर लोगों की जिंदगी बेहतर हो रही है। लोग पहले से अधिक लंबा व स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। आतंकवाद को लेकर हमारा डर अतिरंजित है। एक अमेरिकन के आतंकी घटना की तुलना में एक एक्सीडेंट में मारे जाने आशंका तीन हजार गुना अधिक है।

तो फिर दुनिया बेहतर हो रही है? और किस पर विश्वास करना चाहिए- आशावादी पर या निराशावादी पर? स्पष्ट रूप से अच्छी और बुरी दोनों चीजें हो रही हैं और एक संतुलित दृष्टिकोण पाना आसान नहीं है। पर्यावरण संकट और धुर दक्षिणपंथी राजनीति आपके दुखी होने का कारण हो सकती है। लेकिन, जब काले राजनीतिक बादल मेरे सिर के ऊपर आ जाते हैं तो मैं व्यापक दृष्टिकोण की शरण में जाने का आदी हूं और दुनिया के साथ खुशी महसूस करता हूं। मैं अपने देश के करोड़ों घरों में रह रहे साधारण लोगों के जीवन हो रहे परिवर्तन के बारे में सोचने लगता हूं। विकास की प्रशंसा करना तब मूर्खतापूर्ण लगता है, जब अभी बहुत कुछ करना बाकी हो, लेकिन तब आप यह नहीं कर सकते। किसी ने कहा है कि जब वर्षा हो तो इंद्रधनुष को देखें और जब अंधेरा हो तो तारे देखें।


Date:22-01-20

तीन राजधानिया

संपादकीय

आंध्र प्रदेश के राजधानी प्रकरण में एक नया अध्याय जुड़ने जा रहा है। एक या दो नहीं, आंध्र प्रदेश ने अब तीन राजधानी बनाने की ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। करीब छह साल पहले राज्य के विभाजन के समय इस प्रदेश ने अपनी राजधानी खो दी थी। मौजूदा राजधानी (हैदराबाद) प्रदेश से काटकर अलग बनाए गए राज्य तेलंगाना के हिस्से में आ गई थी और इस विभाजन ने आंध्र प्रदेश को एक नई राजधानी के निर्माण की मजबूरी दे दी थी। उस समय के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अमरावती को एक अत्याधुनिक महानगर के रूप में नई राजधानी बनाने का बड़ा सपना देखा था। इसे उन्होंने प्रतिष्ठा का इतना बड़ा सवाल बना लिया था कि जब अमरावती परियोजना के लिए आर्थिक मदद देने के मामले में मोदी सरकार ने हाथ खड़े किए, तो नायडू ने न सिर्फ एनडीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, बल्कि भाजपा से भी अपने पुराने रिश्ते तोड़ लिए थे। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी को सत्ता नहीं मिली, तो अमरावती का भविष्य भी खटाई में दिखने लगा। राज्य के नए मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने वहां चल रही तमाम परियोजनाओं पर विराम लगा दिया और यह लगने लगा कि अमरावती अब प्रदेश की राजधानी नहीं होगी। इससे न सिर्फ कई परियोजनाओं पर अधबीच विराम लगने का खतरा पैदा हो गया, बल्कि जिले के वे किसान भी नाराज हो उठे, जिनसे उनकी जमीन के बदले अच्छी कीमत देने का वादा किया गया था। सोमवार को तीन राजधानी बनाने का जो फैसला हुआ, अमरावती भी उसमें होगी। भले ही अमरावती अभी भी राजधानी रहेगी, पर नायडू उसे जो आभामंडल देना चाहते थे, वह जगनमोहन ने उससे छीन लिया है। बाकी दो राजधानियां होंगी विशाखापत्तम और कुर्नूल।

क्या सचमुच आंध्र प्रदेश को तीन राजधानियों की जरूरत है? छह साल पहले के मुकाबले देखें, तो आंध्र प्रदेश अब एक अपेक्षाकृत छोटा राज्य है। जब तेलंगाना भी उसका हिस्सा होता था, तब सिर्फ एक राजधानी हैदराबाद से ही उसका पूरा काम चल जाता था। एक राजधानी से चले प्रशासन ने ही उस समय के आंध्र प्रदेश को देश का एक अग्रणी राज्य बना दिया था। समृद्धि और उद्योग-धंधों के मामले में भी राज्य ने काफी तरक्की की थी। जब पड़ोसी कर्नाटक का बेंगलुरु आईटी तकनीक में झंडे गाड़ रहा था, तब सिकंदराबाद भी बहुत पीछे नहीं था। हालांकि राज्य के विभाजन की राजनीति में यह गति थोड़ी कम हुई, पर रुकी नहीं। क्या तीन राजधानियां इसे गति दे पाएंगी?

मुख्यमंत्री का कहना है कि वह राज्य में सत्ता का विकेंद्रीकरण चाहते हैं, इसीलिए उन्होंने तीन राजधानी बनाई है। यह कहकर वह दरअसल विकेंद्रीकरण को भी एक नई परिभाषा देने की कोशिश कर रहे हैं। अभी तक हम मानते हैं कि विकेंद्रीकरण वह है, जिसमें सत्ता राजधानी तक केंद्रित न रहे। वह नीचे जिले, कस्बे, मुहल्ले और गांव तक पहुंचे। यह लक्ष्य राजधानियों की संख्या बढ़ाकर हासिल किया जा सकता है, विकेंद्रीकरण की ऐसी अवधारणा कभी नहीं रही। क्षेत्रीय भावनाओं को देखते हुए कई प्रदेशों में दो राजधानियों के प्रयोग किए गए हैं। क्षेत्रीय भावनाओं को संतुष्ट करने के अलावा उनके अन्य फायदे कभी सामने नहीं आए। तीन राजधानियों की घोषणा करके आंध्र सरकार ने इस राजनीति को नया विस्तार दे दिया है।


Date:22-01-20

आत्महत्याओं का विज्ञान और उन्हें रोकने की कोशिशें

ऋतु सारस्वत

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘एक्सीडेंटल डेथ ऐंड सुसाइड रिपोर्ट’ बता रही है कि 2018 में 10,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की, जो पिछले 10 साल में सबसे अधिक है। पिछले एक दशक का यह आंकड़ा 75,000 से भी ज्यादा है, लेकिन चिंता की लकीरें कहीं नहीं दिख रहीं। आत्महत्या को सनसनी बनाकर प्रस्तुत जरूर किया जाता है, लेकिन इस पर न कोई गंभीरता से विचार कर रहा है, न ही इस पर किसी तरह के शोध हो रहे हैं, जिससे इस समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सके।

अमूमन माना जाता है कि बच्चे बहुत गहरे दवाब में हैं। सफलता के मानक इतने ऊंचे हो चुके हैं कि तमाम कोशिशों के बाद भी वे उसे छू नहीं पाते। नतीजतन गहरी हताशा और आत्मग्लानि, स्वयं को समाज और परिवार में अवांछित समझने की सोच और अंतत: जीवन की समाप्ति। यह सिलसिला कैसे रुके, इस पर अगर सोचा नहीं गया, तो आत्महत्या की यह दर आने वाले समय में घातक स्तर पर पहुंच सकती है, क्योंकि पिछले पांच साल में देश में छात्र आत्महत्याओं में 52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एबनॉर्मल साइकोलॉजी-करेंट पस्र्पेक्टिव में रिचर्ड बूटनिंग और जॉन रोस ने आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद को माना है। वे कहते हैं कि ‘इस स्थिति में आत्महत्या के विचार से शायद ही कोई बच पाता हो।’ मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने परीक्षणों के दौरान पाया कि जिन लोगों ने खुदकुशी के प्रयास किए, उनके मस्तिष्क में एक खास प्रकार का रसायन ग्लूमेट पाया जाता है। ग्लूमेट एक प्रकार का एमीनो एसिड है, जो तंत्रिका और कोशिकाओं के बीच संदेश भेजने का काम करता है। इसे अवसाद के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। जर्मन न्यूरोसाइकोफार्मेकोलॉजी के ताजा अंक में प्रकाशित शोध के मुताबिक, इस खोज से भविष्य में आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने में मदद मिलेगी। हमें यह समझना होगा कि यह समस्या महज मानसिक स्वास्थ्य से नहीं जुड़ी, बल्कि इसके सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे पहलू भी हैं। इन सभी पक्षों को केंद्र में रखकर ही इस समस्या के निवारण के रास्तों को खोजा जा सकता है। अवसाद एकाएक नहीं पैदा होता और न ही इसे एकदम से खत्म किया जा सकता है।

जापान में ‘अकीता’ प्रांत वह जगह है, जहां सबसे अधिक आत्महत्या के मामले दर्ज किए जाते हैं। साल 1889 में पहली बार अकीता के गवर्नर ने ‘आत्महत्या’ पर रोक के लिए बजट आवंटन किया। वहां ‘बी फेंडर्स वल्र्डवाइड टोक्यो’ नाम की हॉटलाइन रात आठ बजे से सुबह साढे़ पांच बजे तक शुरू की गई। इसके चलते आत्महत्या के आंकड़ों में गिरावट दर्ज की गई, जिसका स्पष्ट और प्रत्यक्ष कारण था निरंतर अकेलेपन और दवाब में सहानुभूति और प्रेम की उपस्थिति। इसमें पीड़ित की बातों को न केवल सुना गया, बल्कि उसको जीवन के प्रति सकारात्मक और ऊर्जावान बनाए रखने के लिए प्रेरित भी किया गया। इस सफलता के चलते साल 2007 में जापान आत्महत्या रोकने के लिए नीतियां लेकर आया। वहां एक दशक से भी ज्यादा समय के लगातार प्रयासों से आत्महत्या की दर गिरकर प्रति एक लाख में 16़ 3 हो गई। साल 2027 तक सरकार इसे 13 तक ले आना चाहती है।

कई और देश आत्महत्या रोकने के लिए प्रयत्नशील हैं। फिनलैंड ने तो एक राष्ट्रीय नेटवर्क द्वारा लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने का प्रयास किया है। इसके बाद साल 1990 से 2014 के बीच इस देश में आत्महत्या की दर प्रति एक लाख पर 30.3 से गिरकर 14.6 पर आ गई। वहीं स्कॉटलैंड में वर्ष 2000 में यहां प्रति एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर 31़ 2 थी। इससे निपटने के लिए सरकार ने 2002 में ‘चूज लाइफ’ नामक एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की, नतीजा वर्ष 2016 तक आत्महत्या की दर में 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और कनाडा ने भी इसके लिए विशेष प्रयास किए हैं। लेकिन भारत आज भी इस दिशा में निराशाजनक स्थिति में है। देश मानसिक स्वास्थ्य पर अपने स्वास्थ्य बजट का 0.6 प्रतिशत खर्च कर रहा है, जो बांग्लादेश से भी कम है। ऐसे में, आत्महत्याओं को रोकने के विशेष प्रयासों की उम्मीद बहुत कम है। हालांकि दुनिया भर के अनुभव यही बताते हैं कि आत्महत्याओं को सरकारी प्रयासों से कम किया जा सकता है।


Date:22-01-20

विषमता का विकास

संपादकीय

पिछले कई सालों से एक जो नारा सबसे ज्यादा प्रचारित रहा है वह है ‘सबका साथ सबका विकास’! चूंकि खुद भाजपा सरकार की ओर से यह नारा सबसे ज्यादा प्रचारित किया गया है, इसलिए कायदे से अपेक्षा यह थी कि देश के सभी तबकों के लोगों को विकास के तमाम अवसरों में बराबर की सहभागिता मिलती और इस तरह विकास ज्यादा समावेशी होता। लेकिन यह बेहद निराशाजनक तस्वीर है कि बीते कुछ सालों से विकास की कसौटी पर जिस तरह की अर्थनीतियां लागू रहीं, उसका हासिल ‘सबका विकास’ के बिल्कुल उलट रहा। गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले संगठन- आक्सफेम के संपत्ति पर नियंत्रण के मामले पर आए अध्ययन के मुताबिक विकास और अर्थव्यवस्था की जो प्रकृति रही है, उसमें देश के एक खास तबके के पास संपत्ति का बेहद असंतुलित केंद्रीकरण हुआ।

‘टाइम टू केयर’ नाम से जारी इस अध्ययन के मुताबिक देश के एक फीसद सबसे अमीर लोगों के पास देश की कम आय वाली सत्तर फीसद आबादी की तुलना में चार गुना से ज्यादा संपत्ति है। क्या यह तथ्य अपने आप में बताने के लिए काफी नहीं है कि विकास का दायरा बढ़ाने के दावे के बीच देश के संसाधन और संपत्ति महज कुछ लोगों के हाथ में सिमटती गई है?

करीब दो साल पहले इसी संगठन की ओर से जारी आंकड़े के मुताबिक भारत की अट्ठावन फीसद संपत्ति देश के एक फीसद लोगों के पास थी। इस साल के आंकड़े की तल्ख हकीकत यह है कि देश में निचले तबके के सत्तर फीसद लोगों के पास जितनी कुल जायदाद है, उससे चार गुना ज्यादा संपत्ति इन महज एक फीसद लोगों के पास सिमटी हुई है। इस दौरान देश के इन शीर्ष एक फीसद अमीरों की संपत्ति में उनचालीस फीसद की बढ़ोतरी हुई।

सवाल है कि महज तीन सालों के भीतर अगर देश की कुल संपत्ति के कुछ लोगों के बीच सिमटने की रफ्तार इतनी तेज रही तो आखिर यह किस तरह की विकास नीतियों का हासिल है? विषम विकास नीतियों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि भारतीय अरबपतियों के पास देश के एक साल के कुल बजट से भी ज्यादा संपत्ति है। इन अमीरों की संपत्ति में बढ़ोतरी के बीच अगर करीब तीन-चौथाई आबादी की स्थिति कमजोर होती गई है तो क्या इसे एक असंतुलित विकास के पर्याय के रूप में नहीं देखा जाएगा?

यों भी किसी देश की संपत्ति के चंद हाथों में सिमटते जाने का सीधा असर बाकी जनता और सभी क्षेत्रों में विकास पर पड़ता है। एक ओर मुनाफा आधारित कारोबार की वजह से संपत्ति पर कब्जा जमाए लोगों की स्थिति और मजबूत होती जाती है, दूसरी ओर संसाधनों से वंचित लोगों और तबकों के पांव और भी कमजोर होते जाते हैं। जबकि किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में विकास उसी कसौटी पर होता है जहां देश के कमजोर तबकों की स्थिति में सुधार लाने के मकसद से नीतियां बनाई जाती हैं। समस्या यह है कि मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों ने संपत्ति के विकेंद्रीकरण की स्थितियों के निर्माण के बजाय उसके कुछ हाथों में सिमटने के ही हालात तैयार किए।

जब तक नीतियों के स्तर पर दृढ़ फैसलों के जरिए अमीर और गरीब के बीच की खाई को नहीं पाटा जाता, तब तक असमानता और देश के कमजोर हालात को दुरुस्त नहीं किया जा सकता। यों भी अगर देश के आम लोगों की कीमत पर यहां के अरबपतियों और बड़ी कंपनियों की झोली और ज्यादा भरी जा रही हो, तो ऐसे में अर्थव्यवस्था और नीतियों की दिशा को समझना मुश्किल नहीं है। आखिर इस सबसे बनी तस्वीर में ‘सबका विकास’ के नारे के लिए क्या जगह होगी?


Date:22-01-20

Federalism is a two-way street

States like Kerala that oppose the CAA must recognise the Centre’s constitutional right to make laws pertaining to citizenship.

V Muraleedharan , [The writer is Minister of State for External Affairs and Minister of State for Parliamentary Affairs.]

“It’s nice to have an opinion about communism now, because once you’re living in it you don’t get to have an opinion about it,” renowned chess player Gary Kasparov tweeted recently. He was echoing dozens of others who before him have tried to hold a mirror to the pernicious ideology which has claimed millions of lives around the world.

It was amusing to read Kerala Chief Minister Pinarayi Vijayan’s article, ‘Of, by and for the Constitution’ (IE, January 18), given that in Kannur, Marxists are alleged to have murdered hundreds of nationalists and dozens of their own party men out of political vendetta. The party’s cadres are even alleged to have burnt down an entire herpetarium to settle intra-party scores.

An estranged comrade once claimed that Vijayan, in an earlier avatar as CPM party secretary, had advised party cadre to take lessons from West Bengal comrades on eliminating political rivals without leaving any proof. The party’s commitment to the Constitution and respect for democratic institutions can also be discerned from the contempt with which its leaders have treated the judiciary in the past. In 1970, the Supreme Court upheld the conviction of the late CPM stalwart, E M S Namboodiripad, for his remarks against the judiciary. In 1967, when Namboodiripad was Kerala CM, he called the judiciary “an instrument of oppression” and referred to judges as “dominated by class hatred and class prejudices”. More recently, prominent CPM Kerala leader M V Jayarajan was convicted for making offensive remarks against judges of the state’s high court.

Indian democracy is a product of the civilisational ethos which inspired the country’s independence movement. The Constitution reinforces this commitment and constitutional functionaries have an obligation to uphold it. When Article 1 of the Constitution declares that “India, that is Bharat, shall be a Union of States”, it recognises this civilisational character. For centuries, this land has given shelter to persecuted people from various parts of the world. The Citizenship (Amendment) Act, 2019 is another step towards fulfilling our civilisational commitment to shelter persecuted people. The Act also fulfills a commitment made under the Nehru-Liaquat pact of 1950.

I take this opportunity to dispel the misgivings about the CAA and refute the Goebbelsian propaganda that it’s based on religion. The CAA only relaxes the norms for granting citizenship to persecuted minorities from Pakistan, Bangladesh and Afghanistan. It applies to people from these communities who have been illegally living in India and sets a cut-off date of December 31, 2014. The Act reduces the naturalisation period from 11 years to five years.

It’s not that those belonging to the majority community in the three countries are denied Indian citizenship. Hundreds of them, including the likes of singer Adnan Sami, have been given Indian citizenship. For them, the period of naturalisation remains 11 years as stipulated by the Citizenship Act, 1955.

The CAA is based on a reasonable classification that takes into account religious persecution of the minorities in the three Islamic countries. It’s sad that the Kerala CM and his party find fault with a law which extends a helping hand to hapless souls, mostly Dalits, who stayed in Pakistan because of Dalit leaders like Jogendra Nath Mandal. Despite being Pakistan’s first law minister, Mandal was forced to come back to India. But the Dalits who stayed behind in Pakistan faced the brunt of religious persecution.

Vijayan’s opposition to the CAA only exposes the heartless politics of the Left and the Congress. But his arguments are not surprising given the record of the Left in India and across the world. It was a Left regime that oversaw the Marichjhapi massacre, described as one of the worst human rights violations in independent India. The Marxist government in West Bengal unleashed violence leading to the death of Hindu refugees from Bangladesh who had settled in the Sunderbans.

Instead of implementing the CAA — which every state is mandated to under Article 256 of the Constitution — the Kerala government has chosen to challenge it before the Supreme Court under Article 131. The Article is meant to be invoked only for disputes between the Centre and states. It can also be invoked “in case of a dispute between the Centre and any state or states, on one side and one or more other states on the other or between two or more states, if and in so far as the dispute involves any question (whether of law or fact) on which the existence or extent of a legal right depends”.

What is the legal right that has been violated here? Entry 17 of the Union List under the Seventh Schedule refer to citizenship and naturalisation. Parliament alone is competent to enact laws on this subject. Federalism is a two-way street. States must respect the Centre’s (Parliament’s) rights.

I am glad that the Kerala CM has expressed concern about the country’s economy. But let’s not forget that Kerala’s lopsided economic policies and historic antipathy to industrialists has made the state into a zone which business outfits dread to venture into. Recently in Kannur, a young NRI businessman, Sajan Parayil, committed suicide after failing to get a convention centre built with his life’s savings opened. His family claimed Parayil was a victim of intra-party rivalry in the CPM. Earlier this month, the managing director of Muthoot Finance, George Alexander Muthoot, was attacked by miscreants, who stoned his car. The CPM’s trade union wing CITU was up in arms against the group over labour-related issues.

Vijayan has expressed concern for India’s image in the world. But this is nothing but hypocrisy given the manner in which alleged CITU goons troubled Nobel laureate Michael Levitt and his wife in the backwaters in Alappuzha district recently. A visibly upset Levitt has expressed his unhappiness in no uncertain terms.

Perhaps it’s time Vijayan first deals with the skeletons in his own closet and let Parliament do its duty.


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